मैक्डोनाल्ड् बर्गर

अर्थ जगत | कारोवॉर

क्या हुआ कि मैकडोनाल्ड्स और उसका एक पार्टनर बर्गर बेचते-बेचते आपस में काट खाने को दौड़ने लगे?

जानकारों का मानना है कि मैकडोनाल्ड्स और सीपीआरएल के बीच अविश्वास इस फ़साद की जड़ है और इससे दोनों को नुकसान हो रहा है

अनुराग भारद्वाज | 13 अप्रैल 2018 | फोटो : पिक्सल्स डॉटकॉम

यह जून 2017 की बात है. दिल्ली में बर्गर प्रेमी एक दिन भौंचक्के रह गए जब उन्हें मैकडोनाल्ड्स के आउटलेट्स बंद मिले. उस दिन शहर भर में 43 आउटलेट्स बंद थे. इसकी वजह यह थी कि कंपनी और उसके एक पार्टनर, विक्रम बख्शी, के बीच झगड़ा हो गया था. इन दोनों के बीच हुए ‘कारोवॉर’ की शुरुआत 2008 में ही हो गयी थी. आख़िर ये दोनों क्यों लड़े, यह समझने के लिए ज़रा पीछे चलते हैं.

मैकडोनाल्ड्स की भारत में शुरुआत

1995 में विश्व की सबसे बड़ी बर्गर चेन मैकडोनाल्ड्स (मैक्डी) ने एक नए बिज़नेस मॉडल के साथ भारत के बाज़ार में एंट्री मारी थी. उसने भारत को चार हिस्सों में बांटा और दो कंपनियों के साथ अलग-अलग क़रार करके उनके साथ बराबर की साझेदारी में बर्गर बेचने का व्यवसाय शुरू किया.

अमित जटिया की हार्डकैसल रेस्टोरेंट्स को पश्चिम और दक्षिण में मैक्डी रेस्टोरेंट की श्रृंखला शुरू करने का ज़िम्मा मिला और विक्रम बख्शी की कनॉट प्लाज़ा रेस्टोरेंट्स लिमिटेड (सीपीआरएल) ने उत्तर और पूर्व की कमान संभाली. यह बिज़नेस मॉडल मैक्डी के परंपरागत मॉडल से अलग था. परंपरागत मॉडल में मैक्डी एक स्थानीय पार्टनर चुनता है, उससे एक लाइसेंस फ़ीस और बर्गर, फ्रेंच फ्राइज़ आदि बनाने की विधि और काम आनेवाले उपकरणों के बदले एक निश्चित रॉयल्टी वसूली जाती है. इसे फ्रेंचाइज़ी मॉडल कहते हैं. हिन्दुस्तान में उस वक़्त फ़ास्ट फ़ूड का चलन नहीं था, मुनाफ़े की संभावनाएं कम थीं. ज़ाहिर था कि ऐसे में कोई भी फ्रेंचाईजी लेने में इच्छुक नहीं होता.

क्या मैकडोनाल्ड्स का मुख्य व्यवसाय बर्गर बेचना है?

जी नहीं. इसका मुख्य व्यवसाय प्रॉपर्टी है. मैकडोनाल्ड्स के पास दुनिया भर में अच्छी जगहों पर आउटलेट्स हैं और आज की तारीख में यह करीब दो लाख करोड़ रुपये की रियल एस्टेट कंपनी है! आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इसकी आय का मुख्य ज़रिया अपने उत्पादों से मिलनी वाली रॉयल्टी नहीं बल्कि वह वैसा है जो यह दुनिया भर में प्राइम लोकेशन पर ख़रीदी गयी जगहों को अपने फ्रेंचाइज़ियों को किराए पर देकर वसूलती है.

जानकारों के मुताबिक़ कंपनी अपने हर फ्रेंचाइज़ी से सालाना औसतन डेढ़ लाख डॉलर कमाती है. इस कमाई का लगभग 22 फीसदी हिस्सा किरायों से आता है. 2017 के आंकड़ों के मुताबिक़ कंपनी के पास दुनिया भर में लगभग 36,000 आउटलेट्स थे.

विक्रम बख्शी कौन हैं?

मैकडोनाल्ड इंडिया प्राइवेट लिमिटेड यानी एमआईपीएल से क़रार करने से पहले, विक्रम बख्शी प्रॉपर्टी व्यवसाय से जुड़े हुए थे. उत्तर भारत में उनका अच्छा ख़ासा नाम था. दिल्ली के पास मानेसर और करनाल में उन्होंने कुछ मॉल और होटल भी बनाये थे. ये वही विक्रम बख्शी हैं, जो लंदन की मैडम तुसाद कंपनी के साथ मिलकर भारत में मोम वाले संग्रहालय खोल रहे हैं. कुछ ही समय में बख्शी ने उत्तरी और पूर्वी भारत में लगभग 184 मैकडोनाल्ड्स आउटलेट्स खोल दिए और भारत में एमआईपीएल का चेहरा बन गए.

2020 तक के लिए हुए क़रार में सब कुछ ठीक चल रहा था, कि 2010 के आसपास समीकरण बदलने लगे. हुआ यह कि 2008 में एमआईपीएल ने अमित जाटिया की हार्डकैसल रेस्टोरेंट्स को अपनी पूरी हिस्सेदारी बेचकर उसे पश्चिम और दक्षिण भारत का फ्रेंचाइज़ी बना दिया था. वहीं, विक्रम बख्शी के साथ उसने उल्टा खेल खेला. उसने बख्शी की तमाम हिस्सेदारी को ख़रीदने की पेशकश कर दी. बख्शी, हतप्रभ रह गये. उन्होंने मना कर दिया, फिर क्या था? ‘कारोवार’ शुरू हो गया.

बख्शी बोले, ख़रीदना है तो सही क़ीमत लगाओ

अगस्त 2008 में एआईपीएल ने बख्शी की कनॉट प्लाज़ा रेस्टोरेंट्स लिमिटेड को उसकी हिस्सेदारी ख़रीदने के लिए 50 लाख अमेरिकी डॉलर की पेशकश की. फिर उसी साल नवंबर में यह रकम बढ़ाकर 70 लाख डॉलर कर दी गई. विक्रम बख्शी को यह कम लगी.

लगती भी क्यों नहीं! आख़िर 13 साल की मेहनत और उस वक्त 70 आउटलेट्स वाली सीपीआरएल का इतना कम मूल्यांकन ग़लत था. सो उन्होंने कंपनियों का मूल्यांकन करने वाली विदेशी फर्म, ग्रांट थोर्टन, को उनकी कंपनी की सही कीमत मालूम करने का ज़िम्मा दिया. कॉरपोरेट की भाषा में इसे वैल्यूएशन कहते हैं.

ग्रांट थोर्टन के मुताबिक़ एमआईपीएल और कनॉट प्लाज़ा रेस्टोरेंट्स लिमिटेड की कुल क़ीमत लगभग 33 करोड़ अमेरिकी डॉलर थी. टैक्स और कंपनी पर क़र्ज़ हटाने के बाद अगर एमआईपीएल बख्शी की पूरी हिस्सेदारी ख़रीदती है, तो उसे लगभग 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर देने पड़ते! मैकडोनाल्ड्स ने इसे ख़ारिज कर दिया.

कंपनी ने बख्शी को मैनेजिंग डायरेक्टर के पद से हटा दिया

2013 में एमआईपीएल ने विक्रम बख्शी को मैनेजिंग डायरेक्टर के पद से हटाने का प्रस्ताव रख दिया. इससे कंपनी के दो डायरेक्टर तो सहमत थे और दो नहीं. यानी बख्शी और कंपनी, दोनों के पक्ष में डायरेक्टर बराबर बंट गए. चूंकि बख्शी को पद पर बने रहने के लिए बहुमत नहीं मिला तो उन्हें हटना पड़ा.

बख्शी ने कंपनी लॉ बोर्ड (सीएलबी) में क़रार की शर्त, जिसमें उन्हें मैनेजिंग डायरेक्टर बनाना तय था, का हवाला देकर याचिका दायर कर दी. उन्होंने कंपनी पर उन्हें ज़ोर-ज़बरदस्ती करके उन्हें पद से हटाने का इल्ज़ाम लगाया. दोनों के बीच हुए क़रार में यह भी तय था कि अगर बख्शी मैनेजिंग डायरेक्टर नहीं रहते हैं, तो उन्हें अपने हिस्से को एमआईपीएल को बेचना होगा.

जब बख्शी ने जटिया पर उनके ख़िलाफ़ साज़िश करने का आरोप लगाया

दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर एक के बाद एक, कई इल्ज़ाम लगाए. मैकडोनाल्ड्स ने बख्शी को कंपनी के सात करोड़ रुपये ख़ुद की एक अन्य फर्म में ट्रांसफर करने और अन्य व्यवसायों पर ध्यान लगाने जैसे आरोप लगाये. उधर, विक्रम बख्शी ने इस पूरे प्रकरण में अमित जाटिया का हाथ बताया. उन्होंने कहा कि मैकडोनाल्ड उनके हिस्से को ख़रीदकर जटिया को बेचने की साज़िश कर रही है. उन्होंने अमित जाटिया और कंपनी के बीच हुए सौदेबाज़ी पर सवाल खड़े कर दिए. उन्होंने कहा कि एक तरफ़ सीपीआरएल के मुनाफ़े में होने के बावजूद उसे बाज़ार से क़र्ज़ लेने पर मनाही थी. वहीं जटिया की कंपनी के साथ ऐसी कोई पाबंदी नहीं थी.

जब दिल्ली के मैक्डी आउटलेट्स बंद हो गये

जैसा शुरुआत में जिक्र हुआ, जून 2017 में दिल्ली सरकार ने कुल 55 मैकडोनाल्ड्स आउटलेट्स में से 43 अचानक बंद कर दिए थे. कारण, इनका फ़ूड लाइसेंस नवीनीकरण नहीं हुआ था.

उस दिन यह ख़बर राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खी बन गयी. है न ताज्जुब की बात? कहां तो 1995 में कोई इस काम को लेने को राज़ी नहीं था और कहां अब ये राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया था. भारत में फ़ास्ट फ़ूड ने अपने पैर जमा लिए थे. मामले ने तूल पकड़ लिया.

मैकडोनाल्ड और बख्शी अब खुल्लम-खुल्ला झगड़ने लगे

पिछले साल सितंबर में मैकडोनाल्ड्स कंपनी ने बख्शी की सीपीआरएल कंपनी को मैक्डी का चिरपरिचित लोगो और बौद्धिक संपदा का इस्तेमाल करने से रोक दिया और उसके साथ हुए सभी क़रार ख़त्म कर दिये. बख्शी द्वारा संचालित 169 आउटलेट्स पर अब बंद होने और उनमें काम करने वाले लगभग 10 हज़ार कर्मचारियों की नौकरियों के चले जाने का ख़तरा मंडराने लगा.

अपनी सफाई में मैकडोनाल्ड ने कहा कि सीपीआरएल ने पिछले दो सालों से कंपनी को उसके उत्पाद इस्तेमाल करने के एवज़ में दी जाने वाली रॉयल्टी नहीं दी है, लिहाज़ा उसे क़रार रद्द करना पड़ा. विक्रम बख्शी ने सफ़ाई पेश करते हुए कहा कि रॉयल्टी की रकम से पुराने कर्ज़ को उतारे जाने का प्लान था.

जानकारों का मानना था कि एक दूसरे में अविश्वास ही इस पूरे फ़साद की जड़ बना. एक समय ऐसा आया जब दोनों कंपनियां नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी), राष्ट्रीय कंपनी अपील प्राधिकरण, लन्दन कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन, दिल्ली उच्च न्यायलय और सुप्रीम कोर्ट में लड़ रही थीं.

फ़िलहाल क्या हालात हैं

दोनों में कोई भी टस से मस नहीं हो रहा था. तभी, एनसीएलटी ने बीते साल जुलाई में मैकडोनाल्ड्स कंपनी को आदेश देकर बख्शी को मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर बहाल करने और उसे बख्शी की कंपनी में दखलंदाज़ी न करने का हुक्म सुना दिया. एनसीएलटी ने बख्शी के हटाये जाने को द्वेषतापूर्ण कार्यवाही माना. साथ ही उसने सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज को सीपीआरएल पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया.

वहीं, दूसरी तरफ़ लंदन कोर्ट ने मध्यस्थता करते हुए विक्रम बख्शी को उनकी हिस्सेदारी मैकडोनाल्ड्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को बेचने का फ़ैसला सुना दिया है. इस बीच, विक्रम बख्शी ने बंद हुए 43 आउटलेट्स में से 37 दुबारा शुरू कर दिए हैं.

जानकारों का मानना है कि इस झगड़े से दोनों ही को नुकसान हो रहा है. इसलिए समझदारी दिखाते हुए दोनों पक्षों को इस मसले को कोर्ट और प्राधिकरण के बाहर सुलझा लेना चाहिए. विक्रम बख्शी ने तो पहल भी की पर एमआईपीएल ने मना कर दिया. खैर, फिलहाल तो कुछ दिनों से कोई गहमा-गहमी नहीं हुई है पर हो सकता है यह आने वाले तूफ़ान से पहले की ख़ामोशी हो.

चलते-चलते

मैकडोनाल्ड्स की शुरुआत 1940 में अमेरिका के शहर कैलीफ़ोर्निया में रिचर्ड और मौरिस मैकडोनाल्ड नाम के दो भाइयों ने की थी. उसके 22 साल बाद एक बुत उनके आउटलेट्स के बाहर नज़र आने लगा. अरे, वही जिसकी बगल में बैठकर खिंचवाई तस्वीरों पर आपको फेसबुक पर तमाम लाइक्स मिले हैं. पर, कभी आउटलेट में जाकर पूछा कि ये साहब कौन हैं? इनका नाम है, रोनाल्ड मैकडोनाल्ड्स. नहीं नहीं, ये संस्थापकों के कोई रिश्तेदार नहीं थे. दरअसल, ये 1962 में अस्तित्व में आए जब कंपनी ने बर्गर को बच्चों में लोकप्रिय करने के लिए इनका सहारा लिया. एक सर्वे के मुताबिक़ यह सांता क्लॉस के बाद दूसरा सबसे चर्चित क्लाउन (विदूषक) है.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022