माना जाता है कि टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के बीच हुई इस जंग ने देश में मीडिया का चेहरा बदल दिया
Anurag Bhardwaj | 29 March 2018
कारोबारी जंगें सामरिक और राजनीतिक लड़ाइयों से कम दिलचस्प नहीं होतीं. आज हम ऐसी ही एक जंग का ज़िक्र करेंगे जो कलम के मोर्चे पर लड़ी गयी थी. आज के ‘कारोवॉर’ में देश के दो बड़े अखबारों, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया (टीओआई) और हिन्दुस्तान टाइम्स (एचटी) के बीच हुए महायुद्ध की दास्तान है. यह जंग दिल्ली फतह करने के लिए लड़ी गई थी.
शुरुआत
हिंदुस्तान में अखबार संस्कृति अंग्रेज लाये. 1780 में कलकत्ता में पहले अखबार ‘हिक्कीस बंगाल गजट’ की स्थापना हुई. तीन नवंबर 1838, को 11 ब्रिटिश फ़र्मों ने मिलकर ‘द टाइम्स एंड जर्नल ऑफ़ कॉमर्स’ की मुंबई में स्थापना की जो बाद में ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ कहलाया. इसके पहले एडिटर थे, डॉ जेई ब्रेन्नन. 1892 में थॉमस बेन्नेट बतौर एडिटर टीओआई के साथ जुड़े. बाद में उन्होंने कारोबारी फ्रैंक मोरिस कोलमैन के साथ पार्टनरशिप की और इस तरह बेनेट एंड कोलमैन कंपनी लिमिटेड (बीसीसीएल) की स्थापना हुई.
उधर, 26 सितंबर, 1924 को अकाली नेता सरदार सुंदर सिंह लायलपुरी ने ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की स्थापना की. सुंदर सिंह पंडित मदन मोहन मालवीय के करीबी थे लिहाज़ा महात्मा गांधी ने इसकी शुरुआत के मौके पर हुए कार्यक्रम में हिस्सा लिया था. पहला एडिशन नया बाज़ार, दिल्ली से निकला.
कैसे 15 किलोमीटर दूर पैदा हुए दो मारवाड़ी इनके मालिक बने
1946 में चिडावा (झुंझुनू) के तेज़तर्रार मारवाड़ी रामकृष्ण डालमिया ने ‘द स्टेट्समैन’ अख़बार के भूतपूर्व एडिटर सर ऑर्थर मूर को लंदन भेजा. उनका काम बीसीसीएल के मालिकों से मुलाकात कर उन्हें कंपनी बेचने को राज़ी करना था. बताते हैं कि इसके बाद वे अखबार के मैनेजिंग डायरेक्टर सर पियरसन से मिले और दो करोड़ रुपये से कुछ कम में इसे ख़रीद लिया. बाद में डालमिया की बेटी रमा जैन के ससुराल वाले यानी बिजनौर, उत्तर प्रदेश का साहू-जैन परिवार इसका मालिक बन गया.
वहीं, एचटी से जुड़े मशहूर इतिहासकार कवलम माधव पणिक्कर और महात्मा गांधी के बेटे, दामोदर गांधी अखबार का सर्कुलेशन कुछ ख़ास नहीं बढ़ा पाए. इसके बंद होने की नौबत आ गयी. तब यह अखबार आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभा रहा था. महात्मा गांधी प्रेस की अहमियत समझते थे. संभव है कि इसके बंद होने का ख़तरा देख उन्होंने ही महामना को पिलानी (झुंझुनू) के घनश्याम दास बिरला से मिलवाकर इसे ख़रीदने को राज़ी करवाया हो. जीडी बाबू प्रखर राष्ट्रवादी थे और अखबार का कलेवर भी ऐसा ही था, सो बात बन गयी. चिडावा और पिलानी की दूरी सिर्फ़ 15 किलोमीटर की है. आज टीओआई के मालिक समीर जैन हैं और एचटी की मालिकन हैं केके बिरला समूह की शोभना भरतिया.
आगे बढ़ने की कहानी
टीओआई और एचटी, दोनों ही अंग्रेजी के अखबार थे. पर बिना हिंदी संस्करण के हिंदुस्तान में पैर जमाना आज की तरह तब भी संभव ही नहीं था. सो, बीसीसीएल ने ‘नवभारत टाइम्स’ शुरू किया और एचटी ने ‘हिंदुस्तान’ नाम से हिंदी अखबार निकाला. अर्थव्यवस्था से जुड़ी ख़बरों के लिए एक ने ‘इकनॉमिक टाइम्स’ निकाला तो दूसरे ने ‘मिंट’ और फिर कई हिंदी और इंग्लिश की मैगजीनें. पर यहां हम बात सिर्फ अखबारों की करेंगे.
तो बात यह हुई कि एक अखबार मुंबई से छप रहा था और दूसरा दिल्ली से. अब जो जहां का है, वहां तो लीडरी की हालत में ही होगा. सो, जब ‘80 के दशक के मध्य में बीसीसीएल ने दिल्ली फ़तेह का फ़ैसला किया, तो बताया जाता है कि वहां एचटी की ढाई लाख प्रतियों के मुकाबले उसकी संख्या सिर्फ एक लाख थी. टीओआई ने इस बादशाहत को खत्म करने के लिए खूब जतन किए.
अब दिल्ली दूर नहीं
संगीता पी मेनन मल्हन अपनी किताब ‘दी टीओआई स्टोरी’ में लिखती हैं, ‘एचटी दिल्ली के लोगों की आदत थी…अखबार 30 सालों से एकछत्र राज कर रहा था.’ ज़ाहिर है इस आदत को तोड़ने के लिए बीसीसीएल को काफी कुछ नया करने की ज़रूरत थी.
वे आगे लिखती हैं कि समीर जैन ने एचटी को चुनौती देते हुए ‘पर्सनल कांटेक्ट कैंपेन’ की शुरुआत की जिसमें ग्राहकों को एक हफ़्ते के लिए अखबार की फ्री कापियां दी गयीं. और जो इसके सब्सक्रिप्शन के लिए राज़ी हुए, उन्हें एक महीने फ्री अखबार दिया गया.
दूसरा, एचटी के पास किसी भी अखबार की तुलना में ज़्यादा विज्ञापन थे. इतने कि उसके पास जगह कम रहती थी. दिल्ली के व्यापारी और लोग इन्हीं विज्ञापनों की वजह से उसे ख़रीदते भी थे. संगीता मेनन लिखती हैं कि समीर जैन ने इसकी काट के लिए टीओआई और नवभारत टाइम्स की विज्ञापन दरों को मिलाकर एक रेट कार्ड बनावाया और व्यापारियों को दिया. इसका फ़ायदा यह था कि किसी व्यापारी को अगर टीओआई में विज्ञापन देना होता, तो इसके साथ कुछ थोड़ी सी और रक़म देकर नवभारत टाइम्स के भी पाठकों तक उसका विज्ञापन पहुंच सकता था.
तीसरा, बीसीसीएल ने दिल्ली एडिशन का कलेवर बदलने की रणनीति अपनाई. एक अध्ययन में कंपनी ने पाया कि दिल्लीवासियों की नज़र में एचटी संजीदा और राजनैतिक ख़बरों से लबरेज़ अखबार था. बीसीसीएल ने फ़ैसला किया कि टीओआई को नौजवानों की पसंद का अखबार बनाया जाए. इसके लिए पहली बार रंगीन और चमकीला कागज़ इस्तेमाल में लाया गया. इसके साथ ही एक जो नयी चीज़ दिल्ली वालों को पेश की गयी वह थी, पेज 3 संस्कृति.
इसमें शहर के नामचीन लोगों की रंगीन जिंदगी अखबार में लाई गयी. फ़िल्म और उससे जुड़े लोगों के क़िस्से चटखारों के साथ पेश किये गए. शनिवार के दिन ‘सैटरडे टाइम्स’ सप्लीमेंट शुरू किया गया जिसमें बेहतरीन खाना, फ़ैशन, ग्लैमर की बातें थीं. एचटी के पन्ने इन सब बातों से महरूम थे. धीरे-धीरे दिल्लीवासी टीओआई को इन बातों के लिए पसंद करने लगे. ‘सैटरडे टाइम्स’ की सफलता ने एचटी को भी ‘मेट्रोपॉलिटन’ नाम से सप्लीमेंट शुरू करने पर मजबूर किया. इसके बाद टीओआई ने नौकरी बुधवार के दिन नौकरियों से जुड़ा ‘एसेंट’ नाम का सप्लीमेंट शुरू किया जो काफी हिट हुआ. इसके जवाब में एचटी ने ‘शाइन जॉब्स’ सप्लीमेंट शुरू किया
लड़ाई गरमाने लग गयी थी. फिर एक दिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अपने अखबार के कार्टून सेक्शन में एचटी को अंडानुमा ‘हम्प्टी- ढम्प्टी’ बनाकर छाप दिया. हिंदुस्तान टाइम्स प्रबंधन मामले को प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया में ले गया और बीसीसीएल से माफ़ी मांगने को कहा. बचाव में बीसीसीएल के वकीलों ने दलील पेश करते हुए कहा कि यह सिर्फ मज़ाक था और टीओआई को भी 1915 में ‘द क्रॉनिकल’ नामक अखबार के एडिटर बीजी हॉर्निमन ने ‘बोरी बंदर की बुढ़िया’(मुंबई में एक जगह जहां पहले टीओआई का दफ़्तर था) कहकर मज़ाक किया था जिसका उन्होंने कभी बुरा नहीं माना.
समीर जैन यहीं नहीं रुके. संपादकीय विभाग में निरंतर बदलाव करते हुए उन्होंने संपादकों को मार्केटिंग के हिसाब से सोचने पर मजबूर किया. उनका मानना था कि अखबार विज्ञापन दिखाने का माध्यम है, जहां जगह खाली रह जाती है वहां ख़बरें छापी जाती हैं. कहते हैं कि इस सोच से उनके कई संपादक नाराज़ हुए पर उन्होंने किसी की नहीं सुनी. भारी भरकम रसूख़ रखने वाले एडिटरों की छुट्टी की गयी और उनको लाया गया जो समीर जैन की सोच से इत्तेफ़ाक रखते थे. उनका मानना था कि अखबार भी एक व्यापार है और इसे व्यापार के तरीके ही चलाना चाहिए. हालात इस कदर बदल चुके थे कि चर्चित लेखक खुशवंत सिंह, जो एचटी में एक समय पर संपादक थे, ने एक आर्टिकल में लिखा था, ‘आपको टाइम्स ऑफ़ इंडिया के किसी एडिटर का नाम याद है?’
मार्च 1994 में समीर जैन का टाइम्स ऑफ़ इंडिया के दाम दो रुपये नब्बे पैसे से गिराकर डेढ़ रुपये करना एचटी पर सबसे बड़ी चोट थी. इस रणनीति ने एचटी को बैकफुट पर ला खड़ा कर दिया. दोनों के बीच सर्कुलेशन का फ़ासला कम हो गया.
अंजाम क्या हुआ?
इस दौरान पूरे देश भर में दोनों अखबारों ने अपने-अपने दफ़्तर खोले. एचटी ने बीसीसीएल के गढ़ मुंबई पर हमला बोला पर वह नाकामयाब रहा. ऑडिट ब्यूरो ऑफ़ सर्कुलेशन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ टाइम्स ऑफ़ इंडिया का कुल सर्कुलेशन लगभग 32 लाख है और एचटी का क़रीब 12 लाख. ज़ाहिर है, टीओआई ने काफ़ी बढ़त बना ली है. उसका शुमार दुनिया के बड़े अखबारों में है. इसके पीछे समीर जैन का अथक प्रयास है. जानकारों का मानना है कि समीर जैन ने देश में मीडिया का चेहरा बदल दिया है. पर तमाम कोशिशों के बाद भी दिल्ली के लोगों ने एचटी को ज़्यादा तवज्जो दी है. शायद समीर जैन अब भी कहते होंगे, ‘मेरा काट कलेजा दिल्ली.’
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