तकनीक की दुनिया के दो दिग्गजों माइक्रोसॉफ्ट और गूगल के बीच मार्केट शेयर, ब्राउज़र या ऑपरेटिंग सिस्टम से ज्यादा क़ाबिल लोगों को जीतने की होड़ है
Anurag Bhardwaj | 07 June 2020
1998 में गूगल पैदा हुआ था. तब तक माइक्रोसॉफ्ट 33 साल पुरानी कंपनी हो चुकी थी और किसी बरगद सरीखी भी. उस साल पहली बार माइक्रोसॉफ्ट की आय साढ़े चौदह हज़ार करोड़ डॉलर हुई थी और इसमें साढ़े चार हज़ार करोड़ डॉलर शुद्ध मुनाफ़ा था. वह एक वैश्विक कंपनी बन चुकी थी और उसे टक्कर देना कोई मज़ाक नहीं था. वैसे गूगल के संस्थापक- लैरी पेज और सेर्गे ब्रिन ऐसा करना भी नहीं चाहते थे, लेकिन टेक्नॉलॉजी पर पकड़ रखने और बेहतर बनने की चाह में दोनों कंपनियां आमने-सामने आ गईं.
टैलेंट हथियाने की जंग
डेविड वाइस ने गूगल पर क़िताब लिखी है. द गूगल स्टोरी नाम की इस किताब के मुताबिक 2003 में बिल गेट्स समझ गए थे कि आनेवाले दिनों में गूगल वही सब तकनीक विकसित करेगा तो भविष्य में माइक्रोसॉफ्ट करेगा. बिल गेट्स ने अहम मैनेजरों को ईमेल लिखकर गूगल पर निगाह रखने को कहा और ताकीद की कि अपने अहम कर्मचारियों को कंपनी से न जाने दिया जाए.
गूगल के सीईओ एरिक श्मिड्ट ने टीम बनाने के लिए यहां-वहां, दाएं-बाए सब तरफ से होशियार इंजीनियर उठाने शुरू कर दिए. हालात ऐसे हो गए कि एपल, अडोबे, गूगल और इंटेल को एक दूसरे के कर्मचारी न लेने का करार करना पड़ा.
डेविड वाइस लिखते हैं कि असल जंग न मार्केट शेयर की थी, न ब्राउज़र की और न ही ऑपरेटिंग सिस्टम की. असल जंग थी- तेज़ दिमाग और होशियार लोगों को अपने साथ मिलाने की जो आने वाले इंटरनेट युग में बड़ी से बड़ी समस्या का हल निकाल पाने में सक्षम हों.
एरिक श्मिड्ट ने यूनिवर्सिटी कैम्पसों में जा-जाकर बड़े ही बेहूदे तरीके से गूगल को माइक्रोसॉफ्ट से हर लिहाज़ में बेहतर बताया. गूगल को जवान और माइक्रोसॉफ्ट को एक विशालकाय बुड्ढे और पिछलग्गू कंपनी की उपमा दी.
जब गूगल ने पहली बार माइक्रोसॉफ्ट को सबसे बड़ी मात दी
यह बात दिसंबर 2005 की है जब माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और याहू चर्चित अमेरिकी कंपनी अमेरिका ऑनलाइन (एओएल) का बिज़नेस आर्डर लेने के लिए एक दुसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे. अमेरिका ऑनलाइन गूगल सर्च इंजन का इस्तेमाल करता था. उस साल दोनों के बीच यह क़रार ख़त्म होने वाला था. माइक्रोसॉफ्ट का जीतना बिलकुल तय था, तब गूगल ने सारे समीकरण पलटते हुए एक हज़ार करोड़ अमेरिकी डॉलर का आर्डर हथिया लिया.
आउटलुक बनाम जी-मेल का टकराव जो अप्रैल फ़ूल वाले दिन शुरू हुआ
1996 में सबीर भाटिया और जैक स्मिथ ने हॉटमेल की स्थापना की थी. यह पहली ई-मेल व्यवस्था थी जो इंटरनेट सर्विस प्रदाता की पाबंदियों से आज़ाद थी. मुफ़्त होने के कारण हॉटमेल मंझोले व्यापारियों और छात्रों में ख़ासी लोकप्रिय ई-मेल व्यवस्था थी. इसके 90 लाख सब्सक्राइबर थे. माइक्रोसॉफ्ट ने 40 करोड़ डॉलर में इसे ख़रीद लिया था. सबीर भाटिया रातों रात अरबपति बन गए थे.
माइक्रोसॉफ्ट ने हॉटमेल में कुछ बदलाव करके इसे एमएसएन हॉटमेल और बाद में आउटलुक के नाम से जारी किया. पर इसमें कुछ खामियां थी जैसे मेलबॉक्स की कम क्षमता और कई बार इसे हैकरों इसके साथ खिलवाड़ भी किया था
पहली अप्रैल, 2004 को गूगल ने जी-मेल की शुरुआत की. जब लैरी पेज ने घोषणा की कि इसमें मेल रखने के लिए एक जीबी की क्षमता होगी जो हॉटमेल से पांच सौ गुना ज़्यादा होगी, तो लोगों को लगा कि गूगल ‘अप्रैल फूल’ बना रहा है. पर यह हकीक़त थी. त्वरित सर्च, ज़्यादा स्टोरेज क्षमता और तेज़ इंटरफ़ेस ने इसे रातों-रात लोकप्रिय बना दिया. और सबसे ख़ास बात थी इसकी स्टोरेज क्षमता जो शायद क्लाउड आधारित सेवा का पहला नमूना थी.
जी-मेल के जनक पॉल बुहेइट ने एक इंटरव्यू के दौरान बताया था कि प्रोजेक्ट को गोपनीय रखने के लिए इसको एक कोडवर्ड भी दिया गया था- कैरिबू. शुरुआत में साथियों ने जी-मेल को एक ग़लती कहा था. गूगल उस वक़्त अपना सारा ध्यान और उर्जा सर्च इंजन पर लगा रही थी और ईमेल के क्षेत्र में हॉटमेल और याहू बड़े नाम थे. यहां तक कहा गया था कि जी मेल शुरू करके कंपनी माइक्रोसॉफ्ट से दुश्मनी मोल ले रही है जो गूगल को खा जायेगी.
लेकिन लैरी पेज और सेर्गे ब्रिन आश्वस्त थे. कम लोगों को मालूम है कि भारतीय मूल के सॉफ्टवेयर इंजीनियर संजीव सिंह का जी-मेल को विकसित करने में अहम योगदान था. जी-मेल लोकप्रिय होती गई. इसके साथ विवाद भी जुड़ते गए. जैसे इस पर सब्सक्राइबर की मेल को पढ़कर विज्ञापन भेजने का इल्ज़ाम लगाया गया. यह मामला अमेरिका के न्यायालय तक पहुंच गया.
उधर, माइक्रोसॉफ्ट ने अप्रैल 2010 में ‘ऑफिस 365’ जारी किया जो ईमेल के अलावा बाकी की सुविधायें भी दे रहा था. ‘ऑफिस 365’ को लोकप्रिय बनाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट ने एक विज्ञापन जारी किया जो जी-मेल द्वारा सब्सक्राइबर्स की ताका-झांकी को दिखाता था.
इन बातों का जी-मेल की लोकप्रियता पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा. 2017 में जारी गैर-आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से जी मेल ने 59 फीसदी बाज़ार पर कब्ज़ा कर लिया था.
गूगल सर्च इंजन बनाम बिंग और याहू का बीच में फंसना
गूगल ने तो शुरुआत ही सर्च इंजन बनाकर की थी. गूगल के पहले याहू, आस्कजीव्स और माइक्रोसॉफ्ट का एमएसएन जैसे कई और भी सर्च इंजन थे. लेकिन कोई भी इन्हें बहुत अहमियत नहीं देता था. याहू को तो 1997 में ही गूगल को खरीदने का मौका मिला था. वह 10 लाख डॉलर में गूगल को खरीद सकती थी, लेकिन उसने यह कहकर यह मौका ठुकरा दिया कि वह नहीं चाहती कि लोग याहू से कहीं और जाएं. उधर, माइक्रोसॉफ्ट को सर्च इंजन की व्यापारिक उपयोगिता पर ही संशय था. गूगल सर्च ने अपने बिज़नेस मॉडल से उसकी सोच बदल दी. सर्च अब बड़ी चीज हो गई थी. 2000 के दशक के शुरुआती सालों में ही गूगल, सर्च का पर्याय बन गया.
अब माइक्रोसॉफ्ट सर्च इंजन के क्षेत्र में अपनी धाक बनाने के लिए एक सही मौके का इंतेज़ार कर रही थी. यह मौका उसे मिला 2008 के शुरूआती महीनों में. कंपनी के सीईओ स्टीव बाल्मर ने सिलिकॉन वैली में यह कहकर धमाका कर दिया कि माइक्रोसॉफ्ट याहू को ख़रीदकर सर्च इंजन के मायने ही बदल देगी. जब बाल्मर से पुछा गया कि क्या याहू के शेयरधारक इसे मंजूरी देंगे तो उन्होंने कहा, ‘दाम ऐसा होगा जिसे लोग मना नहीं कर पाएंगे.’
गूगल इस बार फंसती दिख रही थी क्योंकि याहू के शेयरधारक इस डील को तुरंत अंजाम तक जाता हुआ देखना चाहते थे. और अगर ऐसा हो जाता तो एक बार फिर वही ‘माइक्रोसॉफ्ट हमें खा जाएगा’ वाली बात शुरू हो जाती.
गूगल के लिए रास्ते बंद होते जा रहे थे. तब एरिक श्मिड्ट ने आख़िरी दांव खेला. याहू और गूगल के संस्थापकों में एक दूसरे के प्रति काफ़ी सम्मान था. याहू के सह-संस्थापक जेरी येंग ने लैरी पेज और सेर्गे ब्रिन को गूगल बनाने के लिए प्रोत्साहित किया था. बाद में जब गूगल सर्च इंजन का बोलबाला हो गया तो गूगल ने याहू सर्च इंजन की मदद की थी. फिर याहू और माइक्रोसॉफ्ट के बीच में रिश्ते भी तल्ख़ थे. ‘दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त’ वाली कहावत को याद करके गूगल और याहू ने हाथ मिला लिए. गूगल ने याहू को ऑफर दिया कि वह उसका एड सेंस इस्तेमाल करके मुनाफ़ा कमाये और इसके ज़रिये माइक्रोसॉफ्ट के हाथों में जाने से बचे. कुछ पशोपेश के बाद जेरी येंग इस प्रस्ताव पर राज़ी हो गए.
गूगल एक और चाल चली. कंपनी ने अमेरिका में यह ख़बर चलवा दी कि अगर माइक्रोसॉफ्ट और याहू का विलय होता है, तो यह इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों के लिए नुकसानदायक होगा क्योंकि माइक्रोसॉफ्ट का आकार बड़ा होने बाद उसका कारोबार पर गलत तरीके से एकाधिकार हो जाएगा. गूगल ने कई वक्तव्य भी जारी किये जिनमें कहा गया कि इंटरनेट की आजादी और अन्वेषण ख़तरे में है. गूगल ने अमेरिका के लोगों को याद दिलाया कि अमेरिका का न्याय विभाग माइक्रोसॉफ्ट को मोनोपॉलिस्ट मानता है.
उधर, गूगल से सहारा मिलने के बाद याहू ने कह दिया कि माइक्रोसॉफ्ट याहू की कीमत कम लगा रहा है. उस समय याहू के शेयर का भाव 19 डॉलर था, बेचारे माइक्रोसॉफ्ट ने 31 डॉलर का प्रस्ताव रखा था जो यकीनन काफ़ी ऊंचा था. खैर, इन सब बातों का नतीजा यह हुआ कि याहू माइक्रोसॉफ्ट के हाथों में आते-आते रह गई.
माइक्रोसॉफ्ट ने पासा बदला
जब माइक्रोसॉफ्ट के हाथ याहू नहीं आई, तो उसने 2009 में बिंग नाम से सर्च इंजन की शुरुआत की. तब तक गूगल सर्च काफ़ी आगे निकल चुका था. याहू के सीईओ जैरी येंग के जाने के बाद, माइक्रोसॉफ्ट ने पिछली ग़लती से सबक सीखते हुए, इस बार याहू को न ख़रीदकर उसके साथ भागीदारी करने की पेशकश की और कामयाब हो गयी. दरअसल, याहू हमेशा से ही किसी न किसी संकट से गुज़रती रहती थी, लिहाज़ा उसे किसी का साथ चाहिए होता था.
कहते हैं न व्यापार में न कोई पक्का दोस्त होता है, न कोई पक्का दुश्मन. पक्का है तो मुनाफ़ा. दोनों ने मिलकर कुछ इस तरह की भागीदारी की जिसमें विज्ञापन का बड़ा हिस्सा याहू को मिलने वाला था.
2015 में ये याहू ने गूगल के साथ भी भागीदारी कर ली. ताज़ा हालात ये हैं कि माइक्रोसॉफ्ट और याहू ने भी नयी डील कर ली है जिसके तहत माइक्रोसॉफ्ट अपने क्लाइंट और विज्ञापन संभालेगी और वही याहू अपने. यानी, साथ रहकर भी दोनों अपनी-अपनी रोटी खायेंगे.
जब गूगल ने बिंग पर जासूसी का इल्ज़ाम लगाया
2013 में सर्च इंजन की लड़ाई तब और भी तेज हो गयी जब गूगल ने साबित कर दिया कि बिंग गूगल सर्च के सर्च परिणामों की जासूसी कर रहा है. असल में माइक्रोसॉफ्ट ब्राउज़र टूलबार पर गूगल सर्च में डाले जाने वाले शब्दों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था. गूगल ने इसे साबित करने के लिए एक गलत शब्द बनाया और अपने सर्च इंजन पर डाल दिया. माइक्रोसॉफ्ट ने भी बिंग पर वही शब्द टीप लिया. इसके बाद तो दोनों एक दुसरे के कपडे ही फाड़ने लग गए. अख़बार से लेकर टेलीविज़न और फिर सोशल मीडिया पर भी दोनों ने एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
आज गूगल सर्च इंजन का बाजार पर एकाधिकार है. बिंग की भागेदारी महज़ सात फीसदी ही रह गयी है.
पर ठहरिये, यह मत समझ लेना कि सर्च इंजन में गूगल की बादशाहत हमेशा के लिए रहेगी. एक रिपोर्ट के हिसाब से रोज़ तकरीबन 650 करोड़ सर्च को अंजाम दिया जाता है और यह हर साल बढ़ रहा है.
यकीनन माइक्रोसॉफ्ट इतनी आसानी से हार नहीं मानेगा. गूगल को बिंग से आज भी उतना ही डर लगता है और इस बात का प्रमाण यह है कि एपल के ऑपरेटिंग सिस्टम आईओएस पर अपना सर्च इंजन रखने के लिए गूगल एपल को इस साल लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये देगा. यह इसलिए कि एपल माइक्रोसॉफ्ट के बिंग को अपना सर्च इंजन न चुन ले. माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नाडेला अपनी किताब ‘हिट रिफ्रेश’ में लिखते है कि आज बिंग मुनाफ़े वाला सर्च इंजन बन गया है और अमेरिका में सर्च के एक चौथाई बाजार पर उसका कब्ज़ा है.
गूगल के सर्च इंजन का एकाधिकार होने के पीछे कई कारणों में से एक है- स्मार्टफ़ोन का आम लोगों तक पंहुचना. माइक्रोसॉफ्ट बस यहीं पिछड़ गई.
वो कहते हैं न- ‘बदल जाओ, वरना बदल दिए जाओगे.’
यू ट्यूब को खरीदने पर मची खींचतान
वीडियो आने वाले समय में सबसे ज़्यादा देखने वाली चीज़ होगी इसका फ़ैसला 10 साल पहले ही हो गया था और तभी माइक्रोसॉफ्ट और गूगल में तब के सबसे बेहतरीन विकल्प यू ट्यूब को खरीदने की होड़ मच गयी थी. 2006 में जब यू ट्यूब की बोली लगाई जा रही थी तो गूगल ने लगभग पौने दो अरब अमरीकी डॉलर की बोली लगाकर इसे माइक्रोसॉफ्ट की पहुंच से दूर कर दिया था.
वह चीनी जो दो दोनों के गले की हड्डी बन गया
यह बड़ी शानदार कहानी है. डेविड वाइस ने ‘गूगल’ में इस किस्से को ‘चाइना सिंड्रोम’ के नाम से लिखा है. किस्सा कुछ यूं है. एक था काई-फ़ु-ली, चीनी जो 1998 से माइक्रोसॉफ्ट के साथ जुडा हुआ था. यu चीनी था बहुत होशियार. बिल गेट्स की नज़रों में इसकी बड़ी इज्ज़त थी. अमेरिका और चीन की सरकार के उच्च अधिकारीयों में उसकी अच्छी खासी पैठ थी. बीजिंग में इसने माइक्रोसॉफ्ट रिसर्च लैब की स्थापना की थी.
2005 में काई-फ़ु-ली भाई ने माइक्रोसॉफ्ट छोड़कर गूगल में जाने का मन बना लिया. गूगल उसे चीनी ऑपरेशन का हेड बना रही थी. जब उसने माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ स्टीव बाल्मर से इस बाबत ज़िक्र किया तो स्टीव ने पहले उसे समझाया और जब वो नहीं माना, तो बड़े प्यार से धमकाया और कहा, ‘देखो भइया, तुम हमारी कंपनी में बड़े पद पर काम कर रहे हो. तुम्हारे पास हमारी कंपनी की कई बड़ी जानकारियां हैं, जिन्हें तुम गूगल को दे सकते हो.’ उसे याद दिलाया कि कंपनी और उसके बीच कॉन्ट्रेक्ट है जिसके तहत वो माइक्रोसॉफ्ट छोड़ने की सूरत में एक साल तक के लिए किसी भी अन्य कंपनी में काम नहीं कर सकता. कॉन्ट्रेक्ट तोड़ने की सूरत में उसके ख़िलाफ़ कोर्ट में कार्यवाही की जायेगी. बाल्मर ने कहा, ‘अगर इस दौरान हमसे कुछ ऊंच नीच हो जाए तो दिल पर मत लेना यार. दुश्मनी तुमसे नहीं, गूगल से है, प्यारे.’
भाई साहब, काई-फ़ु-ली, ने बिल गेट्स की भी नहीं सुनी और माइक्रोसॉफ्ट छोड़कर गूगल की नौकरी पकड़ ली. बताते हैं कि स्टीव बाल्मर इस बात से गूगल पर इतना ख़फ़ा हुए कि भरी मीटिंग में कुर्सी उठाकर दे मारी और चिल्लाते हुए कहा, ‘मैं गूगल को बर्बाद कर दूंगा.’ मामला कोर्ट तक पहुंचा. कोर्ट ने माइक्रोसॉफ्ट की दलील मानते हुए काई-फ़ु-ली को एक साल तक के लिए गूगल में किसी भी महत्वपूर्ण पद पर काम करने से रोक दिया. बाद में तीनों पक्षों के बीच आपसी सुलह हो गयी.
विंडोज बनाम एंड्राइड
दोनों के बीच लडाई का अगला मैदान था– स्मार्टफ़ोन में काम आने वाला ऑपरेटिंग सिस्टम. माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम का निर्माण किया था तो गूगल ने एंड्राइड कंपनी को खरीदकर उसका ऑपरेटिंग सिस्टम जो कि ‘एंड्राइड’ के नाम से ही जाना जाता है, अपना लिया था. बेहद प्रतिष्ठित आईटी मैगज़ीन गार्टनर ने 2014 में कहा था कि आने वाले तीन सालों में विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम एपल के आईओएस को पीछे छोड़ देगा. इस साल अप्रैल में गार्टनर द्वारा ही जारी आंकड़ों से मालूम होता है कि 2016 की आख़िरी तिमाही में बेचे गए कुल स्मार्टफ़ोनों में से 99.6 फीसदी में या तो एंड्राइड है या आईओएस ऑपरेटिंग सिस्टम.
गार्टनर ने इस बार कोई भविष्यवाणी नहीं की है.
दोनों कंपनियों की खरीदारी
एक दूसरे को रोकने के लिए दोनों कंपनियां खरीदारी करने से भी नहीं चूक रही हैं. गूगल ने यू-ट्यूब, एंड्राइड, ब्लॉग्गिंग, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और क्लाउड कंप्यूटिंग पर काम करनेवाली कंपनियां ख़रीद ली हैं. उसने कुछ साल पहले मोटोरोला कंपनी को ख़रीदकर उसके 20000 पेटेंट अपने कब्ज़े में ले लिए थे. बाद में गूगल ने मोटोरोला को लेनेवो कंपनी को बेच दिया. दूसरी तरफ माइक्रोसॉफ्ट स्काइप, लिंक्डइन और नोकिया जैसी कंपनियां ख़रीद चुका है. दोनों कंपनियों की यह ख़रीदारी अभी चालू है.
‘सत्यम’ इंटरनेट ‘सुन्दरम’
अंततः, बात हिंदुस्तान पर आकर रुकती है. दोनों कंपनियों के लिए हिंदुस्तान सबसे अहम देश बन चुका है. दोनों कंपनियों में हिन्दुस्तानी मूल के सीईओ अपनी-अपनी क़ाबलियत का झंडा लहरा रहे हैं. जहां सुन्दर पिचाई के बाद गूगल की रफ़्तार में नयी तेज़ी आई है ,वहीं सत्या नाडेला के माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ बनने के बाद कंपनी के शेयर्स की कीमत दुगनी हो गयी है. दोनों ही क्लाउड कंप्यूटिंग को लेकर बेहद आक्रामक रवैया अपना चुके है. इससे ज़ाहिर है कि क्लाउड कंप्यूटिंग जंग का अगला मैदान साबित होने वाली है.
इस साल गूगल माइक्रोसॉफ्ट को पछाड़ देगी
अमेरिका में वित्त वर्ष की गणना एक अक्टूबर से लेकर 30 सितम्बर होती है. जानकार मानते हैं कि इस साल गूगल की आय माइक्रोसॉफ्ट की आय को पार कर जायेगी. यकीनन, 19 सालों में गूगल ने जो किया है वह हैरतंगेज़ है. कौन सोच सकता था कि दुनिया के सबसे अमीर आदमी की कंपनी भी एक दिन हार जायेगी और भी नौसिखियों से.
हालांकि यह भी सच है कि व्यापार में न जीत हमेशा रहती है और न हार. जानकारों के मुताबिक माइक्रोसॉफ्ट हार कर बैठ जाने वाली कंपनी नहीं है और उधर गूगल अपना मैदान नहीं छोड़ना चाहेगी. जंग एक बार फिर होगी, बल्कि रोज़ हो रही है. एक दूसरे को नेस्तनाबूद करने की धमकियां दी रही हैं. ऐसे में सुदर्शन फ़ाकिर के शेर की पंक्तियां याद आ जाती हैं.
‘क़त्ल की जब उसने दी धमकी मुझे, कह दिया मैंने भी देखा जाएगा.’
>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com