जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी तो पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी 9.48 और 3.56 रु प्रति लीटर हुआ करती थी. आज यह आंकड़ा 32.98 और 31.83 हो चुका है
विकास बहुगुणा | 08 फरवरी 2021 | फोटो: पिक्साबे
‘ये दिल्ली सरकार की शासन चलाने की नाकामयाबी का जीता-जागता सबूत है. देश की जनता के अंदर भारी आक्रोश है और इसके कारण और भी चीजों पर बहुत बड़ा बोझ होने वाला है. सरकार पर भी बहुत बड़ा बोझ होने वाला है. मैं आशा करूंगा कि प्रधानमंत्री जी देश की स्थिति को गंभीरता से लें और पेट्रोल के दाम बढ़ाए हैं उसको वापस करें.’
यह बयान नरेंद्र मोदी ने करीब आठ साल पहले तब दिया था जब पेट्रोल और डीजल के दामों में तेज बढ़ोतरी हो रही थी. तब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे और केंद्र में यूपीए की सरकार थी जिसके मुखिया मनमोहन सिंह थे. उस वक्त केंद्र सरकार का तर्क था कि पेट्रोल-डीजल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत पर निर्भर करते हैं और चूंकि देश अपनी जरूरत का करीब 80 फीसदी तेल आयात करता है तो वह इसमें कुछ नहीं कर सकती. आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं और पेट्रोल-डीजल के दाम अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर हैं. अब भी केंद्र सरकार का यही तर्क है.
लेकिन क्या यह तर्क सही है? समझने की कोशिश करते हैं. करीब 10 साल पहले अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल से भी ऊपर चली गई थी. फिर अप्रैल 2020 में ऐसा भी समय आया जब यह 20 डॉलर से भी नीचे आ गई. इसकी वजह कोरोना वायरस संकट के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था के थमे चक्के थे. हालात में थोड़े से सुधार के साथ आज कच्चा तेल करीब 52 डॉलर प्रति बैरल के भाव पर बिक रहा है.
करीब 10 साल पहले ही सरकार ने पेट्रोल से सब्सिडी खत्म की थी. यानी उसकी कीमत बाजार के हवाले कर दी गई थी. उस दौरान जब कच्चा तेल 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर मिल रहा था तो भारत में पेट्रोल 60 रु प्रति लीटर के आसपास मिल रहा था. नई नीति के हिसाब से देखें तो पिछले साल जब कच्चा तेल 20 डालर से भी नीचे आया तो पेट्रोल की कीमत तब से काफी कम हो जानी चाहिए थी. लेकिन यह 60 रु प्रति लीटर के करीब ही घूम रही थी. आज यह आंकड़ा 100 की तरफ बढ़ रहा है. 2014 में सब्सिडी के दायरे से बाहर निकले डीजल के मामले में भी कहानी कमोबेश ऐसी ही है.
यानी भले ही कहा जाता हो कि पेट्रोल-डीजल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव के हिसाब से तय होती है, लेकिन ऐसा वास्तव में है नहीं. गौर से देखा जाए तो ये काफी हद तक केंद्र और राज्य सरकारों की मर्जी के हिसाब से तय होती हैं. इस मर्जी के पीछे आर्थिक और राजनीतिक, दोनों तरह के समीकरण होते हैं.
पिछले साल जब कच्चे तेल की कीमतें धड़ाम हो रही थीं तो केंद्र ने पेट्रोल की कीमतों पर एक्साइज ड्यूटी में जबर्दस्त बढ़ोतरी कर दी. मार्च और मई में हुई इस बढ़ोतरी के जरिये इस टैक्स को 19.98 से बढ़ाकर 32.98 रु प्रति लीटर कर दिया गया. इसी तरह डीजल पर भी एक्साइज ड्यूटी 15.83 से बढ़ाकर 31.83 रु प्रति लीटर कर दी गई. इसी दौरान राज्य सरकारों ने भी इन दोनों ईंधनों पर लगने वाले शुल्क यानी वैट को बढ़ा दिया. नतीजा यह हुआ कि कच्चे तेल के भाव में इतनी गिरावट के बावजूद पेट्रोल-डीजल की कीमतें उतनी ही रहीं. यानी इस गिरावट का आम लोगों को नहीं बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों को फायदा हुआ. अब बीते कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं तो भारत में भी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी जारी है. जब कच्चे तेल की कीमत कम हुई थी तब पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों को कम न करके इन पर एक्साइज और वैट बढ़ा दिये गये थे. लेकिन अब जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ रही है तो पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले टैक्स को स्थिर रखा जा रहा है.
इंडियन ऑयल की वेबसाइट के मुताबिक इस साल की पहली तारीख यानी एक जनवरी को देश की राजधानी दिल्ली में डीजल का बेस प्राइस 28.32 रु था. बेस प्राइस वह मूल्य होता है जो तेल कंपनियां कच्चे तेल की खरीद और उसकी रिफाइनिंग की लागत में अपना मुनाफा जोड़कर तय करती हैं. इस कीमत में कंपनियां 0.34 रु प्रति लीटर के हिसाब से ढुलाई भाड़ा जोड़कर डीलरों से 28.66 रु प्रति डीलर वसूल रही थीं. इसमें 31.83 रु प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी, 10.85 रु वैट और 2.53 रु का डीलर कमीशन जुड़कर डीजल की कीमत 73.87 रु प्रति लीटर पहुंच रही थी. यानी ग्राहक इस कीमत में 60 फीसदी से ज्यादा टैक्स चुका रहा था. आज यह कीमत 77 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा हो चुकी है.
2014 में जब मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आई थी तो पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी क्रमश: 9.48 और 3.56 रु प्रति लीटर हुआ करती थी. आज यह आंकड़ा 32.98 और 31.83 हो चुका है. इसके साथ भारत दुनिया में पेट्रोल-डीजल पर सबसे ज्यादा टैक्स लगाने वाला देश बन गया है. इस वजह से पिछले साल जब कच्चे तेल के भाव गिर रहे थे तो लगभग सभी देशों में पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी गिर रही थीं, केवल भारत को छोड़कर. और आज इसकी कीमत करीब 87 रुपये प्रति लीटर हो चुकी है.
इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है. टैक्स का मतलब है सरकार की कमाई. जाहिर सी बात है पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर सरकार अपनी कमाई बढ़ाना चाह रही थी जो बढ़ी भी. कुछ समय पहले खबर आई थी कि पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी की बदौलत साल 2014-15 से सरकार को जो आय हुई है उसने पिछले 15 साल के दौरान तमाम ईंधनों पर सब्सिडी के रूप में खर्च कुल रकम के आंकड़े को पीछे छोड़ दिया है. हालांकि पेट्रोलियम उत्पादों पर घाटा और उसकी भरपायी करने के लिए सब्सिडी देना भी एक भ्रामक अवधारणा ही थी. असल में खुदरा तेल बेचने वाली हिंदुस्तान पेट्रोलियम या भारत पेट्रोलियम सरीखी कंपनियां तेलशोधक कारखानों से उस कीमत पर तेल खरीदती हैं जिस कीमत पर वह उन्हें आयात करने पर मिला होता. यानी कि इस कीमत में उत्पाद शुल्क और ढ़ुलाई का खर्चा आदि जुड़े होते हैं. जबकि तेल की आपूर्ति करने वाली कंपनियां इसका करीब 25 प्रतिशत हिस्सा भारत में ही उत्पादन करती हैं. ये कंपनियां जिस कीमत पर विदेश से तेल खरीदती हैं वह भी अंतर्राष्ट्रीय कीमत से काफी कम होती है. इस ज़बर्दस्ती मंहगे खरीदे-बेचे तेल को पहले तेल मार्केटिंग कंपनियां सस्ते में बेच कर जो घाटा कमाती थीं उसे अंडर रिकवरी कहते थे. और इसकी भरपायी के लिए सरकार उन्हें सब्सिडी दिया करती थी. यानी कि दिखावे का घाटा और दिखावे की भरपायी. और अगर यह घाटा था भी तो केवल तेल मार्केटिंग कंपनियों का, तेल को खरीदने और बेचने का असल घाटा नहीं. अब तेल मार्केटिंग कंपनिया हर रोज़ तेल की कीमत तय करती हैं. और दोनों तरह की सरकारी कंपनियां – तेल उत्पादक और तेल मार्केटिंग कंपनियां – और सरकार सभी फायदे में रहते हैं.
अगर तेल से होने वाली आय की फिर से बात करें तो अप्रैल से नवंबर 2020 के दौरान केंद्र ने पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी से करीब दो लाख करोड़ रुपये कमाए. 2019 में इसी समयावधि में यह आंकड़ा करीब एक लाख 33 हजार करोड़ रु था. यह पेट्रोल-डीजल से केंद्र सरकार को हुई कमाई में करीब 50 फीसदी की बढ़ोतरी थी और वह भी तब जब 2020 में लंबे समय तक चले लॉकडाउन के चलते पेट्रोल-डीजल की खपत सामान्य से 20 फीसदी तक कम हो गई थी.
सरकार को भले ही छप्परफाड़ कमाई हो रही हो, लेकिन कोरोना वायरस संकट के चलते सिकुड़ रही अर्थव्यवस्था पर पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से और भी चोट पड़ रही है. भारत में दो-तिहाई माल ढुलाई ट्रकों के जरिये होती है जो डीजल से चलते हैं. निर्माण और कृषि संबंधी कई गतिविधियों के लिए भी डीजल अहम है. भारत की एक बड़ी आबादी दोपहिया वाहनों से भी सफर करती है जो पेट्रोल से चलते हैं. जाहिर सी बात है, इन दोनों ईंधनों पर टैक्स में इस कदर बढ़ोत्तरी ने आम लोगों की मुश्किलों में और इजाफा कर दिया है. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत में तेल बाजार पर करीब से नजर रखने वाले सेंथिल कुमारन कहते हैं, ‘खास कर ग्रामीण क्षेत्रों की आर्थिक प्रगति में तो डीजल की अहम भूमिका होती है, इसलिए आम तौर पर ऐसा देखने में नहीं आता कि उस पर टैक्स में इतनी तीखी बढ़ोतरी की जाए.’
कई जानकारों के मुताबिक इस मामले में सरकार के लिए इधर कुआं, उधर खाई जैसी स्थिति है. जैसा कि एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार सम्राट शर्मा कहते हैं, ‘पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ें तो सरकार के लिए मुश्किल है और इनमें कटौती हो तो भी यही कहा जा सकता है. ऐसा इसलिए है कि दोनों स्थितियों में अर्थव्यवस्था पर अलग-अलग तरह से चोट पड़ती है. ईंधन की ऊंची कीमतों से सरकार को भले ही कमाई हो रही हो, लेकिन इससे महंगाई बढ़ने का जोखिम हो जाता है, इसी तरह ईंधन की कीमतों में कमी से महंगाई भले ही काबू होती हो, लेकिन इससे केंद्र की कमाई पर चोट पड़ सकती है.’
और यह चोट केंद्र सरकार फिलहाल वहन करने की स्थिति में नहीं है क्योंकि कमाई के दूसरे मोर्चों पर वह मुश्किलों से जूझ रही है. उदाहरण के लिए पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2019-20 में प्रत्यक्ष करों से होने वाली उसकी कमाई में करीब पांच फीसदी की कमी आ गई. अप्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर भी हालात ठीक नहीं है. पिछले साल ही केंद्र ने पहली बार माना था कि वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) के तहत राज्यों को मुआवजा देने के लिए उसके पास पर्याप्त पैसे नहीं है. दरअसल टैक्स की यह नई व्यवस्था लागू होने से पहले तय हुआ था कि इससे राज्यों को राजस्व का जो नुकसान होगा उसकी भरपाई पांच साल तक केंद्र सरकार करेगी. लेकिन अब खबरें आ रही हैं कि खर्च चलाने के लिए केंद्र ने राज्यों से फिलहाल कर्ज उठाने के लिए कहा है. अर्थव्यवस्था में सिकुड़न के चलते इस वित्तीय वर्ष में हालात और बिगड़ने की आशंका है. जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोल-डीजल पर टैक्स से हो रही कमाई में कटौती करने की हालत में नहीं हैं.
राज्य सरकारों द्वारा लगाये जाने वाले टैक्स (वैट) के बारे में यह जानना जरूरी है कि यह एक्साइज ड्यूटी के उलट पेट्रोल या डीजल की कीमत पर लगता है इसकी मात्रा पर नहीं. इसे एड वेलोरम टैक्स कहते हैं. इसका सीधा सा मतलब यह हुआ कि पेट्रोल-डीजल की कीमत जितनी ज्यादा होगी राज्य सरकारों को उनसे उतना ही ज्यादा राजस्व मिलेगा. यानी कि तेल की कीमतें बढ़ने पर अगर राज्य सरकारें अपनी कमाई को ही स्थिर रख सकें तो तेल की कीमतें थोड़ी कम हो सकती हैं. लेकिन खराब आर्थिक हालात के चलते वे भी जितना हो सके तेल से कमाई कर लेना चाहते हैं.
एक्सिस बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री सौगत भट्टाचार्य बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘मौजूदा वक़्त में टैक्स के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्रोत लगभग खत्म हो गए हैं, ऐसे में पेट्रोल-डीज़ल पर लगने वाले टैक्स को बढ़ाकर आर्थिक प्रबंधन ठीक करने की कोशिश की जा रही है.’ हालांकि वे तेल पर टैक्स बढ़ाने के फायदे भी गिनाते हैं. सौगत कहते हैं, ‘इससे बेकार में इस्तेमाल होने वाले पेट्रोल-डीज़ल की खपत में कमी आती है. चूंकि भारत कच्चे तेल के लिए आयात पर निर्भर है, ऐसे में वो पेट्रोल-डीज़ल के बेतहाशा इस्तेमाल को फ़िलहाल बर्दाश्त नहीं कर सकता.’
कच्चे तेल के दाम अब लगातार ऊपर की तरफ जा रहे हैं. हाल में सऊदी अरब ने कच्चे तेल के उत्पादन में प्रतिदिन 10 लाख बैरल की कटौती करने का ऐलान किया है, जबकि ओपेक देशों ने एक दिन में कच्चे तेल का उत्पादन 97 लाख बैरल कम करने का फ़ैसला किया है. यही वजह है कि तेल के दाम बढ़ रहे हैं. यह बढ़ोतरी जारी रही और सरकारों ने एक्साइज ड्यूटी और वैट में कटौती नहीं की तो जल्द ही पेट्रोल-डीजल की कीमतें 100 रु प्रति लीटर का स्तर पार कर सकती हैं जो इतिहास में पहली बार होगा. इसके चलते महंगाई में भी बढ़ोतरी होगी. असल में थोक-मूल्य सूचकांक यानी डब्ल्यूपीआई में पेट्रोल-डीजल की करीब 5.8 फीसदी हिस्सेदारी होती है. जानकारों के मुताबिक ऐसे में सरकार के सामने मुश्किल यह हो जाएगी कि वह वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने को तरजीह दे या फिर महंगाई पर नियंत्रण को.
जानकारों के मुताबिक कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी का मतलब है पेट्रोल और डीजल के दाम में 5.8 रु प्रति लीटर की वृद्धि. एक अनुमान के मुताबिक इससे कुल महंगाई में करीब 34 आधार अंकों की बढ़ोतरी हो सकती है. सम्राट शर्मा लिखते हैं, ‘लेकिन कच्चे तेल की कीमतों में आ रही इस तेजी से निपटने के लिए पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी में अगर 5.8 रु की कटौती कर दी जाए तो सरकार की कमाई में 87200 करोड़ रु तक की कमी आ जाएगी जो जीडीपी का करीब 0.39 फीसदी है.’ इससे वित्तीय घाटा भी बढ़ सकता है. कुछ समय पहले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अर्थशास्त्रियों ने एक रिपोर्ट तैयार की थी. इसमें कहा गया था कि कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी से भारत के सालाना आयात बिल में आठ अरब डॉलर के लगभग बढ़ोतरी हो जाती है. इससे देश की जीडीपी में 16 आधार अंकों की कमी होती है और वित्तीय घाटा आठ आधार अंक बढ़ जाता है.
यानी सरकार के लिए न निगलते और न उगलते बनने वाली स्थिति है. ऐसे में कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि उसे घाटे और महंगाई के जोखिम के बीच संतुलन बनाना होगा. सौगत भट्टाचार्य भी मानते हैं कि तेल के दाम बढ़ाना अभी सरकार के लिए दोधारी तलवार जैसा है क्योंकि उसके लिए यह तय करना मुश्किल है कि वह राजस्व इकट्ठा करने के रास्ते ढूंढे या महंगाई पर लगाम लगाए.
पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों की वजह से इसे जीएसटी के दायरे में लाये जाने की मांग भी की जा रही है. 2017 में लागू हुई इस व्यवस्था से गैस, कच्चे तेल, पेट्रोल, डीजल और विमानों के तेल को बाहर रखा गया था. जीएसटी के दायरे में आने से पेट्रोल और डीजल दोनों की कीमतों में गिरावट आएगी क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वसूले जाने वाले अलग-अलग टैक्स के बजाय इन पर एक ही टैक्स लगेगा. जीएसटी में सबसे ऊंचा स्लैब 28 फीसदी का है. जैसा कि जिक्र हुआ अभी ग्राहक पेट्रोल-डीजल पर 60 फीसदी से ज्यादा टैक्स चुका रहा है. कमाई में इस कदर कटौती की संभावना को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारें फिलहाल पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने के मूड में नहीं हैं. हालांकि कुछ मानते हैं कि इस कटौती की भरपाई कुछ अन्य सेस लगाकर की जा सकती है जैसे कि फिलहाल एसयूवी और दूसरी लक्जरी कारों पर लगाए गए हैं.
वैसे जो काम आर्थिक मजबूरियों के चलते नहीं हो पाता, वह कई बार राजनीतिक लाभ की संभावना से हो जाता है. 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान एक पखवाड़े से भी ज्यादा समय तक पेट्रोल-डीजल की कीमतें स्थिर रही थीं जबकि इसी दौरान कच्चे तेल के भाव में करीब दो डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी हो गई थी. माना जा रहा है कि इस साल पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान भी ऐसा देखने को मिल सकता है जहां भाजपा और सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर होने की संभावना है.
हाल में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आम बजट में डीजल और पेट्रोल पर कृषि सेस लगाने का ऐलान किया. पेट्रोल पर ढाई रुपये और डीजल पर चार रुपये प्रति लीटर कृषि सेस लगाने का निर्णय लिया गया है. हालांकि निर्मला सीतारमण ने कहा कि इसकी वजह से उपभोक्ता की जेब पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा क्योंकि दोनों ईंधनों पर एक्साइज ड्यूटी में नए सेस के बराबर ही कटौती कर दी जाएगी. जानकारों के मुताबिक पेट्रोल और डीजल के हर लीटर पर एक्साइज ड्यूटी से साढ़े छह रु की रकम को बाहर करने के पीछे केंद्र की एक सोची-समझी रणनीति है. दरअसल टैक्स की आय को उसे राज्यों के साथ साझा करना पड़ता है जबकि सेस के मामले में ऐसा कोई बंधन नहीं होता. यानी आम आदमी पर ईंधन की महंगाई की चोट पड़ती रहेगी लेकिन, केंद्र सरकार को इससे कुछ और फायदा हो जाएगा.
2014 के आम चुनाव के दौरान भाजपा के चुनावी पोस्टरों में ‘बहुत हुई जनता पर पेट्रोल-डीज़ल की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ के नारे वाले पोस्टर खूब दिखते थे. पार्टी के फेसबुक पेज और ट्विटर पर ये पोस्टर अब खोजने पर भी नहीं दिखते. उधर, जनता पर पेट्रोल-डीजल की मार जारी है.
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