दूरसंचार क्षेत्र की जमीन पर रिलायंस के साथ जंग के इस तीसरे चरण में बाजार की अगुवा एयरटेल को पहली बार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है
अनुराग भारद्वाज | 18 अक्टूबर 2017
अरुण शौरी इन दिनों काफ़ी हलचल मचा रहे हैं. वैसे वे इसके लिए जाने भी जाते हैं. यह बात तब की है जब वे एनडीए सरकार में संचार मंत्री थे. 26 सितंबर 2003 में उन्होंने यह कहकर हलचल मचा दी कि रिलायंस इन्फोकॉम अपनी मोबाइल सेवाओं की शर्तों का उल्लंघन कर रही है.
हिंदुस्तान की मोबाइल क्रांति को समझने के लिए आपको थोड़ा सा और पीछे जाना होगा. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने थे. उन्होंने अपने विश्वस्त वैज्ञानिक मित्र सैम पित्रोदा को भारत के दूरसंचार या टेलिकॉम क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए अपनी सरकार में निमंत्रण दिया था. 1994 में टेलिकॉम नीति बनी जिसके तहत प्राइवेट कंपनियों को टेलिकॉम के क्षेत्र में आने की छूट मिली. तब सुखराम संचार मंत्री थे. पहले पहल चारों महानगरों में ये सेवाएं शुरू की गईं. भारती एयरटेल का उदय हुआ. फिर 1995 में देश भर में मोबाइल सेवाएं शुरू हो गईं.
रिलायंस इंडस्ट्रीज इस दौरान टेलिकॉम के क्षितिज पर नहीं थी, यह कहना सही है. पर गीता पीरामल अपनी किताब ‘बिज़नस महाराजास’ में लिखती हैं कि 1995 से ही अंबानी बंधु इस क्षेत्र में होने वाले बदलाव को नज़दीक से देख रहे थे.
पहला राउंड
अब फ़ास्ट फॉरवर्ड मोड में 2003-2004 में दाखिल होते हैं. प्रमोद महाजन संचार मंत्री थे. उसी दौरान सरकार को महसूस हुआ कि अब सेवाओं को शहरी सीमाओं से आगे ले जाकर तहसीलों और गांवों तक जाना होगा. इसके लिए एक सस्ती सेवा का ऐलान हुआ जिसे वायरलेस इन लोकल लूप (डब्लूएलएल) कहा गया. रिलायंस इंडस्ट्रीज ने इस सुविधा को देने के लिए सीडीएमए तकनीक के ज़रिये टेलिकॉम में एंट्री मारी. रिलायंस इन्फोकॉम शुरू हो गयी. डब्लूएलएल की शर्तों के तहत यह सेवा एक निश्चित सीमा में ही काम करती थी. जबकि जीएसएम मोबाइल सेवा पूरे देश में रोमिंग सुविधा के साथ काम करती थी. जाहिर है रिलायंस इन्फोकॉम को दिक्कत हो रही थी. बताते हैं कि इसके बाद डब्लूएलएल की सेवा शर्तों में से एक पोल निकालकर रिलायंस इन्फोकॉम को भी रोमिंग की सुविधा मिल गयी. यहीं से ‘कारोवॉर’ शुरू हो गया.
अरुण शौरी के जिस बयान का जिक्र इस लेख की शुरुआत में आया है उसने हलचल मचा दी थी. इसके बाद एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई गयी. इसमें, सरकार के अलावा सुनील भारती मित्तल और रिलायंस इन्फोकॉम के मनोज मोदी जैसे लोग थे. जानकारों के मुताबिक मित्तल पूरी जी जान से जुटे पड़े थे कि कैसे भी करके रिलायंस इन्फोकॉम को दी गईं रोमिंग की सेवाएं निरस्त कर दी जाएं वरना उनके जैसी मोबाइल कंपनियों का भयंकर नुकसान हो जाएगा. बहस चल रही थी. प्रमोद महाजन समझा रहे थे. सुनील मित्तल दलील पेश कर रहे थे. बताते हैं कि इसी दौरान मनोज मोदी उठे और कहा’, ‘मिस्टर मित्तल, शेप इन ऑर शेप आउट’. आम भाषा में मतलब था कि ‘भइया बदल जाओ, वरना बदल दिए जाओगे.’ प्रमोद महाजन ने फ़ैसला ले लिया था!
अगले दिन एक अंग्रेजी अख़बार को दिए इंटरव्यू में जब सुनील मित्तल से पूछा गया कि रिलायंस को रोमिंग दिए जाने के बारे में उनकी क्या राय है तो वे बोले, ‘हर चीज़ रोमिंग है, रात को सोने के बाद सुबह उठकर देखो तो बिस्तर कुछ आगे सरक जाता है.’ रिलायंस इन्फोकॉम को रोमिंग मिल गयी थी!
इनकमिंग फ्री होने के साथ-साथ शुरू हुई रिलायंस इन्फोकॉम काफ़ी तेज़ी से बढ़ी. नेटवर्क का जाल बिछाया गया और कंपनी ने 60 हज़ार किलोमीटर लंबी फाइबर लाइन से पूरे देश को इधर उधर से बुन दिया. एयरटेल की बैचनी उन दिनों साफ़ देखी जा सकती थी. उसने अन्य जीएसएम ऑपरेटरों जैसे वोडाफ़ोन, आइडिया आदि के साथ मिलकर सेल्युलर एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया( सीओएआई) का गठन किया. इसको देखते हुए रिलायंस ने एसोसिएटेड यूनिफाईड सर्विसेज ऑफ़ इंडिया (ओयूएसपी) का गठन किया. इसमें रिलायंस के साथ श्याम टेलिकॉम भी थी. यह एक तरह से शीत युद्ध यानी कोल्ड वॉर के समयबने गुटों की याद दिलाता है. टेलिकॉम के ये दोनों गुट आये दिन सरकार और ग्राहकों के बीच लामबंदी करते दिखते थे.
जो भी हो देश में मोबाइल क्रांति शुरू हो गयी थी. रिलायंस के धीरुभाई अंबानी प्लान ने सारे समीकरण बदलकर रख दिए थे. जन-जन तक मोबाइल चला गया था. एयरटेल की घबराहट बढ़ गयी थी. स्थिति यहां तक पहुंच गई कि कहीं बाद में शुरू हुई रिलायंस इन्फोकॉम और एयरटेल के ग्राहकों की संख्या और रेवेन्यू में ज़्यादा अंतर नहीं था.
दूसरा राउंड
साल 2004. भारती एयरटेल अधिग्रहण की कवायद के जरिये आगे बढ़ने की कोशिश कर रही थी. राजस्थान की एक कंपनी को उसने अधिगृहीत किया था. इस अवसर पर सुनील मित्तल के छोटे भाई राजन मित्तल राजस्थान गए थे. जब उनसे पूछा गया कि जीएसएम बनाम सीडीएमए तकनीक में कौन सी भविष्य की तकनीक रहने वाली है. वे बड़े सहमे से अंदाज़ में बोले, ‘कह नहीं सकते कि भविष्य कहां ले जाएगा. हमने पैसा जीएसएम पर लगाया है. उम्मीद करते हैं कि ये तकनीक हिंदुस्तान में रहे.’
किस्मत एयरटेल पर मेहरबान हुई. तब तक मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी में कारोबार के बंटवारे को लेकर मतभेद हो चुके थे. रिलायंस इन्फोकॉम अनिल अंबानी के हाथ लगी थी जिसे उन्होंने रिलायंस कम्युनिकेशन का नाम दिया. मुकेश के जाने के बाद और कुछ अंदरूनी समस्याओं के चलते रिलायंस कम्युनिकेशंस अपनी सेवाओं का विस्तार समय पर नहीं कर पाया. नतीजा यह हुआ कि एयरटेल देश की नंबर एक कंपनी बन गई.
परिस्तिथियों को भांपते हुए एयरटेल ने बेहद तेज़ी से अपने नेटवर्क और सेवाओं का विस्तार किया और एक समय ऐसा भी आया कि जब एयरटेल की बोर्डरूम मीटिंगों में रिलायंस कम्युनिकेशंस का जिक्र बंद हो गया. अब उसके होने न होने से एयरटेल को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था.
इस दौर को आप तकनीक की जंग के दौर पर भी देख सकते हैं. जहां एयरटेल जीएसएम के ज़रिये देश में आगे बढ़ रही थी, वहीं, रिलायंस कम्युनिकेशंस सीडीएमए सेवाओं का विस्तार नहीं कर पा रही थी, वह भी तब जबकि सीडीएमए एक बेहतर और सस्ती तकनीक है.
जब रिलायंस कम्युनिकेशंस पिछड़ने लगी तो उसने सारा दोष सीडीएमए तकनीक पर डाल दिया और अपने शेयर धारकों से जीएसएम स्पेक्ट्रम लेने की अर्जी लगायी. यहीं से उसके अंत की शुरुआत हो गयी.
रिलायंस ने जीएसएम की सेवाएं शुरू कीं तो एकबारगी ऐसा लगा कि कंपनी अपने पुराने रंग में लौट रही है. पर यह चार दिन की चांदनी वाली बात साबित हुई. एयरटेल ने इस दौरान ज़बरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की.
इसी दौरान टेलिकॉम सेक्टर में काफ़ी उठापटक हुई थी. यह संचार मंत्री ए राजा का वक्त था जिनके कार्यकाल में कई घोटाले उजागर हुए. 2जी लाइसेंस के आवंटन में कई गड़बड़ियां हुईं. रातों रात पैदा हुई कई फ़र्ज़ी कंपनियों को लाइसेंस दिए गए. नीरा राडिया टेप कांड सुर्ख़ियों में रहा. रतन टाटा की काफ़ी किरकिरी हुई. यूनिटेक कंपनी के मालिक को जेल हुई. खुद ए राजा भी जेल गए. इसी दौरान एक पुराने घोटाले की सुनवाई पूरी हुई और पूर्व मंत्री सुखराम को भी सज़ा हुई. इत्तेफ़ाक की बात है कि राजा और सुखराम दोनों तिहाड़ जेल की एक ही बैरक में बंद रहे. एयरटेल ने जैसे तैसे करके अपने आप को टेलिकॉम से जुड़ी इन आपदाओं से दूर रखा.
मुकेश अंबानी इस दौरान सम्पति बंटवारे की शर्तों के तहत बंधकर टेलिकॉम से दूर थे. पर वे चतुर खिलाड़ी की तरह बाजार पर नज़र गड़ाए हुए थे और परदे के पीछे रहकर एचएफसीएल को आगे बढ़ा रहे थे.
जब 3 जी स्पेक्ट्रम का आवंटन हुआ तो दोनों कंपनियां लाइसेंस लेने के लिए भिड़ गईं. दोनों ने अपनी-अपनी हैसियत से ज़्यादा पैसे ख़र्च किये. बताया जाता है कि जहां एयरटेल ने लगभग 13 हज़ार करोड़ ख़र्च किये थे, वहीं रिलायंस कम्युनिकेशंस ने लगभग नौ हज़ार करोड़ रु डाले. एयरटेल तो इस झटके को झेल गई पर रिलायंस कम्युनिकेशंस तो बिलकुल ही पिट गयी.
तीसरा राउंड
टेक्नोलॉजी का क्षेत्र ही ऐसा है कि नयी तकनीक किसी भी कंपनी को आराम से बैठने नहीं देती. 3जी पर हुए ख़र्च का हिसाब अभी तक निकला भी नहीं था कि 4जी आ गया. एयरटेल ने 4जी स्पेक्ट्रम खरीदकर इस तकनीक पर 4जी की सेवाएं शुरू कर दीं.
उधर, मुकेश अंबानी इसी मौके के इंतज़ार में थे. इस बार उन्होंने ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस (बीडब्लूए) का लाइसेंस लिया. इसके बाद पिछले साल जब रिलायंस ने जिओ के नाम से अपनी सेवाएं शुरू कीं तो तहलका मच गया. लगभग मुफ्त में डेटा और कॉल की पेशकश करके जियो ने बाज़ार का रुख अपनी तरफ़ कर दिया.
तमाम दूसरी कंपनियों के होश उड़ गए. बाजार की अगुवा एयरटेल को सबसे ज़्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ा. महीने- दर-महीने उसके ग्राहकों और मुनाफ़े में कमी होने लगी. रिलायंस कम्युनिकेशंस, वोडाफ़ोन और आइडिया जैसी सब की हालत ख़राब होने लग गयी. कंपनियों के शेयर टूटने लगे. पिछले महीने ही जिओ ने लगभग फ्री फ़ोन देकर प्राइसवॉर को और तेज़ कर दिया है.
जिओ का असर बाज़ार पर कुछ इस तरह हुआ कि सारे समीकरण ही बदल गए. उसका असर टेलिकॉम कंपनियों पर ही नहीं, बल्कि बैंकों पर भी पड़ा. बैंकों का टेलिकॉम कंपनियों पर कुल चार लाख करोड़ रुपये क़र्ज़ है. घटते मुनाफ़े ने क़र्ज़ अदायगी को भी संकट में डाल दिया. है. ऊपर से सरकार द्वारा आईयूसी दरों में कमी ने बाकी कंपनियों की मुश्किलें बढ़ा दी है. जानकार इसके पीछे रिलायंस जिओ का ही हाथ मानते हैं.
घटते मुनाफ़े की वजह कंपनियां विलय करने को मजबूर हो गयी हैं. वोडाफ़ोन और आइडिया का विलय हो गया है. उधर, एयरटेल ने यूनिनॉर और टाटा टेलीसर्विसेज को ख़रीद लिया है. दूसरी तरफ, रिलायंस कम्युनिकेशंस ने एयरसेल के साथ विलय करने की कोशिश की जो पिछले महीने नाकाम हो गयी है. रिलायंस कम्युनिकेशंस पर तो दिवालिया होने का संकट गहरा गया है.
एक समय पर औसतन हर सर्किल में सात या आठ टेलिकॉम कंपनियां सेवाएं दे रहीं थीं. कहीं-कहीं तो 13 कंपनियां भिड़ रही थीं. विलय और अधिग्रहण के चलते आने वाले दिनों में हर सर्किल में मात्र तीन या चार कंपनियां ही रह जाएंगी जिनमें जिओ के अलावा एयरटेल, वोडा-आइडिया और सरकार की बीएसएनएल या एमटीएनएल होगी. वित्तीय घाटे को लेकर फिक्रमंद सरकार के लिए भी यह बुरी खबर है. टेलिकॉम से उसे होने वाली कमाई में कमी आई है.
एयरटेल की तमाम कोशिशों के बावजूद जिओ लगातार बढ़ती ही जा रही है. एक समय ऐसा लग रहा था कि एयरटेल जिओ नाम के तूफ़ान को भी झेल लेगी. हाल-फ़िलहाल तो ऐसा होता नज़र नहीं आता. इस महीने रिलायंस इंडस्ट्रीज द्वारा जारी किये गए आंकड़ों के मुताबिक़, जिओ का तिमाही घाटा 271 करोड़ रुपये पर है. जानकार मानते हैं कि 2019 में रिलायंस जिओ मुनाफ़े में आ जायेगी.
पर कहते हैं न जब सारे रास्ते बंद होने लगते हैं तब कोई नया रास्ता खुल जाता है. पिछले महीने हुई टेलिकॉम कांफ्रेंस में सुनील भारती मित्तल और मुकेश अंबानी साथ-साथ आये थे. उन्होंने काफ़ी देर तक बातचीत भी की. सुनील मित्तल ने अपने संबोधन में मुकेश अंबानी को ‘मुकेश भाई’ कहकर उनकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. मुकेश अंबानी ने भी अपने संबोधन में कहा कि इस सेक्टर की भलाई के लिए सबको साथ मिलकर चलना होगा. सरकार ने इस बात पर राहत की सांस ज़रूर ली है. पर व्यापार में समीकरण कब बदल जाएं, कोई नहीं जानता.
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