नारायणमूर्ति विशाल सिक्का

Economy | कारोवॉर

विशाल सिक्का से लड़ते वक़्त नारायणमूर्ति कहां खड़े थे? खुद की तरफ या इन्फोसिस की तरफ?

विशाल सिक्का की कमान में इन्फोसिस के शेयरों की कीमत में तीन साल में 20 फीसदी से भी ज़्यादा बढ़ोतरी हुई, पर नारायणमूर्ति के हमलों के चलते उन्हें कंपनी छोड़नी पड़ी

Anurag Bhardwaj | 06 December 2017

महाभारत की लड़ाई का सोलहवां दिन. युद्ध निर्णायक मोड़ पर था. भीष्म के युद्ध से हट जाने और द्रोण की मृत्यु के बाद कर्ण को सेनापति बनाया गया. इस युद्ध में पहली बार अर्जुन और कर्ण का आमना सामना होने जा रहा था. दोनों के लिए जीत अहम थी. कर्ण ने मद्र देश के राजा शल्य को अपना सारथी बनने का निवेदन किया. शल्य का रथ संचालन कृष्ण से कमतर नहीं था.

उम्मीद है आपने महाभारत पढ़ी होगी और अगर नहीं तो जानिये कि बतौर सारथी शल्य युद्ध के दौरान कर्ण को हतोत्साहित करते रहे. अंततः कर्ण ने उनसे पूछ डाला, ‘तुम किसके साथ हो, मद्रराज? कौरवों के या पांडवों के?’

1981 में स्थापित हुई इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायणमूर्ति और भूतपूर्व सीईओ विशाल सिक्का के बीच जो कुछ हुआ वह कर्ण और शल्य के इसी किस्से की याद दिलाता है कि नहीं, कहा नहीं जा सकता. हां, परिणाम कुछ-कुछ वैसा ही था. 18 अगस्त 2017 को जिस दिन विशाल सिक्का ने इस्तीफ़ा दिया, निवेशकों के लगभग 27000 करोड़ रुपये डूब गए. खुद नारायणमूर्ति को तकरीबन 900 करोड़ रु का नुकसान हुआ था उस दिन. और इससे भी ज़्यादा जो नुकसान हुआ वह था संस्थापकों और पेशेवरों के बीच विश्वास का टूटना. वह विश्वास जो कॉरपोरेट की दुनिया का आधार है.

नारायणमूर्ति विशाल सिक्का और इन्फोसिस के बोर्ड पर पिछले दो साल से लगातार हमले किये जा रहे थे. इससे आहत होकर विशाल सिक्का ने कंपनी छोड़ दी. कंपनी के संस्थापकों और पेशेवर मैनेजमेंट बोर्ड में कभी-कभार तू-तू मैं-मैं हो जाती है, पर जो इन्फोसिस में हुआ वह कभी-कभार ही होता है.

आज का ‘कारोवॉर’ नारायणमूर्ति और विशाल सिक्का के बीच मची खींचतान की क़िस्सागोई है. इस सबके पीछे क्या नारायणमूर्ति का कंपनी के लिए निश्छल प्रेम था या फिर महाभारत के धृतराष्ट्र जैसा अंधाप्रेम या कंपनी छोड़ देने के बाद भी किंगमेकर बने रहने की लालसा? आगे बढ़ने से पहले यह देख लें कि विशाल सिक्का के दौर में इन्फोसिस का हाल क्या था.

विशाल सिक्का का कार्यकाल

जून 2014 से लेकर अगस्त 2017 तक विशाल सिक्का की सरपरस्ती में कंपनी की कुल आय लगभग 18 फीसदी बढ़ी. जून-अगस्त 2014 की तिमाही में कंपनी की कुल आय थी 13042 करोड़ रुपये जो 2017 की पहली तिमाही, यानी अप्रैल-जून, में 17078 करोड़ थी. इसी दौरान कंपनी का शुद्ध मुनाफ़ा 3096 करोड़ से बढ़कर 3483 करोड़ रुपये हो गया था. ये यकीनन इन्हीं परिणामों का नतीजा था कि विशाल सिक्का के कार्यकाल में कंपनी का शेयर 810 से बढ़कर 1021 रुपये तक गया.

विशाल के सामने कई चुनौतियां थीं. जैसे डोनाल्ड ट्रम्प की वीसा की नीतियां, ब्रेक्जिट और डॉलर के मुक़ाबले रुपये का मज़बूत होना. कमाल की बात है कि इनके बावजूद इन्फोसिस के परिणाम बेहद शानदार थे. अन्य आईटी कंपनियों के मुक़ाबले इन्फोसिस ने ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया. दुनिया भर में फैले इन्फोसिस के बड़े क्लाइंट्स विशाल सिक्का के मुरीद थे. हिन्दुस्तान में इस वक़्त चुनिन्दा लोग ही ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ पर काम रहे हैं. वे उनमें से एक थे. हैरत की बात है कि इसके बावजूद नारायणमूर्ति ने विशाल सिक्का और इन्फोसिस के बोर्ड पर हमले बोले! इसलिए कि…

इन्फोसिस की छवि टूट रही थी?

अपनी पत्नी सुधा मूर्ति से 10 हज़ार रुपये उधार लेकर घर के गैरेज में शुरू की गयी इन्फोसिस देश की दूसरी सबसे बड़ी आईटी कंपनी है. और उससे भी कहीं बड़ी है इसकी छवि. मूर्ति ने कंपनी के परिणामों से भी ज़्यादा इसकी छवि की परवाह की. मूर्ति का मैनेरिस्म भी एक मध्यमवर्गीय परिवार के उस मुखिया के जैसा है जो अपना पेट काटकर बच्चों को क़ाबिल बनाने की जी तोड़ कोशिश करता है.

‘कॉर्पोरेट गवर्नेंस’ के दायरे में वे खुद भी रहे और साथी कर्मचारियों को भी रखा. उनका मानना था कि सीईओ की तनख्वाह और कंपनी में मंझोले पायदान पर खड़े किसी कर्मचारी की सेलरी का अनुपात 1:50 से ज्यादा नहीं होना चाहिए. विशाल सिक्का ऐसी किसी अवधारणा से नहीं बंधे थे. उनका काम करने और रहने का तरीका कुछ शाही था. अक्सर मीटिंगों के लिए जब वे विदेश जाते तो पर्सनल जेट से सफ़र करते. तनख्वाह भी मूर्ति द्वारा स्थापित अनुपात से कहीं ज़्यादा थी. 2016 में सिक्का 49 करोड़ रुपये सालाना की तनख्वाह पर पहुंच गए जबकि 2015 में वे महज़ 4.9 करोड़ रुपये ही पाते थे. नारायणमूर्ति ने विशाल सिक्का को दिए जाने वाले पैकेज को लेकर हमला बोला.

सिक्का और बोर्ड का बचाव

इन्फोसिस बोर्ड को लिखे ख़त में मूर्ति ने इस बात पर नाराज़गी ज़ाहिर कि तो बोर्ड ने तुरंत मोर्चा संभाल लिया. आनन-फानन में उन्होंने मूर्ति को समझाया कि सिक्का की तनख्वाह उनके द्वारा स्थापित मानकों से ज़्यादा तो है पर उसका बड़ा हिस्सा कंपनी के सालाना परिणाम और उनके कार्यकाल की अवधि पर आधारित इंसेंटिव है. बोर्ड ने यह दलील भी दी कि सिक्का के कुल विदेशी दौरों में महज़ आठ फीसदी ही पर्सनल जेट से सफ़र करने का खर्चा है. बोर्ड के चेयरमैन और विशाल सिक्का के क़रीबी रामास्वामी शेषासायी ने जवाब दिया कि सिक्का का पैकेज अमेरिका की आईटी कंपनियों के सीईओ के आसपास ही है और सिक्का जैसी प्रतिभा की यह जायज़ कीमत है.

क्या इसलिए कि ‘मुझे क्यों नहीं मालूम?’

फ़रवरी 2015 में इन्फोसिस ने सिक्का की सरपरस्ती में इसराइल की कंपनी पनाया को 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर में ख़रीदा था. नारायणमूर्ति ने जब अपने सूत्र घुमाए तो किसी ने उन्हें कहा कि यह सौदा महंगा है. जानकारों के मुताबिक मूर्ति ने खोजबीन की और उनका दिमाग़ घूम गया. इसलिए कि सिक्का की पहली कंपनी सैप के सह-संस्थापक की पनाया कंपनी में भी हिस्सेदारी थी. तो क्या सिक्का ने कंपनी को नुकसान पहुंचाया था?

इसी बीच कंपनी के मुख्य फाइनेंस अधिकारी राजीव बंसल ने इस्तीफ़ा दे दिया और उनको ‘सेवेरंस पैकेज’(विदाई पैकेज) के तहत साढ़े 17 करोड़ रुपये दिए गए. नारायणमूर्ति को पता लगा कि राजीव बंसल पनाया डील के ख़िलाफ़ थे. जानकारों की मानें तो उन्हें यकीन हो गया कि 17.5 करोड़ रुपये की रकम राजीव बंसल को अपना मुंह बंद रखने के लिए दी गयी है. मूर्ति ने ख़त में पनाया डील को सार्वजनिक करने की मांग की और राजीव बंसल को दी गयी राशि पर बेहद कड़े शब्दों में आपत्ति जताई.

बोर्ड का बचाव

अपने बचाव में बोर्ड ने कहा कि इन्फोसिस की तरफ से डॉयचे बैंक ने पनाया का मूल्यांकन किया था और यह कीमत उससे कम ही है. बोर्ड ने यह भी कहा कि सैप और पनाया के मालिक के बारे में जानकारी सार्वजनिक है और बोर्ड भी इससे अवगत था. इससे ज़्यादा जानकारी बोर्ड ने नहीं दी.

वहीं, राजीव बंसल वाले मुद्दे पर बोर्ड बगलें झांकता हुआ नज़र आया. पांच करोड़ रु की पहली किश्त के बाद उसने बाकी का भुगतान को रोक दिया. शेषासायी ने यकीन दिलाया कि आगे ऐसा नहीं होगा.

पनाया सौदे को सार्वजनिक करने के मामले पर जानकार एकमत नहीं थे. कॉर्पोरेट गवर्नेंस के पैरोकार सब कुछ खोलकर रख देना चाहते थे तो बाकियों का मानना था कि कंपनी की सारी जानकारियां आम कर देना उसके हित में नहीं होता. शेषासायी ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था, ‘हमें मालूम है कि हम शीशे के घर में रहते हैं और हम पर सबकी नज़र पड़ना लाज़मी है. पर हमें इतना भी ना घूरा जाए कि हमें असहजता का अनुभव हो और हम काम न कर पाएं.’ उनका कहना था कि सबको पता है कि संस्थापकों की इन्फोसिस में भागीदारी 12.75 फीसदी है और यह काफ़ी है.

प्रॉक्टर एंड गैम्बल के पूर्व सीईओ गुरचरण दास का मानना था कि यह नारायणमूर्ति की हठधर्मिता है. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि संस्थापक जब किसी कंपनी से अलग हो जाए तो उसे सिर्फ नतीजों और अपनी हिस्सेदारी पर ध्यान देना चाहिए न कि हर छोटी-छोटी बात पर. नारायणमूर्ति ने कंपनी के क़ानूनी सलाहकार डेविड केनेडी के विदाई पैकेज पर भी सवाल उठाया था जिसे बोर्ड ने केनेडी के साथ हुए एम्प्लॉयमेंट कॉन्ट्रैक्ट का हवाला देकर समझाया.

क्या मूर्ति का प्रेम धृतराष्ट्र प्रेम है?

अगस्त में इस्तीफ़ा देते वक़्त विशाल सिक्का ने नारायणमूर्ति द्वारा उनपर निजी हमले किये की बात को इस्तीफे का कारण माना. इससे आहत होकर नारायणमूर्ति ने बयान दिया कि वे ऐसा इसलिए नहीं कर रहे हैं कि उन्हें अपने बच्चों के लिए कंपनी में कोई पोजीशन या पॉवर चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि इस बात का जवाब देना भी उनकी गरिमा के ख़िलाफ़ होगा.

नारायणमूर्ति के दो बच्चे हैं-रोहन मूर्ति और अक्षता मूर्ति. 2013 में रोहन मूर्ति ने बतौर एग्जीक्यूटिव असिस्टेंट टू चेयरमैन इन्फोसिस ज्वाइन की थी. यानी वे तत्कालीन चेयरमैन नारायणमूर्ति के असिस्टेंट थे. जब 2014 में सीनियर मूर्ति ने चेयरमैन का पद छोड़ा तब रोहन ने भी नौकरी छोड़ दी. अब कंपनी में उनकी हैसियत महज़ एक शेयरधारक तक ही सीमित है. अक्षता मूर्ति शादी करके लंदन बस गयी हैं और उनका भी इन्फोसिस से कोई लेना देना नहीं है.

मैं ही मैं हूं?

देखा जाता है कि संस्थापक कंपनी को खड़ा करने में अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है. नारायणमूर्ति और अन्य संस्थापकों ने अपने जीवन के बेहतरीन साल और शानदार करियर की क़ुर्बानी देकर इन्फोसिस बनायी थी. और बनाई ही नहीं, बल्कि शानदार बनाई. एक ऐसी कंपनी जिसका इतिहास प्रेरणा देता है, जिसके संस्थापकों का जीवन प्रेरणा देता है, जिसने शानदार परिणाम दिए हैं, जिसने कार चालकों तक को लखपति बनाया है, जो अन्य देशों की नज़र में भारत के आईटी उद्योग का चेहरा है, क्या ऐसी कंपनी से मोह छोड़ा जा सकता है?

जानकार मानते हैं कि गवर्नेंस का कोई मुद्दा नहीं था, बात बस यह थी कि संस्थापकों को हर बात की जानकारी चाहिए थी. आख़िरकार संस्थापक चाहते हैं कि उन्हें अन्य शेयरधारकों से ज़्यादा महत्व मिले और हर बड़े फ़ैसले उनसे पूछ कर किये जाएं. यही शायद झगड़े की वजह रही हो.

दूसरा यह कि विशाल सिक्का कंपनी में आईटी की नयी तकनीक लाना चाहते थे. वे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को लेकर काफ़ी उत्साहित थे. उनके कार्यकाल में इन्फोसिस ड्राइवररहित गाड़ियों पर काम शुरू कर चुकी था. जानकारों के मुताबिक जिस तरह से विनीत नायर ने एचसीएल के कर्मचारियों की सोच बदलकर रख दी थी कुछ वैसा ही शायद विशाल सिक्का करना चाहते थे. यह भी हो सकता है कि लगातार अच्छे परिणामों से कंपनी में सिक्का का ‘सिक्का’ बेहद तेज़ी से आगे बढ़ रहा था जिससे परेशानी होना लाज़मी है. कुल मिलाकर अगर देखा जाये तो सिक्का का स्वभाव नारायणमूर्ति के मिज़ाज से अलग भी है और मेल भी खाता है. तो बशीर बद्र के शेर से बात ख़त्म की जाए:

‘इस तरह यूं साथ निभाना है दुश्वार सा,

तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा.’

चलते-चलते

अर्जुन और कर्ण का युद्ध निर्णायक मोड़ पर आ गया था. कर्ण का तेज़ देखते ही बनता था. कर्ण एक बाण छोड़ता तो अर्जुन का रथ तीन हाथ पीछे चला जाता. अर्जुन एक बाण चलाता तो कर्ण का रथ सात हाथ पीछे ख़िसक जाता. बावजूद इसके श्रीकृष्ण कर्ण की तरफ़ ऐसे देखते कि मानों वे अभी कह उठेंगे ‘वाह कर्ण! वाह!’ अर्जुन ने कृष्ण की आंखों का भाव पढ़ लिया और पूछ बैठा कि उसके बाण से कर्ण का रथ ज़्यादा पीछे जाता है तो फिर भी उनकी आंखों में कर्ण की प्रशंसा क्यों? कृष्ण अपनी चिरपरिचित मुस्कान लिए बोले, ‘तुम्हारे रथ पर मैं तीन लोक का स्वामी, ऊपर रथ की ध्वजा पताका में हनुमान और उसके बाद भी अगर ये रथ तीन हाथ पीछे चला जाए तो क्या समझा जाये?’ अर्जुन जीत कर भी हार गया और कर्ण हारकर भी जीत गया.

इन्फोसिस के बोर्ड ने सलिल एस पारेख को नया सीईओ नियुक्त किया है. नारायणमूर्ति शायद जीत गए हों, पर बहुत से लोग मानते हैं कि विशाल सिक्का प्रकरण में इन्फोसिस की हार हुई और वह कॉर्पोरेट गवर्नेंस भी हार गया जिसकी दुहाई नारायणमूर्ति दे रहे थे.

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