दिशा रवि

Law | न्यायपालिका

क्यों दिशा रवि को मिली जमानत न्यायपालिका में घर कर गईं सबसे बड़ी कमियों को रेखांकित करती है

अदालत ने दिशा रवि के मामले में जिस तरह का रुख अपनाया है उसने न्यायपालिका को मजबूत करने के साथ-साथ उसकी कई कमियों को भी उजागर किया है

विकास बहुगुणा | 04 March 2021 | फोटो: यूट्यूब स्क्रीनशॉट

‘जिला जज ने एक साहसी फैसला दिया है. ऊपरी अदालतों को इससे सीखना चाहिए. न्यायपालिका के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है, लेकिन मैं कहूंगा कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट इस मोर्चे पर पीछे चल रहे हैं.’

चर्चित वकील और पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने यह बात पिछले दिनों एक टीवी परिचर्चा के दौरान कही. जिस जज की वे बात कर रहे थे वे दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा हैं जिन्होंने राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार की गईं पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को 24 फरवरी को जमानत देने का फैसला किया. कई जानकार मानते हैं कि उनका यह फैसला और इसमें कही गई बातें उस भारतीय न्यायपालिका को लेकर थोड़ी उम्मीद जगाती हैं जिस पर हाल के समय में लगातार केंद्र सरकार के साथ खड़े रहने के आरोप लगते रहे हैं.

मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान पर यह आरोप लगता रहा है कि वह अपने लिए एक ऐसी आदर्श परिस्थिति चाहता है जिसमें उसके काम की कोई निष्पक्ष और आलोचनात्मक समीक्षा न की जा सके. ऐसा मानने वालों के मुताबिक इसके चलते ही सरकार की नीतियों का विरोध करने वालों पर राजद्रोह जैसे गंभीर मामले थोप दिए जाते हैं ताकि वे दुबारा ऐसा करने की हिम्मत न कर सकें और दूसरों को भी इससे सबक मिल जाये. शीर्ष न्यायपालिका इस मामले में नागरिकों की स्वतंत्रता के संरक्षण की अपनी जिम्मेदारी निभाती नहीं दिखती. जैसा कि मुकुल रोहतगी का कहना था, ‘राजद्रोह का आरोप एक गंभीर आरोप है. इस (दिशा रवि) मामले में आरोप के समर्थन में कोई सबूत नहीं था.’ उनके मुताबिक इस तरह के (राजद्रोह जैसे) मामलों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट जमानत देने के लिए ज्यादा अनिच्छुक नजर आते हैं और इस लिहाज से निचली अदालत का दिशा रवि को जमानत देने का फैसला असाधारण है.

दिल्ली पुलिस ने दिशा रवि को 15 फरवरी को बेंगलुरु स्थित उनके घर से गिरफ्तार किया था. इसके बाद उन्हें राजधानी लाया गया और पांच दिन तक उनसे पूछताछ की गई. दिशा रवि पर आरोप है कि उन्होंने तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के समर्थन में बनाए गए एक विवादित ‘टूलकिट’ को संपादित कर सोशल मीडिया पर शेयर किया. पुलिस के मुताबिक इस ‘टूलकिट’ का संबंध 26 जनवरी को दिल्ली के लाल किले में हुई हिंसा से है. यह वही टूलकिट है जो पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने भी अपने एक ट्वीट के साथ शेयर किया था. पुलिस ने दिशा रवि पर आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) और 153ए (अलग-अलग समुदायों के बीच धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर वैमनस्य भड़काना) के तहत मामला दर्ज किया है.

उधर, अदालत ने जमानत का विरोध कर रही पुलिस से कहा कि इन आरोपों के समर्थन में वह कोई पुख्ता सबूत पेश करने में असफल रही है. यही नहीं, अपने आदेश में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने कई ऐसी टिप्पणियां कीं जिन्हें इस तरह के मामलों में एक नजीर की तरह माना जा रहा है. उन्होंने कहा, ‘मुझे पता है कि साजिश के अपराध के लिए सबूत जुटाना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन मुझे यह भी मालूम है कि जो बात अभियोजन पक्ष के लिए साबित करना मुश्किल है उस बात को गलत साबित करना बचाव पक्ष के लिए लगभग नामुमकिन है.’ अक्सर इतनी गंभीर और सधी हुई टिप्पणियों की उम्मीद निचली अदालतों से नहीं की जाती है.

टूलकिट मामले के सुर्खियां बनने के बाद असम में एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देश को बदनाम करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय साजिश रची गई. दिल्ली पुलिस ने भी दिशा रवि की जमानत याचिका का विरोध करते हुए अदालत में यही तर्क दिया. लेकिन अपने आदेश में अदालत का कहना था कि पुलिस पांच दिन की हिरासत के दौरान आरोपित से पूछताछ कर चुकी है, आरोपों के समर्थन में कोई पुख्ता सबूत नहीं दिए गए हैं और इसलिए अब हिरासत आगे बढ़ाना न तार्किक है और न ही वैध, अपने आदेश में उसने कहा, ‘जांच एजेंसी ने समझ-बूझकर और अब तक जुटाए गए साक्ष्यों की मजबूती के आधार पर आरोपित को गिरफ्तार किया था और इसके आगे अब उसे अपनी आशंकाओं के आधार एक नागरिक की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की इजाजत नहीं दी जा सकती.’

अपने फैसले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने सरकार को झटका देने वाली और भी बातें कहीं. मसलन ‘टूलकिट’ में हिंसा के लिए किसी भी उकसावे के आरोप को खारिज करते हुए उनका कहना था, ‘किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार की अंतरात्मा के रखवाले होते हैं. सिर्फ राज्य की नीतियों से सहमत न होने के लिए उन्हें जेल नहीं भेजा जा सकता’ फैसले में आगे कहा गया, ‘सरकारों के अहंकार को लगी चोट को ठीक करने के लिए राजद्रोह कानून का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.’

अपने फैसले में अदालत ने सरकार को असहमतियों के प्रति उदार रुख रखने की भी नसीहत दी. उसने कहा कि राज्य की नीतियों में वस्तुनिष्ठता लाने के लिए विचारों में भिन्नता, असहमतियों और यहां तक कि घोर आपत्तियों को भी वैध उपकरण माना गया है. फैसले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने लिखा, ‘उदासीन और हर बात मानने वाले नागरिकों के उलट जागरूक और मुखर नागरिक निर्विवादित रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र की निशानी होते हैं. 5000 साल पुरानी हमारी सभ्यता अलग-अलग दिशाओं से आने वाले विचारों के लिए कभी भी अनिच्छुक नहीं रही.’

सरकार को एक और झटका देते हुए अदालत का कहना था कि कानून का उल्लंघन किए बिना संचार माध्यमों का इस्तेमाल करके दुनिया भर से समर्थन जुटाने में कुछ भी गलत नहीं है. अपने फैसले में उसने कहा, ‘असहमति का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में दृढ़ता के साथ निहित है. मेरे विचार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में पूरी दुनिया तक अपनी बात पहुंचाने की आजादी भी शामिल है. संवाद के लिए कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं.’

दिशा रवि की गिरफ्तारी पर शुरू से ही सवाल उठ रहे थे. नियम के मुताबिक किसी दूसरे राज्य में गिरफ्तारी की कवायद के बाद पुलिस को स्थानीय अदालत में आरोपित को पेश कर ट्रांजिट रिमांड लेनी होती है. लेकिन रवि के मामले में पुलिस ने ऐसा नहीं किया. ऐसे में तमाम जानकारों का भी यही कहना था कि विरोध की जरा सी आहट पर लोगों की इस मनमाने तरीके से गिरफ्तारी नागरिकों को मिले स्वतंत्रता के उस अधिकार पर चोट है जो उन्हें संविधान ने दिया है. अपने एक ट्वीट में लेखक और अधिवक्ता सौरभ कृपाल का कहना था, ‘अगर किसी ने अपराध किया है तो उस पर मुकदमा चलाएं और उसे सजा दें. पुलिस का काम है जांच करना और मुकदमे से पहले ही (सजा के विकल्प के तौर पर) गिरफ्तारी इस जिम्मेदारी से बचने जैसा है.’

आजाद भारत के महानतम न्यायाधीशों में गिने जाने वाले जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने 1977 में अपने एक फैसले में कहा था कि जमानत अधिकार और जेल अपवाद होनी चाहिए. तब भारत की जेलों में ऐसे कैदियों की हिस्सेदारी 55 फीसदी थी जो अपना मुकदमा शुरू होने का इंतजार कर रहे थे. आज यह आंकड़ा 69 फीसदी तक पहुंच चुका है. दिल्ली और बिहार जैसे राज्यों में तो हर 10 में से आठ कैदी ऐसे हैं. दिल्ली के एक अधिवक्ता अभिनव सीकरी के एक अध्ययन के मुताबिक इन कैदियों में से 28 फीसदी ऐसे होते हैं जिन्हें तीन से छह महीने का वक्त सलाखों के पीछे बिताने के बाद ही जमानत मिल पाती है.

कई जानकार मानते हैं कि हाल के समय में खास कर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट जमानत देने में जिस तरह की अनिच्छा दिखाते रहे हैं उसके चलते ‘जमानत अधिकार और जेल अपवाद’ की परंपरा उलटी होती दिखी है. हालांकि इसके लिए मुख्य तौर पर पुलिस को जिम्मेदार माना जाता है जो अक्सर मामलों में गैरजरूरी होने पर भी गंभीर धाराएं लगा देती है. लेकिन बहुत से विश्लेषक मानते हैं कि न्यायपालिका भी इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती. मुकुल रोहतगी की मानें तो अदालतों ने अपना रुख ही ऐसा कर लिया है कि वे जमानत देने में लंबा समय लगाती हैं और तब तक आरोपित जेल में कई महीने बिता चुका होता है.’ वे कहते हैं, ‘अब ये मान लिया गया है कि जमानत न देना एक तरह से सजा जैसा ही है और ऐसा अदालतों ने होने दिया है. अरे चलता है. रहने दो उसको 30, 40, 90 दिन जेल में. उसे पता तो चले सजा कैसी होती है क्योंकि 50 फीसदी संभावना तो यही है कि आखिर में वो बरी हो जाएगा.

वकीलों, पत्रकारों और अकादमिकों के एक समूह आर्टिकल 14 के आंकड़ों के मुताबिक केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद से यानी 2014 के बाद करीब 500 व्यक्तियों पर राजद्रोह के मामले दर्ज हुए हैं. लेकिन सरकार द्वारा संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक 2014 से 2019 तक ऐसे मामलों में सिर्फ 10 लोगों पर अपराध साबित हुआ था. आधिकारिक आंकड़े यह भी बताते हैं कि राजद्रोह के मामलों में दोष साबित होने की दर 2014 के 33 फीसदी से गिरकर 2019 में तीन फीसदी तक आ गई है. कमोबेश यही हाल अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (यूएपीए) के तहत दर्ज होने वाले मामलों का है.

जानकारों के मुताबिक इसकी सबसे बड़ी वजह राजद्रोह कानून का बहुत ज्यादा और बेजा इस्तेमाल है. ऐसे मामलों में दोषी साबित होने की लचर दर बताती है कि एक बड़ी हद तक सरकारें इन कानूनों को महज अपनी नीतियों से असहमत होने वालों को प्रताड़ित करने के लिए इस्तेमाल करती हैं. बीबीसी से बातचीत में वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्वेस मानते हैं कि सरकार जनांदोलनों में शामिल युवाओं को डराने के लिए राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल कर रही है. आंकड़े भी बताते हैं कि हाल के सालों में राजद्रोह से जुड़े मामलों में जो बढ़ोतरी हुई है वह सरकारों के खिलाफ जन आंदोलनों से जुड़ी है. कॉलिन गोंसाल्वेस कहते हैं कि इस कानून की प्रक्रिया ही अपने आप में एक सजा है.

ऐसा इसलिए है कि इस तरह के मामलों में जमानत के लिए काफी चक्कर काटने पड़ते हैं. मुकुल रोहतगी के मुताबिक सरकारी अफसरों पर फाइल इधर से उधर खिसकाते रहने और अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर डालने का आरोप लगता रहा है और यही अब न्यायपालिका में भी हो रहा है. वे कहते हैं, ‘पहली अदालत कहती है कि जिला अदालत जाओ. जिला अदालत कहती है कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जाओ. हम जमानत नहीं देंगे. तुम्हें कुछ वक्त बिताना पड़ेगा. अब यही नजरिया है. कुछ वक्त बिताओ.’ वे मानते हैं कि न्यायपालिका को जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर के उस मशहूर फैसले पर लौटना पड़ेगा कि जमानत अधिकार है और जेल अपवाद होनी चाहिए.

यही वजह है कि दिशा रवि को जमानत मिलना असाधारण और उम्मीद की किरण माना जा रहा है. कइयों के मुताबिक सरकार ने जिस तरह से उनके खिलाफ कार्रवाई की वह गैरजरूरी और तानाशाही रवैय्ये से भरी थी, लेकिन इसकी एक खास वजह भी थी. जैसा कि रामचंद्र गुहा अपने एक लेख में कहते हैं, ‘केंद्र सरकार इस युवा कार्यकर्ता से इसलिए डरती है क्योंकि उसके संगठन, फ्राइडेज फॉर द फ्यूचर (एफएफएफ) ने पर्यावरण से जुड़े उन उल्लंघनों की तरफ लोगों का ध्यान खींचा है जो भारतीय राज्य व्यवस्था ने किये हैं.’ एफएफएफ ड्राफ्ट ईआईए 2020 (पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन संबंधी अधिसूचना 2020) के मसौदे पर गंभीर सवाल उठाता रहा है. उसके मुताबिक इसमें किसी परियोजना पर सार्वजनिक विचार-विमर्श का दायरा घटा दिया गया है और पर्यावरण से जुड़ी मंजूरियों को परियोजना शुरू करने के बाद लेने की इजाजत दे दी गई है.

दिशा रवि को जमानत का यह फैसला लोकतंत्र की मजबूती के लिए संस्थानों की मजबूती की जरूरत को भी रेखांकित करता है. साथ ही, वह यह भी बताता है कि सिर्फ एक शख्स भी कितना फर्क पैदा कर सकता है. दिशा रवि को जमानत दिए जाने के फैसले के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण का कहना था, ‘ईश्वर का शुक्र है कि अभी भी ऐसे जज हैं जो स्वतंत्रता के अधिकार और इस नियम को समझते हैं कि किसी आरोपित को केवल असाधारण हालात में जमानत देने से इनकार किया जा सकता है.’ अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ की सचिव कविता कृष्णन ने भी इसे न्यायपालिका को लेकर उम्मीद की किरण बताया. उनका कहना था कि दिशा रवि की तरह शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों का समर्थन करने वाले कई लोग अब भी जेल में हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि इस फैसले से उनकी तरफ भी ध्यान जाएगा.

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