किसानों का विरोध प्रदर्शन

Politics | कोविड-19

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में किसान आंदोलन का भी हाथ तो है, भले ही इसकी चर्चा उतनी न होती हो

कोविड-19 की दूसरी लहर के लिए ज्यादातर लोग कुंभ और चुनावों को तो जिम्मेदार मानते हैं लेकिन वे इसमें किसान आंदोलन की भूमिका को नजरअंदाज कर देते हैं

विकास बहुगुणा | 25 May 2021 | फोटो: यूट्यूब स्क्रीनशॉट

‘कोरोना के खत्म होने के बाद सरकार के खिलाफ आपकी लड़ाई जारी रह सकती है. लेकिन इसके लिए ये सही समय नहीं है.’

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने यह बात बीती 16 मई को हिसार में कोविड-19 के मरीजों के लिए बने एक अस्पताल का उद्घाटन करते हुए कही. उनका कहना था कि किसानों के आंदोलन की वजह से कई गांव कोरोना का हॉटस्पॉट बन गए हैं. मनोहर लाल खट्टर ने आगे कहा कि गांवों से किसान लगातार धरनों में शामिल होने जा रहे हैं और फिर वापस गांव पहुंच रहे हैं जिसके चलते कोरोना वायरस का संक्रमण तेजी से बढ़ा है. हरियाणा के मुख्यमंत्री सहित कई लोगों का एक वर्ग है कि जिसका मानना है कि किसान आंदोलन भी कोरोना संकट को महाविस्फोट बनाने वाले प्रमुख कारणों में से एक है.

पिछले साल सितंबर में केंद्र सरकार ने खेती से जुड़े तीन कानून लागू किए थे. इन्हीं कानूनों के खिलाफ किसान बीते नवंबर से दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं. वे मांग कर रहे हैं कि इन तीनों कानूनों को वापस लिया जाए और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी हो. उधर, सरकार का रुख अभी तक यही रहा है कि कानून वापस तो नहीं होंगे, लेकिन उनमें कुछ सुधार हो सकता है. दोनों पक्षों के बीच 11 दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन गतिरोध जस का तस है.

लेकिन क्या किसानों की वजह से भी कोरोना वायरस संक्रमण की स्थिति इतनी विस्फोटक हुई है? इस सवाल की पड़ताल करने से पहले यह जिक्र करना जरूरी है कि इस महामारी के इस कदर विकराल होने के पीछे जिन घटनाओं को सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना गया है वे हैं कुंभ और विधानसभा चुनाव. पहले कुंभ की बात करते हैं. हर 12 साल में होने वाला कुंभ इस बार ज्योतिषीय कारणों के चलते हरिद्वार में एक साल पहले ही हो गया. हालांकि कोरोना महामारी के बीच इस आयोजन के औचित्य पर सवाल उठ रहे थे. एक वर्ग का मानना था कि मौजूदा हालात को देखते हुए इसे टाल दिया जाना चाहिए. अतीत में ऐसा हो चुका है. 1891 में हरिद्वार में ही हुए कुंभ के दौरान हैजा फैल गया था जिसने डेढ़ लाख से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली थी. इसके बाद तत्कालीन सरकार ने कुंभ रोक दिया था और लाखों यात्रियों को मेला क्षेत्र छोड़ने के आदेश दिए थे. 1897 में भी अर्ध कुंभ के दौरान प्लेग से कई यात्री मरे और फिर कुंभ रोका गया.

लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. हालांकि बताया जाता है कि उत्तराखंड के पिछले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत कोशिश कर रहे थे कि महामारी के चलते इस बार कुंभ मेले को प्रतीकात्मक ही रखा जाए, लेकिन इस चक्कर में उन्हें अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी. चर्चित मैगजीन द कैरेवां से बातचीत में भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का कहना था कि ऐसी आपदा के बीच भी कुंभ का पूरी भव्यता के साथ आयोजित कराने का फैसला राजनीतिक था. उन्होंने कहा, ‘कुंभ होने दिया गया क्योंकि आठ महीने बाद उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं. चुनाव से सिर्फ साल भर पहले सहयोगियों को नाराज करने का कोई मतलब नहीं बनता था.’

उनका इशारा अखाड़ों की तरफ था. कई अन्य लोग भी हैं जो मानते हैं कि अगर कुंभ टाला जाता तो इन अखाड़ों के महंतों की कमाई चली जाती और आखिर में इसका नुकसान भाजपा को होता. भाजपा के वरिष्ठ नेता के मुताबिक 2019 में एक बैठक में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत से कहा था कि वे ऐसा कुछ न करें जिससे अखाड़े नाराज हों.

लेकिन बीती फरवरी में जब उत्तराखंड सरकार ने कुंभ के लिए नियम-कायदे (एसओपी) जारी किए तो यह जाहिर हो गया कि त्रिवेंद्र सिंह रावत कुंभ को प्रतीकात्मक ही रखना चाहते हैं. इन नियमों के अनुसार कुंभ मेला क्षेत्र में तंबू, पंडाल, यज्ञ और भजन-कीर्तन आदि पर रोक लगा दी गई थी. फिर वही हुआ जो प्रधानमंत्री नहीं चाहते थे. अखाड़े नाराज हो गए. अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि का कहना था कि जब धार्मिक आयोजन ही नहीं होंगे तो कुंभ का क्या औचित्य है. इसके कुछ दिन बाद ही त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी चली गई और उनकी जगह तीरथ सिंह रावत उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री बन गए.

इसके बाद साफ हो गया कि क्या होने वाला है. उदाहरण के लिए 14 मार्च को तीरथ सिंह रावत का बयान आया कि कुंभ के लिए हरिद्वार आने वालों को कोविड-19 नेगेटिव रिपोर्ट लाने की कोई जरूरत नहीं है. तीरथ सिंह रावत का कहना था, ‘कुंभ स्नान में आने के लिए लोग 12 साल इंतजार करते हैं. ऐसा वातावरण नहीं होना चाहिए कि कुंभ में आने से न जाने क्या हो जाएगा. यह भावनात्मक विषय है… कुंभ में लाखों लोग आएंगे, किस-किस की जांच करेंगे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘अखाड़ों की झांकियां होंगी और इन्हें कोई देखने वाला नहीं है तो क्या मजा है? इसलिए कुंभ में बड़ी संख्या में लोग आएं. रोक-टोक नहीं होनी चाहिए.’

सरकार ने कुंभ में भीड़ जुटने का इंतजाम तो कर दिया, लेकिन कोरोना से सुरक्षा के मोर्चे पर वह पर्याप्त इंतजाम न कर सकी. अप्रैल का दूसरा पखवाड़ा आते-आते साधुओं में कोरोना संक्रमण की खबरें आने लगी थीं. फिर जब इसके चलते निर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर कपिल देव दास की मौत हो गई तो कई अखाड़ों ने अंतिम शाही स्नान, जो 27 अप्रैल को होना था, से पहले ही कुंभ के समापन की घोषणा कर दी. कुंभ में भीड़ सीमित करने की कोशिशों पर नाराजगी जताने वाले निरंजनी अखाड़े के महंत और अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि को भी कोरोना संक्रमण हो गया था. बड़ी मुश्किल से उनकी जांच बची.

तब से लेकर अब तक कई साधुओं की कोरोना से मौत हो चुकी है. यही नहीं, जिस उत्तराखंड में हरिद्वार पड़ता है वह कोरोना संक्रमण से मरीजों के उबरने की दर (रिकवरी रेट) के मामले में सबसे बुरा प्रदर्शन कर रहा है. यहां रिकवरी रेट 67.8 फीसदी है. यानी अब तक जितने लोगों को संक्रमण हुआ है उनमें से 32.2 फीसदी लोग बीमारी से उबर नहीं सके हैं. राज्य में कोरोना वायरस से मृत्यु दर भी राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है.

स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि इस कुंभ में जिन 90 लाख लोगों ने गंगा में डुबकी लगाई उनमें से एक बड़ी संख्या ऐसी है जो अपने साथ कोरोना वायरस को देश के कोनों-कोनों में ले गई. इनमें कई साधु भी शामिल हैं. जैसा कि बीबीसी से बातचीत में महामारी विशेषज्ञ डॉक्टर ललित कांत कहते हैं, ‘बड़ी संख्या में बिना मास्क पहने टोली बना कर गंगा किनारे गंगा की महानता गाने वाले इन समूहों ने कोरोना वायरस के तेज़ी से फैलने के लिए माक़ूल माहौल बनाया. हमें पहले से ही पता है कि चर्चों और मंदिरों में टोली बना कर प्रार्थना करने जैसी घटनाओं को सुपर स्प्रेडर घटनाएं कहा जाता है.’

जो लोग कुंभ से लौटने के बाद कोरोना पॉजिटिव पाए गए उनमें समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव और नेपाल के पूर्व राजा और रानी ज्ञानेंद्र शाह और कोमल शाह भी शामिल हैं. कुंभ से लौटने के बाद जाने-माने संगीतकार श्रवण राठौड़ की भी कोरोना संक्रमण से मौत हो गई. तमाम राज्यों में कुंभ से लौटे लोगों के कोरोना पॉजिटिव पाए जाने की खबरें आ रही हैं.

क्या कोरोना वायरस से उपजे हालात को देखते हुए यह बेहतर नहीं होता कि यह मेला टाल दिया जाता? इस सवाल पर कुंभ में शामिल होने के बाद संक्रमित हुए एक साधु महंत शंकर दास का बीबीसी से बातचीत में कहना था, ‘अगर ऐसा है तो सरकार के लिए पश्चिम बंगाल में चुनाव करवाना और चुनावी रैलियां करवाना क्या सही है? ऐसा क्यों है कि हम जैसे ईश्वर के भक्तों को ही कहा जा रहा है कि मेले में हमारा जाना ग़लत था?’

कोरोना संक्रमण के विस्फोट का दूसरा सिरा इसी चुनाव से जुड़ता है. कई मानते हैं कि जिस तरह से हालिया विधानसभा चुनावों के दौरान खासकर पश्चिम बंगाल में एहतियाती उपायों को धड़ल्ले से दरकिनार किया गया उसने भी कोरोना की दूसरी लहर को विकराल बनाने में अहम भूमिका निभाई.

कई विश्लेषकों का मानना है कि यह राजनीति लाभ के लिए किया गया. पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव आठ चरणों में करवाए गए थे. इसके चलते आरोप लगे कि ऐसा इसलिए किया गया है ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह असम, केरल और तमिलनाडु जैसे दूसरे राज्यों में चुनाव प्रचार के साथ पश्चिम बंगाल को भी भरपूर समय दे सकें जहां भाजपा को सत्ता में आने की उम्मीद थी. प्रधानमंत्री का ज्यादातर फोकस भी पश्चिम बंगाल पर ही था जहां उन्होंने 20 रैलियों का कार्यक्रम बनाया था. भाजपा में नंबर दो और तीन अमित शाह और जेपी नड्डा के लिए यह आंकड़ा इसके दोगुने से भी ज्यादा था.

लेकिन एक तरफ ये रैलियां हो रही थीं और दूसरी तरफ देश में कोरोना संक्रमण के मामले रोज नया रिकॉर्ड बना रहे थे. सरकार के जागरूकता विज्ञापनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘दो गज दूरी, मास्क है जरूरी’ जैसे संदेश दे रहे थे और दूसरी तरफ ऐसी चुनावी रैलियां कर रहे थे जिनमें बिना मास्क लगाये लाखों लोग शामिल हो रहे थे. ऐसा विरोधाभास 17 अप्रैल को भी देखने को मिला जब सुबह नरेंद्र मोदी ने हरिद्वार में कुंभ को प्रतीकात्मक रखने की अपील की और थोड़ी ही देर बाद वे पश्चिम बंगाल के आसनसोल में लोगों के विशाल जमावड़े पर खुशी जाहिर करते नजर आए.

अप्रैल का तीसरा हफ्ता आते-आते अस्पतालों में लगे लाशों के ढेरों और श्मशानों में दिन-रात जलती चिताओं की तस्वीरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छपने लगी थीं. चौतरफा आलोचना के बाद बाद नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के अंतिम चरण वाली अपनी रैलियां रद्द करने का ऐलान किया. तब तक कोरोना वायरस के मामलों का आंकड़ा करीब साढ़े तीन लाख प्रति दिन तक पहुंच चुका था.

कई जानकारों के मुताबिक कुंभ और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान यह साफ दिखा कि देश के केंद्रीय नेतृत्व ने राजनीतिक लाभ के लिए कोरोना वायरस के खतरे को नजरअंदाज कर दिया. कुछ तो इसे नजरअंदाज करने से ज्यादा आपदा को न्योता देने जैसा भी मानते हैं. पश्चिम बंगाल में जिस तरह से चुनाव प्रचार चल रहा था उसे देखते हुए विशेषज्ञ लगातार चेता रहे थे. वे कह रहे थे कि रैलियों में आए तमाम लोग मास्क नहीं पहन रहे हैं और इससे वायरस के प्रसार का खतरा कई गुना बढ़ रहा है. लेकिन रैलियां जारी रहीं.

अब खबर है कि पश्चिम बंगाल में एक ऐसे कोरोना वायरस के काफी मामले देखे जा रहे हैं जिसने अपने स्वरूप में तीन बदलाव (म्यूटेशन) कर लिए हैं. इस वायरस को बी.1.618 कहा जा रहा है. कुछ विश्लेषक इसे बंगाल स्ट्रेन भी कह रहे हैं. म्यूटेशन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसके तहत वायरस वक्त के साथ अपनी संरचना में इस तरह के बदलाव करता है जिससे उसकी जीवित रहने और तादाद में बढ़ोतरी की क्षमता बढ़ जाए. एनडीटीवी से बातचीत में कनाडा की मैकगिल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और महामारी विशेषज्ञ मधुकर पई कहते हैं, ‘ये (बी.1.618) लोगों की एक बड़ी तादाद को बहुत जल्दी बीमार बना रहा है.’

वापस किसान आंदोलन पर आते हैं. कई मानते हैं कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर को इस कदर विकराल बनाने में इस आंदोलन की भी भूमिका है. यह अलग बात है कि उसकी उतनी चर्चा नहीं हो रही. अलग-अलग खबरों के मुताबिक पंजाब के तरनतारन, मुक्तसर साहिब, बरनाला, संगरूर, बठिंडा, मानसा और मोगा जिलों में कोरोना के मामलों में काफी तेजी देखी जा रही है. दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट के मुताबिक तरनतारन में दिल्ली के धरने में शामिल होकर 900 किसान लौटे जिनमें से अब तक सात की कोरोना संक्रमण से मौत हो चुकी है. केंद्र की एक आंतरिक रिपोर्ट के हवाले से भी दावा किया जा रहा है कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में कोरोना वायरस का गिरता ग्राफ अगर इस साल की शुरुआत में फिर चढ़ने लगा तो इसमें किसान आंदोलन का भी हाथ था.

हालांकि कुंभ और चुनाव की तरह किसान आंदोलन के मामले भी सरकार अपनी तरफ से सजग रहकर हालात गंभीर होने से रोक सकती थी. लेकिन वह छवि प्रबंधन की तरफ ज्यादा ध्यान देती दिखी. इस तरह वह अपने ही जाल में फंस गई. जैसा कि अपने एक लेख में ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी से जुड़े प्रोफेसर मोहसिन खान लिखते हैं, ‘मध्यमार्गी शक्तियों के उलट दुनिया भर में दक्षिणपंथी ताकतें दृढ़ता को सम्मान के साथ जोड़कर देखती हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपने वोटरों के बीच लोकप्रियता का आधार भी यही है. पीछे हटने का मतलब कमजोरी और तिरस्कार होता है.’ कई दूसरे जानकार भी मानते हैं कि थोड़ा नरम रुख दिखाने के बाद आखिर में किसान आंदोलन से निपटने का सबसे बढ़िया तरीका सरकार को यही लगा कि इसे जोर-जबर्दस्ती और जुगत लगाकर खत्म कर दिया जाए.

इस साल 26 जनवरी को दिल्ली में जब किसानों की विशाल ट्रैक्टर रैली हुई तो किसानों का एक गुट लाल किले भी पहुंच गया. इसके बाद उनके खिलाफ जनता में माहौल बनाने की कोशिश हुई और सरकार सख्त हो गई. धरना स्थलों के आसपास बैरीकेडिंग की जाने लगी. भारी तादाद में पुलिस बल और आरपीएफ की तैनाती होने लगी. ऐसा लगने लगा कि अब किसान आंदोलन खत्म हो जाएगा. लेकिन किसान नेता राकेश टिकैत के आंसुओं ने बाजी फिर पलट दी.

जानकारों का मानना है कि इस मामले में सरकार के पास कहीं बेहतर विकल्प था. सुप्रीम कोर्ट ने बीते जनवरी में अगले आदेश तक तीनों कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी थी. कई मानते हैं कि इस तरह शीर्ष अदालत ने सरकार को एक सुरक्षित रास्ता दे दिया था. उनके मुताबिक अब तो कानून वैसे भी लागू नहीं होने वाले थे, तो प्रधानमंत्री किसानों के साथ सीधे बात कर सकते थे और कह सकते थे कि आगे ये कानून किसानों के साथ एक आम सहमति बनने के बाद ही लागू होंगे. लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया और किसान धरनों पर जमे रहकर कोरोना का खतरा बढ़ाते रहे.

यह सिलसिला अभी तक जारी है. 16 मई को हिसार में मनोहर लाल खट्टर के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए किसानों की बड़ी भीड़ भी जुटी थी. पुलिस ने उन्हें रोकने के लिए बैरिकेडिंग की. लेकिन गुस्साए किसानों ने उसे तोड़कर आगे निकलना शुरू कर दिया. हालात काबू करने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसूगैस का सहारा लिया. इस झड़प में कई किसान घायल हो गए. इस घटना पर भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने तीखी प्रतिक्रिया दी. उन्होंने कहा कि किसानों पर हुए लाठीचार्ज के विरोध में अब दूसरे राज्यों में भी आंदोलन तेज किया जाएगा. 16 मई के लाठीचार्ज के बाद हिसार हरियाणा में किसान आंदोलन के नये गढ़ के रूप में उभर रहा है. शहर के इर्द-गिर्द बने टोल प्लाजा पर किसानों का जमावड़ा बढ़ने लगा है. 25 मई को हिसार में किसानों की एक विशाल भीड़ ने कमिश्नर ऑफिस का घेराव किया और 26 मई को संयुक्त किसान मोर्चे ने देशव्यापी प्रदर्शन करने की बात कही है.

साफ है कि सरकार अब भी अतीत की गलतियों से सबक लेने के लिए तैयार नहीं है. इसके लिए उसे अतीत से निकले इस सवाल का जवाब देने की जरूरत है कि कोरोना महामारी के बीच में ही उसे किसान कानूनों जैसे विवादित फैसले लेने की जरूरत ही क्या थी? जब सरकार को कोरोना की अगली लहर से मुठभेड़ करने के लिए अस्पताल बनाने, उनमें बेड बढ़ाने और ऑक्सीजन की उपलब्धता सुनिश्चित करनी थी तब वह लगातार कई महीने किसान आंदोलन से निपटने में ही अपना समय और ऊर्जा नष्ट कर रही थी. जानकारों का मानना है और ऐसा ऊपर से भी साफ ही दिखता है कि नंवबर 2020 से फरवरी 2021 तक मोदी सरकार जितना समय किसान आंदोलन से निपटने में लगा रही थी अगर वह कोविड-19 से निपटने की तैयारी में लगा दिया जाता तो हजारों लोगों की जान बचायी जा सकती थी.

इसका साधारण सा जवाब यह हो सकता है कि किसान आंदोलन ही ना करते तो मोदी सरकार इस मसले में न उलझती और कोरोना वायरस से निपटने के उपाय करती. लेकिन इसके जवाब में किसान या दूसरे पक्ष वाले यह पूछ सकते हैं कि क्या यह सरकार की अदूरदर्शिता नहीं थी कि उसने इतना विवादित फैसला लेते समय कोरोना महामारी के बारे में नहीं सोचा? उसने जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कोरोना आपदा का इस्तेमाल हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाने के एक अवसर की तरह क्यों नहीं किया? वैसे किसान आंदोलन में शामिल और दूसरे कुछ लोगों का भी यह मानना भी है कि ऐसा भी हो सकता है कि सरकार ने महामारी का फायदा उठाकर ही इन कानूनों को लागू करने की कोशिश की ताकि इनका विरोध कम से कम हो सके. उसने न तो संसद में इन कानूनों पर कोई चर्चा की और जब किसान आंदोलन अपने चरम पर पहुंच रहा था तो संसद का शीत सत्र भी नहीं होने दिया गया.

यहां लगभग ऐसी ही बात कुंभ के संदर्भ में भी कही जा सकती है. जब कोरोना वायरस से निपटने के लिए तैयारी करने का वक्त था तब उत्तराखंड की सरकार कुंभ की तैयारी कर रही थी. ठीक वैसे ही जैसे केंद्र सरकार कोरोना महामारी के बजाय किसान आंदोलन से निपटने की तैयारी कर रही थी.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022