नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप

Politics | कोरोना वायरस

कोरोना महामारी: क्या हमने भी वही गलतियां कीं जो बीते साल अमेरिका ने की थीं?

डोनाल्ड ट्रंप ने अपने राजनीतिक लाभ के चलते सही समय पर सही फैसले नहीं लिए थे जिससे अमेरिका में कोरोना महामारी ने विकराल रूप अख्तियार कर लिया था

अभय शर्मा | 17 May 2021 | फोटो : पीआईबी

पूरी दुनिया बीते करीब एक साल से कोविड-19 यानी कोरोना वायरस की चपेट में है. जिन दो देशों ने इसकी सबसे ज्यादा मार सही है, वे अमेरिका और भारत हैं. अमेरिका में बीते साल कोरोना ने बड़ी तबाही मचाई थी जबकि भारत को उसने इस साल झकझोर कर रख दिया है. अमेरिका में ऐसी स्थिति के लिए पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को जिम्मेदार माना जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रंप ने अपने राजनीतिक लाभ के चलते सही समय पर सही फैसले नहीं लिए जिस वजह से अमेरिका में कोरोना महामारी ने विकराल रूप अख्तियार कर लिया. कोरोना की दूसरी लहर आने से पहले भारत ने भी लगभग उसी तरह से फैसले लिए जिस तरह पिछली साल डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने लिए थे.

डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका को कैसे मुश्किल में डाल दिया था

बीते साल जब दुनिया कोरोना वायरस से निपटने के तरीके ढूंढ रही थी, तब डोनाल्ड ट्रंप नवंबर 2020 में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए रणनीति बनाने में लगे थे. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य अधिकारियों से लेकर तमाम खुफिया एजेंसियों ने जनवरी 2020 से ही राष्ट्रपति प्रशासन को कोरोना वायरस की चेतावनी देना शुरू कर दिया था. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप इन्हें नजरअंदाज करते रहे और इस महामारी से निपटने की कोई तैयारी उन्होंने नहीं की. जर्मनी सहित कई देशों ने जनवरी से ही कोरोना वायरस की टेस्ट किट्स बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी. लेकिन अमेरिका ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया. सीएनएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक जर्मनी और डब्ल्यूएचओ ने जनवरी में ही अमेरिका को टेस्टिंग किट्स देने की पेशकश भी की थी, लेकिन ट्रंप प्रशासन ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. इसके बाद फरवरी 2020 में जब अमेरिका में कोरोना के मामले बढ़ने शुरू हो गये, तब भी टेस्टिंग करने को लेकर डोनाल्ड ट्रंप गंभीर नहीं थे. 28 फरवरी को जब प्राइवेट लैब्स द्वारा अमेरिकी कांग्रेस को एक पत्र लिखा गया तब कहीं जाकर अगले दिन सरकार ने उन्हें कोरोना वायरस की टेस्टिंग किट बनाने और टेस्ट करने की अनुमति दी. ‘सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट’ में वैश्विक महामारी के विशेषज्ञ जेरेमी कोनडायक सीएनएन से बातचीत में कहते हैं, ‘शुरुआती दिनों में केवल सरकारी एजेंसी – सीडीए – पर डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन की निर्भरता के चलते टेस्टिंग में देरी हुई और इससे अमेरिका में कोविड-19 फैल गया.’

बीते साल जनवरी और फरवरी में जिस समय सीआईए कोरोना वायरस की चेतावनी दे रही थी, उस दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने दस रैलियां कीं. फरवरी के अंत में वे भारत की दो दिवसीय यात्रा पर भी आये और गुजरात के अहमदाबाद में एक रैली को संबोधित किया. इसका मकसद भी नरेंद्र मोदी के जरिये भारतीय मूल के अमेरिकी वोटरों को साधना ही था. मार्च 2020 में जब कोरोना वायरस अमेरिका में बड़ी तेजी से पैर पसार रहा था, तब भी ट्रंप ने इसके शुरुआती हफ्ते में दो रैलियां की. कोरोना वायरस जैसी महामारी के दौरान भी डोनाल्ड ट्रंप के लिए चुनाव प्रचार कितना जरूरी था, इसका पता उनके एक बयान से ही लग जाता है. सात मार्च 2020 को एक प्रेस वार्ता में उन्होंने कहा कि भले ही कोरोना के चलते भीड़ न जुटाने की सलाह दी गयी है, लेकिन अभी अपनी रैलियां रोकने की उनकी कोई योजना नहीं है. अमेरिकी जानकारों के मुताबिक विशेषज्ञों की अपील के बाद भी मार्च में ट्रंप ने लॉकडाउन नहीं लगाया क्योंकि यह डर सता रहा था कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो वे चुनाव प्रचार नहीं कर पाएंगे.

राष्ट्रपति चुनाव से ही जुड़ी एक और वजह थी जिसके चलते भी अमेरिका में जल्द और कठोर लॉकडाउन नहीं लगाया गया. दरअसल, 2016 में राष्ट्रपति बनने के बाद से ही डोनाल्ड ट्रंप ने अपना पूरा जोर अमेरिका की अर्थव्यवस्था को बेहतर करने पर लगाया था. उनके प्रयासों के चलते अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली, और वहां बेरोजगारी दर 50 सालों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी. जानकारों के मुताबिक डोनाल्ड ट्रंप ने कोरोना वायरस के खिलाफ जल्द कोई बड़ा कदम इसीलिए भी नहीं उठाया क्योंकि उन्हें लगा कि अगर चुनाव से ठीक पहले लॉकडाउन जैसा फैसला लिया गया तो उससे अर्थव्यवस्था को नुकसान होना तय है. ऐसा होने पर कहीं उनकी चार साल की मेहनत पर पानी न फिर जाए और इसके चलते उन्हें चुनाव की अपनी पूरी रणनीति ही न बदलनी पड़े. अधिकांश सर्वेक्षण भी कह रहे थे कि लॉकडाउन लगने पर तीन करोड़ अमेरिकी अपनी नौकरियां गंवा सकते हैं और अमेरिका की जीडीपी वृद्धि दर नकारात्मक हो सकती है. जानकारों के मुताबिक अर्थव्यवस्था की बदहाली से उद्योगपतियों को भी नुकसान होता और इसका सीधा असर डोनाल्ड ट्रंप के चुनावी चंदे पर पड़ता.

हालांकि, अपने प्रशासन के अधिकारियों और अमेरिकी संस्था सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (सीडीसी) के दबाव के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति 24 मार्च 2020 को कुछ रियायतों के साथ लॉकडाउन लगाने को तैयार हो गए. लेकिन, कोरोना वायरस के मामलों और मौतों के आंकड़े कम न होने के बावजूद उन्होंने 17 अप्रैल को शर्तों के साथ लॉकडाउन को खोलने की घोषणा कर दी. ट्रंप ने यह फैसला तब लिया था जब लॉकडाउन खोलने के फैसले को अमेरिका के ही 20 से ज्‍यादा महामारी विशेषज्ञों ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा बताया था. इनका कहना था कि अमेरिका को लॉकडाउन खोले बिना कोरोना से लड़ने के लिए अपने स्वास्थ्य ढांचे को दुरुस्त करने की जरूरत है. एक सर्वेक्षण में ट्रंप के फैसले के चलते 22 लाख मौतें होने का अनुमान लगाया गया था. एक अन्य शोध में कहा गया था कि गलत समय पर लॉकडाउन खोलने के चलते अमेरिका में एक जून 2020 के बाद से हर रोज औसतन तीन हजार लोगों की कोरोना से मौत हो सकती है. हालांकि, अमेरिका में इतनी बड़ी संख्या में मौतें नहीं हुईं क्योंकि अधिकांश वे राज्य जहां डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकारें थीं, उन्होंने ट्रंप के लॉकडाउन हटाने के फैसले को महीनों तक लागू नहीं किया.

मोदी सरकार की गलतियां

भारत इस समय कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में है और हालात पहले से कहीं ज्यादा खराब दिख रहे हैं. बेड, दवाओं और ऑक्सीजन की कमी के चलते बदहाल अस्पतालों और श्मशान घाटों पर चौबीसों घंटे जल रही चिताओं की तस्वीरें अखबारों से लेकर टीवी और सोशल मीडिया तक हर जगह छाई हुई हैं. जिस तरह अमेरिका में कोरोना वायरस से हुई भारी तबाही के लिए डोनाल्ड ट्रंप को जिम्मेदार माना गया है वैसे ही आलोचक भारत में कोरोना की दूसरी लहर से हो रही तबाही के लिए नरेंद्र मोदी प्रशासन को सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. इन लोगों के मुताबिक अगर इसकी गंभीरता को समझते हुए सही समय पर फैसले लिए गये होते तो भारत को इतनी बड़ी तबाही से बचाया जा सकता था.

विश्लेषकों के मुताबिक बीते साल देश के कई विशेषज्ञों ने कोरोना की दूसरी लहर को लेकर चेतावनियां जारी की थीं, लेकिन सरकार ने उन पर ध्यान नहीं दिया. एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने बीते साल जून और जुलाई के दौरान कई साक्षात्कारों में साफ़ चेतावनी दी थी कि भारत को दूसरी लहर झेलनी पड़ सकती है इसलिए कम से कम एक साल तक कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए. कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का यह भी कहना था कि भारत को कोविड की पहली लहर से सबक सीखते हुए दूसरी लहर से निपटने की रणनीति बनानी शुरू कर देनी चाहिए. बीते साल भारत को लेकर ये चेतावनियां इसलिए भी जारी की जा रही थीं क्योंकि ब्रिटेन, ब्राजील, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया जैसे देश दूसरी लहर से गुजर रहे थे, और इन्हें दूसरी लहर पहले से ज्यादा नुकसान पहुंचा रही थी. बीते साल नवंबर की शुरुआत में, एक संसदीय समिति ने भी दूसरी लहर की चेतावनी जारी की थी और सरकार को ऑक्सीजन का भंडार बढ़ाने का सुझाव दिया था. तब केंद्र सरकार की ओर से 160 ऑक्सीजन प्लांट लगाने की घोषणा की गयी, लेकिन अगर आंकड़े देखें तो इस साल अप्रैल के मध्य तक इनमें से महज 32 प्लांट ही लगाए गए थे. यानी जिस तरह से ट्रंप प्रशासन ने शुरुआत में टेस्ट किट्स आदि का इंतजाम नहीं किया उसी तरह भारत ने ऑक्सीजन और वैक्सींस का इंतजाम करने में कोताही बरती.

बीते साल जब भारत को लेकर ये चेतावनियों जारी की जा रही थीं, उस समय मोदी सरकार कोविड-19 से निपटने के लिए किए गए अपने प्रयासों का गुणगान करने में व्यस्त हो गई थी. जुलाई से ही उसने कहना शुरू कर दिया था कि उसने सही समय पर सही फैसले लिए, जिस वजह से भारत अन्य देशों के मुकाबले कोरोना को तेजी से मात दे रहा है. इसके बाद कई वैश्विक मंचों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पीठ खुद थपथपाई. जनवरी में दावोस शिखर सम्मलेन में उन्होंने कहा, ‘पिछले साल मार्च-अप्रैल में दुनिया के नामी एक्सपर्ट ने क्या-क्या कहा था. किसी ने भारत में कोरोना संक्रमण की सुनामी आने की बात कही थी तो किसी ने दो मिलियन से ज्यादा लोगों की मौत का अंदेशा जताया था… भारत आज उन देशों में हैं जो अपने ज्यादा से ज्यादा नागरिकों का जीवन बचाने में सफल रहे हैं. जिस देश में दुनिया की 18 फीसदी आबादी रहती हो, उसने कोरोना पर प्रभावी नियंत्रण करके पूरी मानवता को बड़ी त्रासदी से भी बचाया है.’ प्रधानमंत्री के इस भाषण से साफ़ पता लगता है कि वे मान चुके थे कि भारत से कोरोना महामारी विदा हो चुकी है. उधर डोनाल्ड ट्रंप पिछले पूरे साल यही मानने से इनकार करते रहे कि यह कोई महामारी है भी या नहीं.

कोरोना वायरस को लेकर सरकार की ढिलाई का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि शुरुआत में मुस्तैद रहने के बाद केंद्र सरकार की कोरोना टॉस्क फोर्स ने पिछली साल अपनी बैठकें तक करना तक बंद कर दिया था. अगर दूसरी लहर आने से पहले के कुछ महीनों को देखें तो नवंबर 2020 से लेकर मार्च 2021 तक उसकी कोई बैठक नहीं हुई. इस दौरान सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने भी कोरोना पर जीत का जश्न शुरू कर दिया. हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के चुनाव से ठीक पहले 21 फरवरी को भाजपा के वरिष्ठ नेताओं और सभी राज्य इकाइयों के प्रमुखों ने इकट्ठा होकर एक प्रस्ताव पारित किया. इसमें कोरोना महामारी से प्रभावी तरीक़े से निपटने और देश को दोबारा विकास के रास्ते पर लाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और उनके दूरदर्शी नेतृत्व को धन्यवाद दिया गया था. जाहिर है कि इसका संदेश खतरनाक था.

इसके बाद बीते मार्च के पहले हफ्ते में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने देश में लगातार घटते कोरोना मामलों के बाद महामारी के खात्मे की घोषणा कर दी. इस घोषणा ने कई जानकारों को हैरान कर दिया. ऐसा इसलिए था क्योंकि फरवरी के तीसरे हफ्ते में महाराष्ट्र में कोरोना के प्रतिदिन औसतन छह हजार नए मामले सामने आने लगे थे. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सार्वजनिक रूप से कोरोना की दूसरी लहर की बात स्वीकार रहे थे. महाराष्ट्र के 17 जिलों में कोरोना के मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी. इनमें से कई जिलों में दो से तीन हफ़्तों की तालाबंदी तक कर दी गयी थी. यह भी साफ़ हो गया था कि कोरोना वायरस का नया वैरिऐंट महाराष्ट्र में आ चुका है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने जिस दिन कोरोना के खत्म होने की घोषणा की उसी दिन महाराष्ट्र में 11 हजार से ज्यादा मामले सामने आये थे, जो बीते पांच महीने में सर्वाधिक थे. जानकारों के मुताबिक किसी भी सरकार को अलर्ट करने के लिए यह सब काफी था, लेकिन ऐसा लगता था मानो मोदी सरकार उस ओर देखना ही नहीं चाहती थी.

कोरोना को अनदेखा कर चुनाव प्रचार में लगे रहे

लगातार बढ़ते कोरोना मामलो के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पांच राज्यों के चुनाव में प्रचार में लगे रहे. इनकी रैलियों में लाखों लोगों की भीड़ जुटी. अप्रैल के पहले हफ्ते में कोरोना संक्रमण के मामले प्रतिदिन एक लाख से ज्यादा हो गए थे, लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने चुनावी रैलियां और रोड शो जारी रखे. इस दौरान पश्चिम बंगाल के डॉक्टरों के सामूहिक मंच ‘द ज्वॉइंट फ़ोरम ऑफ़ डॉक्टर्स-वेस्ट बंगाल’ ने निर्वाचन आयोग को पत्र भेज कर चुनाव अभियान के दौरान कोरोना प्रोटोकॉल की सरेआम धज्जियां उड़ाये जाने पर गहरी चिंता जताई. डॉक्टरों के समूह ने अपने पत्र में लिखा, ‘क्या आपने कभी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को मास्क पहनते देखा है? अगर प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ही कोविड प्रोटोकॉल का उल्लंघन करें तो हम क्या कर सकते हैं?’ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भी चुनावी रैलियों में मास्क न पहनने के लिए जाना जाता है.

जब चुनावी रैलियों में हो रही भीड़ को लेकर सवाल उठे तो अमित शाह ने दावा करते हुए कहा, ‘चुनाव का कोरोना के बढ़ते मामलों से कोई संबंध नहीं है. कोरोना के मामले तो उन राज्यों में भी बढ़ रहे हैं, जहां चुनाव नहीं हो रहा…’ लेकिन स्वास्थ्य विशेषज्ञ बंगाल में चुनाव अभियान के साथ संक्रमण बढ़ने का सीधा संबंध बताते हैं. आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं. पश्चिम बंगाल में मार्च के पहले सप्ताह में जब चुनाव अभियान की शुरुआत हुई थी, तब दो मार्च को संक्रमण के नए मामलों की संख्या महज 171 थी. 27 मार्च को जिस दिन पहले चरण का मतदान हुआ था, राज्य में 24 घंटों के दौरान 812 नए मामले सामने आए थे और चार लोगों की मौत हुई थी. 25 अप्रैल के बाद से बंगाल में हर दिन 15 हजार से ज्यादा संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं. और कई दिनों से वहां हर दिन 100 से ज्यादा लोगों की कोविड-19 के चलते मौत हो रही है. यह संक्रमण के मामलों में क़रीब 100 गुना वृद्धि है. बंगाल में 25 अप्रैल के बाद से पॉजिटिविटी रेट यानी संक्रमण की दर अब 30 फीसदी या उससे भी ऊपर बनी हुई है यानी हर तीन में से एक व्यक्ति संक्रमित निकल रहा है. देश में इस समय केवल गोवा में ही इससे ज्यादा पॉजिटिव रेट है. स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि बीते साल अक्टूबर में जब कोरोना संक्रमण की पहली लहर चरम पर थी, तब भी बंगाल में पॉजिटिविटी रेट सिर्फ 9.70 फीसदी ही था.

कुछ जानकार यह भी कहते हैं कि अगर नेता रैलियों और कोरोना मामलों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं भी मानते तो भी कोरोना को फैलाने में उनका बड़ा हाथ है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. नवजोत सिंह दहिया देश में दूसरी लहर से हो रही तबाही के लिए पीएम नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि प्रधानमंत्री खुद सुपरस्प्रेडर (संक्रमण फैलाने वाले) हैं. डॉ. दहिया ने द ट्रिब्यून से बातचीत में कहा, ‘जहां मेडिकल बिरादरी लोगों को कोविड के नियम-कायदे समझाने के लिए जी-जान से लगी हुई है, वहीं महामारी से संबंधित सब कायदों को हवा में उड़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां करने से कोई गुरेज नहीं किया.’

इस साल हिंदुस्तान इस मामले में पिछली साल के अमेरिका से जुदा रहा कि बंगाल चुनाव के दौरान कई बार प्रधानमंत्री ने अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ और टीवी पर अपने संबोधन में लोगों को ‘मास्क और दो गज दूरी जरूरी’ की नसीहत दी. लेकिन जनता ने इसे गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि ऐसे संबोधनों के अगले ही दिन मोदी चुनावी रैलियों में बिना मास्क लगाए लाखों लोगों की भीड़ को संबोधित करते थे और उनसे कोविड से बचाव के उपायों पर एक शब्द तक नहीं बोलते थे. जाहिर है कि इससे देश भर के लोगों खासकर उनके समर्थकों के बीच यही संदेश गया कि जब प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बिना मास्क लगाए खूब निश्चिंत होकर लाखों की भीड़ को संबोधित कर रहे है, तो चिंता की कोई बात नहीं है.

बीते महीने जब देश में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे थे, तब हरिद्वार में कुंभ का आयोजन किया जा रहा था. इस बड़े धार्मिक आयोजन के दौरान साधु संतों समेत हजारों लोग कोरोना संक्रमित पाए गए. इंडियाटुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल के अंत तक निर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर कपिल देव दास सहित कुंभ में हिस्सा लेने वाले 10 संतों की कोरोना वायरस के चलते मौत हुई है. कई राज्यों में कुंभ से लौटे लोग कोरोना संक्रमित पाए गए. इनमें से कई राज्यों का यह कहना है कि कुंभ से लौटे लोगों ने उनके राज्य में कोरोना फैलाया है. कुंभ के बाद हरिद्वार में संक्रमण बुरी तरह फैला हुआ है, श्मशान घाटों पर लंबी कतारें देखी गयी हैं. कुछ जानकार कहते हैं कि जब भी किसी महामारी के दौरान कुंभ जैसा बड़ा आयोजन किया गया तो इसने महामारी को और फैलाने का काम ही किया है, इससे जुड़े आंकड़े भी मौजूद हैं, लेकिन सरकार ने इन्हें अनदेखा कर दिया.

वैक्सीन के मोर्चे पर बड़ा कुप्रबंधन

आज का भारत दो मामलों में पिछली साल के अमेरिका से बिलकुल भिन्न रहा. पिछली साल अमेरिका में कोविद से दुनिया में सबसे ज्यादा मौतें हुईं लेकिन वहां पर लोगों के शव किसी नदी में उतराते नहीं देखे गये. और वैक्सीन के मोर्चे पर भी उसने अपने नागरिकों के लिए बेहद पुख्ता इंतजाम कर लिया. अमेरिकी सरकार ने शुरुआत में ही फाइजर को लगभग दो अरब डॉलर (15 हज़ार करोड़ रुपये) देकर उसकी वैक्सीन के 10 करोड़ डोज की खरीद का करार कर लिया. इसमें यह प्रावधान भी शामिल था कि अगर वैक्सीन कामयाब रही तो 50 करोड़ डोज और खरीदे जाएंगे. आज अमेरिका के पास अपनी करीब 33 करोड़ की आबादी के लिए वैक्सीन के पर्याप्त डोज हैं और वह अपनी एक बड़ी आबादी का टीकाकरण कर चुका है. उधर, इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत ने एसआईआई और भारत बायोटेक, दोनों को जो ऑर्डर दिया वह देश की जरूरत के हिसाब से काफी कम था. यह ऑर्डर करीब 11 करोड़ डोज का ही था.

वैक्सीन के मोर्चे पर कुप्रबंधन की बात करें तो देश में 16 जनवरी से वैक्सीन अभियान शुरू हो गया था, लेकिन साढ़े तीन महीने में (दो मई तक) देश की महज दो फीसदी आबादी को ही वैक्सीन लग सकी. इसकी पहली वजह यह है कि बड़ी संख्या में लोग वैक्सीन लगवाने से बचते रहे, इनमें से कुछ यह मान बैठे थे कि कोरोना चला गया है और कुछ वैक्सीन लगवाने से डर रहे थे. कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि इन चीजों से निपटने के लिए सरकार को एक बड़ा जागरूकता अभियान चलाना चाहिए था, और प्रधानमंत्री, गृहमंत्री से लेकर बड़े-बड़े मंत्रियों को इस अभियान में उसी ऊर्जा के साथ लगना चाहिए था, जैसी उन्होंने पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार में खर्च की है.

देश में बीते महीने से जब कोरोना के मामलों में जबरदस्त तेजी आयी तो सरकार ने वैक्सीनेशन (टीकाकरण) पर जोर दिया. सरकार ने घोषणा की एक मई से टीकाकरण का तीसरा चरण शुरू होगा और 18 से 45 साल के लोगों को भी वैक्सीन लगाई जायेगी. लेकिन इस घोषणा ने तमाम राज्यों को मुश्किल में डाल दिया. इनका कहना है कि पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन है ही नहीं तो टीकाकरण कैसे करें. टीकाकरण को लेकर बनाई गयी ‘कोविन’ एप पर भी वैक्सीन की कमी को देखा जा सकता है. भारत में जिस गति से वैक्सीनेशन का काम हो रहा है उसे लेकर कुछ रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया है कि अगर देश में इसी तरह वैक्सीनेशन किया जाता रहा तो सभी नागरिकों के टीकाकरण में कई साल लग सकते हैं. और ऐसे टीकाकरण का कोई फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि कुछ महीनों बाद उन लोगों को फिर से टीका लगाने की ज़रूरत हो सकती है जिन्हें यह पहले लगाया जा चुका है.

विश्लेषकों की मानें तो वैक्सीन को लेकर देश में जो हालात हैं, वे सरकार के एक नहीं कई गलत फैसलों की देन हैं. इनके मुताबिक जब भारत ने कोरोना की दो वैक्सीन – कोवीशील्ड और कोवैक्सीन – बना ली थीं तो उसे अपनी आबादी को ध्यान में रखते हुए, युद्ध स्तर पर इनका निर्माण करवाना चाहिए था. जैसा कि अमेरिका और तमाम दूसरे देशों ने किया. अगर वैक्सीन निर्माण करने वाली कंपनियों की क्षमता कम पड़ रही थी तो कम से कम आपदा की इस घड़ी में दूसरी देसी कंपनियों को मैन्युफैक्चरिंग का लाइसेंस दे दिया जाता. ऐसा करके बड़े स्तर पर वैक्सीन बनाई जा सकती थीं क्योंकि भारतीय कंपनियों के पास हर साल करीब आठ अरब वैक्सीनें बनाने की क्षमता है. लेकिन मोदी सरकार ने यह नहीं किया, बल्कि इसके उलट भारतीय वैक्सीन को अन्य देशों में भेजने का फैसला ले लिया और छह करोड़ से ज्यादा डोज बाहर भेज दीं.

हालांकि, अब मोदी सरकार विदेशी वैक्सीनों को आयात करने का फैसला ले चुकी है. रूस की ‘स्पुतनिक वी’ वैक्सीन भारत में आ भी चुकी हैं. लेकिन कुछ आलोचक कहते हैं कि अगर सरकार ने इस तरह का फैसला समय रहते ही ले लिया होता और दूसरी वैक्सीनों के आपात इस्तेमाल की इजाजत दे दी होती तो आज देश को वैक्सीन की कमी से जूझना नहीं पड़ रहा होता.

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