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नये आईटी रूल्स की आलोचना करने वाले कितने सही लगते हैं और समर्थन करने वाले कितने?

सोशल और डिजिटल मीडिया के लिए मोदी सरकार द्वारा बनाये गये नए नियम देश में नये विवाद का सबब बन गए हैं

विकास बहुगुणा | 11 मार्च 2021 | फोटो : कंज्यूमर रिपोर्ट डॉट ओआरजी

‘मैं साफ कर दूं कि सरकार आलोचना और असहमति के अधिकार का स्वागत करती है. सोशल मीडिया को भी सवाल पूछने के लिए इस्तेमाल किया गया है. लेकिन यह भी बहुत अहम है कि सोशल मीडिया यूजर्स को इस माध्यम के गलत इस्तेमाल के खिलाफ शिकायत करने और उसके एक तय वक्त के भीतर समाधान की एक व्यवस्था मिले.’

संचार, इलेक्‍ट्रानिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह बात हाल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कही. वे सोशल मीडिया, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और डिजिटल मीडिया को लेकर सरकार द्वारा बनाए गए नए नियमों की जानकारी दे रहे थे. इन्हें सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ संस्‍थानों के लिए दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 (आईटी रूल्स 2021) कहा गया है. रविशंकर प्रसाद के मुताबिक शीर्ष न्यायपालिका, संसद और दूसरे विभिन्न वर्गों की तरफ से इंटरनेट और सोशल मीडिया के गलत इस्तेमाल पर चिंता जताते हुए इसे रोकने के लिए कोई व्यवस्था बनाने की बात कही जा रही थी और इसीलिए सरकार ने यह फैसला किया है.

नए नियमों के मुताबिक सभी सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को शिकायतों के निवारण के लिए एक व्यवस्था बनानी होगी. इसके लिए एक शिकायत अधिकारी नियुक्त किया जाएगा. यह अधिकारी 24 घंटे के भीतर शिकायत रजिस्टर करेगा और 15 दिन के भीतर उसे इसका निपटारा करना होगा. इसके अलावा अगर उनके प्लेटफॉर्म पर किसी ऐसी सामग्री की शिकायत मिलती है जो यूजर, खास कर किसी महिला की गरिमा को चोट पहुंचाती हो तो इन कंपनियों को वह सामग्री 24 घंटे के भीतर हटानी होगी.

नये आईटी रूल्स के तहत सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को दो वर्गों में बांटा गया है. एक मध्यस्थ (इंडरमीडियरी) और दूसरा प्रमुख मध्यस्थ. (सिगनिफिकेंट इंडरमीडियरी.) 50 लाख या इससे ज्यादा यूजर्स वाले प्लेटफॉर्म्स (फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि) सिगनिफिकेंट इंडरमीडियरी कहलाएंगे और उन पर कुछ अतिरिक्त जवाबदेहियां होंगी. पहली, उन्हें एक चीफ कंप्लाएंस ऑफिसर यानी मुख्य अनुपालन अधिकारी की नियुक्ति करनी होगी. इसका काम नए दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित करवाना होगा. दूसरा, उन्हें एक ‘नोडल कॉन्टेक्ट पर्सन’ भी रखना होगा जिस पर 24 घंटे कानूनी एजेंसियों के साथ तालमेल सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी होगी. इसके अलावा बाकी मध्यस्थों की तरह उन्हें भी एक शिकायत अधिकारी नियुक्त करना होगा जो शिकायत निवारण तंत्र का काम देखेगा. इन कंपनियों को हर महीने एक कंप्लाएंस रिपोर्ट भी देनी होगी. इसमें उन्हें बताना होगा कि कितनी शिकायतें आईं और उन पर क्या कार्रवाई हुई. अतिरिक्त जवाबदेहियों वाली व्यवस्था को बनाने के लिए सिगनिफिकेंट इंटरमीडियरीज को अधिसूचना जारी होने की तारीख यानी 25 फरवरी के बाद तीन महीने तक का वक्त दिया गया है. बाकी व्यवस्थाओं का अनुपालन तुरंत करना होगा.

सरकार का कहना है कि इस व्यवस्था से सोशल मीडिया पर आम आदमी का सशक्तिकरण होगा. सरकार इसे कितनी गंभीरता से लेती है इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि इन नियमों से संबंधित अधिसूचना को उसने असाधारण की श्रेणी में रखा. यानी उसे प्रकाशित करने के लिए जरा भी इंतजार नहीं किया गया.

नये नियमों के मुताबिक सोशल मीडिया कंपनियों को जरूरत पड़ने पर सरकार को यह जानकारी भी देनी होगी कि किसी संदेश की शुरुआत किसने की. जैसा कि रविशंकर प्रसाद का कहना था, ‘किसने खुराफात शुरू की, ये आपको बताना पड़ेगा. ये खुराफात अगर भारत के बाहर से हुई है तो भारत में उसको किसने शुरू किया, ये बताना पड़ेगा.’ रविशंकर प्रसाद के मुताबिक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को ऐसा आदेश या तो अदालत की तरफ से मिलेगा या फिर सरकार के किसी विभाग की तरफ से. उनका कहना था कि यह कार्रवाई तभी होगी जब मामला भारत की संप्रभुता, सुरक्षा, लोक व्यवस्था, विदेशी देशों के साथ संबंध और किसी ऐसे अपराध से जुड़ा हो जिनमें पांच साल से अधिक की सजा का प्रावधान है.

रविशंकर प्रसाद के मुताबिक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को एक ऐसा इंतजाम भी करना होगा जिसमें यूजर स्वैच्छिक रूप से अपना वेरिफिकेशन कर सके. साथ ही, अगर किसी यूजर की किसी सामग्री को हटाया जाता है तो पहले उसे इसके कारण की सूचना देना जरूरी होगा. साथ ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को अपने इस कदम पर यूजर का पक्ष सुनने और फिर उस हिसाब से कार्रवाई करने की व्यवस्था भी बनानी होगी.

अब आईटी रूल्स 2021 के उस हिस्से की बात जिस पर सबसे ज्यादा विवाद हो रहा है. रविशंकर प्रसाद के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ओटीटी और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को लेकर बनाए गए दिशा-निर्देशों की जानकारी दी. उनका कहना था कि अखबार प्रेस काउंसिल के नियमों से बंधे हैं और टीवी चैनल केबल नेटवर्क एक्ट के प्रोग्राम कोड से, लेकिन ओटीटी और डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म के साथ ऐसा कुछ नहीं है. प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ‘इसलिए सरकार ने ये समझा कि एक लेवल प्लेइंग फील्ड होना चाहिए.’ उनके मुताबिक इसकी काफी मांग हो रही थी इसलिए सरकार ने तय किया कि सभी मीडिया के लिए एक ‘इंस्टीट्यूशनल मैकेनिज्म’ होना चाहिए.

नई व्यवस्था के तहत ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और डिजिटल मीडिया पोर्टल्स के लिए भी एक आचार संहिता होगी. इसमें कानून के तहत प्रतिबंधित सामग्री के प्रकाशन की मनाही से लेकर उम्र के हिसाब से कंटेट के वर्गीकरण जैसी तमाम शर्तें हैं. मसलन ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को कंटेंट का खुद ही आयु आधारित पांच श्रेणियों- यू (यूनिवर्सल), यू/ए 7+, यू/ए 13+, यू/ए 16+, और ए (वयस्क) के आधार पर वर्गीकरण करना होगा. प्लेटफॉर्म्स को यू/ए 13+ या उससे ऊंची श्रेणी के रूप में वर्गीकृत कंटेंट के लिए ‘पेरेंटल लॉक’ लागू करने की जरूरत होगी और ‘ए’ के रूप में वर्गीकृत कंटेंट के लिए एक विश्वसनीय उम्र सत्यापन तंत्र विकसित करना होगा. ऑनलाइन क्यूरेटेड कंटेंट के प्रकाशक को हर कंटेंट या कार्यक्रम के डेस्क्रिप्शन में प्रमुखता से वर्गीकरण रेटिंग का उल्लेख करते हुए उपयोगकर्ता को कंटेंट की प्रकृति बतानी होगी.

इस आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतें दर्ज करने के लिए सरकार एक वेब पोर्टल बनाएगी. यहां आने वाली शिकायतों को संबंधित ओटीटी और न्यूज प्लेटफॉर्म्स तक भेजा जाएगा. सोशल मीडिया इंटरमीडियरीज की तरह इन इकाइयों को भी एक शिकायत अधिकारी नियुक्त करना होगा जो इन पर 15 दिन के भीतर कार्रवाई करेगा. शिकायतकर्ता को इसकी जानकारी देने के साथ ही वह इस कार्रवाई का विवरण सरकारी वेब पोर्टल पर भी देगा. यह नियमन का पहला स्तर होगा.

नियमन का दूसरा स्तर प्रकाशकों द्वारा खुद बनाई गई एक संस्था होगी. एक से ज्यादा संस्थाएं भी हो सकती हैं. नियमों के मुताबिक ऐसी हर संस्था की अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय का कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश या फिर एक स्वतंत्र प्रतिष्ठित व्यक्ति करेगा. ऐसी किसी भी संस्था में छह से ज्यादा सदस्य होंगे और इसका सूचना और प्रसारण मंत्रालय में पंजीकरण कराया जाएगा. यह संस्था प्रकाशक द्वारा आचार संहिता के पालन की देख-रेख करेगी और उन शिकायतों का समाधान करेगी, जिनका प्रकाशक द्वारा 15 दिन के भीतर समाधान नहीं किया गया है.

नियमन का तीसरा चरण सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा बनाया गया एक निरीक्षण तंत्र होगा. यह आचार संहिताओं और प्रकाशकों द्वारा बनाई गई नियमन संस्थाओं के लिए एक चार्टर का प्रकाशन करेगा. यह शिकायतों की सुनवाई के लिए एक अंतर विभागीय समिति का गठन करेगा. सरकार के मुताबिक सभी दिशा-निर्देश सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम यानी आईटी एक्ट की धारा 87 के अंतर्गत बनाए गए हैं.

सरकार का तर्क है कि उसकी मंशा किसी तरह की दखलअंदाजी की नहीं है, बल्कि वह आम यूजर का सशक्तिकरण चाहती है. उसके मुताबिक उसका मकसद यह भी है कि इंटरनेट तक पहुंच रखने वाले किसी भी व्यक्ति को समाचार प्रदाता का छद्मभेष धारण करने और फेक न्यूज फैलाने से रोका जाए. उसका मानना है कि इस कदम से इन ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स की जवाबदेही बढ़ेगी. प्रकाश जावड़ेकर का कहना था, ‘मीडिया की आजादी लोकतंत्र की आत्मा है, लेकिन हर आजादी कुछ जिम्मेदारी के साथ आती है.’

उनकी बात पूरी तरह से गलत नहीं है. कुछ समय पहले रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट आई थी. इस ‘इंडिया डिजिटल न्यूज रिपोर्ट’ के लिए हुए सर्वे में जिन लोगों को शामिल किया गया था उनमें से 57 फीसदी ने यह चिंता जताई कि वे जो ऑनलॉइन न्यूज देखते-पढ़ते हैं वह असली है या फर्जी. 50 फीसदी से ज्यादा लोग ‘बहुत ज्यादा पक्षपाती सामग्री’, ‘खराब पत्रकारिता’ और ‘झूठी खबरों’ को लेकर चिंतित थे.

कई जानकार भी मानते हैं कि एक लिहाज से इस तरह के नियमों की जरूरत थी क्योंकि कई ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और डिजिटल मीडिया चैनलों पर कुछ भी परोसा जा रहा है. अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता कहते हैं, ‘डिजिटल मीडिया के सभी प्लेटफॉर्म्स को अब सरकार के पास रजिस्ट्रेशन कराना होगा जो बहुत अच्छी बात है क्योंकि इन दिनों कोई भी एक वेबसाइट बना लेता है और न्यूज मीडिया संस्थान होने का दावा करने लगता है.’

लेकिन शेखर गुप्ता सहित कई जानकारों को यह भी लगता है कि इन दिशा-निर्देशों की आड़ में सरकार की नीयत उसकी आलोचना करने वाली पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम कसने की भी हो सकती है. उनके मुताबिक नए नियम सोशल और डिजिटल मीडिया में सरकार के दखल को बढ़ावा देंगे. जैसा कि एक परिचर्चा के दौरान तकनीक से जुड़ी नीतियों के जाने-माने विशेषज्ञ प्रणेश प्रकाश का कहना था, ‘सरकार इन प्लेटफॉर्म्स में ‘सेल्फ सेंसरशिप’ को प्रोत्साहित करना चाहती है, ये बताकर कि वे क्या-क्या सेंसर करें.’ उन सहित कई मानते हैं कि यह विरोधाभास ही उसके इरादों की झलक दे देता है.

डिजिटल अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले चर्चित संगठन ‘द इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन’ के मुताबिक ये नए दिशा-निर्देश अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक हैं. उसका मानना है कि आईटी एक्ट के दायरे को बढ़ाकर उसमें न्यूज मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को ले आना संसद द्वारा बनाए गए इस कानून में कार्यपालिका द्वारा किया गया ऐसा बदलाव है जिसकी संविधान इजाजत नहीं देता. कई जानकार भी यह मानते हैं कि सरकार मनमाने तरीके से डिजिटल न्यूज मीडिया को आईटी एक्ट के दायरे में ले आई है, जबकि इसके लिए संसद में चर्चा होनी चाहिए थी और फिर कानून में जरूरी संशोधन होना चाहिए था.

कानूनी मामलों के जानकार राघव आहूजा भी मानते हैं कि सरकार को जो काम संसद के जरिये करना चाहिए था उसे वह खुद ही कर रही है. अपने एक लेख में वे कहते हैं, ‘इस अधिसूचना के जरिये केंद्र सरकार ने इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को आईटी एक्ट 2000 के तहत डिजिटल मीडिया के नियमन की जिम्मेदारी दी है. लेकिन संविधान के अनुच्छेद 77 (3) के तहत राष्ट्रपति ने (सरकार के) काम का आवंटन करने के लिए जो अनिवार्य नियम बनाए हैं उनके हिसाब से आईटी एक्ट के तहत नियमन का काम सिर्फ इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय कर सकता है.’

यहां गौर करने वाली बात है कि डिजिटल मीडिया सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत आता है. अब सवाल दो हैं. जैसा कि राघव आहूजा लिखते हैं, ‘पहला ये कि इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय को डिजिटल मीडिया का नियमन करने का अधिकार किसने दिया. दूसरा यह कि आईटी एक्ट एक साइबर कानून है और अगर इसके क्रियान्वयन का जिम्मा इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के पास है तो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस कानून के तहत बने नियमों को अमल में लाने की शक्तियां कैसे दी जा सकती हैं.’ एक परिचर्चा में वरिष्ठ पत्रकार और न्यूज पोर्टल मीडियानामा के संस्थापक निखिल पाहवा भी कहते हैं, ‘ये बड़े नियंत्रण की कवायद है, लेकिन किसके जरिये? उन नियमों के जरिये जिनके पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है.’ वे मानते हैं कि अदालत में सरकार इस मुद्दे पर कोई भी तर्क देकर अपना बचाव नहीं कर पाएगी.

यह मामला अदालत पहुंच भी गया है. नए दिशा-निर्देशों का विरोध करने वाली एक याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा है. याचिका में कहा गया है कि संबंधित कानून ने सरकार को डिजिटल न्यूज मीडिया के लिए इस तरह के नियम बनाने की कोई शक्तियां नहीं दी हैं. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि अगर इन दिशा-निर्देशों पर रोक नहीं लगाई गई तो देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में पड़ जाएगी.

कई जानकारों के मुताबिक इन दिशा-निर्देशों में कई बातें हैं जिनका सरकार अपनी मर्जी के मुताबिक इस्तेमाल कर सकती है. मसलन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए बना एक नियम कहता है कि किसी भी इंडरमीडियरी को कोई ऐसी जानकारी प्रकाशित नहीं करनी चाहिए जो भारत की संप्रभुता और अखंडता, लोक व्यवस्था, दूसरे देशों के साथ मित्रवत संबंधों आदि के हित के संबंध में किसी कानून के तहत प्रतिबंधित हो. एक परिचर्चा के दौरान ‘द न्यूज मिनट’ की संपादक धन्या राजेंद्रन का कहना था, ‘अगर हम दिशा रवि की गिरफ्तारी पर लिखते हैं, जैसे कि टूलकिट क्या है, तो क्या ऐसा हो सकता है कि कोई इसकी शिकायत कर दे कि ये रिपोर्टिंग गलत है और फिर ये मामला सुलझने के लिए नियमन के दूसरे और तीसरे स्तर पर जाए? तो मेरे हिसाब से ये रास्ते हैं जो सरकार के लिए डिजिटल पोर्टलों के उत्पीड़न का रास्ता खोल सकते हैं और शायद वो यही करना चाहती है.’

दूसरे जानकार भी मानते हैं कि इस नई व्यवस्था में उत्पीड़न की आशंका है क्योंकि शिकायत कोई भी कर सकता है और उस पर आखिरी फैसले का अधिकार सरकार को है. हो यह भी सकता है कि किसी प्रतिष्ठित समाचार पोर्टल को किसी जरूरी मसले पर रिपोर्ट करने के लिए संगठित तरीके से इतना परेशान किया जाए कि वह उस मामले को छोड़कर उस पर आई शिकायतों को ही निपटाने में लग जाए. इस हालत में कई समाचार पोर्टल ऐसे सही मसलों को कवर करने से किनारा कर सकते हैं जो जरूरी तो हों लेकिन जिनके खिलाफ शिकायतें आने की आशंका ज्यादा हो. हालांकि कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि नये नियमों का इस्तेमाल वे लोग भी कर सकते हैं जो अभी इनका विरोध कर रहे हैं. यानी ये उन संस्थाओं के खिलाफ भी इस्तेमाल किये जा सकते हैं जिन्हें साधारणत: सरकार समर्थक माना जाता है. लेकिन वे यह भी कहते हैं कि ऐसे लोगों-संस्थाओं पर कोई कार्रवाई होना असंभव है क्योंकि अंत में इन नियमों के तहत फैसला लेने का अधिकार सरकार के हाथों में ही रहने वाला है. हालांकि यह भी उतना ही सही है कि सरकार के लिए भी इन नियमों के तहत कुछ कर पाना उतना आसान नहीं होगा क्योंकि उस तक कोई शिकायत पहुंचने में काफी समय लग सकता है. इसकी एक वजह यह होगी कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स द्वारा बनाई गई संस्था के पास एक साथ अपील के इतने मामले पहुंच सकते हैं कि उन्हें समय पर निपटा पाना संभव ही न हो. यही हाल सरकार के स्तर पर बनी अंतर विभागीय समिति का भी हो सकता है.

जानकारों के एक बड़े वर्ग का मानना है कि यह तय है कि इन नियमों के चलते विभिन्न डिजिटल पोर्टलों के सामने कई समस्याएं आने ही वाली हैं. इनमें से सबसे पहली यही है कि इनके लागू होते ही उनके सामने शिकायतों की ऐसी झड़ी लग सकती है जिनसे निपट पाना कम से कम छोटे स्तर की संस्थाओं के लिए बहुत मुश्किल होगा. दूसरी समस्या इन दिशा-निर्देशों के अनुपालन से बढ़ने वाले खर्च की है. वरिष्ठ पत्रकार माधवन नारायणन कहते हैं, ‘अर्थशास्त्र समझने वाले सब जानते हैं कि कारोबार चलाने में जो खर्च होता है उसका एक हिस्सा अनुपालन का भी होता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘ऐसी कोई भी चीज जिससे खर्च बढ़े और स्पष्टीकरण देने की बाध्यता पैदा हो, (अभिव्यक्ति की) स्वतंत्रता का गला ही घोंटेगी.’

सरकार पर एक आरोप यह भी है कि उसने कोई सलाह-मशविरा किए बिना मनमाने तरीके से नए दिशा-निर्देश बना दिए. जैसा कि धन्या राजेंद्रन का कहना था, ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मंत्रीजी ने ये भी कहा कि उन्हें पता नहीं था कि भारत में कौन-कौन से डिजिटल न्यूज पोर्टल हैं जिनसे विचार-विमर्श किया जा सके. जबकि हमने उन्हें लिखा था कि अगर नियमों का कोई मसौदा बन रहा है तो हम भी विचार-विमर्श की प्रक्रिया में शामिल होना चाहेंगे.’ धन्या के मुताबिक उन्हें कोई जवाब नहीं मिला. वे कहती हैं, ‘तो सवाल ये है कि उन्होंने किससे चर्चा की?’

उधर, मोदी सरकार का कहना है कि नए नियम समुचित चर्चा के बाद ही बनाए गए हैं. इनकी सूचना देती सरकारी विज्ञप्ति में कहा गया है, ‘इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (एमईआईटीवाई) ने मसौदा नियम तैयार किए और 24 दिसम्बर, 2018 को लोगों से सुझाव आमंत्रित किये. एमईआईटीवाई को आम लोगों, सिविल सोसाइटी, उद्योग संघ और संगठनों से 171 सुझाव प्राप्त हुए. इन सुझावों पर 80 जवाबी टिप्पणियां भी प्राप्त हुईं.

कई लोग मानते हैं कि सोशल और डिजिटल मीडिया पर जो गलत हो रहा है उस पर लगाम लगाने के लिए देश में कई कानून और प्रावधान पहले से मौजूद हैं और जरूरत यह है कि उनके अनुपालन के लिए जो तंत्र है उसे मजबूत किया जाए. जैसा कि एक टीवी परिचर्चा में सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता करुणा नंदी का कहना था, ‘उदाहरण के लिए रेवेंज पोर्न का ही मामला लीजिए. सरकार कह रही है कि ऐसे मामलों में तुरंत कार्रवाई की जरूरत होती है. लेकिन इसके लिए पहले से ही एक कानून है. 2013 के बलात्कार विरोधी कानून, जिसमें मेरा भी योगदान था, में धारा 354 (सी) के तहत एक प्रावधान है. कोई नियम नहीं बल्कि संसद द्वारा बनाया गया एक प्रावधान जो इसे (रेवेंज पोर्न को) आपराधिक गतिविधि घोषित करता है.’ उनके मुताबिक इसके बाद असल जरूरत पुलिस बलों को मजबूत करने और पीड़ितों के लिए जल्द से जल्द न्याय सुनिश्चित करने वाला तंत्र बनाने की है.

करुणा नंदी के मुताबिक जिस तरह के दिशा-निर्देश सरकार ने बनाए हैं उसके बाद तो हर कोई गिरफ्तारी के डर से जरूरत से ज्यादा सेंसरशिप पर उतर आएगा. वे कहती हैं, ‘नए नियम कहते हैं कि आप महिलाओं का अपमान नहीं कर सकते. अब हम नहीं जानते कि महिला के अपमान में क्या-क्या चीजें आएंगी. ये कहीं परिभाषित नहीं किया गया है.’ करुणा नंदी के मुताबिक यह तय करने वाले या तो निजी हैसियत से ऐसा करेंगे या फिर आखिर में मामला तय होने के लिए सरकारी समिति के पास ही जाएगा, इसलिए सेंसरशिप बढ़ेगी.

इन नियमों के बढ़ते विरोध के बीच रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कुछ चुनिंदा कंपनियों के इंटरनेट साम्राज्यवाद को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया जाएगा. पर सवाल यह है कि सरकार जो कर रही है वह क्या इंटरनेट को सिर्फ अपना साम्राज्य बनाने की कवायद नहीं है.

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