नेहरू-गांधी

Politics | पुण्यतिथि

मतभेदों के बावजूद गांधी ने नेहरू को ही अपना राजनीतिक वारिस क्यों चुना?

क्या नई पीढ़ियां गांधी और नेहरू के बारे में उस इतिहास से आगे का भी कुछ पढ़ना और जानना चाहेंगी, जो उन्हें तरह-तरह के दुष्प्रचार के माध्यम से बताया जा रहा है?

अव्यक्त | 27 May 2020

पंडित नेहरू और महात्मा गांधी की पहली मुलाक़ात 1916 में क्रिसमस के दिन हुई थी. उस दिन लखनऊ में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन चल रहा था. तबसे चार साल पहले ही नेहरू इंग्लैंड में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई कर भारत वापस लौटे थे. उस समय नेहरू 27 साल के थे और गांधी उनसे 20 साल बड़े यानी 47 के थे.

दोनों ने एक-दूसरे को कौतूहल से देखा जरूर, लेकिन एक-दूसरे से कोई खास प्रभावित न हुए. क्योंकि तबसे करीब छह-सात वर्ष बाद 1922 से 1924 के बीच जब गांधी ने अपनी आत्मकथा यानी ‘सत्य के प्रयोग’ बोल-बोल कर लिखाई थी, तो उसमें कहीं भी जवाहरलाल नेहरू का जिक्र नहीं किया. हां, उनके पिता मोतीलाल नेहरू की चर्चा उसमें अवश्य हुई है.

उस दौर में नेहरू यूरोपियन पोशाक पहना करते थे. हैरो और कैम्ब्रिज के संस्कार उन पर हावी थे. और स्वयं गांधी के शब्दों में, ‘उन दिनों वे थोड़े घमंडी थे, जबकि उनमें कोई खास बात नहीं थी.’ यूं तो बड़े नेहरू (मोतीलाल) और महात्मा गांधी विचार और जीवन-शैली के स्तर पर एक-दूसरे से एकदम भिन्न थे. फिर भी दोनों में कुछ-कुछ निकटता हो गई. शुरुआत में छोटे नेहरू थोड़े खिंचे-खिंचे ही रहते थे. वे गांधी को पहले ठीक से समझ लेना चाहते थे, क्योंकि आधुनिकतावादी युवा नेहरू को महात्मा गांधी की आध्यात्मिक भाषा कई बार ‘मध्ययुगीन’ और ‘पुनरुत्थानवादी’ प्रतीत होती थी.

अपनी आत्मकथा में नेहरू ने गांधी से अपनी पहली मुलाक़ात का जिक्र कुछ यूं किया है- ‘हम सब दक्षिण अफ्रीका में उनके वीरतापूर्ण संघर्ष के प्रशंसक थे, किन्तु हम में से बहुतेरे नवयुवकों को वे बहुत ही दूर और भिन्न और अराजनीतिक लगते थे.’ इधर गांधी लोगों के पारखी थे. वे भी खूब अच्छी तरह और सहानुभूतिपूर्वक परखते थे. उन्होंने नेहरू के इस शुरूआती चिड़चिड़ेपन को समझने की कोशिश की थी, और उन्हें जल्दी ही इसमें सफलता भी मिली. इसका कारण उन्होंने नेहरू के एकाकीपन में ढूंढ़ निकाला था, जो संभवतः सही भी था.

सोलह वर्ष की उम्र तक जवाहरलाल किसी स्कूल में नहीं गए थे. घर पर अंग्रेज गवर्नेंसों और एक प्राइवेट ट्यूटर फर्डिनेन्ड ब्रुक्स ने ही उन्हें पढ़ाया. उन दिनों की उनकी तस्वीरों में भी एक उदासी झलकती है. एक भरे-पूरे परिवार में भी वे बच्चों में सबसे बड़े थे, और कोई विशेष बाहरी संपर्क भी नहीं था. इसलिए एकाकीपन में उन्होंने किताबों को अपना प्रिय साथी बना लिया था.

हालांकि उदासी के बावजूद उनका जीवन नीरस नहीं था. वैज्ञानिक रहस्यों, प्रकृति की सुंदरता, साहित्य, संगीत और चित्रकला सबने उन्हें आकर्षित किया. आगे जाकर एग्नॉस्टिक या अज्ञेयवादी कहे जानेवाले नेहरू ने उपनिषदों के माध्यम से अध्यात्म तक को व्यावहारिक रूप से समझने की कोशिश की. उनकी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में उपनिषदों के मर्म की एक अद्भुत ऐतिहासिक व्याख्या देखने को मिलती है. कमला से विवाह के बाद भी नेहरू का यह एकाकीपन गया नहीं. कमला और नेहरू के बीच का बौद्धिक फासला लगभग वही था, जो कस्तूरबा और गांधी के बीच का था. गांधी को यह समझते देर न लगी.

दो सितंबर, 1924 को मोतीलाल नेहरू को एक चिट्ठी में गांधी लिखते हैं- ‘पिछले पत्र की तरह यह पत्र भी मैं जवाहरलाल की सिफारिश करने के लिए ही लिख रहा हूं. भारत में बहुत अकेलापन महसूस करने वाले जिन नौजवानों से मिलने का मुझे मौका मिला है वह उनमें से एक है. आपके मानसिक रूप से उसका त्याग कर देने के ख्याल से मुझे बहुत दुख होता है. शारीरिक त्याग की बात को तो मैं असंभव ही मानता हूं. …प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी तरह से मैं इस अद्भुत प्रेम-संबंध में बाधक नहीं बनना चाहता.’

दरअसल मोतीलाल अपने बेटे को बहुत ज्यादा चाहते थे. बेटे का भी अपने पिता से गहरा जुड़ाव था. लेकिन इन दोनों के जीवन में गांधी के प्रवेश के साथ ही सबकुछ अचानक से बदल गया. जवाहरलाल गांधी की तरफ बेतहाशा झुकते गए. मोतीलाल को लगा कि उनका बेटा हाथ से निकला जा रहा है. और जैसा कि होता है कि जो जिसे जितना चाहता है, उसे ऐसी स्थिति में उतना ही गहरा धक्का भी पहुंचता है. मोतीलाल बहुत खीज उठे. लेकिन उनके पास कोई चारा न था. उन्होंने जान लिया कि गांधी के अलावा और कोई ऐसा नहीं है, जिसके माध्यम से वे जवाहरलाल तक अपनी भावनाएं पहुंचा सकते हों. हारकर उन्होंने स्वयं गांधी से निकटता बढ़ाई. इस बारे में स्वयं नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि पिता मोतीलाल का गांधी की ओर खिंचे चले जाने का एक बड़ा कारण यही था कि बेटा जवाहरलाल गांधी के आकर्षण में कैद हो गया था.

गांधी जिनसे भी जुड़ते थे, एकदम व्यक्तिगत और आत्मीय रूप से जुड़ते थे. नेहरू को उन्होंने शुरू-शुरू में खूब काम में लगाया. तरह-तरह के तथ्यान्वेषण दल या फैक्ट फाइंडिंग टीम का सदस्य बनाकर उनसे कई यात्राएं कराईं. उनसे तरह-तरह के प्रस्ताव ड्राफ्ट कराए. कई प्रकार के विवादों में भी नेहरू से हस्तक्षेप कराया. इस क्रम में नेहरू जेल भी गए. अभी तक पिता के घर में सभी तरह के ऐशो-आराम में रहते आए नेहरू को इस तरह धीरे-धीरे अपना निजी अस्तित्व भी समझ में आने लगा. वे मन ही मन इसके लिए गांधी के ऋणी हो गए थे. नेहरू को पता भी नहीं चला कि उन्होंने कब अपने जीवन की कुंजी इस अजीबोगरीब से लगने वाले शख्स गांधी को सौंप दी थी. वे गांधी के होकर रह गए थे. उनके इशारों पर नाचनेवाले कठपुतली सरीखे हो गए थे. कई बार गांधी के किन्हीं विचारों के प्रति विरोधभाव भी मन में उठते, लेकिन गांधी के सामने जाते ही उनका सारा आत्मविश्वास मानो हवा हो जाता. वे समझ नहीं पाते कि गांधी क्यों उन्हें इतना अपने-अपने से लगते हैं.

उन दिनों गांधी, मोतीलाल और जवाहरलाल की यह तिकड़ी इतनी मशहूर हुई कि उन्हें मजाक में ‘फादर, सन एंड होली घोस्ट’ (पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा) कहा जाने लगा था. गांधी का स्वावलंबन, त्याग और उनकी निर्भयता ही जवाहर को सबसे अधिक आकर्षित करती थी. इतना तक कि उन्हें अपने पिता की संपत्ति से भी वितृष्णा होने लगी. जवाहरलाल चाहते थे कि वे खुद अपने पैरों पर खड़े होकर आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो जाएं. जबकि मोतीलाल इसे जवाहर के विद्रोह के रूप में या अपने पिता से दूरियां बढ़ा लेने के रूप में देखते थे. नेहरू ने इस बारे में लिखा है- ‘मैंने गांधीजी को यह लिखा कि खर्च की दृष्टि से पिताजी के ऊपर भार बनना मुझे ठीक नहीं लग रहा है और मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं. मुश्किल यह थी कि मैं कांग्रेस में पूरे समय काम करने वाला कार्यकर्ता था. मेरे पिताजी ने जब यह सब सुना तो बड़े नाराज हुए.’

15 सितंबर, 1924 को गांधीजी ने इसके जवाब में नेहरू को लिखा था- ‘प्रिय जवाहरलाल, दिल को छू लेनेवाला तुम्हारा निजी पत्र मिला. मैं जानता हूं कि इन सब चीजों को तुम बहादुरी के साथ झेल लोगे. अभी तो पिताजी चिढ़े हुए हैं. और मैं बिल्कुल नहीं चाहता कि तुम या मैं उनकी झुंझलाहट को बढ़ने का जरा भी मौका दें. संभव हो तो उनसे जी खोलकर बातें कर लो और ऐसा कोई काम न करो, जिससे वे नाराज हों. उन्हें दुखी देखकर मुझे दुख होता है. उनकी चिढ़ जाने की प्रवृत्ति से साफ जाहिर है कि वे दुखी हैं.’ इसी पत्र में गांधी ने आगे लिखा- ‘क्या तुम्हारे लिए कुछ रुपयों का बंदोबस्त करूं? तुम कुछ कमाई का काम हाथ में क्यों न ले लो? आखिर तो तुम्हें अपने ही पैसों पर गुजर करनी चाहिए, भले ही तुम पिताजी के घर में रहो. कुछ समाचार पत्रों के संवाददाता बनोगे या अध्यापकी करोगे?’

ऐसे ही इंदिरा को स्कूल भेजा जाए या नहीं, इस बात को लेकर भी मोतीलाल और जवाहरलाल में ठन गई थी. मामला फिर गांधीजी के पास पहुंचा. इस बात का पता दो सितंबर, 1924 को मोतीलाल द्वारा गांधीजी को भेजे गए तार से चलता है, जिसमें मोतीलाल जी ने लिखा था- ‘आपका पत्र मिला. जवाहर के बारे में पूरी कहानी शुरू से लेकर अंत तक बिल्कुल झूठ का पुलिंदा है. (इंदिरा के) स्कूल जाने पर मैंने कोई जोर नहीं डाला था, बल्कि केवल इच्छा व्यक्त की थी जिसे जवाहर ने अपना कर्तव्य समझकर शिरोधार्य किया. स्कूल का सरकार से कोई संबंध नहीं. जवाहर की आपत्ति वहां मिलनेवाली शिक्षा की अनुपयोगिता को लेकर थी. मैं तो केवल इतना चाहता था कि शिक्षा जैसी भी हो, इन्दु को उसकी उम्र के बच्चों के साथ मिले. अंत में जवाहर सहमत हो गया.’

इस तरह नेहरू के जीवन का ऐसा कोई व्यक्तिगत पहलू नहीं रह गया था जो गांधीजी से छिपा हो. नेहरू के प्रति गांधीजी का पुत्रवत स्नेह अपने पुत्रों से भी अधिक हो चला था. नेहरू को उनके जन्मदिन पर शुभकामना संदेश भेजना तक गांधी नहीं भूलते थे. कमला नेहरू के स्वास्थ्य की चिंता भी उन्हें बराबर रहती थी. इंदिरा के जन्म के सात साल बाद कमला को एक बेटा भी हुआ था, जो केवल सात दिन ही जीवित रह सका. उसके निधन पर गांधी ने तुरंत नेहरू को सांत्वना देने के लिए 28 नवंबर को तार भेजा, जिसमें लिखा था- ‘बच्चे की मृत्यु से दुख हुआ. ईश्वरेच्छा बलीयसी.’

नेहरू का हौसला बढ़ाते रहने, उन्हें भारत की ज़मीनी सच्चाइयों से रू-ब-रू होने और मध्यमवर्गीय दायरे से बाहर निकलकर गांवों और किसानों से जुड़ने के लिए भी गांधी ने ही प्रेरित किया था. एक बार तो उन्होंने अधिक से अधिक खादी कतवाकर सर्वोत्तम सूत इकट्ठा करवाने की प्रतियोगिता तक करवाई थी जिसमें जवाहरलाल और कमला ने पहला स्थान हासिल किया था.

गांधी की जिस बात ने नेहरू को उनका कायल बना दिया था, वह थी उनकी निर्भयता. स्वयं नेहरू के शब्दों में इसी निर्भयता का संचार गांधी ने भारत के जन-जन में भी कर दिया था जिनमें से नेहरू भी एक थे. नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है- ‘हमारी प्राचीन पुस्तकों में यह कहा गया था कि किसी आदमी या किसी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा उपहार है अभय— निर्भयता; सिर्फ शारीरिक हिम्मत ही नहीं, बल्कि दिमाग से डर का हट जाना. हमारे इतिहास के प्रभात में ही जनक और याज्ञवल्क्य ने कहा था कि जनता के नेताओं का काम जनता को निर्भय बनाना है. लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर हिंदुस्तान में जो सबसे अहम लहर थी, उसमें डर, कुचलनेवाला, दम घोटनेवाला, मिटा देनेवाला डर था— फौज का, पुलिस का, चारों तरफ फैले हुए खुफिया विभाग का डर था; अफसरों की जमात का डर था; कुचलने वाले कानूनों और जेल का डर था; ज़मींदार के कारिंदे का डर था; साहूकार का डर था; बेकारी और भूख से मरने का डर था, जो हमेशा ही नजदीक बने रहते थे. चारों तरफ समाये हुए इस डर के खिलाफ ही गांधी की शांत, लेकिन दृढ़ आवाज़ उठी— “डरो मत!” क्या यह ऐसी आसान बात थी? नहीं. ’

‘…इस तरह मानो अचानक ही लोगों के ऊपर से डर का लबादा हटा दिया गया; यह नहीं कि वह पूरी तरह हटा दिया गया, लेकिन फिर भी एक बहुत बड़े हैरतंगेज़ स्तर तक तो हटा ही दिया गया. …यह एक मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया भी थी, जिसमें उस विदेशी राज्य के सामने लंबे अरसे से सिर झुकाए रखने पर शर्म महसूस हुई, जिसने हमें गिरा दिया था और जिसने हमारी बेइज्जती की थी. इसमें यह इरादा भी मिला हुआ था कि चाहे नतीजा कुछ भी हो, अब आगे सिर न झुकाया जाए.’

नेहरू के भीतर द्रोहभाव का एक बीज भी कहीं दबा था, जिसे गांधी द्वारा दी गई निर्भयता ने इस हद तक अंकुरित कर दिया कि असहयोग आंदोलन के दौरान नेहरू ही सबसे विद्रोही तेवर वाले नेताओं में गिने जाने लगे. एक बार तो उनपर यह इलजाम तक लगा कि वे अंग्रेजों के प्रति गालीनुमा लहजे में बात करते हैं. इतना तक कि गांधी को इस पर स्पष्टीकरण देना पड़ा था. 17 नवंबर, 1921 को यंग इंडिया में उन्हें इस शीर्षक से एक पूरा लेख ही लिखना पड़ा कि ‘गाली क्या है?’ हालांकि यह गलतफहमी अख़बार के रिपोर्टर की गलती से पैदा हुई थी.

असहयोग आंदोलन के दौरान 22 नवंबर, 1921 को नेहरू पहली बार गिरफ्तार होकर जेल गए. उनके साथ उनके पिता मोतीलाल भी थे. मार्च 1922 में जब उन्हें रिहा किया गया, तो इंडिपेंडेंट अखबार के रिपोर्टर ने उनसे उनका संदेश पूछा. इस पर नेहरू ने कहा – ‘मैं क्या संदेश दूं? मेरे पिताजी, जो दमे के मरीज हैं, और मेरे सैकड़ों साथी अब भी जेल में हैं. मैं ऐसा महसूस करता हूं कि मुझे जेल से बाहर आने का कोई नैतिक अधिकार नहीं था. मैं केवल यही कह सकता हूं : लड़ाई जारी रखो, भारत की आजादी के लिए काम करते रहो. …अपने महान नेता महात्मा गांधी के पीछे चलो, …और सबसे बड़ी बात यह है कि चरखे और अहिंसा को मत भूलो.’ नेहरू का यह तेवर आने वाले वर्षों में और भी दृढ़ ही होता गया. उनपर राजद्रोह का मुकदमा चलाए जाने का प्रयास तो जब-तब होता ही रहा.

नेहरू जीवनपर्यंत अपने नेता महात्मा गांधी के असर में रहे. गांधी का जादू उन पर ताजिंदगी कायम रहा. लेकिन 1926-27 के दौरान जहां गांधी भारत, बर्मा और श्रीलंका के अपने भ्रमण में व्यस्त थे, वहीं नेहरू को कमला के स्वास्थ्य के सिलसिले में करीब 21 महीने तक यूरोप में रहना पड़ा. इस दौरान वे कम्युनिस्ट शासन वाले सोवियत रूस के दौरे पर भी गए. माना जाता है कि यूरोप के इस दौरे ने नेहरू के विचारों पर बहुत असर डाला. संभवतः इसीलिए बाद के वर्षों में गांधीजी की हर बात को उन्होंने आंख मूंदकर नहीं माना. 1942 से 1945 के दौरान जेल में ही लिखी गई अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में भी उन्होंने इस बात को स्वीकारते हुए लिखा है- ‘…गांधीजी की ज्यादातर बातों को हमने आंशिक रूप में माना और कभी-कभी तो बिल्कुल ही नहीं माना. लेकिन यह सब एक गौण बात थी. उनकी सीख का सार था निर्भयता और सत्य; और इन दोनों के साथ सक्रियता मिली हुई थी और उसमें हमेशा आम लोगों की बेहतरी का ख़याल था.’

हालांकि गांधी के लिए नेहरू में आया यह बदलाव थोड़ा बेचैन करने वाला रहा. प्रौढ़ नेहरू का बापू रूपी गांधी के प्रति व्यवहार कुछ-कुछ वैसा ही रहा, जैसा युवा नेहरू का पिता रूपी मोतीलाल के प्रति रहा था. भारत छोड़ो आंदोलन के बाद के दौर में दोनों के बीच भावी भारत के स्वरूप को लेकर मतभेद एकदम स्पष्ट होते गए. लेकिन भावनात्मक जुड़ाव ऐसा था कि दोनों साधिकार अपने-अपने विचारों पर अड़ते और लड़ते भी रहे, लेकिन आपसी जुड़ाव और स्नेह में कभी भी कमी नहीं आई.

अपनी पुस्तक ‘हिंद-स्वराज’ में गांधी ने भारतीय सभ्यता की जिन विशिष्टताओं को भावी भारत का आधार बनाने का सपना देखा था, उसका मूल स्वर नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक ही था. नेहरू ने इसमें आधुनिक वैज्ञानिक और राजनीतिक विशेषताओं का भी समावेश करने का प्रयास किया. गांधी को इससे परहेज नहीं था, लेकिन उन्हें इसमें पश्चिम के अंधानुकरण का खतरा दिखता था. अपने अंतिम दिनों में गांधी मानने लगे थे कि अंग्रेजी शिक्षा और चिंतन ने नेहरू को पूरी तरह से यूरोपीय जीवन-प्रणाली की ओर अग्रसर कर दिया है. एक ऐसी जीवन-प्रणाली जिसमें भारत के गांवों, उसकी ग्रामीण सभ्यता और प्रकृति के अनुकूल एक टिकाऊ विकास की संभावना वाली संतोषी और मितव्ययी जीवनशैली के साथ छलावा हो सकता था. एक दिखावाबाज और अंध-उपभोग की भावना से ग्रसित जीवनशैली समाज को हिंसा और असत्य की ओर धकेल सकती थी.

पांच अक्टूबर, 1945 और फिर 13 नवंबर, 1945 को गांधी द्वारा नेहरू को लिखी गई दो चिट्ठियां इस मामले में बहुत महत्वपूर्ण मानी जा सकती हैं. इन चिट्ठियों में गांधी ने भावी भारत और भावी दुनिया की वास्तविक आज़ादी की एक सुंदर तस्वीर खींची थी. उसमें परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत समन्वय था. उस दुनिया में गांधी और नेहरू दोनों के लिए समान रूप से जगह थी. लेकिन बूढ़े हो चुके गांधी ने जैसे भावनात्मक रूप से थोड़ी निराशा की अवस्था में वे चिट्ठियां लिखी थीं. इन चिट्ठियों में गांधी ने इस बात को भी उभारा था कि अंग्रेजी भाषा भी वह वजह हो सकती है जिसके चलते गांधी और नेहरू एक-दूसरे को अपनी बात समझा पाने में असफल हो रहे हैं.

पांच अक्टूबर वाली चिट्ठी में गांधीजी ने लिखा था- ‘चिरंजीवी जवाहरलाल, तुमको लिखने का तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सका हूं. अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था. आखिर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखना पसंद किया.’ वहीं 13 नवंबर वाली चिट्ठी में उन्होंने लिखा- ‘जो खत मैंने तुमको पहले लिखा था, उसकी अंग्रेजी राजकुमारी (अमृत कौर) से करवा ली थी, वह मेरे पास पड़ा है. इसकी अंग्रेजी भी करवा लेता हूं और उसे साथ में ही भेजता हूं. अंग्रेजी करवाकर मैं दो काम कर लेता हूं. एक तो मैं अपना कहना अंग्रेजी में ज्यादा समझा सकता हूं, तो समझाऊं, और दूसरा मैं तुम्हारी बात पूरी-पूरी समझा हूं कि नहीं उसका भी मुझे अंग्रेजी करने से ज्यादा पता चलेगा.’

हालांकि पांच अक्टूबर वाली चिट्ठी में गांधीजी ने यह भी लिखा था- ‘हमारा संबंध सिर्फ राजकारण (राजनीति) का नहीं है. उससे कई दरजे गहरा है. उस गहराई का मेरे पास कोई नाप नहीं है. वह संबंध टूट भी नहीं सकता. इसलिए मैं चाहूंगा कि हम एक-दूसरे को राजकारण में भी भली-भांति समझें. दूसरा कारण यह है कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझता है. हम दोनों हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए ही जिन्दा रहते हैं, और उसी आज़ादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा. हमें किसी की तारीफ की दरकार नहीं है. तारीफ हो या गालियां— एक ही चीज है. …अगरचे मैं 125 वर्ष तक सेवा करते-करते जिन्दा रहने की इच्छा करता हूं, तब भी मैं आखिर में बूढ़ा हूं और तुम मुकाबले में जवान हो. इसी कारण मैंने कहा है कि मेरे वारिस तुम हो. कम से कम उस वारिस को मैं समझ लूं, और मैं क्या हूं वह भी वारिस समझ ले तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा.’

दरअसल, 15 जनवरी, 1942 को वर्धा में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक में गांधी ने नेहरू को अपना वारिस घोषित करते हुए कहा था- ‘मुझसे किसी ने कहा कि जवाहरलाल और मेरे बीच अनबन हो गई है. यह बिल्कुल गलत है. जब से जवाहरलाल मेरे पंजे में आकर फंसा है, तब से वह मुझसे झगड़ता ही रहा है. परंतु जैसे पानी में चाहे कोई कितनी ही लकड़ी क्यों न पीटे, वह पानी को अलग-अलग नहीं कर सकता, वैसे ही हमें भी कोई अलग नहीं कर सकता. मैं हमेशा से कहता आया हूं कि अगर मेरा वारिस कोई है, तो वह राजाजी नहीं, सरदार वल्लभभाई नहीं, जवाहरलाल है. वह जो जी में आता है, बोल देता है, मगर काम मेरा ही करता है. मेरे मरने के बाद वह मेरा सब काम करेगा. तब मेरी भाषा भी वह बोलेगा. आखिर हिन्दुस्तान में ही पैदा हुआ है न. हर रोज वह कुछ सीखता है. मैं हूं तो मुझसे लड़ लेता है. परंतु मैं चला जाऊंगा तो लड़ेगा किससे? और लड़ेगा तो उसे बर्दाश्त कौन करेगा? आखिर मेरी भाषा भी उसे इस्तेमाल करते ही बनेगी. ऐसा न भी हो तो भी कम से कम मैं तो यही श्रद्धा लेकर मरूंगा.’

गांधी सचमुच इसी श्रद्धा के साथ मरे. नेहरू के बारे में उनका आकलन बहुत कुछ ठीक भी साबित हुआ. सुस्पष्ट दृष्टि और दिशा के बावजूद नेहरू ने कई मामलों में मध्यमार्ग का रास्ता अपनाया.

पांच अक्टूबर, 1945 और फिर 13 नवंबर, 1945 को गांधी द्वारा नेहरू को लिखी गई दो चिट्ठियां इस मामले में बहुत महत्वपूर्ण मानी जा सकती हैं. इन चिट्ठियों में गांधी ने भावी भारत और भावी दुनिया की वास्तविक आज़ादी की एक सुंदर तस्वीर खींची थी. उसमें परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत समन्वय था. उस दुनिया में गांधी और नेहरू दोनों के लिए समान रूप से जगह थी. लेकिन बूढ़े हो चुके गांधी ने जैसे भावनात्मक रूप से थोड़ी निराशा की अवस्था में वे चिट्ठियां लिखी थीं. इन चिट्ठियों में गांधी ने इस बात को भी उभारा था कि अंग्रेजी भाषा भी वह वजह हो सकती है जिसके चलते गांधी और नेहरू एक-दूसरे को अपनी बात समझा पाने में असफल हो रहे हैं.

पांच अक्टूबर वाली चिट्ठी में गांधीजी ने लिखा था- ‘चिरंजीवी जवाहरलाल, तुमको लिखने का तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सका हूं. अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था. आखिर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखना पसंद किया.’ वहीं 13 नवंबर वाली चिट्ठी में उन्होंने लिखा- ‘जो खत मैंने तुमको पहले लिखा था, उसकी अंग्रेजी राजकुमारी (अमृत कौर) से करवा ली थी, वह मेरे पास पड़ा है. इसकी अंग्रेजी भी करवा लेता हूं और उसे साथ में ही भेजता हूं. अंग्रेजी करवाकर मैं दो काम कर लेता हूं. एक तो मैं अपना कहना अंग्रेजी में ज्यादा समझा सकता हूं, तो समझाऊं, और दूसरा मैं तुम्हारी बात पूरी-पूरी समझा हूं कि नहीं उसका भी मुझे अंग्रेजी करने से ज्यादा पता चलेगा.’

हालांकि पांच अक्टूबर वाली चिट्ठी में गांधीजी ने यह भी लिखा था- ‘हमारा संबंध सिर्फ राजकारण (राजनीति) का नहीं है. उससे कई दरजे गहरा है. उस गहराई का मेरे पास कोई नाप नहीं है. वह संबंध टूट भी नहीं सकता. इसलिए मैं चाहूंगा कि हम एक-दूसरे को राजकारण में भी भली-भांति समझें. दूसरा कारण यह है कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझता है. हम दोनों हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए ही जिन्दा रहते हैं, और उसी आज़ादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा. हमें किसी की तारीफ की दरकार नहीं है. तारीफ हो या गालियां— एक ही चीज है. …अगरचे मैं 125 वर्ष तक सेवा करते-करते जिन्दा रहने की इच्छा करता हूं, तब भी मैं आखिर में बूढ़ा हूं और तुम मुकाबले में जवान हो. इसी कारण मैंने कहा है कि मेरे वारिस तुम हो. कम से कम उस वारिस को मैं समझ लूं, और मैं क्या हूं वह भी वारिस समझ ले तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा.’

दरअसल, 15 जनवरी, 1942 को वर्धा में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक में गांधी ने नेहरू को अपना वारिस घोषित करते हुए कहा था- ‘मुझसे किसी ने कहा कि जवाहरलाल और मेरे बीच अनबन हो गई है. यह बिल्कुल गलत है. जब से जवाहरलाल मेरे पंजे में आकर फंसा है, तब से वह मुझसे झगड़ता ही रहा है. परंतु जैसे पानी में चाहे कोई कितनी ही लकड़ी क्यों न पीटे, वह पानी को अलग-अलग नहीं कर सकता, वैसे ही हमें भी कोई अलग नहीं कर सकता. मैं हमेशा से कहता आया हूं कि अगर मेरा वारिस कोई है, तो वह राजाजी नहीं, सरदार वल्लभभाई नहीं, जवाहरलाल है. वह जो जी में आता है, बोल देता है, मगर काम मेरा ही करता है. मेरे मरने के बाद वह मेरा सब काम करेगा. तब मेरी भाषा भी वह बोलेगा. आखिर हिन्दुस्तान में ही पैदा हुआ है न. हर रोज वह कुछ सीखता है. मैं हूं तो मुझसे लड़ लेता है. परंतु मैं चला जाऊंगा तो लड़ेगा किससे? और लड़ेगा तो उसे बर्दाश्त कौन करेगा? आखिर मेरी भाषा भी उसे इस्तेमाल करते ही बनेगी. ऐसा न भी हो तो भी कम से कम मैं तो यही श्रद्धा लेकर मरूंगा.’

गांधी सचमुच इसी श्रद्धा के साथ मरे. नेहरू के बारे में उनका आकलन बहुत कुछ ठीक भी साबित हुआ. सुस्पष्ट दृष्टि और दिशा के बावजूद नेहरू ने कई मामलों में मध्यमार्ग का रास्ता अपनाया.

अंत में, मार्च 1948 यानी गांधीजी की हत्या के एक महीने बाद सेवाग्राम में एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसका विषय था- ‘कल तक बापू थे. आज रहनुमाई कौन करेगा? सोचते हैं : नेहरू, प्रसाद, आज़ाद, विनोबा, कृपलानी, जेपी और अन्य.’ इस सम्मेलन में देशभर के कुछ प्रमुख गांधीजन इकट्ठा हुए थे. 13 मार्च, 1948 को जब नेहरू इसमें अपनी बात रखने आए, तो उन्होंने कहा- ‘देश के दो टुकड़े तो हो गए, लेकिन आगे चलकर और भी टुकड़े-टुकड़े हो जाने का डर है. …आज तक गोरों की ग़ुलामी थी. अब डर है कि देश के टुकड़े-टुकड़े होकर भीतरी ग़ुलामी आएगी. …महात्माजी (गांधीजी) की निगाह समूचे देश पर रहती थी. वे बुनियादी सवाल को पकड़ लेते थे. इसलिए वे नोआखाली गए, कलकत्ते गए, बिहार गए, देहली में आकर बैठ गए. हम देखें कि बुनियादी काम क्या है, मूल काम क्या है. बापू की मौत चिल्ला-चिल्लाकर कहती है कि वह काम कौन सा है. सांप्रदायिकता के ज़हर का मुक़ाबला किए बिना हम अपनी आज़ादी को नहीं बचा सकते.’

उन्होंने आगे कहा, ‘जिस बात ने मुझे बापू की तरफ़ खींचा, वह कोई एक बात नहीं थी. सारी बातें मिलकर जो चीज़ बनती थी, उसने मुझे खींचा. खादी, ग्रामोद्योग वग़ैरह बातें उसमें थीं. हर टुकड़ा उसमें था. लेकिन खादी, ग्रामोद्योग वग़ैरह सब को निकाल दीजिए, तो भी बापू की बुनियादी बातें रह जाती हैं. …इन सारी ऊपरी बातों को हटाने के बाद भी बापू की जो बुनियादी बातें रह जाती थीं, उन्हीं पर आज हमला हो रहा है. उनको आज अगर हम नहीं बचाएं तो देश तबाह हो जाएगा. इसलिए ज़रूरत है इस बात की है कि हम बुनियादी तौर पर उनके रास्ते पर चलें.’

इसमें कोई शक नहीं था कि गांधी के जाने के बाद बुनियादी सवालों पर नेहरू गांधी के आशानुरूप ही गांधी की भाषा बोलने लगे थे. अपना वारिस चुनने में गांधी ने कतई भूल नहीं की थी. क्या नई पीढ़ियां गांधी और नेहरू के बारे में उस इतिहास से आगे का भी कुछ पढ़ना और जानना चाहेंगी, जो उन्हें तरह-तरह के दुष्प्रचार के माध्यम से बताया गया है या बताया जा रहा है?

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