भारतीय सेना के जवान

Politics | चीन

क्या कश्मीर मसले पर थोड़ा सतर्क और शांत रहकर चीन के साथ चल रहे वर्तमान विवाद से बचा जा सकता था?

कुछ लोग मानते हैं कि मोदी सरकार ने पिछले साल जम्मू-कश्मीर को लेकर कुछ ऐसे काम भी किये जिन्होंने भारत को दो देशों के साथ एक साथ युद्ध के कगार पर पहुंचा दिया

अभय शर्मा | 25 September 2020 | फोटो: फ्लिकर

पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में 15-16 जून की रात को चीन और भारत की सेना के बीच आमने-सामने का संघर्ष हुआ था. इसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे. इसके बाद दोनों देशों के बीच राजनयिक और सैन्य स्तरों पर बातचीत शुरू हुई. लेकिन बीते तीन महीने में 30 से ज्यादा बैठकें होने के बाद भी यह बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी है और दोनों देशों के बीच स्थिति अभी भी बेहद तनावपूर्ण बनी हुई है. बीती सात सितंबर को एलएसी (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) के निकट दोनों देशों के सैनिकों ने हवाई फायरिंग भी की. कुछ रोज पहले यह खबर भी आयी है कि चीन एलएसी के निकट भारी-भरकम हथियार तैनात कर रहा है. हिंदुस्‍तान टाइम्‍स की एक रिपोर्ट के मुताबिक सैटलाइट से मिली तस्‍वीरों से पता चला है कि पूरे अक्‍साई चिन इलाके में स्थित चीनी एयर बेस को चीन ने मिसाइलों, तोपों और लंबी दूरी तक मार करने में सक्षम रॉकेटों से पाट दिया है. यानी कि भारत और चीन के बीच संघर्ष का खतरा अभी भी बना हुआ है.

लद्दाख में भारत, चीन की सीमा के नजदीक ‘दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी’ रोड का निर्माण करवा रहा है. 255 किलोमीटर लंबी यह सड़क लेह को अक्साई चिन की सीमा से सटे दौलत बेग ओल्डी क्षेत्र से जोड़ती है. इस सड़क से चीन की सीमा यानी उसके कब्जे वाला अक्साई चिन महज नौ किमी दूर रह जाता है. भारत में एक आम राय है कि चीनी सेना इस सड़क के निर्माण को चुनौती देने के लिए ही गलवान घाटी की पहाड़ियों पर कब्जा करना चाहती है. लेकिन, कुछ जानकार इस तथ्य को पूरी तरह सही नहीं मानते. इनके मुताबिक विचार करने वाली बात यह है कि आखिर चीन को अचानक ही भारत के निर्माण कार्यों से दिक्कत क्यों होने लगी है. भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी एमके भद्रकुमार कहते हैं, ‘आखिर चीन ने तब विरोध क्यों नहीं किया जब हमने 1962 के युद्ध के बाद साल 2008 में दौलत बेग ओल्डी एयर बेस खोला था. उसने तब भी इस इलाके में अपनी सेना की तैनाती नहीं की थी जब भारतीय वायु सेना ने 2013 में इस एयर बेस को और मजबूत करके वहां सुपर हर्क्यूलिस विमान उतार दिया था. अगर ‘दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड’ की बात है तो चीन ने इससे पहले कभी इस सड़क निर्माण को चुनौती क्यों नहीं दी, यह सड़क तो बीते दो दशकों से बन रही है.’

भारत-चीन मामले के विशेषज्ञ और ‘ट्रिब्यून इंडिया’ के संपादक राजेश रामचंद्रन भी उन लोगों में से हैं जो चीन के गलवान घाटी की पहाड़ियों पर कब्जा करने की कोशिश की एक बड़ी वजह ‘दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी’ रोड को ही मानते हैं. अपनी एक टिप्पणी में वे लिखते हैं कि चीन गलवान की पहाड़ियों से इस सड़क पर नजर रखना चाहता है और भारत को इस इलाके में पैठ बनाने से रोकना चाहता है. लेकिन राजेश रामचंद्रन भी वही सवाल उठाते हैं कि आखिर 2020 में अचानक ऐसा क्या हो गया कि चीन को इस एक सड़क से खतरा नजर आने लगा और इस पर नजर रखने के मकसद से उसने इतने भयानक हमले को अंजाम दे दिया.

रामचंद्रन सहित कई जानकार इसके पीछे की वजह जम्मू-कश्मीर पर पिछली साल लिए गए मोदी सरकार के फैसलों को मानते हैं. ये लोग कहते हैं कि अनुच्छेद-370 को हटाने और उसके बाद लद्दाख पर लिए गए मोदी सरकार के फैसलों और बयानबाज़ी ने चीन को नाराज़ कर दिया. दरअसल अनुच्छेद-370 हटाने के साथ-साथ पिछले साल मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को अस्थायी तौर पर केंद्रशासित राज्य बना दिया और इसमें से लद्दाख को भी अलग कर दिया. इसके अलावा लद्दाख के नये नक्शे में अक्साई चिन इलाके को भी शामिल किया गया था. इस मसले पर भारतीय संसद में दिये अपने बयान में गृह मंत्री अमित शाह का कहना था कि ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है… मेरे जम्मू-कश्मीर बोलने का अर्थ पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और अक्साई चिन का भी उसमें समाहित होना है… मैं इसके लिए जान भी दे सकता हूं… भारत के और जम्मू-कश्मीर के संविधान ने जम्मू-कश्मीर की जो सीमाएं तय की हैं, उनके अंदर पीओके और अक्साई चिन दोनों ही समाहित हैं.’

छह अगस्त, 2019 को जब अमित शाह ने संसद में यह बयान दिया था तो चीन ने अगले तीन महीनों में तीन बार इसे लेकर विरोध जताया था. उसका कहना था, ‘हम भारत से आग्रह करते हैं कि वह सीमा मुद्दे पर अपने शब्दों और कार्यों में सतर्कता बरते, हम दोनों पक्षों के बीच संबंधित समझौतों का कड़ाई से पालन करते हैं, और ऐसी किसी भी कार्रवाई से बचते हैं जिनसे सीमा से जुड़े मुद्दे और जटिल हो सकते हैं.’ अगस्त 2019 में चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी भारत के इस कदम पर विरोध जताते हुए कहा था, ‘भारत (के कार्यों) ने चीनी संप्रभुता को चुनौती दी है. उसने सीमाई क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए हुए द्विपक्षीय समझौतों का उल्लंघन किया है.’

चीनी मामलों के अमेरिकी जानकार और मैसैचुसेट्स इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी (एमआईटी) में प्रोफेसर एम टेलर फ्रावेल एक भारतीय न्यूज़ वेबसाइट को दिए साक्षात्कार में कहते हैं कि भारत हमेशा से अक्साई चिन को अपना हिस्सा बताता रहा है, यह दावा कोई नया नहीं है. लेकिन केंद्र शासित राज्य बनाकर लद्दाख में पूरे अक्साई चिन को शामिल करना, उसका नया राजनीतिक नक्शा लॉन्च करना और फिर भारतीय गृह मंत्री ने अक्साई चिन को वापस लेने की बात संसद में जिस जोरदार तरीके से कही, उसने इस मसले पर चीन का ध्यान खींचा.

पूर्व राजनयिक एमके भद्रकुमार चीन के विरोध के बाद भी इस मसले को भारत द्वारा गंभीरता से न लिए जाने को एक बड़ी चूक बताते हैं. अपनी एक टिप्पणी में वे लिखते हैं, ‘जब भारत ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 को हटाया और (चीन के कब्जे वाले) अक्साई चिन पर अपना दावा जताया तो परस्थितियां बदल गईं. चीन ने जब इसका विरोध किया तब हमने उसे नजरअंदाज कर दिया. बीते साल अक्टूबर के बाद से चीन के साथ कोई बातचीत भी नहीं हुई… हमने ऐसे मुद्दों पर पीठ दिखाई. (इसे गंभीरता से लेने के बजाय) हमने अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर बनाए गए ‘क्वाड’ गठबंधन को मंत्री स्तर पर अपग्रेड किया. और बीजिंग को अपमानित करने के लिए ताइवान और कोविड-19 जैसे मुद्दों पर अमेरिकी कदमों का अनुसरण करना शुरू कर दिया.’

एमके भद्रकुमार के मुताबिक अक्साई चिन को लेकर भारत की ओर से दिए गए बयानों और उसके बाद भारत सरकार के चीन विरोधी रुख को बीजिंग ने भारतीय विदेश नीति में एक बड़े बदलाव की तरह लिया. गृह मंत्री अमित शाह के बयान को उसने सीधे-सीधे अपने लिए चुनौती समझा. इस तरह के बयानों से चीन को यह लगने लगा कि भारत भविष्य में अक्साई चिन पर फिर से कब्ज़ा जमाने की कोशिश में है और इसीलिए वह सीमा के नजदीक सड़कों का जाल बिछा रहा है.

चीनी आक्रामकता को लेकर वहां के सरकारी मीडिया का क्या कहना है?

चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसियों का कहना है कि चीन अगर भारतीय सीमा के नजदीक आक्रामकता दिखा रहा है तो उसकी वजह भारत खुद है. इनके मुताबिक बीते साल भारत की ओर से जिस तरह के बयान आये हैं और वहां की सरकार का जैसा रुख देखने को मिला है, उसके चलते ही चीनी सरकार को आक्रामक होना पड़ा. चीन के सरकारी न्यूज़ चैनल सीजीटीएन की वेबसाइट पर छपे एक लेख में कहा गया है कि भारत की आक्रामक क्षेत्रीय रणनीति के चलते ही आज दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देशों के बीच शांति को खतरा पैदा हो गया है. इस लेख में साफ़ तौर गृह मंत्री अमित शाह के अक्साई चिन पर दिए गए बयान को हालिया तनाव के पीछे का कारण बताया गया है.

पिछले दिनों एक अन्य सरकारी अखबार में चीनी थिंक टैंक चाइना इंस्टीट्यूट्स ऑफ कंटेंपरेरी इंटरनेशनल रिलेशंस – सीआईसीआईआर – में दक्षिण एशियाई मामलों के उप निदेशक वांग शिदा ने एक लेख लिखा था. इसमें उन्होंने भी वर्तमान विवाद के पीछे की वजह, जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित राज्य बनाने और उसके दो टुकड़े करने को बताया है. उन्होंने अपने लेख में कहा है कि ‘भारत ने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया. इसमें उसने उन क्षेत्रों को भी शामिल किया जो चीनी राज्य शिनजियांग में और तिब्बत में आते हैं. इसी तरह उसने नए केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी क्षेत्र पीओके को शामिल किया. भारत के इस कदम ने चीन को कश्मीर विवाद में दखल देने के लिए मजबूर किया है. उसके इन फैसलों ने चीन और पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे पर जवाबी कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया है, साथ ही चीन और भारत के बीच सीमा मुद्दे को हल करने में कठिनाई को बढ़ा दिया है.’

विदेश मामलों के जानकार कहते हैं कि कूटनीति में शब्द काफी ज्यादा मायने रखते हैं. शब्दों ने युद्ध शुरू करवाये हैं और उन्हें रोका भी है. शब्दों के चलते ही कई देशों के हाथ से उनके अपने क्षेत्र छिन गए तो कई के क्षेत्रों को छिनने से बचाने में शब्दों ने ही मदद की. इन लोगों के मुताबिक भारतीय नेताओं ने अंदरूनी राजनीति और वोट बैंक को साधने के लिए कई बार ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जिसका खमियाजा भारतीय विदेश नीति को उठाना पड़ा. कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने, उसे बांटने और केंद्रशासित बनाने के बाद गृह मंत्री अमित शाह ने जो बयान संसद में दिया, उसने चीन के साथ भारत के रिश्ते दांव पर लगा दिए. पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते पहले से ही खराब थे जो इसके चलते और खराब हो गए. और अनुच्छेद 370 हटने के बाद से कश्मीर के अंदरूनी हालात भी हैं. अगर साफ़ शब्दों में कहें तो मोदी सरकार ने पिछले साल जम्मू-कश्मीर को लेकर जो फैसले लिए उसने भारत को दो देशों के साथ एक साथ युद्ध के कगार पर पहुंचाने का काम किया है. और इसमें कश्मीर का एक अंदरूनी पहलू भी है जहां बहुत बड़ी संख्या में भारतीय सेना तैनात है.

यह एक ऐसी स्थिति है जिससे बचने की कोशिश हर देश करता है. लेकिन मोदी सरकार ने शायद एक ही बार में कश्मीर समस्या को अपने मन-मुताबिक हल करने के लिए ताबड़-तोड़ कई ऐसे कदम उठाये जिसने स्थितियों को काफी जटिल कर दिया. जानकार मानते हैं कि सीमाओं पर एक साथ विवाद के कई मोर्चे खोलना अच्छी सामरिक समझ नहीं दिखाता है. इनके मुताबिक कश्मीर पर भारत सरकार ने जो फैसले पिछले साल एक साथ लिए अगर उसे वे जरूरी लगते थे तो एक तो वह उन्हें चरणबद्ध तरीके से ले सकती थी. दूसरा मोदी सरकार अपने राजनीतिक और दूसरे उद्देश्यों की पूर्ति कुछ इस तरह कर सकती थी कि चीन इस मसले से थोड़ा दूर ही रहता. इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अपने निजी रिश्तों को भी इस्तेमाल कर सकते थे.

आज जो स्थिति है, दोतरफा युद्ध की ठीक ऐसी ही आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय सेना के सर्वोच्च अधिकारी समय-समय पर भारत सरकार से हमारी सैन्य ताकत बढ़ाने की मांग करते रहे हैं. लेकिन रक्षा मामलों के जानकार मानते हैं कि फिलहाल स्थिति यह है कि भारत को अगर दोतरफा युद्ध की मार झेलनी पड़ती है तो उसके लिए एक साथ पाकिस्तान और चीन का मुकाबला करना बेहद मुश्किल होगा. इनके मुताबिक एक साथ दोनों से युद्ध होने का मतलब है एक साथ कई जगहों पर युद्ध करना और भारत इसके लिए फिलहाल तैयार नहीं है.

ऐसे में भारत को अंतरराष्ट्रीय सहयोग की दरकार होगी. लेकिन इसमें कई अगर-मगर हैं. भले ही आज अमेरिका ने भारत को नाटो देशों के बराबर का दर्जा दे दिया हो, लेकिन भारत की मदद के लिए वह चीन के खिलाफ अपनी सेना उतार देगा यह सोचना अमेरिका से कुछ ज्यादा ही उम्मीद रखना हो जाएगा. चीन के सामरिक और आर्थिक रूप से बेहद मजबूत होने के चलते उसके खिलाफ उतरना दुनिया की अन्य किसी बड़ी शक्ति के हित में भी नहीं होगा. हाल में कोरोना वायरस को लेकर चीन पर तमाम आरोप लगे, लेकिन देखा जाए तो केवल अमेरिका ही उसके खिलाफ बोलता रहा है.

उधर रूस के लिए कहा जाता है कि वह हमेशा भारत की मदद के लिए आगे आया है, लेकिन बीते डेढ़ दशक में जिस तरह से भारत-अमेरिका की करीबियां बढ़ी हैं और रूस के पाकिस्तान और चीन से संबंध बेहतर हुए हैं, उससे स्थितियां बदल गई हैं. बीते एक-डेढ़ दशक से दुनिया भर में लगातार रूस उसी पक्ष की मदद में खड़ा हो रहा है जो अमेरिका के खिलाफ होता है. अफगानिस्तान, सीरिया, वेनेजुएला, उत्तर कोरिया और तुर्की के नाम इसके उदाहरण के तौर पर लिये जा सकते हैं. यानी कि कोई भी मुल्क सीधे तौर पर भारत की मदद के लिए चीन के खिलाफ युद्ध में शायद ही शामिल हो. लेकिन कई देश ऐसे जरूर होंगे जो पिछले दरवाजे से भारत की मदद करना चाहेंगे और शायद करेंगे भी. इसकी एक वजह तो भारत के साथ उनके सहज संबंध होंगे और दूसरी चीन के प्रति उनके असहज संबंध.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022