पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी

राजनीति | पश्चिम बंगाल

इस बार ममता बनर्जी मुस्लिम वोटों को लेकर इतनी आशंकित क्यों हैं?

पश्चिम बंगाल का मुस्लिम समुदाय साल 2011 से कांग्रेस या लेफ्ट के बजाय सिर्फ टीएमसी को अपना वोट देता रहा है

अभय शर्मा | 15 अप्रैल 2021 | फोटो: टीएमसी

बीते हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान खासा चर्चा में रहा. इसमें उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी पर आरोप लगाते हुए कहा, ‘ममता बनर्जी को खुलेआम मुस्लिमों के वोट मांगने पड़ रहे हैं, यही दिखाता है कि मुस्लिम वोट बैंक आपके हाथ से छिटक गया है. लेकिन ममता बनर्जी को चुनाव आयोग का नोटिस अभी तक नहीं आया… अगर हमने कहा होता कि सारे हिन्दू एक हो जाओ और बीजेपी को वोट दो, तो हमें चुनाव आयोग का नोटिस आ जाता.’ नरेंद्र मोदी के इस भाषण के बाद ममता बनर्जी का वह बयान सुर्ख़ियों में आ गया जिसमें उन्होंने मुस्लिम समाज से वोट न बांटने की बात कहते हुए टीएमसी के पक्ष में एकजुट होकर मतदान की अपील की थी. प्रधानमंत्री की सभा के कुछ घंटे बाद ही चुनाव आयोग ने इस बयान को लेकर ममता बनर्जी को नोटिस जारी किया और जवाब मांगा. टीएमसी सुप्रीमो की ओर से उपलब्ध कराए गए जवाब से चुनाव आयोग संतुष्ट नहीं हुआ और उसने उनके प्रचार करने पर दो दिन के लिए रोक लगा दी.

पश्चिम बंगाल में करीब 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं, जो बीते दो विधानसभा चुनावों से सबसे ज्यादा भरोसा टीएमसी पर ही करते आ रहे हैं. आंकड़ें देखें तो प्रदेश की 100 सीटों पर मुस्लिम समुदाय निर्णायक भूमिका अदा करता है. 2016 के चुनावों में इनमें से 90 सीटें टीएमसी ने जीती थीं. ऐसे में एक बड़ा सवाल यह उठता है कि जब मुस्लिम बड़ी संख्या में ममता बनर्जी को पसंद करते हैं तो फिर उन्हें इस समुदाय से एकजुट होकर वोट देने की अपील क्यों करनी पड़ गई. पश्चिम बंगाल के राजनीतिक विश्लेषक इसकी सबसे बड़ी वजह हाल ही में राजनीति में आए पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी को बताते हैं.

पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी और फुरफुरा शरीफ का महत्व

अब्बास सिद्दीकी का ताल्लुक बंगाल के फुरफुरा शरीफ में स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी की दरगाह से है. कोलकाता से करीब 50 किमी दूर हुगली जिले के जंगीपारा में स्थित इस दरगाह की बंगाली मुसलमानों में बड़ी मान्यता है. इसे देश की सबसे पवित्र मज़ारों में से एक माना जाता है. कई दशकों से अब्बास सिद्दीकी का परिवार ही इस दरगाह की देख-रेख करता आ रहा है. इस परिवार के सदस्यों के नाम के आगे पीरज़ादा (पीर का पुत्र) लगाया जाता है. बीते जनवरी में 34 वर्षीय अब्बास सिद्दीकी ने राजनीति में आने फैसला किया और इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) नाम से राजनीतिक पार्टी बनाई. इस चुनाव में उन्होंने कांग्रेस और सीपीएम के साथ गठबंधन किया है और आईएसएफ राज्य की 294 में से 37 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.

अब्बास सिद्दीकी के राजनीतिक दमखम की बात करें तो फुरफुरा शरीफ दरगाह का सूबे के हावड़ा, हुगली, दक्षिण 24 परगना और दीनाजपुर ज़िलों के मुसलमानों पर ख़ासा असर है. इन पांच ज़िलों में कम से कम 90 विधानसभा सीटें आती हैं जहां मुसलमान बड़ी तादाद में हैं. जाधवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अब्दुल मतीन की मानें तो पश्चिम बंगाल में क़रीब 2,200 मस्जिदें हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर दरगाह से जुड़ी हैं. एक साक्षात्कार में मतीन कहते हैं, ‘ये (फुरफुरा शरीफ दरगाह) बंगाल की राजनीति का एक प्रमुख स्थल बनी रही है… सभी पार्टियों के वरिष्ठ नेता, चुनावों से पहले पीर साहेब का आशीर्वाद लेने, और मुसलमानों का समर्थन अपने पक्ष में सुनिश्चित करने के लिए, दरगाह आते हैं. पिछले दस सालों में ये रुझान और बढ़ गया है.’

फुरफुरा शरीफ दरगाह में श्रद्धा रखने वालों के अलावा हावड़ा, बर्दवान, हुगली, बीरभूमि, दक्षिण 24 परगना और दीनाजपुर ज़िलों में अब्बास सिद्दीकी के अपने भी लाखों समर्थक हैं. बंगाल के मुस्लिम युवाओं के बीच उनका अपना फैन बेस है. अपने उत्तेजक भाषणों, मजहबी तकरीरों की वजह से वे अपने जलसों में काफी भीड़ खींचते हैं.

जानकारों की मानें तो जिन क्षेत्रों में फुरफुरा शरीफ दरगाह और अब्बास सिद्दीकी के समर्थक बड़ी संख्या में हैं उनमें मुसलमानों ने 2011 और 2016 के चुनाव में ममता के पक्ष में गोलबंद होकर वोट किया था और उन्हें बंपर सीटें दी थी. ममता के पक्ष में एकमुश्त मुस्लिम वोट पड़ने के पीछे की वजह फुरफुरा शरीफ दरगाह ही थी. 2011 के विधानसभा चुनाव में सीपीएम को सत्ता से हटाने के लिए ममता बनर्जी ने फुरफुरा शरीफ दरगाह का समर्थन हासिल किया था. इसके बाद उन्होंने दरगाह के लिए काफी कुछ किया भी. उन्होंने दरगाह की देखरेख के लिए फुरफुरा शरीफ विकास बोर्ड बनाया और दरगाह के पीर उनके काफी करीबी भी कहे जाते हैं. यही वजह है कि बीते दस सालों से सिद्दीकी परिवार का समर्थन केवल उनके लिए ही बना हुआ था. अब जब अब्बास सिद्दीकी ने ही पार्टी बना ली है तो इससे ममता की मुश्किलें बढ़ना स्वाभाविक है.

सिद्दीकी परिवार दो भागों में बंटा

पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी के राजनीति में आने के बाद भी ममता बनर्जी के लिए राहत की बात यह है कि अभी भी सिद्दीकी परिवार के काफी लोग टीएमसी के पक्ष में मजबूती से खड़े हैं. बंगाल की राजनीति पर काफी कुछ लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार शोएब दानियाल की मानें तो अब्बास सिद्दीकी के पार्टी बनाने के बाद सिद्दीकी परिवार दो हिस्सों में बंट चुका है. अपनी एक टिप्पणी में वे लिखते हैं, ‘परिवार के वरिष्ठ लोग ममता बनर्जी के पक्ष में हैं जबकि युवा अब्बास का समर्थन करते हैं, इस समय परिवार के युवा ही अब्बास के चुनाव प्रचार की कमान संभाले हुए हैं. कुछ को पार्टी का टिकट भी मिला है.’

2011 के चुनाव से पहले ममता बनर्जी ने दरगाह के एक अन्य पीरज़ादा तोहा सिद्दीकी के जरिये सिद्दीकी परिवार में अपनी पहुंच बनाई थी. तोहा सिद्दीकी, अब्बास सिद्दीकी के चाचा हैं, जो राजनीति में नहीं उतरे हैं. वे आज भी ममता बनर्जी के बेहद करीबी माने-जाते हैं. तोहा सिद्दीकी ने शुरू से ही अब्बास के राजनीतिक पार्टी बनाने का विरोध किया है, उन्होंने मुस्लिमों से ममता बनर्जी को सपोर्ट करने की अपील भी की है. तोहा एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘सौ अब्बास सिद्दीकी यहां आ जायें फिर भी बंगाल में मुसलमानों का वोट नहीं बंटेगा. बंगाल के मुसलमान साम्प्रदायिकता के खिलाफ वोट करेंगे. यह ध्यान रखेंगे कि उनकी किसी गलती का फायदा भाजपा को न हो… ममता बनर्जी की सरकार फिर वापस आएगी, मेरा मानना है कि 99 फीसदी ऐसा होगा.’ तोहा के अलावा फुरफुरा शरीफ के सबसे बड़े पीर क़ुतुबुद्दीन सिद्दीक़ी और जियाउद्दीन सिद्दीक़ी भी अब्बास के खिलाफ और ममता बनर्जी के समर्थन में हैं. इन दोनों का भी कहना है कि वे कभी नहीं चाहते थे कि उनके परिवार का कोई सदस्य सक्रिय राजनीति में शामिल हो. कोई अगर ऐसा करता है तो वे उसे समर्थन नहीं देंगे.

पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी | फोटो : फेसबुक

परिवार के बाद अब्बास सिद्दीकी की छवि उनकी दूसरी बड़ी अड़चन

अब्बास सिद्दीकी भले ही खुद को सूफी संत कहते हों, लेकिन उनकी छवि इसके एकदम उलट है. अपने विवादित और साम्प्रदायिक बयानों के चलते उन्हें एक कट्टरपंथी मौलाना की तरह देखा जाता है. उनकी इसी छवि के चलते महज 34 साल की उम्र में ही पश्चिम बंगाल और उसके आसपास के राज्यों की एक बड़ी मुस्लिम (युवा) आबादी उन्हें अपना हीरो मानने लगी है. उनके कुछ विवादित भाषण इतने वायरल हुए कि राष्ट्रीय मीडिया में भी छाए रहे. बीते साल राजधानी दिल्ली में हुए साम्प्रदायिक दंगों के दौरान उनका एक बयान काफी सुर्ख़ियों में रहा था. तब अब्बास सिद्दीकी ने कहा था, ‘पिछले दो दिनों से मस्जिदों को जलाया जा रहा है. मुझे लगता है कि एक महीने के भीतर कुछ होने वाला है. अल्लाह हमारी प्रार्थना स्वीकार करे. अल्लाह भारत में ऐसा भयानक वायरस भेजे कि भारत में दस से बीस से पचास करोड़ लोग मर जाएं. क्या मैं कुछ गलत कह रहा हूं? यह खुश होने वाली बात है.’

जब तृणमूल सांसद और अभिनेत्री नुसरत जहां ने एक हिंदू से शादी की तो अब्बास सिद्दीकी ने उन पर इस्लाम का अपमान करने का आरोप लगाते हुए तीखा हमला बोला था. उन्होंने कहा था, ‘आप मंदिर और मस्जिद दोनों जगह जाएंगी, क्या इस्लाम आपके पिता की संपत्ति है?’ इस्लाम छोड़ो, हिंदू या ईसाई बनो, हमें कोई समस्या नहीं है.’ उन्होंने एक अन्य वीडियो में यह भी कहा, ‘अगर अब्बास कभी सत्ता में आता है, तो वह आपको एक पेड़ से बांध कर पीटेगा.’

पश्चिम बंगाल के राजनीतिक जानकार कहते हैं कि अब्बास सिद्दीकी की जो कट्टरपंथी नेता की छवि बनी है, वह उनके खिलाफ जा सकती है. वे केवल युवा मुस्लिम वोटों के दम पर चुनाव नहीं जीत सकते. हालांकि, अब्बास इसे लेकर एक साक्षात्कार में स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं कि जब उन्होंने ये बातें कही थीं, तब वे राजनीति में आधिकारिक रूप से नहीं आए थे. अब राजनीति में आने के बाद उनकी विचारधारा बदल गयी है.

अब्बास सिद्दीकी की चुनावी रणनीति क्या है?

अब्बास सिद्दीकी का इस चुनाव में पूरा जोर बांग्ला भाषी और ग्रामीण मुसलमानों पर है. जानकारों की मानें तो इन्हीं पर भरोसा करके वे चुनावी मैदान में कूदे हैं. अब्बास को हुगली और उसके आसपास के आधा दर्जन चुनाव क्षेत्रों में ग्रामीण मुस्लिम आबादी में अच्छा राजनीतिक समर्थन मिलता भी दिख रहा है. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक ग्रामीण और बांग्ला भाषी मुस्लिमों के बाद अब्बास की नजर उन लोगों पर है, जिनका ममता बनर्जी की चुनावी बयानबाज़ियों और वोट-बैंक की सियासत से मोहभंग हो रहा है. तृणमूल पर तमाम चुनाव क्षेत्रों में एक आम आरोप यह है कि वह असामाजिक तत्वों के सिंडिकेट्स का समर्थन करती है जो किसी न किसी बहाने लोगों से उगाही करते हैं. कई जगह ये आरोप भी लगते हैं कि सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए लोगों को काफी पैसा इन सिंडिकेट्स को कट मनी (रिश्वत) के रूप में देना पड़ता है. अब्बास सिद्दीकी अपनी हर रैली में टीएमसी-समर्थित इन भ्रष्ट सिंडिकेट्स और तृणमूल कार्यकर्त्ताओं द्वारा मांगी जाने वाली कट मनी का मुद्दा उठाते हैं.

पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी अपनी कट्टरपंथी मौलाना की छवि बदलने के लिए भी बहुत कुछ कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि वे बिना हिंदू वोटों के राजनीति में ज्यादा दूर तक नहीं जा सकते. इसी वजह से उन्होंने अपनी पार्टी से तकरीबन आधी सीटों पर हिंदू उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. जानकारों की मानें तो अब्बास यह भी जानते हैं कि जिस तरह से उन्होंने विवादित बयान दिए हैं, उससे ऊंची जाति के और पढ़े-लिखे हिंदू उन्हें वोट नहीं देंगे और इसलिए उन्होंने अपना ध्यान दलितों और जनजातीय वोटरों को साधने पर लगा दिया है. इन तबकों की एक अच्छी-खासी तादाद फुरफुरा शरीफ की दरगाह पर भी आती है. पिछड़ों और दलितों को साधने के लिए वे अपनी रैलियों में भीमराव आंबेडकर और बसपा के संस्थापक कांशी राम का कई बार जिक्र करते हैं और इनकी विचारधारा पर ही चलने का वादा करते नजर आते हैं.

पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी को लेकर ममता बनर्जी के लिए पहली राहत की बात यह है कि सिद्दीकी परिवार के बुजुर्ग अभी भी टीएमसी के खेमे में हैं और लगातार मुस्लिम वोटों के एकजुट रहने की अपील कर रहे हैं. टीएमसी सुप्रीमो के लिए दूसरी राहत की बात यह है कि अब्बास सिद्दीकी का प्रभाव क्षेत्र काफी सीमित है और अभी तक एक निश्चित आयु वर्ग के मुस्लिम (युवा) ही उनके समर्थन में दिखाई दे रहे हैं. इसके आलावा इस चुनाव में बंगाल के मुसलमानों में एक आम धारणा यह भी बनी हुई है कि भाजपा को अगर रोकना है तो टीएमसी को वोट देना होगा. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस सबके के बाद भी अगर ममता बनर्जी जैसी अनुभवी नेता खुलेआम मुसलमानों से एकजुट होकर टीएमसी को वोट देने की अपील कर रही हैं तो इसकी वजह बीते साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव से जुड़ती है. बिहार चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम को कोई भी बड़ी ताकत के रूप में नहीं देख रहा था, साथ ही माना जा रहा था कि मुस्लिम भाजपा को रोकने के लिए एकतरफा आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन को वोट देंगे. लेकिन इसके बावजूद ओवैसी की पार्टी पांच सीटें जीत गयी और करीब इतनी ही सीटों पर उसने आरजेडी और कांग्रेस को कमजोर करने में बड़ी भूमिका निभायी. नतीजा यह हुआ कि महागठबंधन बिहार में सरकार बनाने से चूक गया.

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