अपने भीतर के कवि की कामना, क्रांतिकारी की छटपटाहट और वैज्ञानिक विश्लेषण को जोड़ कर कार्ल मार्क्स ने वह नक़्शा बनाया था जिसे हम मार्क्सवाद कहते हैं
राजेंद्र धोड़पकर | 05 May 2020 | फोटो: पिक्साबे
हमारे यहां कार्ल्स मार्क्स के बारे में बात करने के दो तीन नज़रिये हैं. एक तो यह कि मार्क्स और मार्क्सवाद अप्रासंगिक हो गए हैं. दूसरा यह कि मार्क्सवाद की पराजय ज़रूर हुई है, लेकिन ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ क़िस्म का ढुलमुल आशावाद . तीसरा जो कट्टर कम्युनिस्टों का तरीक़ा है – यह दिखाना जैसे पिछले 25-30 साल में कुछ हुआ ही न हो, क्रांति कभी भी हो सकती है. अगर हम मार्क्स और मार्क्सवाद को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखें तो शायद कुछ ज्यादा साफ़ दिखाई दे.
अपनी ही छाया को लांघने का बिंब साहित्य में काफी पहले से इस्तेमाल होता रहा है. तेरहवीं सदी के मराठी कवि संत ज्ञानेश्वर ने ‘ज्ञानेश्वरी’ में इस बिंब का प्रयोग किया है. कार्ल मार्क्स ने भी यह बिंब इस्तेमाल किया है – मनुष्य अपने इतिहास को नहीं लांघ सकता जैसे कोई अपनी छाया को नहीं लांघ सकता.’ दरअसल, कोई भी विचार या रचना कितनी ही दूरी तक भविष्य या अतीत को व्याप्त करे, उसकी उड़ान कितनी ही ऊंची हो, उसकी जड़ें अपने समकालीन यथार्थ में होती हैं. कार्ल मार्क्स के चिंतन में वैसे भी इतिहास की केंद्रीय स्थिति है इसलिए उनके बारे में बात करते वक्त उन परिस्थितियों को ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है जिनमें वे लिख रहे थे.
मार्क्स ने जिस उन्नीसवीं के यूरोप में ज़िंदगी गुज़ारी वह दौर औद्योगिक क्रांति का था. सामंतवाद पूंजीवाद के हाथों अपनी सत्ता गंवा रहा था. फ़्रांस की क्रांति के बाद नए राजनैतिक विचारों का दौर था. इसी के साथ उपनिवेशवाद सारी दुनिया में अपनी सत्ता क़ायम कर रहा था. दूसरी ओर विज्ञान और टेक्नॉलॉजी तेज़ी से तरक़्क़ी कर रही थी. मार्क्स के वक्त तक भाप का इंजन इतना विकसित हो गया था कि उससे बड़े बड़े कारख़ाने चलने लगे थे और औद्योगिक मज़दूरों का एक नया वर्ग आकार ले रहा था. मार्क्स की मृत्यु के कुछ साल बाद खनिज तेल से चलने वाला ‘इंटर्नल कंबश्चन इंजन’ और बिजली का व्यावहारिक इस्तेमाल भी संभव हो गया.
वह दौर विज्ञान में ऐसी अभूतपूर्व तरक़्क़ी का था कि ऐसा लगने लगा था जैसे दुनिया के सारे रहस्य अब विज्ञान की पकड़ में हैं. उन्नीसवीं सदी के समूचे विचारकों में विज्ञान के इस अद्भुत प्रभाव की छाया है. ऐसा लग रहा था कि प्रकृति के सारे नियम या तो समझ में आ गए हैं या जल्दी ही आ जाएंगे और उसके बाद सिर्फ़ इन नियमों में ब्योरे डालने का काम बचेगा. यह भी माना जा रहा था कि अब दुनिया को समझने के लिए दर्शनशास्त्र की कोई ज़रूरत नहीं है, विज्ञान ने उसकी जगह ले ली है. हर बात को साबित करने के लिए उसे ‘वैज्ञानिक’ बताने का जो सिलसिला आज भी धर्म से लेकर राजनीति में चल रहा है उसकी जड़ें इसी उन्नीसवीं सदी के विज्ञानवाद में हैं.
मार्क्स ने सामंती ढांचा तोड़ने में पूंजीवाद की प्रगतिशील भूमिका देखी और उसका लालच और शोषण भी देखा. उनके संवेदनशील और कुशाग्र दिमाग़ ने यह भी महसूस किया कि इस ऐतिहासिक परिवर्तन के दौरान मनुष्य के पास क्या मूल्यवान था जो खो गया. किसान या कारीगर से फैक्ट्री मज़दूर बनने की प्रक्रिया में इंसान का प्रकृति और अपने से एक नाज़ुक रिश्ता टूट गया. वह एक विराट पूंजीवादी तंत्र का एक अदना सा पुर्ज़ा बनकर रह गया. मार्क्स में इस रिश्ते को फिर से पाने की कामना उन्नीसवीं सदी के किसी रोमांटिक कवि की तरह थी. पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की उनकी छटपटाहट किसी क्रांतिकारी की तरह थी और विज्ञान में उनका विश्वास किसी वैज्ञानिक की तरह था.
मार्क्स मानते थे कि इतिहास के भी वैज्ञानिक नियम होते हैं जिन्हें अगर जान लिया जाए तो इतिहास को समझने और उसे बदलने का काम हो सकता है. इन नियमों के ज़रिये अतीत को और वर्तमान को जाना जा सकता है और भविष्य भी बताया और निर्धारित किया जा सकता है. मार्क्स मानते थे कि अब तक दुनिया को समझने की कोशिशें पूरी तरह वैज्ञानिक नहीं थीं, इसलिए वे ‘विचारधाराएं’ या छद्म चेतना थीं. उनके मुताबिक जब दुनिया का वैज्ञानिक नक़्शा सामने आ जाए तो विचारधाराओं की कोई ज़रूरत नहीं बचती. तब सिर्फ़ उस नक़्शे में ब्योरे भर कर उसके मुताबिक आगे बढ़ने की ज़रूरत है. दुनिया को समझने की ज़रूरत तब नहीं बचती, उसे बदलने का काम रहता है.
मार्क्स ने अपने कवि की कामना, क्रांतिकारी की छटपटाहट और वैज्ञानिक विश्लेषण को जोड़ कर वह नक़्शा बनाया जिसे हम मार्क्सवाद कहते हैं. वह बेशक एक असाधारण और अद्वितीय नक़्शा था जो उसके प्रभाव से और उपलब्धियों से ज़ाहिर होता है, लेकिन यहां हम उसकी कुछ कमियों की चर्चा करेंगे.
एक तो यह नक़्शा बनाते हुए मार्क्स के पास यूरोप और उसके और इतिहास के बारे में तो बहुत गहरी जानकारी और ब्योरे थे, इसलिए उनका विश्लेषण इन बातों के बारे में बहुत सटीक था. लेकिन बाक़ी दुनिया के समाजों के बारे में उनकी जानकारी कम थी, और उन्होंने यह भी मान लिया था कि ये समाज इतने पिछड़े हैं कि उनके बारे में ज्यादा गहराई से जानने की ज़रूरत भी नहीं थी. इससे उनका नक़्शा भी अधूरा और काफी हद तक गलत बना.
दूसरे, इतिहास के जो वैज्ञानिक नियम उन्होंने खोजे उन्हें असाधारण उपलब्धि तो मानना चाहिए, लेकिन वे अधूरे और अपर्याप्त थे. तीसरे , कितने भी असाधारण औज़ार आपके पास हों, भविष्य का अनुमान लगाना तक़रीबन असंभव काम होता है. इतिहास से हम यह तो सीख ही सकते हैं कि हर वक्त भविष्य के अनुमान गलत ही साबित हुए हैं.
तीसरी बात यह है कि शोषणविहीन, बराबरी और न्याय पर आधारित समाज की अपनी सदिच्छा को साकार करने की कोशिश में मार्क्स ने कुछ असंभव क़िस्म की सैद्धांतिक जोड़-तोड़ की. एक उदाहरण यह है कि मार्क्स ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी कि उत्पादन संबंध उत्पादन के साधनों पर निर्भर होते हैं, यानी जब उत्पादन के साधन बदलेंगे तब उत्पादन संबंध भी बदलेंगे. जैसे औद्योगिक क्रांति के बाद जब बड़े कारख़ानों में औद्योगिक उत्पादन शुरु हुआ तो उसके साथ सामंती आर्थिक, राजनैतिक संबंध और सत्ता समीकरण भी बदले.
लेकिन मार्क्स ने यह नहीं बताया कि जो उत्पादन के साधन, जो टेक्नॉलॉजी पूंजीवादी समाज में है उसी के रहते समाजवादी व्यवस्था कैसे क़ायम हो सकती है. समाजवादी व्यवस्थाओं के ढहने की मुख्य वजह यही थी कि उनका औद्योगिक ढांचा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अनुकूल था. इसलिए सोवियत साम्राज्य से जुड़ी सत्ताएं ढह गईं जबकि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन इसलिए बच पाया कि वहां पूंजीवादी आर्थिक नीतियां अपना ली गईं.
सवाल यह है कि अब मार्क्सवाद कितना काम का है. हम यह तो मानेंगे ही कि अपनी विफलताओं के बावजूद मार्क्सवादी विचारधारा ने जन आंदोलनों, कमज़ोर वर्गों के संघर्षों, समाज, कला और साहित्य जैसे तमाम क्षेत्रों में बहुत बड़ा योगदान दिया है. बल्कि हम यह कह सकते हैं कि मार्क्सवाद की विफलताएं दरअसल वहां थीं जहां उसे एकमात्र विचार मान लिया गया और उसकी तानाशाही स्थापित हो गई.
तो देखा जाए तो इस मायने में अब मार्क्सवाद हमारे लिए ज्यादा उपयोगी है क्योंकि अब उसकी सीमाएं स्पष्ट हो गई हैं और वह अनेक विचारों में से एक है. एकमात्र सही विचार होने का दावा उसके साथ अब भी जुड़ा तो है पर उसमें दम नहीं बचा है. विश्लेषण के औज़ार के तौर पर मार्क्सवाद बहुत उपयोगी है अगर हम उसकी अपर्याप्तता को ध्यान में रखें. और शोषण से मुक्ति और सबकी समानता का विचार भले ही आज असंभव सा दिखे, लेकिन वह मानवता का मूलभूत मूल्य है. भले ही मानवमात्र की बराबरी पर मार्क्सवादी का एकाधिकार नहीं है, लेकिन काफी हद तक अधिकार तो है ही.
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