पीएम केयर्स फंड पर मोदी सरकार के हर नये निर्णय के साथ इस पर नये सवाल भी उठ रहे हैं. इनमें से एक सवाल इसके ऑडिटर की नियुक्ति का है
विकास बहुगुणा | 29 जून 2020 | फोटो: ट्विटर-नरेंद्र मोदी
बीती 13 जून को खबर आई कि पीएम केयर्स फंड (प्राइम मिनिस्टर्स सिटिजन असिस्टेंस एंड रिलीफ इन इमरजेंसी सिचुएशंस फंड) के ऑडिटर का फैसला हो गया है. इन खबरों का स्रोत इस फंड की वेबसाइट ही थी. इस पर दर्ज एक प्रश्नावली में जानकारी दी गई थी कि पीएम केयर्स फंड को एक स्वतंत्र ऑडिटर द्वारा ऑडिट किया जा रहा है और यह जिम्मा दिल्ली की एक सीए फर्म सार्क एंड एसोसिएट्स को सौंपा गया है. इसी प्रश्नावली में एक सवाल यह भी है कि ‘वह कानूनी समय-सीमा क्या है जिसके दौरान पीएम केयर्स फंड का ऑडिट हो जाना चाहिए?’ इसके जवाब में वेबसाइट पर बताया गया है कि ‘आयकर कानून के तहत पीएम केयर्स फंड की ऑडिट के लिए कोई वैधानिक समय सीमा तय नहीं की गई है. लेकिन इसका ऑडिट वित्त वर्ष के अंत में कराया जाएगा.’
पीएम केयर्स फंड का ऐलान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 मार्च को किया था. उन्होंने कहा था कि सभी क्षेत्रों के लोगों ने कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में दान देने की इच्छा जताई है जिसका सम्मान करते हुए इस फंड का गठन किया गया है. उन्होंने सभी देशवासियों से इसमें योगदान देने की अपील की थी जिसके बाद इसकी झड़ी लग गई. आम लोगों से लेकर फिल्मी सितारों और कॉरपोरेट घरानों तक सब पीएम केयर्स फंड में खुलकर दान देने लगे. एक अनुमान के मुताबिक अब तक इसमें दस हजार करोड़ रुपयों से ज्यादा धन इकट्ठा हो चुका है.
लेकिन इस दान के साथ ही पीएम केयर्स फंड पर सवालों की भी शुरुआत हो गई. फंड के गठन के कारणों से लेकर इसकी कार्यप्रणाली तक तमाम मोर्चों पर अपारदर्शिता के आरोप लगने लगे. यह सिलसिला पीएम केयर्स फंड के लिए स्वतंत्र ऑडिटर के ताजा ऐलान तक जारी है.
पीएम केयर्स फंड के ऑडिटर की नियुक्ति के मामले में सबसे पहला सवाल तो यही है कि इसकी नियुक्ति के लिए किस तरह की प्रक्रिया का पालन किया गया? फंड की वेबसाइट इस बारे में यह जानकारी देती है कि ‘23 अप्रैल 2020 को फंड के ट्रस्टियों ने अपनी दूसरी बैठक में सार्क एंड एसोसिएट्स, चार्टर्ड अकाउंटेंट्स, नई दिल्ली को तीन साल के लिए पीएम केयर्स फंड का ऑडिटर नियुक्त करने का फैसला किया.’
अगर इसे सिर्फ तकनीकी और ऊपर-ऊपर से देखें तो इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता. पीएम केयर्स फंड एक पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में रजिस्टर्ड कराया गया है. ऐसे किसी भी ट्रस्ट का ऑडिटर नियुक्त करने से लेकर उसके बारे में कोई भी निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ उसके ट्रस्टियों का होता है. और मोदी सरकार इसे पब्लिक अथॉरिटी यानी सरकार का हिस्सा मानती ही नहीं है. सूचना के अधिकार यानी आरटीआई के तहत दायर कई आवेदनों में पीएम केयर्स फंड की डीड से लेकर इसमें आए पैसे और इसके द्वारा खर्च किये गये पैसों से जुड़ी तमाम जानकारियां मांगी गई थीं. पीएमओ के केंद्रीय जन सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) परवीन कुमार का इस तरह के सभी आवेदनों पर एक ही जवाब रहा है – ‘पीएम केयर्स आरटीआई एक्ट, 2005 की धारा 2(एच) के तहत पब्लिक अथॉरिटी नहीं है. पीएम केयर्स से जुड़ी संबंधित जानकारी pmcares.gov.in वेबसाइट पर देखी जा सकती है.’ लेकिन अगर कोई ट्रस्ट पब्लिक अथॉरिटी नहीं है तो यह उस पर या उसके ट्रस्टियों पर निर्भर करता है कि वे इसकी कौन सी जानकारी आपको देना चाहते हैं और कौन सी नहीं.
तो पहले इसी तर्क की पड़ताल करते हैं कि पीएम केयर्स फंड पब्लिक अथॉरिटी है या नहीं है? और अगर नहीं है तो क्या उसे ऐसा होना नहीं चाहिए था? पीएम केयर्स फंड की वेबसाइट पर दर्ज प्रश्नावली में छठवां सवाल है कि इसकी प्रशासकीय व्यवस्था कैसे चलती है. इसके जवाब में लिखा गया है, ‘फंड की प्रशासकीय व्यवस्था पीएमओ में संयुक्त सचिव (प्रशासन) मानद रूप से करते हैं, जिनकी मदद पीएमओ में निदेशक या उपनिदेशक (प्रशासन) स्तर के एक अधिकारी मानद रूप से करते हैं.’ आगे कहा गया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ट्रस्टियों की जरूरत के हिसाब से उन्हें ट्रस्ट के प्रबंधन और प्रशासन के लिए प्रशासकीय और सचिवालय स्तर का सहयोग उपलब्ध करवाता है. प्रश्नावली में अगला सवाल है कि फंड का मुख्यालय कहां है. इसका जवाब है, ‘फंड का मुख्यालय नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक में स्थित प्रधानमंत्री का कार्यालय है.’
यानी एक ऐसा फंड जिसके नाम में प्रधानमंत्री शब्द है, जिसका संचालन प्रधानमंत्री कार्यालय से ही हो रहा है और इसके संचालन की जिम्मेदारी पीएमओ के वरिष्ठ अधिकारी निभा रहे हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय पब्लिक अथॉरिटी है. इसके अधिकारी भी जनता के सेवक हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस फंड को चलाने वाले ट्रस्ट के पदेन अध्यक्ष हैं और केंद्रीय रक्षा मंत्री, गृह मंत्री और वित्त मंत्री इसके पदेन ट्रस्टी. यानी ये सभी अपने संवैधानिक पदों पर होने की वजह से ही फंड से संबंधित जिम्मेदारियों को संभाले हुए हैं. इन संवैधानिक पदों तक सभी को जनता ने ही पहुंचाया है. इन्हें तनख्वाह जनता के पैसे से ही मिलती है. पीएम केयर्स फंड का गठन सरकार ने ही किया है और उसे भी जनता ने ही चुना है. जनता ने ही पीएम केयर्स फंड में योगदान दिया है और यह जनता पर ही खर्च भी होना है. यहां तक कि पीएम केयर्स फंड का वेब पता और इसका ईमेल भी सरकारी ही है – www.pmcares.gov.in, pmcares@gov.in. तो फिर यह फंड पब्लिक अथॉरिटी क्यों नहीं है?
इसके अलावा आरटीआई एक्ट के अध्याय 1 के खंड 2 (ज)(घ) में साफ लिखा है कि लोक प्राधिकारी (पब्लिक अथॉरिटी) ‘समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किए गए आदेश द्वारा, स्थापित या गठित कोई प्राधिकारी (अथॉरिटी) या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था’ है. और इनमें वे निकाय शामिल हैं ‘जो समुचित सरकार के स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा’ वित्तपोषित हों. या कोई ऐसा गैर-सरकारी संगठन ‘जो समुचित सरकार, द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा’ वित्तपोषित हों.
वैसे तो इसे लेकर कोई अस्पष्टता नहीं है कि पीएम केयर्स फंड का गठन सरकार ने ही किया है. लेकिन अगर ऐसा हो तो कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के उस ऑफिस मेमोरेंडम को पढ़ा जा सकता है जिसे पीएम केयर्स फंड के गठन के एक दिन बाद और प्रधानमंत्री द्वारा इसकी घोषणा किये जाने के तुरंत बाद जारी किया गया था. इसमें साफ लिखा है कि इस फंड का गठन सरकार ने ही किया है. कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को यह स्पष्टीकरण जारी करने की जरूरत इसलिए पड़ी थी क्योंकि उस वक्त इस बात को लेकर अस्पष्टता थी कि पीएम केयर्स फंड में दिया गया सहयोग कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी में शामिल होगा या नहीं.
तो फिर सरकार इस फंड को पब्लिक अथॉरिटी न मानने पर क्यों अड़ी है? क्यों वह आरटीआई से लेकर अदालत तक हर मोर्चे पर इससे जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक होने का विरोध कर रही है? वैसे उसका यह हठ भी सुविधा के हिसाब से दिखता है. फंड में दान के लिए अपील करने से लेकर इसके लिए संसाधन उपलब्ध करवाने तक सब काम इस तरह होते दिखते हैं कि यह पब्लिक अथॉरिटी ही लगती है. लेकिन इस फंड से जुड़ी जानकारियों की मांग पर सरकार का तर्क हो जाता है कि वह पब्लिक अथॉरिटी नहीं है इसलिए पीएम केयर्स पर वे नियम-कायदे लागू नहीं हो सकते जो दूसरे सरकारी प्रतिष्ठानों पर लागू होते हैं.
यहीं से दूसरा सवाल उठता है. अगर पीएम केयर्स फंड पब्लिक अथॉरिटी नहीं है तो उसे ऐसा बनाया क्यों गया है? क्यों इसका गठन इस तरह से किया गया कि इस पर सूचना का अधिकार लागू न हो सके या फिर यह नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) के दायरे से बाहर रहे. ये दोनों ही बातें पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़ी हैं. तो क्या पीएम केयर्स फंड के कर्ता-धर्ता इन चीजों से बचना चाहते हैं? लेकिन क्यों जबकि पारदर्शिता और जवाबदेही उनके प्रिय शब्द रहे हैं?
इस मामले में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि पीएम केयर्स फंड का गठन जिस उद्देश्य के लिए किया गया सिर्फ उसे पूरा करने के लिए ही देश में एक कोष पहले से ही था. इस कोष पर सूचना का अधिकार भी लागू होता है और यह सीएजी के दायरे में भी आता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब पीएम केयर्स फंड का ऐलान किया था तो उससे चार दिन पहले ही उनकी सरकार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू कर चुकी थी. 2005 में जब यह कानून बना था तो इसमें एक राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (एनडीआरएफ) का भी प्रावधान किया गया था. इसमें कहा गया था कि बड़ी आपदाओं के समय मिलने वाले योगदानों को अनिवार्य रूप से इस कोष में डाला जाएगा. यही वजह है कि जब पीएम केयर्स फंड का गठन हुआ तो पूछा गया कि जब आपदाओं में आम नागरिकों या कंपनियों से मिलने वाले योगदान के लिए एक फंड का प्रावधान पहले से है तो यह नया फंड क्यों? क्या यह संसद से पारित कानून की मूल भावना का उल्लंघन नहीं है?
लेकिन एनडीआरएफ को दरकिनार करते हुए जनता से पैसा लेने के लिए एक नया फंड बना दिया गया. ऐसा क्यों किया गया, इसके जवाब में सिर्फ यही तर्क दिया जा सकता है कि इस समय हालात असाधारण हैं और ऐसे में जरूरी था कि कागजी औपचारिकताओं में समय न गंवाते हुए पैसे या उससे खरीदे गए संसाधनों को जल्द से जल्द जरूरत की जगह पर पहुंचाया जाए. एक पब्लिक ट्रस्ट में यह काम आसानी से हो सकता है. क्योंकि किसी पब्लिक अथॉरिटी में किसी भी निर्णय के लिए एक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है जबकि ट्रस्ट में किसी भी फैसले को लेने के लिए सिर्फ ट्रस्टियों के दस्तखत की जरूरत होती है.
लेकिन यहीं एक गंभीर सवाल भी पैदा होता है कि अगर पीएम केयर्स में कोई भी निर्णय लेना इतना ही आसान है और इस पर उस तरह की निगरानी भी नहीं है तो क्या इसका दुरुपयोग नहीं हो सकता? जैसा कि नाम न छापने की शर्त पर कानूनी मामलों के एक विशेषज्ञ कहते हैं, ‘हो सकता है और आज नहीं तो कल हो सकता है. यह एक पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट है तो इसके संचालन से जुड़े नियम भी जब चाहे बदले जा सकते हैं क्योंकि इन्हें बदलना ट्रस्टियों के हाथ में ही है. आज प्रधानमंत्री इसके पदेन अध्यक्ष हैं. कल को ट्रस्टी चाहें तो नियम बदलकर किसी को उसकी व्यक्तिगत क्षमता में भी इसका अध्यक्ष बनाया जा सकता है. अब मान लीजिए कल कोई अपात्र इसके चेयरमैन पद तक पहुंच जाए तो बस साइन की ही तो बात है. कौन पूछने वाला है कि किसी को कितना भी धन पैसा क्यों दिया. इस तरह की संभावनाएं तो खुली हैं ही.’
संविधान का अनुच्छेद 266 (2) साफ कहता है कि टैक्स जैसे राजस्व के माध्यमों के इतर जनता से सरकार के पास आने वाला कोई भी पैसा पब्लिक अकाउंट ऑफ इंडिया (भारत का लोक लेखा) में जाना चाहिए. उधर, सीएजी एक्ट की धारा 13(बी) में कहा गया है कि पब्लिक अकाउंट में हुए सारे लेन-देेने का ऑडिट करना सीएजी का कर्तव्य है. जानकारों के मुताबिक ऐसे में मोदी सरकार अलग फंड बनाने के बजाय एनडीआरएफ के जरिये ही जनता से पैसा लेती तो वह ज्यादा सही होता. या फिर वह पीएम केयर्स को पब्लिक अथॉरिटी मानने से परहेज नहीं करती. स्वाभाविक सी बात है कि अगर वह ऐसा करती और प्रधानमंत्री जनता से इन दोनों फंड्स में से किसी एक में योगदान करने की अपील करते तो पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़े तमाम सवाल उठते ही नहीं. वैसे हाल ही में सरकार ने एक नया खाता खुलवाकर एनडीआरएफ के दान लेने का रास्ता साफ कर दिया है. उसने ऐसा आरटीआई और अदालती मामलों का एक सिलसिला शुरू हो जाने के बाद किया है. लेकिन यहां भी सवाल यह है कि जब प्रधानमंत्री से लेकर पूरी सरकार के प्रचार तंत्र का जोर सिर्फ पीएम केयर्स फंड पर हो तो भला एनडीआरएफ की कितनी पूछ होगी?
अब पीएम केयर्स फंड पैसे के लेखे-जोखे की बात. इस मामले में भी पारदर्शिता को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. भाजपा प्रवक्ता गौरव भाटिया ने 21 मई को एक समाचार चैनल पर परिचर्चा के दौरान कहा था कि पीएम केयर्स फंड में करीब सात हजार करोड़ रु की राशि आ चुकी है. इससे एक दिन पहले इंडियास्पेंड ने अपने एक आकलन में दावा किया था कि फंड में अब तक साढ़े नौ हजार करोड़ रु की रकम आई है. यानी अलग-अलग स्रोतों से अलग-अलग आंकड़ों की अटकलबाज़ी देखने को मिल रही है जिसे रोकने के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है.
पीएम केयर्स फंड में आया पैसा कहां खर्च हो रहा है, इसे लेकर इसकी वेबसाइट पर दर्ज प्रश्नावली के 15वें सवाल में जानकारी दी गई है. इसमें कहा गया है:
‘अभी तक पीएम केयर्स फंड से 3100 करोड़ रु की रकम निम्नलिखित गतिविधियों के लिए आवंटित की जा चुकी है.
ए. 2000 करोड़ रु : केंद्र/राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा चलाए जा रहे सरकारी अस्पतालों में 50 हजार वेंटिलेटरों की आपूर्ति के लिए
बी. 1000 करोड़ रु : प्रवासी मजदूरों की देखभाल के लिए (पैसे राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को दिए गए हैं)
सी. 100 करोड़ रु : वैक्सीन के विकास के लिए’
इसके अलावा वेबसाइट पर फंड को लेकर कोई और जानकारी नहीं मिलती. इस जानकारी में यह शामिल नहीं है कि 3100 करोड़ रुपये किसे और कैसे दिये गये. कई जानकारों के मुताबिक कम से कम इतना तो किया ही जा सकता था कि कितना फंड आया और उसमें से कितना कब और कैसे खर्च हुआ इस बारे में विस्तृत जानकारी वेबसाइट पर डाल दी जाती. यह कोई मुश्किल काम नहीं था और इससे भी कई सवालों पर अपने आप ही विराम लग जाता. जैसा कि पीएम केयर्स फंड में योगदान देने वाले एक शख्स कहते हैं, ‘कम से कम दानदाताओं को तो विस्तार से ये जानने का हक है ही कि उनका पैसा किस तरह इस्तेमाल हो रहा है.’ वे आगे एक और दिलचस्प बात कहते हैं, ‘जिस तरह से प्रधानमंत्री ने इसमें योगदान देने की अपील की उससे तो हमें ऐसा ही लगा था कि यह सरकार का फंड है. ये तो अब जाकर पता चला कि सरकार ही इसे निजी संस्था जैसा बता रही है.’
अब बात पीएम केयर्स फंड के आडिट की. सरकार ने सार्क एंड एसोसिएट्स को इसका स्वतंत्र ऑडिटर नियुक्त कर दिया है. लेकिन उसके इस फैसले को लेकर भी सवाल खड़े हो गए हैं. इस फर्म के बारे में खंगालने पर जो जानकारियां सामने आती हैं उन्हें देखते हुए ये सवाल अस्वाभाविक नहीं लगते.
सार्क एंड एसोसिएट्स के संस्थापक सुनील कुमार गुप्ता हैं. वे ओएनजीसी और इंडियन ओवरसीज बैंक सहित कई सरकारी उपक्रमों के भी ऑडिटर हैं. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ोदा, केनरा बैंक और कॉरपोरेशन बैंक जैसे कई नाम भी उनके क्लाइंटों की सूची में शामिल रहे हैं. इसके अलावा सुनील कुमार गुप्ता उत्तरी रेलवे, दिल्ली विकास प्राधिकरण, नोएडा अथॉरिटी, ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी और यमुना एक्सप्रेसवे अथॉरिटी जैसे कई सरकारी उपक्रमों के सलाहकार हैं. वे दिल्ली एवं जिला क्रिकेट संघ के भी सदस्य हैं जो खेल से ज्यादा अपनी अंदरूनी राजनीति के चलते खबरों में रहता है. भाजपा के कद्दावर नेताओं में से एक रहे अरुण जेटली इसके अध्यक्ष रहे थे.
सुनील कुमार गुप्ता की अपनी एक वेबसाइट भी है. इसमें अपना परिचय देते हुए वे खुद को कारोबार विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, लेखक और परोपकारी व्यक्ति बताते हैं. उनकी इस वेबसाइट का मुख्य आकर्षण हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तमाम भाजपा नेताओं के साथ उनकी बड़ी-बड़ी तस्वीरें. उनके ट्विटर हैंडल का मुख्य आकर्षण भी प्रधानमंत्री के साथ उनकी तस्वीर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ पहल पर वे एक किताब भी लिख चुके हैं. उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल पर यह भी दावा किया है कि मोदी सरकार ने कोरोना संकट के दौरान जिस आर्थिक पैकेज की घोषणा की है उसमें उनकी उस राय को भी शामिल किया गया है जिसे उन्होंने सरकार के साथ सोशल मीडिया पर साझा किया था.
सुनील कुमार गुप्ता के ट्विटर हैंडल की बीते एक साल की गतिविधियां देखने पर साफ महसूस होता है कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के ‘फैन’ हैं. कहा जा सकता है कि किसी का प्रशंसक होना नितांत व्यक्तिगत मसला है. लेकिन इससे यह सवाल तो खड़ा हो ही सकता है कि पीएम केयर्स फंड के ट्रस्टियों ने मनचाहे तरीके से एक ऐसी ऑडिटिंग फर्म को चुना है जिसके मुखिया का उनके प्रति जबर्दस्त झुकाव किसी से छुपा नहीं है. और ऐसा तब किया गया है जब फंड पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं.
सुनील कुमार गुप्ता के ट्विटर हैंडल से गुजरते हुए एक और बात पता चलती है. एक ट्वीट में उनका कहना है कि उनकी फर्म और उनके क्लाइंट्स ने पीएम केयर्स फंड में एक करोड़ 60 लाख रु से ज्यादा का योगदान दिया है.
भारत में सीए और ऑडिटरों के लिए दिशा-निर्देश बनाने वाली संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (आईसीएआई) है. सुनील कुमार गुप्ता इसके फेलो मेंबर भी हैं. इस संस्था के दिशा-निर्देशों में साफ कहा गया है कि किसी भी ऑडिटर को न सिर्फ तथ्यगत रूप से बल्कि दिखने में भी निष्पक्ष होना चाहिए. अब यह कानूनी से ज्यादा एक नैतिक प्रश्न है कि क्या पीएम केयर्स फंड के पदेन अध्यक्ष के सार्वजनिक रूप से इतने बड़े प्रशंसक और उनके कहने पर इस फंड में खुद एक करोड़ 60 लाख से ज्यादा का चंदा देने वाले किसी व्यक्ति को उसी ट्रस्ट की ऑडिटिंग करने के लिए इस तरह से चुना जाना चाहिए था?
उत्तर प्रदेश के नोएडा में स्थित एक चर्चित सीए फर्म के संस्थापक नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘डोनेशन देने में कोई नियम आड़े नहीं आता. तो सुनील कुमार गुप्ता का पीएम केयर्स फंड में डोनेट करना नियमों के हिसाब से गलत नहीं है. लेकिन अगर आप किसी इतने महत्वूपूर्ण फंड का ऑडिट करने जा रहे हैं और ऐसा साफ दिखता है कि उसके कर्ता-धर्ताओं से आपके पुराने ताल्लुक हैं तो इस पर सवाल उठना स्वाभाविक है.’ वे आगे कहते हैं, ‘फिर चयन के आधार का सवाल भी है ही. मेरे जैसा कोई भी शख्स पूछ सकता है कि मैं पीएम केयर्स फंड का ऑडिट करने का पात्र क्यों नहीं था.’ सत्याग्रह ने सुनील कुमार गुप्ता को भी एक ईमेल भेजकर इन सवालों पर उनका पक्ष पूछा है. खबर लिखे जाने तक इस पर उनका कोई जवाब नहीं आया था.
जैसा कि इस रिपोर्ट की शुरुआत में जिक्र हुआ, पीएम केयर्स फंड पर उठने वाले सवालों में से एक यह भी था कि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (पीएमएनआरएफ) के होते हुए इसकी क्या जरूरत थी. पीएमएनआरएफ का गठन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था. इसका उद्देश्य भी प्राकृतिक आपदाओं और आपातकालीन परिस्थितियों के दौरान लोगों को मदद पहुंचाना था. 2017-18 तक इसका ऑडिट ठाकुर, वैद्यनाथ अय्यर एंड कंपनी नाम की एक फर्म करती थी. यह भारत की सबसे पुरानी सीएम फर्म्स में से एक है. 2018-19 में अचानक इस फर्म को हटा दिया गया. इसकी जगह जिस फर्म को पीएमएनआरएफ के ऑडिट का जिम्मा मिला वह है सार्क एंड एसोसिएट्स. यानी कि वही फर्म जिसके जिम्मे अब पीएम केयर्स फंड का ऑडिट भी है.
ऐसे में एक दिलचस्प सवाल उठता है कि जब इन दोनों फंडों का मकसद एक है, उनके मुखिया भी एक हैं और ऑडिटर भी एक ही है तो फंड भी एक ही क्यों नहीं है! और अगर फंड एक नहीं है तो वे एक-दूसरे से अलग क्यों नहीं हैं. मसलन पीएमएनआरएफ अगर आरटीआई और सीएजी के दायरे में नहीं आता था मगर पीएम केयर्स तो आ सकता था. वैसे यही काम पीएमएनआरएफ की कमियां दूर करके भी किया जा सकता था.
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