त्र के स्थान पर ज्ञ इसलिए नहीं कि 1991 में शुरू हुआ यह मामला आज तक भी पूरी तरह से खत्म नहीं हो सका है
राहुल कोटियाल | 21 मई 2021 | फोटो: स्क्रीनशॉट
तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में लिट्टे के आतंकियों ने 21 मई 1991 को एक आत्मघाती धमाका कर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी थी. सन् 1998 में 26 दोषियों को फांसी की सजा सुनाए जाने के निचली अदालत के निर्णय से लेकर 2016 में सात लोगों को ताउम्र जेल में रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक राजीव गांधी हत्याकांड में कई मोड़ आए. अंतत: 2016 में यह तय हो गया कि इस मामले में किसी भी व्यक्ति को न तो फांसी की सजा दी जाएगी और न उम्रकैद की सजा काट रहे सात लोगों को ही छोड़ा जाएगा.
राजीव गांधी हत्याकांड इस मामले में भी अनोखा है कि इस मामले में एक समय ऐसा भी आया कि न्याय की मांग पीड़ितों के लिए नहीं बल्कि दोषियों के लिए होने लगी. जबकि यह मामला असल में उन 18 लोगों को न्याय दिलाने का था – जिनमें एक पूर्व प्रधानमंत्री भी शामिल था – जिनकी इन दोषियों ने हत्या कर दी थी.
लोक स्मृति में धुंधली हो चुकी इस हत्याकांड से जुड़ी बातें और बाद का घटनाक्रम मिलकर एक दिलचस्प सिलसिला बनाते हैं. न्यायालय के फैसलों, जांच आयोगों और समितियों की रिपोर्टों, हजारों पन्नों के दस्तावेजों, संबंधित लोगों के बयानों और साक्षात्कारों के आधार पर यह किस्सा कुछ इस तरह का है.
राजीव गांधी हत्याकांड के पूरे मामले को समझने की शुरुआत श्रीलंका की आजादी से करते हैं. श्रीलंका में बहुसंख्यक आबादी बौद्ध धर्म को मानने वाले सिंहला लोगों की थी और तमिल भाषियों को लगातार उनकी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था. आजादी के बाद यहां तमिलों की एक बड़ी संख्या से वोट देने का अधिकार ही छीन लिया गया. 1972 में बने श्रीलंका के संविधान में बौद्ध धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित कर दिया गया. साथ ही सिंहला लोगों को बहुसंख्यक होने के बावजूद हर जगह वरीयता और आरक्षण दिया जाने लगा. धीरे-धीरे तमिल लोग नौकरियों से लेकर शिक्षा तक हर क्षेत्र में हाशिये पर धकेल दिए गए.
इस भेद-भाव का नतीजा यह हुआ कि अंततः तमिलों ने हथियार उठा लिए. एक तमिल युवा वेलुपिल्लई प्रभाकरण ने भी अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम’ – लिट्टे – नाम का एक संगठन बनाया. 1980 का दशक आते-आते लिट्टे सबसे मजबूत, अनुशासित और बड़ा तमिल आतंकवादी संगठन बन गया. श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त रहे एनएन झा एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘लिट्टे ने उन सभी तमिल नेताओं को भी समाप्त कर दिया जो बातचीत में विश्वास रखते थे. प्रभाकरण तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन गया था.’
श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे भेदभाव के कारण तमिलनाडु के लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते थे. इस कारण भारत पर तमिलों की मदद करने का भारी दबाव था. तमिलनाडु तथा श्रीलंका में तमिल छापामारों को भारत सरकार द्वारा प्रशिक्षण दिया जाने लगा. इस बात का खुलासा सबसे पहले इंडिया टुडे पत्रिका के तब के संवाददाता शेखर गुप्ता ने किया. उनके अनुसार लिट्टे को भारत से पूरी मदद मिल रही थी. ट्रेनिंग, हथियार, बम, पेट्रोल, वायरलेस, दवाइयां, कपड़े सब कुछ भारत द्वारा उन्हें दिया जाने लगा था.
प्रभाकरण लगातार मजबूत हो रहा था. 23 जुलाई, 1983 को उसने श्रीलंकाई सेना के 13 सैनिकों की हत्या कर दी. इसके साथ ही श्रीलंका में नरसंहारों और खूनी संघर्ष का सबसे वीभत्स दौर शुरू हो गया. पूरे श्रीलंका में तमिल विरोधी दंगे भड़क गए. लेखक एमआर नारायणस्वामी कहते हैं, ‘उग्रवादी हाथों में वोटर लिस्ट लेकर तमिलों को घर-घर जाकर मार रहे थे.’ दंगों के इस दौर को ‘ब्लैक जुलाई’ कहा गया. एनएन झा के शब्दों में, ‘ब्लैक जुलाई से पहले ज्यादा लोग अलग राष्ट्र की मांग से सहमत नहीं थे. लेकिन इसके बाद तो तमिलों के मन में यह बात बैठ गई कि अलग हुए बिना न्याय नहीं हो सकता.’
भारत अब भी लिट्टे की पूरी मदद कर रहा था. तमिलनाडु में लिट्टे की सक्रियता बढ़ती जा रही थी और राज्य सरकार न सिर्फ उसे नजरंदाज कर रही थी बल्कि उसका समर्थन भी कर रही थी. उधर, श्रीलंका में गृह युद्ध जारी था और इसमें हजारों लोग मारे जा चुके थे. श्रीलंका और भारत सरकार के बीच इसे रोके जाने को लेकर बातें भी चल रही थी. 1987 में यह तय किया गया कि भारत और श्रीलंका के बीच एक शांति समझौता किया जाएगा.
28 जुलाई, 1987 को प्रभाकरण को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मिलने के लिए बुलाया गया. इस मुलाकात के बाद प्रभाकरण ने प्रेस को बयान दिया, ‘प्रधानमंत्री तमिलों की समस्या समझते हैं और इस दिशा में काम कर रहे हैं. हम प्रधानमंत्री के इस रुख से संतुष्ट हैं.’ लेकिन प्रभाकरण ने खुलकर शांति समझौते से संबंधित कोई भी बयान नहीं दिया. इसके अगले ही दिन राजीव गांधी श्रीलंका पहुंचे और राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के साथ शांति समझौते पर दस्तखत कर दिए.
समझौते के दिन प्रभाकरण दिल्ली में ही था. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा का मानना है कि ‘प्रभाकरण कभी भी इस समझौते के पक्ष में नहीं था. लेकिन उस पर भारत का दबाव था इसलिए उसने कुछ समय तक इसका खुलकर विरोध नहीं किया.’ समझौते के अनुसार भारत से एक विशेष सैन्य दल को श्रीलंका भेजा जाना था. इस दल को ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ (आईपीकेएफ) कहा गया. समझौते वाले दिन ही आईपीकेएफ को भी श्रीलंका रवाना कर दिया गया. इसका काम था लिट्टे से आत्मसमर्पण करवाना. प्रभाकरण ने आईपीकेएफ को लिख कर दिया कि वह आत्मसमर्पण के लिए तैयार है. आईपीकेएफ के कमांडर रहे दीपेंदर सिंह ने अपनी किताब में इसका जिक्र करते हुए लिखा है, ‘अन्य आतंकी संगठनों के मुकाबले लिट्टे बड़े ही सुनियोजित तरीके से आत्मसमर्पण कर रहा था. वे हमें समय बताते थे और ठीक समय पर उनके ट्रक हथियार लेकर पहुंच जाते थे.’ लेकिन, समझौते के तीन हफ्ते बाद ही 21 अगस्त को लिट्टे ने हथियारों का समर्पण बंद कर दिया. प्रभाकरण ने आईपीकेएफ के अधिकारियों को बताया कि भारतीय खुफिया विभाग लिट्टे के विरोधी संगठनों को हथियार दे रहे हैं. इस कारण लिट्टे अब समर्पण नहीं करेगा.
तमिल लोगों को जिस तरह से बसाया जा रहा था उससे भी लिट्टे समर्थक संतुष्ट नहीं थे. आईपीकेएफ द्वारा तमिलों पर अत्याचार की बातें भी सामने आ रही थी. इसके विरोध में 15 सितंबर को थिलीपन नाम का एक लिट्टे सदस्य भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसका कहना था कि न तो समझौते की शर्तों पर अमल हो रहा है और न ही भारत सरकार अपनी भूमिका ठीक से निभा रही है. 12 दिनों की भूख हड़ताल के बाद थिलीपन की मौत हो गई. इस मौत ने एक बार फिर से लिट्टे में बदले की आग को हवा दे दी.
यह मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि अक्टूबर के पहले हफ्ते में श्रीलंका सेना ने लिट्टे के 17 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया. लिट्टे ने इनकी रिहाई के लिए भारत सरकार से मांग की. भारत सरकार ने लिट्टे की इस मांग पर कोई तेजी नहीं दिखाई. इस बीच इन गिरफ्तार सदस्यों में से 12 लोगों ने सायनाइड खाकर आत्महत्या कर ली. थिलीपन की मौत से भड़की आग में इस हादसे ने घी का काम किया. इसके बाद लिट्टे ने भारत और आईपीकेएफ को भी अपना दुश्मन मान लिया. कुछ दिन के भीतर ही लिट्टे ने आईपीकेएफ के 11 सैनिकों को जिंदा जलाकर मार डाला.
यहां से लिट्टे और आईपीकेएफ आमने-सामने आ गए. जो सेना भारत से शांति बहाली के लिए गई थी अब वही युद्ध में लग गई. आठ अक्टूबर को भारतीय जनरल ने आईपीकेएफ को लिट्टे पर खुले हमले के आदेश दे दिए.
उधर, भारत में राजीव गांधी द्वारा आईपीकेएफ को श्रीलंका भेजे जाने का विरोध होने लगा था. देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा था कि श्रीलंका में भारतीय सेना के जवान मारे जा रहे थे और राजनीतिक दल सेना का ही विरोध कर रहे थे. 1989 में सत्ता परिवर्तन हुआ और राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद से हट गए. नए प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आते ही आईपीकेएफ को वापस बुलाने को फैसला किया. 24 मार्च 1990 को आईपीकेएफ का अंतिम बेड़ा श्रीलंका से वापस लौट आया. आईपीकेएफ के कुल 1248 जवान श्रीलंका में मारे गए थे लेकिन इस दौरान उसने लिट्टे को बहुत हद तक सीमित कर दिया था.
भारत में राजनीतिक समीकरण लगातार बदल रहे थे. राजीव गांधी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावनाएं थी. इस बीच अगस्त 1990 में राजीव गांधी का एक साक्षात्कार अमृत बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुआ. इसमें उन्होंने भारत-श्रीलंका शांति समझौते का समर्थन किया था और अखंड श्रीलंका की बात कही थी. इस समझौते के कारण लिट्टे का ईलम का सपना टूट रहा था. लिट्टे को डर था कि राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना उनके लिए घातक सिद्ध हो सकता है लिहाजा उसने उनकी हत्या का षड्यंत्र रचना शुरू किया. इस षड्यंत्र के मुख्य पात्र थे लिट्टे चीफ प्रभाकरण, लिट्टे की खुफिया इकाई के मुखिया पोट्टू ओम्मान, महिला इकाई की मुखिया अकीला और सिवरासन. सिवरासन ही राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र का मास्टरमाइंड भी था.
राजीव गांधी का साक्षात्कार प्रकाशित होने के एक महीने बाद ही उनकी हत्या करने के उद्देश्य से लिट्टे के आतंकियों की पहली टुकड़ी शरणार्थी बनकर भारत आई. इसके बाद कुल सात अलग-अलग टुकड़ियों में लोग आए और उन्होंने भारत में अलग-अलग जगह अपने ठिकाने बनाए. यहां से लगातार जाफना संदेश भेजे जाते थे. पत्रकार राजीव शर्मा द्वारा लिखी गई किताब ‘बियोंड द टाइगर्स: ट्रैकिंग राजीव गांधीज असैशिनेशन’ में यह भी लिखा गया है कि भारतीय नौसेना और रॉ ने राजीव गांधी की हत्या से संबंधित ये संदेश पकड़ भी लिए थे, लेकिन इनको हत्या के कई महीनों बाद ही डिकोड किया जा सका.
एक मई, 1991 को सिवरासन लिट्टे के सबसे समर्पित और इस षड्यंत्र के सबसे महत्वपूर्ण लोगों को लेकर भारत आया. इनमें मानव बम धनु और उसकी सहेली सुबा सहित कुल नौ लोग शामिल थे. सिवरासन ने भारत में धनु और सुबा को ट्रेनिंग भी दी. सात मई को मद्रास में वीपी सिंह की सभा होने वाली थी. सिवरासन इस रैली में धनु, सुबा और नलिनी को लेकर गया ताकि वे एक पूर्व प्रधानमंत्री के सुरक्षा घेरे में जाकर उसे माला पहनाने का अभ्यास कर सकें. वीपी सिंह के मंच पर आने से पहले सुबा और धनु ने उन्हें माला पहनाई. अपनी ट्रेनिंग में मिली इस सफलता से दोनों लड़कियों के इरादे और भी ज्यादा मजबूत हो गए.
19 मई 1991 के अखबारों में राजीव गांधी का चुनावी कार्यक्रम प्रकाशित हुआ. यहीं से सिवरासन को मालूम हुआ कि 21 मई को राजीव गांधी श्रीपेरंबदूर आने वाले हैं. इसके बाद वह दिन आया जिसका इन लोगों को इंतजार था. सिवरासन ने सुबा और धनु को अंतिम उद्देश्य के लिए तैयार होने को कहा. धनु ने अपने शरीर में विस्फोटक लगा लिए. यहां से सिवरासन, धनु और सुबा ऑटो लेकर नलिनी के घर पहुंचे. सुबा ने नलिनी को उनकी मदद करने के लिए धन्यवाद दिया और बताया कि ‘धनु आज राजीव गांधी को मारकर इतिहास बनाने जा रही है.’
राजीव गांधी के पहुंचने से पहले हरी बाबू भी मंच के पास पहुंच चूका था. वह एक पत्रकार के रूप में वहां मौजूद था. उसका काम था इस पूरे हत्याकांड की तस्वीरों को कैद करना. कुछ ही देर में राजीव गांधी वहां पहुंच गए. इस पर धनु ने सिवरासन और सुबा को वहां से हट जाने का इशारा कर दिया. अगले ही पल एक धमाका हुआ और चारों तरफ सिर्फ लाशें, खून, चीख और आंसू पसर गए.
राजीव गांधी सहित कुल 18 लोगों की इस धमाके में मौत हो गई और कई लोग घायल हुए. धनु के साथ ही इस षड्यंत्र में शामिल हरी बाबू की भी मौत हो गई. हरी बाबू का काम फोटो खींचने का था. लिट्टे के हर ऑपरेशन की तस्वीरें और वीडियो बनाए जाते थे. ऐसा दो कारणों से होता था. पहला, लिट्टे के अन्य सदस्यों को इनसे ट्रेनिंग दी जाती थी. और दूसरा, जब ईलम अलग राष्ट्र बने तो इसके संघर्ष में जान गंवाने वाले क्रांतिकारियों के बारे में आने वाली पीढ़ियों को बताया जा सके. लेकिन लिट्टे की यही दूरगामी सोच इस मामले में उसके गले का फंदा बनी. हरी बाबू की लाश के साथ पुलिस ने यह कैमरा बरामद किया जो इस षड्यंत्र को बेनकाब करने में सबसे अहम साबित हुआ.
हत्याकांड के तीन दिन बाद ही इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई. इसके बाद गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ. एक महीने के भीतर ही नलिनी और मुरुगन जैसे मुख्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. सिवरासन और सुबा सहित कई आरोपितों ने गिरफ्तारी से पहले ही आत्महत्या कर ली. सीबीआई ने पूरे एक साल में मामले की जांच पूरी की और विशेष न्यायालय में आरोपपत्र दाखिल कर दिया. इसमें कुल 41 लोगों को आरोपी बनाया गया था. इनमें से 12 लोगों की मौत हो चुकी थी, तीन फरार थे और बाकी 26 गिरफ्तार कर लिए गए थे. फरार लोगों में प्रभाकरण, पोट्टू ओम्मान और अकीला शामिल थे.
इस मामले को आतंकवादी प्रवृति का मानते हुए सभी आरोपितों पर टाडा कानून लागू किया गया था. इस कानून के अनुसार पुलिस के सामने दिया गया इकबालिया बयान भी न्यायालय में स्वीकार्य होता है. लिहाजा इन सभी आरोपितों के बयान इस मामले में बहुत अहम साबित हुए. इनके अलावा लगभग एक हजार गवाहों के लिखित बयान, 288 गवाहों से जिरह, 1477 दस्तावेजों जिनके कुल पन्नों की संख्या 10000 से ज्यादा थी, 1,180 नमूनों एवं सबूतों और वकीलों के हजारों तर्कों के बाद विशेष न्यायालय ने सभी 26 दोषियों को हत्या और षड्यंत्र का दोषी पाया. उसने वर्ष 1998 में सबको मौत की सजा सुना दी.
चूंकि मामला टाडा का था इसलिए इस फैसले को चुनौती देने सभी आरोपित सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे. यहां तीन जजों की बेंच को यह मामला सौंपा गया. विशेष न्यायालय के फैसले के एक साल बाद ही इस मामले में न्याय की परिभाषा पूरी तरह से बदल गई. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विशेष अदालत का फैसला न्याय नहीं बल्कि ‘न्यायिक नरसंहार’ है और 1999 में इन 26 में से 19 लोगों को रिहा कर दिया. कोर्ट ने इन सभी को हत्या और षड्यंत्र का दोषी नहीं माना और कहा कि जो अपराध इन पर बनते थे उनकी सजा ये लोग आठ साल जेल में रह कर पूरी कर चुके हैं. तीन अन्य आरोपितों के अपराध को भी कम गंभीर पाते हुए न्यायालय ने उनकी फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया. नलिनी, मुरुगन, संथन और पेरारिवलन के अपराध को ही कोर्ट ने अक्षम्य मानते हुए उनकी फांसी की सजा को बरकरार रखा. इस फैसले में एक जज रहे जस्टिस थॉमस नलिनी की फांसी को माफ करने पक्ष में थे. लेकिन दो-एक के बहुमत से उसकी फांसी बरक़रार रही.
गिरफ्तार होने के कुछ महीनों बाद ही नलिनी की एक बेटी हुई थी. जस्टिस थॉमस द्वारा नलिनी की फांसी माफ करने का एक कारण यह भी था कि उसकी एक छोटी बेटी थी और यदि मुरुगन और नलिनी दोनों को फांसी होती तो यह बच्ची अनाथ हो जाती. कुछ समय बाद सोनिया गांधी व्यक्तिगत तौर पर राष्ट्रपति से मिलीं और उनसे नलिनी की फांसी माफ करने की अपील की. साल 2000 में दया याचिका को मंजूर करते हुए नलिनी की फांसी माफ कर दी गई.
नलिनी की फांसी माफ होने के बाद इस मामले में तीन ही आरोपित फांसी की राह पर रह गए थे. इन्होंने राष्ट्रपति के सामने 2000 में दया याचिका दाखिल की. इस दया याचिका पर 11 साल बाद फैसला लिया गया. भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा फांसियां माफ करने वाली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी इनकी फांसी की सजा को माफ नहीं किया. इसके बाद इन तीनों आरोपितों को फांसी देने के लिए नौ सितंबर 2011 का दिन तय किया गया. लेकिन इसके बाद मद्रास उच्च न्यायालय ने फांसी देने में हुई देरी के आधार पर इन सभी की फांसी पर रोक लगा दी. इसके बाद यह मामला एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया.
फरवरी 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह माना कि अब फांसी देना सही नहीं है क्योंकि तीनों लोगों की दया याचिका को 11 साल तक लंबित रखा गया था. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन तीन आखिरी आरोपितों की भी फांसी माफ कर दी गई. इस फैसले के अगले ही दिन तमिलनाडु सरकार ने जेल में कैद सभी सात आरोपितों को रिहा करने की घोषणा भी कर दी. इसके बाद यह मामला फिर से न्याय तलाशता हुआ सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की पीठ तक पहुंच गया. इस मामले में फैसला आया जिसने वर्ष 2016 में सभी सातों लोगों की उम्रकैद की सजा को बरकरार रखने का आदेश यह कहते हुए दिया कि जिस मामले की जांच से केंद्रीय एजेंसियां जुड़ी हों या जिनमें दोषियों को केंद्रीय कानून के तहत सज़ा हुई हो, उनमें सजा माफी का अधिकार केंद्र सरकार का है, राज्य सरकार का नहीं. 2018 में नलिनी की समय से पूर्व रिहाई की याचिका मद्रास हाईकोर्ट ने खारिज कर दी. हाईकोर्ट ने कहा कि यह मामला पहले ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. जुलाई 2019 में नलिनी को एक माह की पैरोल मिल गई. उसने अपनी बेटी की शादी की तैयारियों के लिए मद्रास हाईकोर्ट में छह महीने की पैरोल की याचिका लगाई थी.
इस सिलसिले में ताजा खबर यह है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से राजीव गांधी हत्याकांड के सात दोषियों की रिहाई का निर्देश देने का अनुरोध किया है. उनका कहना है कि इस संबंध में 2018 में भेजी गई तमिलनाडु के राज्यपाल की सिफारिश मान ली जानी चाहिए. राष्ट्रपति को लिखे पत्र में स्टालिन ने कहा है, ‘यह तमिलनाडु की जनता की भी इच्छा है.’
कानून के राज वाले किसी भी लोकतंत्र में न्यायालय का फैसला ही न्याय माना जाता है. इस तरह से 18 लोगों की हत्या के इस मामले में जो भी और जब भी हुआ न्याय ही हुआ है. पहले 26 लोगों को फांसी होना ही न्याय था, फिर इनमें से 19 लोगों का बरी हो जाना भी, इसके बाद चार लोगों को फांसी होना भी न्याय था और सबकी फांसी माफ होना भी. इस मामले में सात लोगों की रिहाई हो जाती तो वह भी न्याय ही होता और उन्हें उम्र भर जेल में रखने का जो फैसला हुआ वह भी न्याय ही था. लेकिन इन सात लोगों की रिहाई के मसले से जुड़ी हलचल ख़ालिस राजनीति के अलावा कुछ नहीं लगती.
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