यह घटना टीपू सुल्तान की उस छवि से बिल्कुल जुदा है जिसके मुताबिक वह एक कट्टर मुसलमान शासक था, साथ ही यह मराठों के हिंदू रक्षक होने की छवि भी तोड़ती है
शोएब दानियाल | 04 मई 2020
यह 1940 की बात है. लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना ने पहली बार द्विराष्ट्र सिद्धांत पर आधारित अपनी परिकल्पना को सार्वजनिक किया था. उन्होंने दलील दी थी कि भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग अतीत से ताल्लुक रखते हैं. एक नए मुल्क के कायदे-आजम बनने को तैयार जिन्ना ने कहा था, ‘यह बहुत स्पष्ट है कि हिंदू और मुसलमान इतिहास में अलग-अलग स्रोतों से प्रेरणा हासिल करते हैं.’
कर्नाटक में 1940 के दशक जैसी ही बहस पिछले कुछ सालों से लगातार चल रही है और इस बहस के केंद्र में हैं मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान. राज्य में कांग्रेस और एक बड़ा वर्ग जहां टीपू को कन्नड़ अस्मिता का प्रतीक मानता है, वहीं भाजपा के लिए मैसूर का यह शासक हिंदू विरोधी था जिसने हिंदुओं पर जमकर अत्याचार किए थे.
इस जिक्र के साथ ही लाहौर में जिन्ना के भाषण का संदर्भ भी ताजा हो जाता है. उन्होंने उस वक्त कहा था, ‘यह अक्सर ही होता है कि किसी एक वर्ग का नायक दूसरे के लिए शत्रु हो जाता है.’ उन्हें क्या, तब शायद यह किसी को भी भान नहीं रहा होगा कि आठ दशक बाद कन्नड़ राजनीति में उनका कहा हुआ शत-प्रतिशत सही साबित हो रहा होगा.
मराठा हिंदू थे, फिर भी उन्होंने श्रृंगेरी मठ पर हमला किया!
भारतीय उपमहाद्वीप 1700 की शताब्दी के आखिरी सालों में मंझदार में फंसा दिख रहा था. अब तक मुगल सिर्फ नाममात्र के शासक रह गए थे. देश के अधिकांश हिस्सों में सत्ता का असल नियंत्रण उनके हाथ से निकल चुका था. पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद यह उम्मीद भी खत्म होती दिख रही थी कि मराठा उनकी जगह ले लेंगे. इस लड़ाई में अफगानों ने मराठों को बुरी तरह हराया था. यानी उपमहाद्वीप के शासकों की सत्ता एक तरफ कमजोर हो रही थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजों के सितारे बुलंद हो रहे थे.
इस दौर में 1789 में अंग्रेजों ने मराठों और हैदराबाद के निजाम को अपनी तरफ मिला लिया. ताकि अपनी राह के आखिरी कांटे को भी हटाया जा सके. यह कांटा था, मैसूर का शासक टीपू सुल्तान, जिसने दूसरे कई शासकों की तुलना में काफी पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी से पैदा होने वाले खतरे और उससे मिलने वाली चुनौती को भांप लिया था.
उस वक्त मराठा और टीपू सुल्तान एक-दूसरे को पसंद नहीं करते थे. यहां तक कि इस आपसी बैर की वजह से दोनों पक्षों के बीच लड़ाई वक्त से पहले ही शुरू हो गई थी. दरअसल, सबसे पहले टीपू के पिता हैदर अली ने भयंकर संघर्ष के बाद मराठाओं से देवनहल्ली (बेंगलुरू के पास) का किला छीन लिया था. जवाब में 1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के नेतृत्व में मराठों ने मैसूर जिले के बेदनूर पर जवाबी हमला किया. इसी हमले के दौरान उन्होंने श्रृंगेरी मठ को नुकसान पहुंचाया.
बाद में टीपू सुल्तान ने मठ के जीर्णोद्धार में भी मदद की थी
वैसे, लड़ाइयों के दौरान मठ-मंदिरों पर हमले करना मराठों के लिए कोई असाधारण बात नहीं थी. उदाहरण के लिए यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि उन्होंने 1759 में तिरुपति मंदिर पर भी हमला किया था और उसे काफी नुकसान पहुंचाया था. हालांकि श्रृंगेरी का मंदिर और मठ कोई साधारण नहीं था. इसे हजारों साल पहले हिन्दुओं के अद्वैत दर्शन के प्रणेता आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया था. उन्होंने देश के हर कोने पर इस तरह के मठ-मंदिर स्थापित किए थे. दक्षिण में श्रृंगेरी था तो उत्तर में जोशीमठ, पश्चिम में द्वारका और पूर्व में पुरी की स्थापना उन्होंने की थी.
अपनी इसी अहमियत की वजह से श्रृंगेरी के मठ की प्रतिष्ठा काफी थी. इसकी स्थापना के बाद से ही हिन्दू और मुस्लिम दोनों शासकों ने इसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को अब तक कायम रखा हुआ था. टीपू ने इस परंपरा को जारी रखा था. मठ के साथ उनका नजदीकी संबंध था और वे समय-समय पर उसे अपनी तरफ से तमाम उपहार भी भेजते रहते थे. मठ को उन्होंने बहुत सी जमीन भी दान में दे रखी थी. यहां तक कि निजी संवाद के दौरान टीपू मठ के स्वामी को ‘जगद्गुरु’ (विश्व के गुरु) के संबोधन से संबोधित किया करते थे.
मठ की इस प्रतिष्ठा का अर्थ यह भी था कि उसके पास काफी धन-दौलत थी. संभवत: इसी वजह से मराठों ने उसे निशाना भी बनाया और मठ को अपनी स्थापना के करीब 1000 साल के इतिहास के दौरान पहली बार इस तरह की विपदा का सामना करना पड़ा था. मराठों ने मठ की पूरी संपत्ति लूट ली थी. वहां रह रहे कई ब्राह्मणों को मार दिया था. यहां तक कि वहां स्थापित देवी शारदा की प्रतिमा को भी खंडित कर दिया था.
इस हमले के वक्त मठ के स्वामी किसी तरह जान बचाकर भाग निकले थे. बाद में उन्होंने टीपू सुल्तान को पत्र लिखकर उनसे मदद मांगी ताकि मठ और वहां के मंदिर में देवी की प्रतिमा को फिर स्थापित किया जा सके. इस पर टीपू ने बेहद नाराजगी के साथ संस्कृत में जवाबी पत्र भेजा. इसमें उन्होंने लिखा, ‘लोग गलत काम करके भी मुस्कुरा रहे हैं. लेकिन उनकी इस गुस्ताखी ने हमें जो पीड़ा पहुंचाई है, उन्हें इसकी सजा भुगतनी होगी.’ इसके साथ ही टीपू ने मठ के लिए माली मदद भी भेजी ताकि देवी की प्रतिमा वहां फिर स्थापित की जा सके. नई प्रतिमा के लिए उन्होंने अपनी तरफ से अलग से चढ़ावा भी भेजा.
अतीत का भारत अलग ही था
लेकिन 1990 के दशक में कर्नाटक में हिन्दुत्व के उभार के बाद टीपू सुल्तान की छवि एक धर्मनिरपेक्ष शासक के बजाय मुस्लिम तानाशाह की बना दी गई. हालांकि श्रृंगेरी मठ के ध्वंस और उद्धार की यह घटना इस छवि को अंगूठा दिखाती ही नजर आती है. उनके लिए जो कर्नाटक को उस आधुनिक भारत का आईना मानना चाहते हैं, जहां हिन्दु-मुस्लिम दो अलग-अलग धुरी पर खड़े दिखते हों, उन लोगों को यह घटना भ्रमित कर सकती है. उन्हें शायद इस पर सहज भरोसा न हो कि मराठों ने हिन्दू होने के बावजूद श्रृंगेरी मठ को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया था और टीपू ने एक मुस्लिम होते हुए भी उसका जीर्णोद्धार कराया.
निश्चित रूप से इसमें कोई दोराय नहीं कि आधुनिक मापदंडों के लिहाज से टीपू ने युद्ध अपराध किए. तमाम तरह के अत्याचार भी किए. लेकिन यही सब तो मराठों ने भी किया था. यहां तक अपने ही धर्म स्थल श्रृंगेरी में भी. टीपू ने जो किया वह अपनी उम्र की झोंक में किया था. मगर उनके बारे में पढ़ते हुए कई आधुनिक समय के पाठक जब वर्तमान सांप्रदायिक संदर्भों के साथ उनके कृत्यों को जोड़ने लगते हैं तो वहीं से उनके बारे में गलत धारणा बनना शुरू हो जाती है.
तब की घटनाएं उसी माहौल के हिसाब से घटित हुईं
टीपू अपने समय में जो कर रहे थे, वह सत्ता संघर्ष की पुरातन परंपरा को ही एक तरह से आगे बढ़ाने का काम था. मिसाल के तौर पर उन्होंने वाराह मंदिर को ध्वस्त किया क्योंकि इसमें मैसूर के हिन्दू शासकों के इष्टदेव भगवान वाराह की मूर्ति स्थापित थी. और संभवत: इसलिए भी कि इन्हीं शासकों से टीपू ने मैसूर की सत्ता हथियाई थी. लेकिन टीपू ने राज्य के बाकी मंदिरों के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की. इसके बजाय उन्होंने श्रृंगेरी की तरह कई अन्य मंदिरों की सहायता ही की. उन्होंने अपनी राजधानी में ही स्थापित श्रीरंगनाथ मंदिर को चांदी का पात्र दान किया. ननजनगुडा में स्थापित ननजुनडेश्वरा मंदिर में हरे रंग के कीमती पत्थर का शिवलिंग स्थापित कराया.
यह भी सही है कि टीपू ने हिंदुओं और ईसाइयों पर हमले भी किए. लेकिन जैसा कि ब्रिटिश इतिहासकार कैट ब्रिटलबैंक कहते हैं, ‘यह सब किसी धार्मिक नीति के तहत नहीं किया जा रहा था, बल्कि इनमें ज्यादातर उदाहरण अनुशासनात्मक सजाओं के ही थे.’ जिन समुदायों को टीपू ने निशाने पर लिया, उन्हें वे मैसूर राज्य के प्रति वफादार नहीं मानते थे. यही वजह है कि उन्होंने महदेवी जैसे कुछ मुस्लिम समुदायों को भी नहीं बख्शा. क्योंकि इस वर्ग के मुस्लिमों ने अंग्रेजों का समर्थन शुरू कर दिया था. वे ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में घुड़सवारों के तौर पर नौकरी भी करने लगे थे.
इसी तरह टीपू ने मैसूर से बाहर के हिंदुओं और ईसाइयों पर भी हमले किए. इस बाबत सुसैन बाइली बताती हैं, ‘वे (टीपू) अपने राज्य के भीतर हिन्दू और मुसलमानों के साथ नजदीकी पारंपरिक संबंध रखने के पक्ष में थे. इस संबंध में वे काफी सचेत थे. हालांकि इसमें उनकी ओर से बस शर्त इतनी थी कि ये समुदाय (हिन्दू-ईसाई) उनके सत्ता के लिए किसी तरह की चुनौती खड़ी न करें, खतरा पैदा न करें.’
यहां तक कि जिस शख्स को टीपू का दाहिना हाथ कहा जाता है, वह एक हिंदू था. वह थे उनके मुख्यमंत्री पूर्णैया. भारतीय उपमहाद्वीप के आधुनिक दौर में तो यह सोचना भी मुश्किल है कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार में कोई हिन्दू या हिन्दुस्तान की सरकार में कोई मुस्लिम दूसरा सबसे अहम और ताकतवर शख्स हो जाए.
अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि टीपू सुल्तान को लेकर जो बहस कर्नाटक में चल रही है, उससे बस यही साबित होता है कि आधुनिक राजनीति किस तरह अपने फायदे के लिए इतिहास को इस्तेमाल करती है. उसके प्रतीकों को पुनर्स्थापित करने की कोशिश करती है.
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