दुनिया का पहला टीकाकरण करते ए़डवर्ड जेनर

Science-Technology | स्वास्थ्य

दुनिया की पहली वैक्सीन के बनने में गाय की भी उतनी ही बड़ी भूमिका थी जितनी डॉक्टर एडवर्ड जेनर की

इस वैक्सीन के चलते हर साल दसियों करोड़ लोगों की जान लेने वाली स्माल पॉक्स ऐसी पहली घातक बीमारी बन गई जिसका अस्तित्व अब इस दुनिया में नहीं है

Anjali Mishra | 02 June 2021 | फोटो: विकीपीडिया

कॉलरा, प्लेग और एनफ्लुएंजा (ब्लैक डेथ) जैसी अनगिनत महामारियों का सामना करने वाली दुनिया एक बार फिर कोविड-19 जैसी एक और घातक महामारी के दौर और डर से गुजर रही है. उम्मीद है कि यह अरसा ज्यादा लंबा नहीं चलेगा. जल्दी ही इलाज की तमाम राहतों समेत वैक्सीन भी दुनिया के हर कोने तक पहुंच सकेंगी और यह एक बार फिर खुलकर सांस लेने लायक जगह बन जाएगी. इतिहास में झांककर देखें तो इस उम्मीद को थोड़ा और वजन मिल सकता है. ऊपर लिखीं तमाम महामारियों समेत पोलियो, हैपेटाइटिस, एचआईवी-एड्स जैसी अनगिनत महामारियों को काबू में करने में इंसान अब तक सफल रहा है और वैक्सीन्स ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है. जब दुनिया की पहली वैक्सीन बनी थी तो वह एक ऐसी बीमारी के लिए बनी थी जिसने बीते हजारों सालों से धरती पर कहर मचा रखा था. इस वैक्सीन के चलते स्माल पॉक्स (चेचक या छोटी माता) ऐसी पहली घातक बीमारी भी बन गई जिसका अस्तित्व अब इस दुनिया में नहीं है.

बहुत संक्षेप में स्माल पॉक्स के इतिहास पर बात करें तो यह बीमारी कहां से शुरू हुई, इस बारे में तो कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. लेकिन यह माना जाता है कि 10,000 ईसा पूर्व जब दक्षिण-पूर्व अफ्रीका में इंसान ने खेती करने की शुरूआत की तब संभवतया पहली बार उसका सामना चेचक से हुआ होगा. मिस्र (ईजिप्ट) की ममियां, जिनका समय ईसापूर्व दूसरी या तीसरी शताब्दी का बताया जाता है, भी उस दौर में चेचक का अस्तित्व होने की पुष्टि करती हैं. इसके बाद की सदियों में भारत और चीन जैसे एशियाई देशो में इसके मिस्र के रास्ते पहुंचने की बात कही जाती है. वहीं, यूरोप में यह पांचवी या सातवीं सदी (ईसवी) में पहुंची. फिर सभ्यता के विकास, व्यापार, युद्ध और उपनिवेशवाद की कोशिशों के चलते यह बीमारी एक से दूसरे देश या इलाकों में पहुंचती रही.

16-17वीं सदी का समय आते-आते चेचक के मरीज दुनिया के सुदूर कोनों में भी मिलने लगे थे और इससे हर साल लाखों की संख्या में लोग मरने लगे थे. उस दौर में इसका शिकार होने वाले लगभग एक तिहाई लोगों की मौत हो जाती थी, और बचे हुए लोगों में से ज्यादातर को अंधेपन या किसी और तरह की शारीरिक अपंगता के साथ जीवन गुज़ारना होता था. दूसरी तरह से कहें तो इसका कोई इलाज नहीं था. बस समय के साथ लोगों ने यह जान लिया था कि अगर किसी को एक बार चेचक हो जाए और उसकी मृत्यु ना हो तो जीवन में उसे दोबारा कभी यह बीमारी नहीं होती है. इसी ज्ञान के सहारे भारत, चीन, तुर्की और कई अफ्रीकी देशों में चेचक से बचाव के लिए टीकाकरण से मिलते-जुलते कुछ तरीके विकसित किए गए जो आगे चलकर आधुनिक वैक्सीन की नींव बने.

उदाहरण के लिए, चीन में चेचक के मरीज के जख्मों की परत को सुखाकर उसका चूर्ण बनाया जाता था और लकड़ी के एक पाइप के सहारे नाक के रास्ते इसे शरीर में पहुंचाया जाता था. भारत की बात करें तो आयुर्वेद में चेचक के इलाज और बचाव के लिए कई जड़ी-बूटियों, खास तरह के कपड़ों, जल चिकत्सा के साथ शरीर में छोटे-छोटे छेद बनाकर पस या अन्य मिश्रण डाले जाने जैसी बचाव पद्धतियों का जिक्र मिलता है. तुर्की और अफ्रीका के कुछ देशों से होते हुए यह तरीका यूरोप जा पहुंचा और वहां भी शरीर पर घाव कर उसमें पस डालने का तरीका अपनाया जाने लगा. चूंकि स्माल पॉक्स के लिए वैरिओला वायरस जिम्मेदार होता है, इसलिए उसके नाम पर, इस प्रक्रिया को वैरिओलेशन नाम दिया गया. वैसे तो, वैरिओलेशन का उद्देश्य लोगों को थोड़ा संक्रमित कर उनमें इम्युनिटी पैदा करना होता था. लेकिन कई बार इसके चलते व्यक्ति में गंभीर संक्रमण विकसित हो जाता था जिसके चलते उसकी मृत्यु तक­­ हो जाती थी.

अब इंग्लैंड के एक छोटे से गांव में रहने वाले डॉ एडवर्ड जेनर द्वारा दुनिया की पहली वैक्सीन बनाने के किस्से पर आएं तो उन्हें भी बचपन में वैरिओलेशन से गुज़रना पड़ा था. उनसे जुड़े किस्सों में बताया जाता है कि यह अनुभव जेनर के लिए बहुत त्रासद रहा था और उनके काम पर भी इसका असर रहा. जीवों, वनस्पतिओं और भूगर्भ का ज्ञान रखने वाले डॉक्टर एडवर्ड जेनर जहां एक तरफ चिड़ियों के व्यवहार के विशेषज्ञ थे. वहीं, दूसरी तरफ लंबे समय तक उस दौर में यूरोप के सबसे मशहूर सर्जन जॉन हंटर के सहयोगी भी रहे थे. बाद में इंग्लैंड के गांवों में लोगों का इलाज करते हुए, एडवर्ड जेनर ने सालों-साल वैरिओलेशन का एक ऐसा तरीका खोजने पर काम किया जो लोगों को न सिर्फ इस बीमारी से बचा सके बल्कि कम पीड़ादायी भी हो.

अठारहवीं सदी के आखिरी दशकों में उनके ध्यान में यह बात आई कि गायों को भी स्माल पॉक्स से मिलती-जुलती एक बीमारी होती है, जिसे काउ पॉक्स कहा जाता है. कई बार गाय-बैलों के करीब रहने वाले इंसानों को भी यह संक्रमण हो जाता था लेकिन यह स्माल पॉक्स जितना गंभीर नहीं होता था. दूध का व्यवसाय करने वाली महिलाओं (ग्वालनों) से उन्हें यह जानकारी भी मिली अगर किसी को एक बार काउ पॉक्स हो जाता है तो उसे स्माल पॉक्स का संक्रमण नहीं होता है. अनपढ़ ग्रामीणों से मिली इस एक जानकारी के सहारे ही एडवर्ड जेनर ने अपनी पहली वैक्सीन का परीक्षण किया था. बताया जाता है कि साल 1796 में उन्होंने काउ पॉक्स से पीड़ित एक महिला के शरीर से पस लेकर अपने माली के आठ वर्षीय बेटे, जेम्स फिप को उससे संक्रमित कर दिया. चंद दिनों की हल्की-फुल्की बीमारी के बाद जेम्स बिल्कुल स्वस्थ हो गया. आगे चलकर जब उसे चेचक के वायरस से संक्रमित किया गया तो उसमें संक्रमण के कोई चिन्ह देखने को नहीं मिले. और इस तरह दुनिया का पहला टीका ईज़ाद हुआ. इसे डॉक्टर जेनर ने वैक्सीनेशन नाम दिया जो लैटिन शब्द ‘वाका’ (Vacca) यानी गाय से बना है. और, बीती 14 मई को इस बात को सवा दो सौ साल पूरे हो चुके हैं.

इतिहास और राजनीति के जानकार डॉक्टर जेनर को ‘फादर ऑफ इम्युनोलॉजी’ कहे जाने पर अलग-अलग तरह के मत प्रकट करते हैं. इनमें से एक तबके का कहना है कि एडवर्ड जेनर को वैक्सीन विकसित करने का पूरा श्रेय दिया जाना व्हाइट सुप्रीमेसी का सबसे बड़ा उदाहरण है क्योंकि उनकी इस खोज से पहले ही एशिया, अफ्रीका समेत मध्य-पूर्व के कई देशों में इस तरह के अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया जाता रहा था. जेनर के जन्म से लगभग एक सदी पहले वैरिओलेशन के यूरोप तक पहुंचने और शुरूआती ट्रायल की कहानी भी दक्षिण अफ्रीकी देशों से जुड़ती है. इतिहासकारों के मुताबिक यह घटना श्वेत वैज्ञानिकों को श्रेष्ठ दिखाने और अन्य देशों के परंपरागत ज्ञान को झुठलाने की पश्चिम की कोशिशों का सबसे बड़ा नमूना है.

कुछ लोग जेम्स फिप और ग्वालनों से जुड़े वाक़ये को भी काल्पनिक ठहराते हैं. बताया जाता है कि लंबे समय तक पहले वैक्सीनेशन से जुड़े प्रयोगों और फिर इसके लिए लोगों को प्रेरित करने के चलते एडवर्ड जेनर लगातार आलोचनाओं का शिकार हो रहे थे. धार्मिक संगठनों का कहना था कि यह धर्म के खिलाफ है तो कई सामाजिक संगठनों द्वारा वैक्सीन के खिलाफ दिया जाने वाला तर्क यह था कि अपने प्राण बचाने के लिए दूसरे जीव को पीड़ा देना या किसी को भी जान-बूझकर संक्रमित करना अमानवीय है. कहा जाता है कि डॉ जेनर की छवि को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए उनके मित्र और जीवनीकार विलयम वुडविल ने यह किस्सा रचा था जो काम कर गया. इसने जेनर के लिए आगे बड़े पैमाने पर ट्रायल और वैक्सीनेशन पर विश्वास बहाल करने जैसे काम आसान कर दिए.

जैसा कि पिछली सदी के अंग्रेज विद्वान, फ्रांसिस गैल्टन ने कहा है कि ‘विज्ञान में श्रेय उसे दिया जाता है जो लोगों को अपने विचारों (आइडियाज) पर यकीन दिलाने में सफल होता है, न कि उन्हें जिन्हें विचार सबसे पहले आते हैं.’ एडवर्ड जेनर ने न सिर्फ वैरिओलेशन (या वैक्सीनेशन) को कारगर साबित किया बल्कि इसके लिए अपेक्षाकृत आसान और सुरक्षित तरीके भी विकसित किए जिन्होंने दुनिया को उस बीमारी से बचाया जिसने आज तक के मानव इतिहास में सबसे ज्यादा लोगों की जान ली और न जाने कितनों को अपंग बनाया. यहां पर स्माल पॉक्स से जुड़े कुछ अंतिम आंकड़ों पर गौर करें तो बचाव मिल जाने के बावजूद, बीसवीं सदी में इस बीमारी से दुनिया भर में मरने वाले लोगों की संख्या 30 करोड़ थी. या फिर, धरती पर से पूरी तरह खत्म होने से पहले के सौ सालों में चेचक ने 50 करोड़ लोगों की जान ली थी. इससे पहले के कोई स्पष्ट आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन जो ऐतिहासिक दस्तावेज हैं, वे इसकी भयावहता को और भी मजबूती देने वाले ही हैं.

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