संगीत

Science-Technology | सिर-पैर के सवाल

कभी-कभी कोई एक ही गाना हम दिन भर क्यों गुनगुनाते रहते हैं?

सवाल जो या तो आपको पता नहीं, या आप पूछने से झिझकते हैं, या जिन्हें आप पूछने लायक ही नहीं समझते

Anjali Mishra | 25 July 2020 | फोटो: पिक्साबे

जुबान के बारे अक्सर यह टिप्पणी की जाती है कि – ‘जुबान का वजन बहुत कम होता है, लेकिन बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो इसे काबू में रख पाएं.’ जुबान पर यह टिप्पणी पहली बार कब-कहां-क्यों की गई थी इसका तो पता नहीं है, पर यह बात है बिल्कुल पते की. बेशक, जुबान के बेकाबू होने के अपने नुकसान हैं पर कई बार हमारी जुबान कुछ सुर में भी बेकाबू होती है. और जब ऐसा होता है, आप पूरे दिन कोई एक ही गाना गुनगुनाते हुए नजर आ सकते हैं, कहने का मतलब है कि सुनाई दे सकते हैं. कभी न कभी आपके साथ भी ऐसा जरूर हुआ होगा जब कोई गाना सुनते हुए आपके दिमाग में अटक गया हो और दिनभर आपकी जुबान पर फिरता रहा हो. यह भी दिलचस्प बात है कि हो सकता है वह गाना आपको कुछ खास पसंद न हो. चलिए, जानते हैं कि ऐसा क्यों होता है.

कुछ गाने अटकते तो आपकी जुबान पर हैं पर जाना इन्हें ईयरवॉर्म्स के नाम से जाता है. इनके नाम से भले ही लगता हो, लेकिन ये अपने आप ही आपके कानों में पनप जाने वाले कोई कीट सरीखी चीज नहीं हैं. अमेरिकन साइकोलॉजी एसोसिएशन के एक शोधपत्र अनुसार कोई धुन जो एकदम अलग होने के साथ-साथ सुरीली भी हो और साथ ही आसानी से याद की जा सकती हो, अनजाने ही हमारे दिमाग में अटक जाती है. इस तरह की धुनों को ईयरवॉर्म कहते हैं. थोड़े-थोड़े समय बाद हमारा दिमाग इसे दोहराता रहता है. ऐसे में अक्सर हम दिनभर एक ही गाना गुनगुनाते मिल सकते हैं. इसे किसी ऐसे कम्प्यूटर वायरस की तरह समझा जा सकता है जो बार-बार बिना कमांड दिए एक ही प्रोग्राम खोल देता है. वैज्ञानिक ईयरवॉर्म्स के लिए इनवॉलेंटरी म्यूजिकल इमेजरी या आईएनएमआई टर्म इस्तेमाल करते हैं. इसके कारण दिमाग अपने आप एक ही संगीत की कल्पना करता रहता है.

साइकोलॉजी ऑफ म्यूजिक के जर्नल में साल 2012 में छपे एक अध्ययन के अनुसार जो गाने हम अक्सर सुनते रहते हैं वे ज्यादा आसानी से हमारे दिमाग में रह जाते हैं. मनोविज्ञान के मुताबिक इंसानी दिमाग बिना किसी प्रयास के भी संगीत को याद रख सकता है, इसलिए इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि हम किसी गाने को सुनते हुए उसे कितना पसंद या नापसंद कर रहे हैं. अध्ययन यह भी बताता है कि जो व्यक्ति संगीत को जितना समझता या पसंद करता है, उसके ईयरवॉर्म्स के फेर में पड़ने का खतरा भी उतना ही होता है. यानी कि ईयरवॉर्म्स से ग्रसित होने के लिए जरूरी नहीं है कि वह गाना उस व्यक्ति को पसंद ही हो. हां अगर वह व्यक्ति हर तरह का संगीत पसंद करता हो तो उसके लिए ईयरवॉर्म्स से प्रभावित होने की संभावना संगीत कम सुनने वाले व्यक्ति की तुलना में बढ़ जाती है.

जब हम कोई गाना सुन रहे होते हैं तो यह हमारे दिमाग के एक खास हिस्से पर असर करता है. इस हिस्से को ऑडिटरी कॉर्टेक्स कहते हैं. ऑडिटरी कॉर्टेक्स हमारे दिमाग का वह हिस्सा है जो किसी बात को सुनकर उसे समझने और उसके अनुसार व्यवहार करने में हमारी मदद करता है. यानी दिमाग का यह हिस्सा कान से सुनी हुई जानकारी को इस्तेमाल करने लायक बनाता है. और दिमाग का यही वो हिस्सा है जो किसी गाने के बार-बार सुने जाने की कल्पना करता है और इसके चलते आप गाना गुनगुनाने लगते हैं.

कुछ अरसा पहले अमेरिका की डार्टमाउथ यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग किया था. इस प्रयोग के दौरान शोधकर्ताओं ने लोगों को एक ऐसे गाने का हिस्सा सुनाया, जो वे अतीत में सुनते रहे हैं. इस प्रयोग से पता चला कि जो लोग गाने पर ध्यान नहीं दे रहे थे, उनके दिमाग का भी ऑडिटरी कॉर्टेक्स वाला हिस्सा सक्रिय हो गया और गाना बंद होने के बाद भी वह सक्रिय ही रहा. वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को एक तरह की दिमागी खुजली बताते हैं जिसे शांत करने के लिए दिमाग बार–बार वह गाना अपने-आप ही दोहराता रहता है. वे इसकी तुलना मच्छरों के काटने से करते हैं. जैसे एक बार मच्छर के काटने का बाद हम देर तक उस जगह को खुजलाते रह जाते हैं, ठीक उसी तरह दिमाग की खुजली के साथ भी होता है.

हालांकि ऐसा क्यों होता है इसका अब तक कोई सटीक जवाब नहीं मिल पाया है लेकिन कुछ वैज्ञानिक इसकी व्याख्या स्ट्रेस मैनेजमेंट मैकेनिज्म कहकर करते हैं. इनके मुताबिक दिमाग का एक हिस्सा लगातार हमें चिंताओं और दुखी करने वाले विचारों से बचाने की कोशिश करता रहता है, ऐसे में कई बार यह ध्यान बंटाने के लिए किसी भी और विचार को हावी होने देता है, फिर चाहे वह कोई बहुत आसान सरगम वाला बेसुरा गाना ही क्यों न हो!

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