सवाल जो या तो आपको पता नहीं, या आप पूछने से झिझकते हैं, या जिन्हें आप पूछने लायक ही नहीं समझते
अंजलि मिश्रा | 06 मार्च 2022
कहने वाले लाख कहते रहें कि दिमाग की नहीं दिल की सुननी चाहिए, पर कैसे सुनें जब दिल खुद ही दिमाग की सुन रहा हो क्योंकि दिल को धड़कने का इशारा भी दिमाग ही देता है. इसके साथ ही वे तमाम क्रियाएं जो हमें ज़िंदा बनाए रखती हैं दिमाग से ही कंट्रोल होती हैं. यानी कि दिमाग को सारे दिन काम पर लगे रहना पड़ता है. काम कर-कर के एक वक्त पर वह थक भी जाता है. दिमाग थक जाए तो इंसान भी थक जाता है. ऐसे में देखने वाले को लगता है अगले ने हाथ पैर चलाए नहीं तो ऐसा क्या किया बैठे-बैठे जो इतना थक गया.
ऐसी ही बातें कुछ वैज्ञानिक अध्ययन भी कहते हैं. इनके अनुसार कुछ सामान्य सी दिमागी क्रियाओं, जैसे किसी से बात करने या क्रॉसवर्ड भरने में दिमागी ऊर्जा ज्यादा खर्च नहीं होती. अमेरिका की केंट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सैमुअल मारकोरा ने एक प्रयोग किया था. इस प्रयोग में 90 लोगों को दो समूहों में बांटा गया. इनमें से एक समूह को दिमागी कसरत वाला वीडियो गेम खेलने का काम दिया गया वहीं दूसरे को एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म देखने कहा गया.
इसके बाद दोनों समूहों के लोगों को स्टेशनरी सायकल चलाने के लिए कहा गया. अपेक्षा के विपरीत वे लोग जिन्होंने दिमागी काम किया था वे तेजी से पैडल मारते नजर आए. फिल्म देखने वाले समूह के लोग धीरे-धीरे पैडल मारते रहे, लेकिन उन्होंने पहले समूह के लोगों की तुलना में ज्यादा देर तक यह काम किया.
इस प्रयोग के आधार पर मारकोरा ने दिमागी कार्य और हृदय संबंधी प्रतिक्रियाओं जैसे ब्लडप्रेशर, ऑक्सीजन की खपत और धड़कनों का भी अध्ययन किया. इस आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि शरीर को थकाने के लिए दिमागी गतिविधियां अपर्याप्त होती हैं. शरीर पूरी तरह से तभी थकता है जब दिमाग के साथ-साथ शारीरिक काम भी किया जाए.
लेकिन बहुत से वैज्ञानिक इससे इत्तेफाक नहीं रखते. मनोजैविकी (मनोविज्ञान की वह शाखा जिसमें दिमाग की जैविक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है) के अनुसार दिमाग हमारे वजन का केवल दो प्रतिशत हिस्सा होता है लेकिन यह हमारी ऊर्जा का 20 प्रतिशत हिस्सा खपत करता है. इस तरह यह नहीं कहा जा सकता कि दिमागी काम करने से शरीर थकता है लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि इससे ऊर्जा की खपत होती है और हम सुस्त महसूस करते हैं.
अमेरिकन नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज का एक अध्ययन बताता है कि दिमाग द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली ऊर्जा का दो तिहाई हिस्सा मनोजैविक क्रियाओं में खर्च होता है. शेष बची ऊर्जा की खपत दिमाग के रखरखाव में होती है. यानी जब हम काम कर रहे होते हैं दिमाग में ऊर्जा की एक बड़ी मात्रा उन सोडियम और पोटेशियम आयनों को उत्तेजित करने में खर्च हो रही होती है जो मस्तिष्क की कोशिका झिल्ली में पाए जाते हैं. यह एक सामान्य प्रक्रिया है जो दिमागी कोशिकाओं यानी न्यूरॉन्स को तैयार रखने के लिए जरूरी है.
हमारे सोचने के दौरान जब न्यूरॉन्स आवेशित होकर लगातार अपना काम कर रहे होते हैं तो इस प्रक्रिया में वे आस-पास की कोशिकाओं से तेजी से ग्लूकोज और ऑक्सीजन एब्जॉर्ब करते हैं. ग्लूकोज यानी शरीर को ऊर्जा देने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व. यही वजह है कि देर तक सोचने या दिमागी काम करने से इसकी खपत बढ़ जाती है और इसके बाद हम खुद को थका हुआ महसूस करते हैं.
अमेरिका की ह्यूमन फैक्टर एंड ऑर्गोनॉमिक्स सोसाइटी में छपा एक अन्य अध्ययन मनोजैविकी और प्रोफेसर मारकोरा दोनों के प्रयोगों को सही ठहराता नजर आता है. इसके अनुसार शारीरिक और मानसिक श्रम साथ-साथ करने व्यक्ति ज्यादा थकता है लेकिन. केवल मानसिक कार्य करते रहने से भी थकान होती है. इसके साथ यह भी देखा गया है कि लगातार दिमागी काम करते हुए कोई व्यक्ति एक समय के बाद अक्सर चीजें भूलने लगता है. यानि उसकी तात्कालिक स्मरणशक्ति प्रभावित हो जाती है. यह भी शरीर में ग्लूकोज की कमी के कारण होता है.
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