गांधी मानते थे कि भाषाएं देश को एकसूत्र में पिरोकर रख सकती हैं. क्या इसलिए धर्म के नाम पर जो हुआ उसे विभाजन और भाषा के आधार पर जो हुआ उसे पुनर्गठन कहा गया?
Anurag Shukla | 05 January 2022
घटनाओं के संकलन को इतिहास कहते हैं. कोई भी घटना यकायक नहीं होती. प्याज़ के छिलकों की मानिंद एक-दूसरे पर चढ़ी होती है. परत दर परत बस खोलते जाना है. नवंबर 1956 में राज्यों का गठन करने के लिए संविधान में हुआ सातवां संशोधन कुछ ऐसी ही परतों का इतिहास है.
आज़ादी के बाद 1953 में भाषा के आधार पर बनने वाला राज्य पहला आंध्र प्रदेश था. इससे भी पहले 1936 में उड़ीसा का गठन हुआ था जिसकी नींव 1895 में हुए संबलपुर विद्रोह से जुड़ी थी. दरअसल, ब्रिटिश सरकार ने उड़िया भाषी प्रांतों को मध्य प्रांत (आज का मध्य प्रदेश) के साथ जोड़कर उन पर हिंदी को अनिवार्य करने का प्रयास किया था तब लोगों ने इसके विरोध में आवाज़ उठाई थी. इससे भी पहले, और शायद सबसे पहली परत थी, सन 1869 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का ‘केसरी’ अखबार में छपा लेख जिसका आशय था कि देश का प्रशासनिक ढ़ांचा कुछ ऐतिहासिक घटनाक्रमों और ग़लतियों का नतीजा है. तिलक का विचार था कि इसके बजाय भाषा पर आधारित इकाइयां बनाई जाएं, तो देश में एकरूपता के साथ-साथ प्रांतों में रहने वाले लोगों और उनकी भाषा को बढ़ावा मिलेगा.
अब प्रश्न उठता है कि राज्यों के बनने के लिए क्या भाषा ही एक मात्र आधार था और है?
क्या राज्यों के गठन के और भी तरीके हो सकते थे
क्यों नहीं? भौगौलिक, धार्मिक और आर्थिक. लेकिन भौगोलिक आधार पर गठन किसी भी प्रकार अनुकूल नहीं होता और अगर किया भी जाता तो देश में कुल मिलाकर चार या पांच राज्य ही बनते. आर्थिक आधार पर गठन संभव ही नहीं था. रह गया धार्मिक तो लार्ड कर्जन ने 20वीं सदी की शुरुआत में जो बंगाल विभाजन किया था वह एक त्रासदी थी जिसे ब्रिटिश सरकार ने बाद में बंगाल का एकीकरण करके ठीक किया. पर अंग्रेजों ने जाते-जाते इसी आधार पर देश का बंटवारा भी कर दिया और इस त्रासदी को ठीक नहीं किया जा सका.
इसके उलट महात्मा गांधी मानते थे कि प्रांतीय भाषाएं देश को एक सूत्र में पिरोकर रख सकती हैं. शायद इसीलिए या सिर्फ इत्तेफ़ाक है कि धर्म के नाम पर जो हुआ उसे विभाजन कहा गया और भाषा के आधार पर जो हुआ उसे पुनर्गठन. आइये देखें, यह कैसे हुआ?
आज़ादी के बाद राज्यों को बनाने के लिए कांग्रेस ने ‘धर कमीशन’ की स्थापना की जिसने भाषा के बजाए भोगौलिक और आर्थिक आधार पर राज्यों के बनने का प्रस्ताव दिया था. जनता ने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया. जब पोट्टी श्रीरामुलु की भूख हड़ताल और मौत के बाद उपजे हालात की वजह से 1953 में आंध्र प्रदेश अस्तित्व में आया तब शायद जवाहरलाल नेहरू को महसूस हुआ कि वे भटक गए थे. उन्होंने उसी साल ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ की स्थापना की. जाने-माने न्यायविद सईद फ़ज़ल अली की अगुवाई में बने इस आयोग में इतिहासकार कावलम माधव पणिक्कर स्वतंत्रता सेनानी ह्रदय नाथ कुंजरू बतौर सदस्य मौजूद थे. 18 महीनों की मशक्कत के बाद आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी. इसमें भाषा को आधार मानकर राज्यों के गठन का प्रस्ताव दिया गया था. लेकिन इस पर आगे बढ़ने से पहले हमें देश का तत्कालीन नक्शा देखना होगा.
तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य
उस वक़्त तीन श्रेणी के राज्य थे. पहली श्रेणी में वे नौ राज्य थे जो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार में गवर्नर के अधीन थे और जो अब निर्वाचित गवर्नरों और विधान पालिका द्वारा शाषित थे. इनमें असम, बिहार, मध्य प्रदेश (मध्य प्रान्त और बिहार), मद्रास, उड़ीसा, पंजाब और उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बॉम्बे आते थे.
दूसरी श्रेणी उन राज्यों की थी जो पहले रियासतदारों के अधीन थे और जिन्हें अब राज प्रमुख और विधान पालिकाएं संभाल रही थीं. इनमें मैसूर, पटियाला, पूर्वी पंजाब, हैदराबाद, राजपूताना के इलाक़े, सौराष्ट्र और त्रावनकोर शामिल थे.
तीसरी पंक्ति के राज्य वे थे जो पहले चीफ कमिश्नर या किसी राजा द्वारा शासित थे और अब राष्ट्रपति की अनुशंसा पर बने चीफ कमिश्नरों द्वारा शासित थे. इनमें अजमेर, भोपाल, बिलासपुर, कुर्ग, दिल्ली, हिमाचल, त्रिपुरा, कच्छ, मणिपुर और विन्ध्य प्रदेश थे.
और अंत में अंडमान निकोबार के द्वीप थे जो लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा शासित थे.
आयोग का प्रस्ताव
आयोग ने इन तीनों श्रेणियों को ख़त्म करके नए राज्य बनाने का प्रस्ताव दिया था. तत्कालीन मद्रास प्रान्त से तेलगु, कन्नड़, तमिल और मलयालम भाषाई बहुलता वाले इलाकों को अलग-अलग करके आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मद्रास और केरल को बनाना प्रस्तावित किया गया था. उधर, उत्तर में यानी हिंदी भाषाई इलाकों में राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बनाने का प्रस्ताव दिया गया था.
ठीक उसी प्रकार, पूर्व के राज्यों का गठन हुआ. उड़ीसा और जम्मू-कश्मीर में कोई परिवर्तन नहीं किया गया जबकि दिल्ली, मणिपुर और अंडमान निकोबार को केंद्र शासित प्रदेश माना गया.
पंजाब और पूर्वी पटियाला के इलाक़ों को मिलकर ‘पेपसु’ बनाया गया. पंजाबी नेता मास्टर तारा सिंह की पंजाबी सूबा बनने की ख्वाहिश पूरी नहीं हुई. पंजाब पहले से ही विभाजन के तंदूर पर पक रहा था. उस तंदूर में आग कुछ और तेज़ हो गयी. इस नक़्शे से आप आयोग का प्रस्ताव समझ जायेंगे.
इस नक़्शे को आप आज के भारत के नक़्शे से तकरीबन मिलता जुलता ही पायेंगे. पर अगर ध्यान से देखें तो भारत के पश्चिम में नक्शा आज के हालात से बिलकुल अलग है. यहां महाराष्ट्र और गुजरात को मिलाकर एक राज्य प्रस्तावित किया गया था जो बॉम्बे कहलाता जबकि इसके पूर्व में नए राज्य का प्रस्ताव दिया गया जो विदर्भ राज्य कहलाता. यानी, विदर्भ में बॉम्बे शहर नहीं था! यही आयोग की सबसे बड़ी दिक्कत थी.
पश्चिम में बॉम्बे के गठन पर हुई दिक्क़त ने इस घटना को उस साल की सबसे अहम घटनाओं में से एक बना दिया. हुआ यह था कि बॉम्बे शहर को लेकर दो गुट बॉम्बे सिटिज़न्स कमेटी और संयुक्त महाराष्ट्र परिषद् आमने सामने हो गए थे. आइये देखें आयोग ने बॉम्बे को क्या दिया और विदर्भ में क्या मिलाया था.
आयोग का बॉम्बे और विदर्भ
तत्कालीन बॉम्बे राज्य में से बनासकांठा जिले के आबू रोड, कन्नड़भाषी धारवाड़, बेलगाम, बीजापुर आदि को निकालकर अलग करने की बात कही गई और हैदराबाद के मराठीभाषी ओस्मानाबाद, औरंगाबाद, परभनी, नांदेड के साथ-साथ कुछ और सौराष्ट्र इलाकों को इसमें जोड़ने का प्रस्ताव दिया गया. उधर, विदर्भ में मध्यप्रदेश के मराठी बहुल इलाक़ों जैसे नागपुर, यवतमाल, अमरावती, बुलढाणा, वर्धा, भंडारा आदि का समावेश होना था.
बॉम्बे सिटिज़न्स कमेटी और संयुक्त महाराष्ट्र परिषद की भिड़ंत
बॉम्बे सिटिज़न्स कमेटी व्यापारियों का गुट था जिसमें पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और जेआरडी टाटा जैसे दिग्गज थे. इनकी मांग थी कि बॉम्बे शहर को अलग रखकर एक पूर्ण राज्य के माफिक दर्ज़ा दिया जाए. इसके पीछे उनकी दलील थी कि बॉम्बे में देश भर के लोग रहते हैं. यह भी कि यह बहु-भाषाई शहर है जिसमें मराठी बोलने वाले महज़ 43 फीसदी ही हैं. और भी कई बातें कही गईं. जैसे कि बॉम्बे देश की आर्थिक राजधानी है और इसकी भौगोलिक स्थिति बाक़ी महाराष्ट्र से इसे अलग करती है. कमेटी की मांग थी कि इसे एक छोटे भारत जैसे मॉडल के रूप में पेश किया जाना चाहिए.
‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि कमेटी के ‘बॉम्बे बचाओ’ अभियान के पीछे दरअसल, गुजरातीभाषी लोगों का प्रभाव था जो यह सोचते थे कि अगर बॉम्बे महाराष्ट्र में मिला दिया गया तो मराठी लोगों का प्रदेश की राजनीति में वर्चस्व बढ़ जाएगा जिससे उनके हितों का नुकसान हो सकता है. उनकी योजना को मुंबई के सांसद एसके पाटिल का समर्थन था जिनकी अपनी महत्वकांक्षाएं थीं.
उधर, संयुक्त महाराष्ट्र परिषद् इसके ख़िलाफ़ थी. उसको बॉम्बे के बिना विदर्भ मंज़ूर नहीं था. पुणे के सांसद एनवी गाडगिल परिषद के साथ थे. उनका कहना था कि जब अन्य जगहों पर भाषा पर आधारित पुनर्गठन हुआ है तो बॉम्बे को क्यों अलग किया जा रहा है? उन्होंने संसद में एक जबर्दस्त भाषण भी दिया था जिसमें उन्होंने मराठियों का देश की आजादी और आर्थिक प्रगति में योगदान याद दिलाया था. भीमराव अम्बेडकर के अलावा जनसंघ के नेता भी कुछ ऐसा ही मत रखते थे. इत्तेफ़ाक की बात है कि नेहरू भाषा के आधार पर राज्य बनने के मत में नहीं थे और उनके साथ खड़े थे जनसंघ के श्यामाप्रसाद मुखर्जी. विडंबना देखिये ये दोनों ही इस मुद्दे पर अपनी-अपनी पार्टी में अलग-थलग पड़ गए थे.
कुछ समय तक रस्साकशी चली. बात बनती न देख गाडगिल ने महाराष्ट्रव्यापी अन्दोलन छिड़ जाने की चेतावनी दी. यह हुआ भी. जनवरी 1956 में बॉम्बे का अधिकतर हिस्सा आन्दोलन में कूद पड़ा. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. नेहरू और प्रांत के के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई के पुतले फूंके गए. ‘चाचा नेहरु मुम्बई द्या’ जैसे नारे गूंजने लगे.
आन्दोलन अब और ज़ोर पकड़ने लगा था. नेहरू पोट्टी श्रीरामुलु के हादसे से बामुश्किल उभरे थे. मराठीभाषी विद्वान् और उनके वित्त मंत्री सीडी देशमुख ने भी विदर्भ को बॉम्बे न देने के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया. हालात बिगड़ते देख, नेहरू और तत्कालीन गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त ने संयुक्त महाराष्ट्र परिषद की मांग मानते हुए विदर्भ और बॉम्बे को एक कर दिया. इस तरह बॉम्बे शहर बॉम्बे राज्य का हिस्सा बन गया.
बाद में भी राज्य बनते रहे. मसलन, मई 1960 में गुजरात अलग राज्य बना. जून 2014 में आंध्र प्रदेश को चीरकर बनने वाला तेलंगाना सबसे नया राज्य है. इत्तेफ़ाक यह भी है कि इसके मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के चन्द्रशेखर राव ने आंध्र प्रदेश के पोट्टी श्रीरामुलु की तरह भूख हड़ताल की थी.
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