अमरीश पुरी हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ खलनायक हैं, थे और तब तक रहेंगे जब तक खलनायकी जीवित रहेगी.
शुभम उपाध्याय | 22 जून 2020
ज्योति सभरवाल के साथ मिलकर अंग्रेजी में लिखी गई अमरीश पुरी की आत्मकथा का नाम ‘द ऐक्ट ऑफ लाइफ’ है. इसलिए कि अमरीश पुरी मानते थे कि ‘जीवन का सूक्ष्म अवलोकन’ ही एक अभिनेता को असाधारण बनाता है. जीवन ही सिखाता है और वहीं पर वास्तविक और फिल्मी दुनिया का संगम होता है. रंगमंच बनता है. हिंदी में अनुवादित उनकी आत्मकथा का शीर्षक इसीलिए ‘जीवन एक रंगमंच’ है.
यह किताब हिंदी सिनेमा के महानतम खलनायक के साथ-साथ एक साधारण इंसान से भी हमें मिलवाती है. फिल्मी सफर की शुरुआत से पहले जीवन में किए गए संघर्षों और उनके समानांतर चल रहीं उनकी थियेटर-यात्रा को भी तफ्सील से बयां करती है. 40 साल की उम्र में फिल्मों में आने वाले एक अभिनेता ने वहां आने से पहले क्या-कितना किया और अपने जीवन के मध्यकाल में फिल्म करियर शुरू करने के बावजूद 300 फिल्में करके (400 नहीं, जैसी कि प्रचलित मान्यता है) कई चरित्र किरदारों और खल पात्रों को सर्वश्रेष्ठ रूप में अभिनीत करने का हुनर कहां से पाया, इसका बारीकी से विवरण पेश करती है.
इस लेख का उद्देश्य इसीलिए हिंदी सिनेमा के महानतम खलनायक अमरीश पुरी के फिल्मी करियर या उनकी फिल्मों पर फिर से रोशनी डालना नहीं है. महानतम बनने से पहले जिए गए जीवन के किस्से बताना है, बचपन से लेकर फिल्मों में आने से पहले तक की यात्रा को कुछ पैराग्राफ में समेटना है और अगर हो सके तो इस तथ्य को उभारना है कि 22 जून 1932 को जन्मे अमरीश पुरी को न कभी किसी भूमिका के लिए कोई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला, न ही पद्म भूषण या विभूषण, और न ही उनको कभी किसी ने मरणोपरांत दादा साहब फाल्के जैसे पुरस्कार से अभी तक नवाजा. लेकिन बावजूद इस उदासीनता के, वे हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ खलनायक हैं, थे और तब तक रहेंगे जब तक खलनायकी जीवित रहेगी.
जब बचपन में काले अमरीश ने भैंस का दूध पीने से इंकार कर दिया!
फिल्मों में काम पाने की कोशिशें करने के दौरान कई निर्माताओं ने अमरीश पुरी से कहा था कि उनका चेहरा कठोर व भद्दा है. कई बार उन्हें याद दिलाया गया कि वे भारतीय मानकों पर खरे उतरने वाले ‘सुंदर’ मर्द नहीं हैं. बचपन में मां उनके काले रंग को लेकर परेशान रहा करतीं क्योंकि उनके घर में कोई इतना काला नहीं था, जितने अमरीश थे. काले रंग के इसी एहसास की वजह से वे बचपन में ढेर सारा दूध पीने लगे. सिर्फ इस उम्मीद से कि ऐसा करने से उनका रंग साफ हो जाएगा. एक बार जब किसी परिचित ने उनके दिल्ली वाले घर के आंगन में भैंस लाकर बांध दी तब उन्होंने भैंस का दूध पीने से साफ इनकार कर दिया. अपनी मां को पास बुलाया और कहा कि मेरा रंग पहले से ही काला है और काली भैंस का दूध पीकर तो मैं और भी काला हो जाऊंगा!
पिताजी नहीं चाहते थे उनका बेटा ‘अम्बरीश’ फिल्मों में काम करे
सत्तर के दशक में अमरीश पुरी के फिल्मों में आने से पहले ही उनके दोनों बड़े भाई फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बन चुके थे. चमन पुरी खासा नाम कमा रहे थे और मदन पुरी नामी खलनायक थे. लेकिन जब अमरीश स्कूल जाने की उम्र वाले छोटे थे, और उनके पिताजी उन्हें अम्बरीश लाल कहकर बुलाया करते थे, एक घटना ने उनके मन में हमेशा के लिए यह स्थापित कर दिया कि उनके बाऊजी उन्हें कभी एक्टर नहीं बनने देंगे.
चालीस के दशक की बात है जब बड़े भाई मदन के भेजे एक पत्र को पढ़कर शिमला में उनके पिताजी गुस्से से आग-बबूला हो रहे थे. मदन पुरी ने कोलकाता की अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी और वे फिल्मों में किस्मत आजमाने जा रहे थे. लेकिन अमरीश के पिताजी फिल्मों को ‘पाप का अड्डा’ मानते थे और चाहते थे कि उनके सभी बेटे उन्हीं की तरह सरकारी नौकरी करें. ‘फिल्में तो बदमाशों का काम है’, वे अक्सर कहा करते लेकिन उनकी इस नफरत की वजह रूढ़िवादी सोच नहीं, बल्कि कुंदन लाल सहगल थे.
हिंदी फिल्मों के पहले सुपरस्टार केएल सहगल उनके भतीजे थे जिन्हें अमरीश के बाऊजी ने सुपरस्टार बनते देखा था तो उसके बाद दयनीय स्थिति में पहुंचते भी देखा था. शराब की बोतल नहीं रम का ड्रम पीने वाले सहगल को 42 साल की अल्प आयु में एक शराबी के रूप में मरते भी देखा था और ऐसी नियति वे अपने किसी भी बेटे के लिए नहीं चाहते थे.
अमरीश पुरी ने इसीलिए बचपन में फैसला किया कि वे फिल्मों से दूर रहेंगे.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अमरीश पुरी का जुड़ना और फिर…?
14 साल की जिस बाल उम्र में अमरीश ने यह फैसला लिया कि वे बाऊजी को मदन भाई की तरह दुख नहीं पहुंचाएंगे, उस उम्र में वे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के भी सदस्य थे. आत्मकथा में अमरीश पुरी कहते हैं कि ऐसा करने से उनके आदर्श बहुत ऊंचे हो गए थे और उनकी विचारधारा पूरी तरह बदल गई थी. इतनी कि वे फिल्मों में कदम भी रखने के विरुद्ध थे.
आजादी से पहले वाले इस भारत में वे संघ की गतिविधियों में रोजाना भाग लेने लगे और अन्य युवाओं को सैनिकों की भांति प्रशिक्षण देने का जिम्मा उन्हें सौंपा गया. शाखाओं और शिविरों से जुड़े रहकर वे संघ द्वारा ‘राष्ट्र के लिए बलिदान देने’ जैसे मूल्यों से प्रभावित हुए और दैनिक सत्रों में जाते-जाते उनका व्यक्तित्व एक सैनिक समान अनुशासित हो गया. अपनी आत्मकथा में वे कहते हैं, ‘बहुत ईमानदारी से कहूंगा कि मैं उनकी हिंदुत्व की विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ था, जिसके अनुसार हम हिंदू हैं और हमें हिंदुस्तान की विदेशी शक्तियों से रक्षा करनी है. उन्हें निकाल बाहर करना है ताकि हम अपने देश पर शासन कर सकें. लेकिन, इसका धार्मिक कट्टरता से कोई सम्बंध नहीं था, यह मात्र देशभक्ति थी.’
30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति अमरीश की निष्ठा लड़खड़ाने लगी, और उन्होंने चुपचाप खुद को संघ की सक्रिय भागीदारी से अलग कर लिया. इस राष्ट्रीय त्रासदी की दिल दहला देने वाली घटना ने न सिर्फ उन्हें स्तब्ध किया, और तोड़ दिया, बल्कि उनकी सोच और दृष्टिकोण को इतना ज्यादा बदला कि जब वे कॉलेज पहुंचे तो न सिर्फ नाटकों में काम करने लगे बल्कि गाना भी शुरू कर दिया.
मुंबई का संघर्ष और थियेटर की शुरुआत
अमरीश पुरी दिल्ली और शिमला से शिक्षा-दीक्षा हासिल कर 1953 में मुंबई पहुंचे थे. इन मुगालतों के साथ कि जाते ही उन्हें फिल्मों में बड़े रोल मिलेंगे. बड़े भाई मदन पुरी के यहां उन्होंने डेरा जमाया और उन्हीं ने उनका पहला पोर्टफोलियो बनवाया. लेकिन स्क्रीन टेस्ट में वे रिजेक्ट होते गए और उनके रंग-रूप के कारण किसी ने उन्हें अच्छी भूमिकाएं ऑफर नहीं की. जो की गईं वो अमरीश ने नहीं की. भाई पर बोझ बनने की शर्मिंदगी दूर करने के लिए उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियां करना शुरू कर दिया और कमीशन एजेंट बनकर कभी माचिस का नया ब्रांड बेचा तो किसी सरकारी दफ्तर में लिपिक की साधारण नौकरी महीने भर करने के बाद छोड़ दी.
जिस दफ्तर में आखिरकार लंबे समय तक नौकरी की, वहीं उन्हें उनकी जीवनसंगिनी मिली. कर्मचारी राज्य बीमा निगम में वे उच्च श्रेणी लिपिक नियुक्त हुए और उर्मिला निम्न श्रेणी लिपिक. 27 साल की उम्र में दोनों विवाह बंधन में बंध गए और जल्द ही अमरीश पुरी का जीवन चकरघिन्नी बन गया. नौकरी और गृहस्थी ने अभिनय के बारे में कुछ करने का उन्हें मौका नहीं दिया और फिल्मों में काम करने का सपना सरकारी फाइलों और घरेलू मसले-मसाइलों से घिरकर लंबी नींद सो गया.
जब तीन साल ऐसे ही निकल गए तब उनसे इत्तेफाकन टकराए एक सहकर्मी ने उन्हें इब्राहिम अल्काजी से मिलवाया. जो उस वक्त भी थियेटर का पर्याय माने जाते थे और उनके द्वारा संवारे गए कई अभिनेताओं ने बाद में हिंदी सिनेमा को संवारा. इब्राहिम अल्काजी ने ऑफिस में अपनी तरफ चलकर आ रहे अमरीश को गौर से देखा और इस सवाल का जवाब हां में मिलने के बाद कि क्या वे थियेटर करना चाहते हैं, एक अंग्रेजी नाटक की स्क्रिप्ट अमरीश को देकर कहा कि इस नाटक में नायक की भूमिका वे ही करेंगे. जिस चेहरे और डील-डौल को फिल्मों से जुड़े अनेक स्थापित लोगों ने नकार दिया था, उसे थियेटर के गुरु ने पहली ही नजर में पहचान लिया.
इस तरह फिल्मों में कदम रखने के तकरीबन दस साल पहले, 1961 में अमरीश पुरी ने मुंबई में थियेटर करने की शुरुआत की. इब्राहिम अल्काजी के बाद सत्यदेव दुबे से सीखना शुरू किया जिन्होंने मंच सज्जा से लेकर थियेटर का अनुशासन, आवाज का उतार-चढ़ाव, अभिनय की बारीकियां, अंग संचालन, और नाटक से जुड़ा हर कार्य सही और योजनाबद्ध तरीके से करना उन्हें सिखाया. अमरीश पुरी ने सुबह से शाम तक लिपिक की सरकारी नौकरी करने के बाद सीधे थियेटर जाना शुरू कर दिया और 30 साल की उम्र में थियेटर करने की शुरुआत करने के बावजूद रंगमंच की हर विधा को बेहद ईमानदारी से सीखा.
जीवन का पहला नाटक और पलकें न झपका पाने की मजबूरी
पहला नाटक अमरीश पुरी ने अपने गुरु सत्यदेव दुबे के निर्देशन में खेला था. नाटक था धर्मवीर भारती का लिखा ‘अंधा युग’ जिसमें अमरीश, धृतराष्ट्र बने थे और उनके हिस्से लंबे मोनोलॉग आए थे. लेकिन समस्या थी कि अंधे बने रहने के दौरान उन्हें लगातार आंखें खुली रखकर पलकें नहीं झपकानी थीं. ऊपर से मुक्ताकाश मंच होने की वजह से लगातार हवाएं चल रही थीं और मच्छरों का प्रकोप था. फिर भी अमरीश पुरी ने बिना संवादों को भूले अपनी गरजती आवाज में नाटक खेला और अपने पहले ही दृश्य में – जो सत्रह मिनट लंबा था – बिना पलकें झपकाए समां बांध देने वाला अभिनय किया.
कुछ साल बाद ‘बंद दरवाजा’ नामक एक और नाटक खेला गया जिसमें अमरीश, मृत कुली बने और इस बार भी पूरे समय, जब तक वे मंच पर रहे, उन्होंने आंखें खुली रखीं. अपलक नामक क्रिया का यह अभ्यास उन्होंने कैसे किया, हमारी बदकिस्मती है कि इसका वर्णन अमरीश पुरी ने अपनी आत्मकथा में नहीं किया.
अभिनय के प्रति अमरीश पुरी के इस कठोर परिश्रम पर उनके गुरु व मुंबई में हिंदी रंगमंच को नयी ऊंचाईयों पर लेकर जाने वाले मशहूर रंगकर्मी सत्यदेव दुबे ने आत्मकथा में कहा है, ‘अपनी एक वर्कशॉप में मैंने कहा कि समर्पण की भावना के कारण महिलाओं में अभिनय सीखने की क्षमता अपेक्षाकृत अधिक होती है. और अमरीश थियेटर में मुझे अब तक मिली सर्वश्रेष्ठ महिला है.’
बाद के वर्षों में अमरीश पुरी ने न सिर्फ रंगमंच में अभिनय का शिखर छुआ बल्कि फिल्मों में भी अनेक यादगार चरित्र व खल भूमिकाएं निभाईं. मोगैम्बो ने उन्हें गब्बर सिंह के समकक्ष का महान खलनायक बनाया और चूंकि अमजद खान की बाकी खल भूमिकाएं अमरीश पुरी की खलनायकी के आगे टिक नहीं पाती हैं, इसलिए उन्हें हिंदी फिल्मों का महानतम खलनायक होने का रुतबा भी हासिल हुआ.
लेकिन, जब भी उनसे पूछा गया कि आपकी खुद अभिनीत की गईं पसंदीदा भूमिकाएं कौन-सी हैं, तो उन्हें हमेशा रंगमंच पर निभाई गईं अपनी भूमिकाओं के ही नाम याद आए!
शायद इसीलिए, जिस थियेटर में सालों साल काम करने के बावजूद अमरीश पुरी को उससे ‘एक पाई’ की कमाई कभी नहीं हुई, उस भारतीय रंगमंच के लिए उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है –‘मैंने जीवन में जो कुछ भी हासिल किया है उसका श्रेय ‘थियेटर और केवल थियेटर’ को जाता है.’
( ‘द एक्ट ऑफ लाइफ : अमरीश पुरी’ का प्रकाशन स्टेलर पब्लिशर्स ने 2006 में किया था और ‘जीवन एक रंगमंच’ शीर्षक से इसका हिंदी अनुवाद 2010 में वाणी प्रकाशन से आया था.)
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