जो बिडेन

समाज | धर्म

क्या दुनिया का कोई देश वैसा धर्मनिरपेक्ष है जैसा होने की उम्मीद कई लोग भारत से करते हैं – 2/2

ब्रिटेन इस बात का उदाहरण है कि सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए धर्मनिरपेक्षता अनिवार्य नहीं और अमेरिका इस बात का कि पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष हो पाना संभव नहीं

राम यादव | 01 नवंबर 2021 | फोटो : जो बिडेन / फेसबुक

इस लेख को स्वतंत्र रूप से भी पढ़ा जा सकता है लेकिन इस विषय पर और ज्यादा जानकारी चाहें तो पहले इसकी पिछली कड़ी को यहां पर पढ़ सकते हैं.

भारत में सबने यह भ्रम भी पाल रखा है कि आस्था निरपेक्ष राज्य होना इतना आधुनिक और आसान है कि भारत को छोड़कर सभी लोकतांत्रिक देश सच्चे लोकतंत्र ही नहीं, परम धर्म या पंथनिरपेक्ष राज्य भी बन गये हैं. कुछ उदाहरणों के साथ देखने का प्रयास करते हैं कि बहुतेरे देशों के इस सेक्युलर ढोल की पोल क्या है.

अमेरिकाःअमेरिका ईसाइयों के वर्चस्व वाला देश है, तब भी संविधान राज्य (राजनीति) को रिलिजन से दूर रखने की मांग करता है. संविधान के अनुच्छेद पांच के प्रथम संशोधन में कहा गया है कि कांग्रेस (संसद के दोनों सदनों) की ओर से ऐसा कोई क़ानून नहीं बनेगा, जो किसी रिलिजन को मान्यता देता हो या उसके पालन पर रोक लगाता हो. यहां के स्कूलों में न तो कोई धर्मशिक्षा दी जाती है और न कहीं किसी प्रकार की वित्तीय सहायता. लेकिन अमेरिका में क्रिसमस की सरकारी छुट्टी होती है. पर वह इस मामले में सेक्युलर है कि किसी अन्य धर्म से जुड़े किसी पर्व पर छुट्टी नहीं देता है. लेकिन 1955 से अमेरिकी डॉलर पर ‘’इन गॉड वी ट्रस्ट’’ (हम ईश्वर के प्रति आस्थावान हैं) भी लिखा रहता है.

भारत में मामला अमेरिका से थोड़ा उल्टा है. यहां मक्का जाने वाले हाजियों को लंबे समय तक हज-अनुदान मिलता रहा है और कुछ राज्यों की सरकारें पंडितों-इमामों को वेतन भी देती हैं. लेकिन यहां सभी धर्म के त्योहारों पर राष्ट्रीय अवकाश होता है और रुपये पर भगवान का नाम नहीं बल्कि महात्मा गांधी की तस्वीर छपी होती है.

ब्रिटेनः ब्रिटेन के राजा या रानी के संरक्षण में ‘चर्च ऑफ़ इंग्लैंड’ ब्रिटेन के इंग्लैंड प्रदेश का मान्यताप्राप्त पंथ है. स्कॉटलैंड में वहां के स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च को राष्ट्रीय चर्च होने की संवैधानिक मान्यता है. हमेशा दो आर्कबिशप और 24 बिशप ब्रिटिश संसद के ऊपरी सदन ‘हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स’ के अनिवार्य सदस्य होते हैं. राजा या रानी का राज्याभिषेक ईश्वर के नाम पर शपथ दिलाते हुए, पूरे धार्मिक अनुष्ठान के साथ, कैन्टरबरी चर्च का आर्कबिशप करता है. यानी, ब्रिटेन धर्म या पंथनिरपेक्ष नहीं है. तब भी यहां विधर्मियों को अपनी आस्था के पालन की पूरी स्वतंत्रता है. इस्लामी कट्टरपंथ एवं आतंकवाद से हालांकि ब्रिटेन भी परेशान है, तब भी वह इस बात का अच्छा उदाहरण है कि सांप्रदायिक स्वतंत्रता एवं सौहार्द्र के लिए धर्मनिरपेक्षता अनिवार्य नहीं है. धर्मसापेक्ष हो कर भी सर्वधर्मसमभावी रहा जा सकता है.

फ्रांसःफ्रांस में कैथलिक चर्च और राज्यसत्ता के बीच संबंधविच्छेद के 18वी एवं 19वीं सदी में हो चुके प्रयासों के बाद 1905 से दोनों पूर्णरूपेण पृथक सत्ताएं हैं. उस समय के ‘लईसिते’ (सेक्युलैरिटी) क़ानून के अनुसार, ‘’फ्रांस गणराज्य किसी आस्था को न तो मान्यता देता है, न पैसा देता है और न कोई अनुदान देता है.’’ यहां पर चर्चों की सभी इमारतों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है. सभी कथीड्रल (धर्मपीठ चर्च) केंद्र सरकार के अधीन हैं. अन्य छोटे-बड़े गिरजे स्थानीय निकायों को सौंप दिये गये हैं. धर्माधिकारियों को जब कभी किसी काम से इन गिरजाघरों की ज़रूरत पड़ती है, तब उन्हें क्रेंद्र सरकार या स्थानीय निकायों से अनुमति लेनी पड़ती है. यह अनुमति हमेशा सरलता से नहीं मिलती. इसी प्रकार फ्रांस में मस्जिदों के बाहर सड़कों पर या खुले में नमाज़ पढ़ना और बुर्का पहनकर सार्वजनिक स्थानों पर जाना क़ानून मना है.

जर्मनीः जर्मनी के संविधान की प्रस्तावना ‘’ईश्वर एवं मनुष्य के प्रति अपने उत्तरदायित्व के बोध…’’ से, यानी अलौकिक को साक्षी बनाकर शुरू होती है. जर्मन संविधान एकेश्वरवादी है, जिसमें ईसाई तथा अन्य संप्रदायों और राज्यसत्ता के बीच साझेदारी पर बल दिया गया है. यहां एक तरफ ईसाई संप्रदायों के साथ सरकारी समझौते हैं, दूसरी तरफ अन्य धार्मिक समुदायों के प्रति तटस्थतापूर्ण साझेदारी निभाने का आश्वासन भी है.

जर्मन राज्यों के सरकारी आयकर विभाग जर्मनी में रहने वाले उन सभी लोगों की हर प्रकार की आय से, सरकारी आयकर के अलावा, 8-9 प्रतिशत चर्च-टैक्स काटकर उस कैथलिक या प्रोटेस्टैंट चर्च के खाते में डाल देते हैं, जिसका वह करदाता सदस्य होता है. कुछ राज्य सरकारें भूस्वामियों से कुछ अतिरिक्त भूमिकर वसूल कर उसे भूस्वामी की सदस्यता वाले चर्च को सौंप देती हैं.

2017 में इन करों से कैथलिक चर्च को 6 अरब 43 करोड़ 70 लाख यूरो और प्रोटेस्टैंट चर्च को 5 अरब 67 करोड़ 10लाख यूरो की आय हुई. इन दोनों जर्मन संप्रदायों के पास अरबों-खरबों यूरो के बराबर चल-अचल संपत्तियां भी हैं. यही नहीं, ‘’जर्मन राष्ट्र वाले पवित्र रोमन चर्च’’ के साथ 1803 के एक समझौते के अनुसार, जर्मनी की राज्य सरकारों को कैथलिक और प्रोटेस्टैंट चर्चों के बिशपों एवं पादरियों के वेतनों तथा कुछ इमारतों के रख-रखाव के लिए हर वर्ष 50 करोड़ यूरो अलग से देना पड़ता है. तब भी जर्मनी धर्म या पंथनिरपेक्ष माना जाता है! जर्मन स्कूलों में बच्चों को कैथलिक या प्रोटेस्टैंट संप्रदाय की धर्मशिक्षा दी जाती है. इसकी परीक्षा होती है और अंक भी मिलते हैं. सरकार ईसाई संप्रदायों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों का 90 प्रतिशत तक ख़र्च भी उठाती है. ऐसे स्कूलों के शिक्षक हड़ताल नहीं कर सकते.

नीदरलैंडःजर्मनीका पड़ोसी नीदरलैंड भी ईसाई देश है, पर ईसाई चर्चों को वहां सार्वजनिक संस्था का कानूनी दर्जा नहीं मिला है. वहां वे किसी भी साधारण संगठन के समान ही हैं. आयकर विभाग उनके लिए चर्च-कर वसूल नहीं करता. उन्हें अपने भक्तों से मिली फ़ीस, चंदे या दान से ही काम चलाना पड़ता है. वहां अब केवल 41 प्रतिशत लोग ही स्वयं को ईसाई बताते हैं. इस्लामपंथियों और मस्जिदों- मदरसों के बढ़ने से अब यहां पंथ से जुड़े विवाद देखने को मिलने लगे है. मुसलमानों से यहां कहा जाता है कि उन्हें नीदरलैंड के उन्मुक्त समाज में सहिष्णु बनना पड़ेगा, आलोचना या टीका-टिप्णी को ईशनिंदा कहना बंद करना होगा. महिलाओं के बुर्का पहनाने, स्कूलों में लड़कों-लड़कियों के लिए खेल के अलग-अलग घंटों की मांग करने, इमामों द्वारा महिलाओं से हाथ नहीं मिलाने और अपराधों के तेज़ी से बढ़ने को लेकर नीदरलैंड के मीडिया में तीखी बहसें चलती हैं.

स्विट्ज़रलैंडःचार भाषाओं और ‘कंटोन’ कहलाने वाले 26 अलग-अलग प्रदेशों का संघराज्य स्विट्ज़रलैंड संघीय स्तर पर तो सेक्युलर है, पर उसका संविधान भी जर्मनी की तरह ‘’सर्वशक्तिमान ईश्वर के नाम’’से शुरू होता है. देश का राष्ट्रगान भी ईसाइयत से प्रेरित है. 26 में से 24 प्रदेश अपने स्तर पर कैथलिक चर्च या स्विस सुधारवादी चर्च का समर्थन करते हैं. कई प्रदेश ऐसे भी हैं, जो जर्मन राज्यों की तरह, लोगों के आयकर के साथ ही चर्च टैक्स अलग से काटकर उसे सम्बद्ध चर्च के बैंक खाते में डाल देते हैं.

इटलीःयह कैसे हो सकता है कि विश्व भर के रोमन कैथलिकों की राजधानी वैटिकन जिस रोम में है, वहां का राज्यतंत्र धर्म-कर्म से बिल्कुल दूर रहे. इटली की सरकार भी अपने धर्मभीरु नागरिकों से चर्च कर वसूल करती है. लेकिन यह उनके नियमित आयकर से ही ले लिया जाता है, जर्मनी की तरह अलग से नहीं लिया जाता. लोगों को अपने आयकर फॉर्म पर एक खाने में क्रास लगा कर बताना होता है कि उनके आयकर से लिया जाने वाला आठ प्रतिशत चर्च-कर कैथलिक चर्च को मिलना चाहिये या प्रोटेस्टैंट को. करदाता यह पैसा किसी समाजकल्याण या सांस्कृतिक संस्था को देने के लिए भी कह सकता है. तब भी, लोग सबसे अधिक पैसा कैथलिक चर्च को ही देते हैं. उसे हर साल कम से कम एक अरब यूरो तो मिल ही जाते हैं.

नॉर्वेस्वीडनफ़िनलैंडःनॉर्वे के संविधान में राज्यसत्ता और धर्मसत्ता के बीच अंतर करने का प्रावधान है, किंतु संविधान यह भी कहता है कि नॉर्वे के राजा को चर्च का सदस्य होना चाहिये. दूसरे शब्दों में, राजा राष्ट्रीय धर्म का अप्रत्यक्ष सरंक्षक है. स्वीडनमें राज्यसत्ता और धर्मसत्ता के बीच की विभाजनरेखा सन 2000 में खींची गयी. तब से वह उत्तरी यूरोप का अकेला ऐसा नॉर्डिक देश बन गया है, जिसका कोई राष्ट्रीय चर्च (पंथ) नहीं है. वहां के दस में से तीन नागरिक अब भी अपने चर्च के प्रति आस्थावान हैं. दस में से केवल एक व्यक्ति धर्माधिकारियों की बातों पर विश्वास करता है. अधिकतर लोग ईसाई होते हुए भी चर्च में केवल तब जाते हैं, जब वहां कोई आकर्षक कार्यक्रम होता है. 1951 तक वहां भी चर्च-टैक्स देना अनिवार्य था, अब ऐसा नहीं है. फ़िनलैंडअपने आप को सेक्युलर बताता ज़रूर है, पर वहां के इवैंजेलिकल लूथरन चर्च और ऑर्थोडॉक्स चर्च को अपने सदस्यों से चर्च-टैक्स वसूल करने का अधिकार है. यह टैक्स सरकारी आयकर के साथ ही सदस्यों की आय में से अलग से काट लिया जाता है. दोनों प्रकार के चर्चों को कंपनियों और व्यापारिक संस्थानों से भी पैसा मिलता है.

रूसः1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जो रूसी संघराज्य बचा है, उसमें राज्य और आस्था के बीच विभाजन काफ़ी दूर तक पहुंच गया है. तब भी रूस के जनजीवन पर वहां के ऑर्थोडॉक्स चर्च की गहरी छाप के कारण, किसी पश्चिमी यूरोपीय देश की तुलना में, रूसी राज्यसत्ता और रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च के बीच निकटता अब भी कहीं अधिक है. यही बात रूस के पड़ोसी उन बाल्टिक सागरीय छोटे-छोटे देशों में भी देखने में आती है, जो तीस साल पहले तक सोवियत संघ के संघटक गणराज्य हुआ करते थे.

पश्चिमी देशों के बाद यह देखना भी दिलचस्प होगा कि भारत के आस-पास के कुछ प्रमुख एशियाई देशों में धर्म या पंथनिरपेक्षता कैसी है.

नेपालःदुनिया का एकमात्र हिंदू राजतंत्र रहा नेपाल 2008 से पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र है. उसका संविधान सबको आस्था और संस्कृति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, पर साथ ही अपने समाज में हिंदू धर्म के विशिष्ट स्थान को भी रेखांकित करता है. इसे स्पष्ट करते हुए संविधान में लिखा गया है, ‘’नेपाल में सेक्युलरिज्म का अर्थ है अपने प्राचीन धर्म की, जिसे सनातन धर्म कहा जाता है, अर्थात हिंदुत्व की रक्षा करना.’’ संविधान में गाय को राट्रीय पशु घोषित किया गया है, क्योंकि वह सनातन धर्मियों के लिए बहुत ही पवित्र है. गोहत्या को अवैध बताया गया है और धर्मपरिवर्तन पर प्रतिबंध लगाया गया है.

श्रीलंकाःश्री लंका का संविधान किसी राज्य या राष्ट्रीय धर्म का नाम तो नहीं लेता, पर उसके अध्याय दो के नौवें अनुच्छेद में लिखा है, ‘’श्री लंका गणराज्य बौद्ध धर्म को सर्वोच्च स्थान देगा, अतः यह राज्य का कर्तव्य होगा कि वह बौद्ध शासन को रक्षित एवं पोषित करेगा.’’ इस बौद्ध धर्म की वरीयता के कारण विशेषज्ञ श्री लंका को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष नहीं मानते.

बांग्लादेशःयही दुविधा बांग्लादेश के संविधान के साथ भी है. 1972 के उसके मूल संविधान में सेक्युलर होने की जो बातें कही गयी थीं, बाद के शासकों ने संशोधनों द्वारा उनमें काफ़ी हेरफेर किये. 2010 में वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने पांचवें संशोधन को अवैध घोषित करते हुए संविधान के मूल चरित्र को पुनर्स्थापित ज़रूर किया, लेकिन इस्लाम को राज्यधर्म बनाये रखा. संविधान का वर्तमान स्वरूप आस्था के प्रति निरपेक्षता को राज्यसत्ता के चार मूलभूत सिद्धातों में से एक बताते हुए इस्लाम को बांग्लादेश का राज्यधर्म घोषित करता है.

इंडोनेशियाः जनसंख्या की दृष्टि से इन्डोनेशिया सबसे बड़ा इस्लामी देश है. वहां लोकतंत्र है, छह अन्य धर्मों को भी मान्यता मिली हुई है, इसलिए उसका संविधान उसे एक सेक्युलर राज्य बताता है. पर संवैधानिक विशेषज्ञ इंडोनेशिया को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष देश नहीं मानते. इसके वे दो मुख्य कारण बताते हैंः पहला यह कि संविधान एक और केवल एक ईश्वर के प्रति आस्था रखने पर आधारित है. दूसरा, धर्मपालन का आश्वासन तो है, पर केवल छह धर्मों या पंथों को ही मान्यता प्राप्त है. ये हैं इस्लाम, हिंदू, बौद्ध, कन्फूशियस, रोमन कैथलिक ईसाई और प्रोटेस्टैंट ईसाई.

इन धर्मों, पंथों या संप्रदायों से भिन्न लोगों को अपने आप को इन्हीं में से किसी के साथ जोड़ना पड़ता है. उदाहरण के लिए, इन्डोनेशिया के हर नागरिक को अपने साथ जो सरकारी पहचानपत्र हमेशा रखना पड़ता है, उसमें उसका धर्म भी लिखा होता है. यदि कोई जैन, सिख, यहूदी या परसी हुआ, तो उसे अपने आप को उपरोक्त छह विकल्पों में से ही किसी एक को चुनना पड़ता है. ऐसे में जैन और सिख अपने आपको संभवतः हिंदू बतातायेंगे, पारसी और यहूदी संभवतः दोनों ईसाई संप्रदायों में से किसी एक को चुनेंगे.

इसका एक परिणाम यह हुआ है कि इंडोनेशिया में रहने वाले पारसियों की अपनी कोई पहचान ही नहीं बची है. वे लुप्त हो गये हैं. शिकायत यह भी है कि इंडोनेशिया में धार्मिक अदालतें हैं. धर्मों के लिए एक अलग मंत्रालय है, जो अन्य धर्मों-संप्रदायों पर भी नज़र रखता है. वहां के राजनेताओं की नीति राज्य को इस्लाम से दूर रखना नहीं, बल्कि इस्लाम को सरकारी तंत्र में ऐसी जगहें देने की होती है, जहां से वह अन्य धर्मों के अनुयायियों की नकेल कस सके.

मलेशियाःमलेशिया के संविधान का अनुच्छेद तीन इस्लाम को वहां का राज्यधर्म बताता है.

अन्य धर्मो, संप्रदायों के लोगों के बारे में कहा गया है कि वे भी इस संघराज्य के किसी भी हिस्से में शांति और सहमेल के साथ अपने धर्म का पालन कर सकते हैं.

जापानःजापान एक लोकतांत्रिक राजतंत्र है. संविधान धर्मपालन की स्वतंत्रता और गारंटी देता है. जापान के अपने दो मुख्य धर्म हैं शिंतो और बौद्ध धर्म. शिंतो धर्म उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी जापानी संस्कृति है. बौद्ध धर्म छठीं सदी में भारत से वहां पहुंचा था. दोनों के बीच कोई टकराव या तनाव नहीं नहीं पाया जाता. बल्कि दोनों एक-दूसरे के अनुपूरक बन बन गये हैं.

मतसर्वेक्षणों के अनुसार क़रीब 35 प्रतिशत जापानी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं. तीन से चार प्रतिशत शिंतो को मानते हैं. दो-ढाई प्रतिशत ईसाई हैं. भारत, नेपाल और इंडोनेशिया के बाली द्वीप से गये कई हिंदू भी जापान में बस गये हैं. सबसे रोचक बात यह है कि जापानी जिन सात देवी-देवताओं को सौभाग्य के देवता मानते हैं, उनमें से चार हिंदू देवी-देवता हैंः सरस्वती, कुबेर, शिव और लक्ष्मी. जापानियों ने इनके लिए जापानी नाम रख लिये हैं. शिंगोन नाम के बौद्ध संप्रदाय को मानने वाले, बौद्ध धर्म के माध्यम से वहां पहुंची हिंदू तंत्रविद्या के अनुयायी बताये जाते हैं.

विभिन्न देशों के संविधानों के अध्ययन और मुख्य रूप से पश्चिमी देशों में धर्म, पंथ या संप्रदाय के प्रति लोगों की घटती रुचि से यही संकेत मिलता है कि इस्लामी देशों को छोड़कर, हर जगह लोग स्वयं ही धार्मिक आस्थाओं और संस्थाओं से मुंह मोड़ रहे हैं. संविधान और सरकारें धर्मनिरपेक्ष बनें या न बने, लोग खुद ही निरपेक्ष होते जा रहे हैं. वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति के साथ इस निरपेक्षता का और अधिक विस्तार होगा.

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