लेखन

Society | कभी-कभार

हिंदी लेखकों की आवाज़ समाज में अनसुनी रह जाती है, यह चतुर कायरता का कुतर्क है

सुने जाने की चिंता के बगैर, कठिन समय में ईमानदार और साहसी साहित्य लिखते रहना लेखक का नैतिक और मानवीय कर्तव्य है

अशोक वाजपेयी | 10 October 2021 | फोटो: पिक्साबे

करना, न करना

बहुत से लोग यह जानना चाहते हैं कि हम जिस विषम परिस्थिति में इन दिनों फंस गये हैं, उसमें लेखकों को क्या करना और क्या नहीं करना चाहिये. लेखकों की अलग-अलग दृष्टियां, अलग-अलग शैलियां, अलग-अलग स्वभाव और समझ होती है: उनकी संवेदना भी अलग-अलग होती है. उनमें से हरेक को यह हक़ और ज़िम्मेदारी है कि वह तय करे कि उसे क्या करना है. कोई और यह तय नहीं कर सकता कि वे क्या करें हालांकि सत्ताएं, संस्थाएं, संगठन आदि तय करने के लिए तत्पर रहते हैं. उनका तरह-तरह का दबाव भी बनता है.

फिर भी, लेखक कभी पूरी तरह से अकेला नहीं होता: उसकी दृष्टि, ज़िम्मेदारी और स्वभाव पूरी तरह से स्वरचित या स्व-अर्जित नहीं होते. भाषा, परम्परा, सर्जनात्मक और वैचारिक परिवेश इस सबमें भूमिका निभाते हैं. आज का हर लेखक इस उत्तराधिकार की पहचान और उसके दबाव से बच नहीं सकता. उसका कर्तव्यबोध इस उत्तराधिकार के प्रति सजगता और अपनी दृष्टि की नैतिक और व्यापक मानवीय प्रासंगिकता से निर्धारित होता है.

इस तरह से सोचें तो कुछ बातें स्पष्ट हैं. हिंदी भाषा खुली विकसित भाषा है जो अपनी गति-मति से बदलती और ग्रहणशील रही है. इस भाषा को आज राजनीति, धर्म और मीडिया और अकादेमिक जगत का एक बड़ा हिस्सा, सार्वजनिक संवाद में, झगड़ालू, घृणा-फैलाऊ, असहिष्णुता और संकीर्णता की भाषा बनाने पर तुला है. किसी भी लेखक को भाषा के इस भयानक प्रदूषण और अवमूल्यन का प्रतिरोध करना चाहिये और भाषा की स्वाभाविक मानवीयता-संवादप्रियता का पुनर्वास करने की चेष्टा करना चाहिये. यह सार्वजनिक रूप से दिखायी देना चाहिये कि लेखक हिंदी के इस अवमूल्यन के विरुद्ध हैं. ऐसा प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये कि लेखक इस भाषायी अनाचार को लेकर चुप हैं और इसकी अनदेखी कर रहे हैं. उन्हें ऐसे सभी मंचों आदि से अपने को दूर रखना चाहिये जहां भाषा का ऐसा अवमूल्यन हो रहा है.

हिंदी साहित्य की परंपरा साधारण की प्रतिष्ठा और महिमा, प्रश्नवाचकता, समरसता के स्वप्न, अतिचार और अन्याय के प्रतिरोध की रही है. आज इस परम्परा की लगातार सुनियोजित, लगभग दैनिक दुर्व्याख्या हो रही है. अपनी उजली परम्परा के वंशधर लेखकों को परम्परा की इस संकीर्ण साम्प्रदायिकता समझ का विरोध करना चाहिये और अपने लेखक और विचार में यह सावधानी बरतना चाहिये कि उसका दुरुपयोग संकीर्णता फैलानेवाली शक्तियां न कर सकें. परम्परा में जो अस्वस्थ या अस्वीकार्य है जैसे जातिपरक दृष्टि और स्त्री-विरोध उनका मुखरता से अस्वीकार भी ज़ाहिर होना चाहिये.

सर्जनात्मक और वैचारिक परिवेश इन दिनों बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं कहा जा सकता है. संकीर्णता, घृणा, दूसरों की समकक्षता मानने से इनकार, एकनिष्ठता का आग्रह, प्रश्नाकुलता के बजाय वफ़ादारी पर इसरार आदि ऐसे तत्व हैं जो परिवेश को विषाक्त कर रहे हैं. लेखक को ऐसा कुछ भी नहीं करना, कहना या लिखना चाहिये जो इस विषाक्त परिवेश की ताईद करता हो या इसकी अनदेखी करता हो. उसका धर्म है कि वह दृष्टि-शैली-स्वभाव की बहुलता का आग्रह करे. यह तर्क कि हिंदी में लेखकों की आवाज़ समाज में अनसुनी जाती है, चतुर कायरता का कुतर्क है. लेखकों को इसकी चिंता किये बगै़र कि कौन उन्हें सुन रहा है, अपनी आवाज़ उठाना चाहिये. ऐसे कठिन समय में ईमानदार और साहसी साहित्य लिखते रहना नैतिक और मानवीय कर्तव्य है. यह स्वीकार करना ज़रूरी है कि एक लेखक के रूप में यह सोचता हूं और उम्मीद करता हूं कि अधिकांश लेखक इससे सहमत होंगे पर कई असहमत भी हो सकते हैं.

उदार अवनति

इधर कुछ बरसों से यह लगातार कहा और दर्ज़ किया जा रहा है कि संसार भर में उदार मूल्य सार्वजनिक जीवन, व्यवहार और राजनीति आदि में अपदस्थ और अवमूल्यित हो रहे हैं. वैचारिक विश्लेषकों का ध्यान इस पर ही गया है कि अंततः उदार मूल्य मनुष्य की सभी आकांक्षाओं को सम्बोधित करने में नाकाफ़ी साबित हुए हैं. भारत में तो उदारता, सर्वधर्म समभाव, सामंजस्य, खुलापन और ग्रहणशीलता हर रोज़ लांछित होते रहते हैं. भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी राजनैतिक-सामाजिक आचरण में, मीडिया अपने नीच प्रक्षेपण में, धर्म अपने आचरण में इन उदार मूल्यों की धज्जियां उड़ाते दीख पड़ते हैं. झूठ, घृणा, हिंसा की मानसिकता इतनी तेज़ी से और दूर-दूर तक फैल और फैलायी जा रही है कि सचाई, उदारता, सहिष्णुता, संवाद आदि की जगह बेहद सिकुड़ गयी है. उदार मूल्य, लगता है, पराजय की कगार पर है.

शायद यह आकलन अतिरंजित है. भारतीय सभ्यता और समाज, अनेक विचलनों और विकृतियों के बावजूद, सदियों से समावेशी, समझदार, ग्रहणशील और विवादप्रिय रहा है और आज की आक्रामक राजनीति, बाज़ार-कारपोरेट जगत और संकीर्ण हिंदुत्व उनके बहुत दृश्य वर्चस्व, प्रचार-प्रसार के बावजूद, उसके समावेशी स्वभाव को बदल या अपदस्थ नहीं कर पायेंगे. अगर यह सभ्यता मेलजोल, संवाद और आदान-प्रदान पर अब तक जीवित रही है तो उसके सत्व को बदला या शिथिल अन्ततः नहीं किया जा सकता है. सही है कि स्वयं उदार मूल्य-व्यवस्था को गहरा और सख़्त आत्मालोचन कर अपने को संशोधित परिवर्धित करना होता और जो नयी सचाई उभर रही है उससे प्रतिकृत हो नये विकल्प तलाशने होंगे. लेकिन कुछ भी हो, घृणा और हिंसा कितने ही लालच क्यों न दें, साधारण भारतीय की भलमनसाहत, मुझ जैसे आशावादी धवलकेशी को लगता है, नष्ट नहीं हो गयी है और उसका इस तरह अवशेष की तरह जीवित रहना उदारता के बचे रहने की भी उम्मीद दिलाता है. आंधी में हो सकता है छप्पर उड़ जायें पर दीवारें और नींव तो अक्षत रहेंगी. ज़रूरत इस भलमनसाहत को पहचानने और उसे पोसने की है. कौन जाने यह भलमनसाहत की लोकतंत्र का पुनराविष्कार करने का आधार बने. ‘आस उस दर से टूटती ही नहीं, जा के देखा, न जाके देख लिया’ जैसा फ़ैज ने कहा था.

बुन्देलखण्ड के भित्तिचित्र

मैं मूलतः सागर का रहनेवाला हूं: पहली-दूसरी कक्षा तक तो सागर की एक तहसील खुरई में पढ़ता था. उसके बाद सागर शहर में बीए तक की पढ़ाई की और फिर सागर छूट गया. पर उस दौरान जब मैं वहां था, मुझे इसका कोई पता नहीं था कि सागर जिले के कई क़स्बों में भित्ति चित्रों की अपार सम्पदा है. यह पता चला जब हाल में ही में कलाविद् और अन्वेषक नर्मदा प्रसाद उपाध्याय की नयी विशाल पुस्तक ‘बुन्देलखण्ड के भित्तिचित्र’ मुझे उपाध्याय जी के सौजन्य से मिली. छः सौ पृष्ठों से अधिक की इस पुस्तक में सागर ज़िले के भित्तिचित्रों पर विपुल सामग्री और रंगीन छायाचित्र 100 पृष्ठों में है. उन्होंने यह कार्य बहुतों की प्रेरणा से किया जिनमें से जगदीश मित्तल और हर्ष दहेजिया मेरे परिचित रहे हैं. आदिवासी लोक कला एवं बोली अकादेमी और मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद ने इस पुस्तक को प्रकाशित कर अच्छा काम किया है.

उपाध्याय जी ने अपनी छोटी सी भूमिका में लिखा है: ‘यह कृति एक छोटे से पथ के निर्माण का प्रयास है. पथ इसलिए नहीं होते कि उन पर पांव चलकर गन्तव्य तक पहुंच जायें, बल्कि वे इसलिए होते हैं कि पांवों के चलने का संस्कार कभी समाप्त न हो, वे कभी स्थिर न रहें, जड़ न हो जायें.’ दरअसल उपाध्याय जी ने जो कार्य किया है वह ऐतिहासिक और अभूतपूर्व है. इन चित्रों को, जिनमें कई अब धूमिल पड़ गये हैं, देखकर यह बात मन में कौंधती है कि भारत पहले भी कितना विकेन्द्रित था और उसके छोटे-छोटे रजवाड़ों में कितना सजग कलाबोध सक्रिय और व्याप्त था. अपने सागर के दिनों में कई बार राहतगढ़ रहली, गढ़पहरा और गढ़ा कोटा गया था पर मुझे इस विपुल का कला सम्‍पदा का, उसकी विविधता का, उसमें प्रगट कला-कौशल, परिपक्वता, रंगों की अद्भुत छटाओं आदि की कोई जानकारी नहीं थी. मुझे इस पुस्तक में संकलित चित्रों की बानगी अपने अचेत उत्तराधिकार को समझने का उत्साह देती है.

इस भित्ति चित्रों को संरक्षित करने के किसी सरकारी प्रयत्न को मुझे पता नहीं. यह स्पष्ट है कि इस कला-सम्पदा को बचाने के लिए नयी तकनालजी और विधियों का सावधानी और संवेदनशीलता के साथ उपयोग जल्दी ही होना चाहिये. ऐसे किसी प्रोजेक्ट को उपाध्याय जी के निर्देशन और उनकी सलाह से कार्यान्वित करना चाहिये.

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