जब धर्म अपने बुनियादी अध्यात्म से, सत्ता संविधान की मर्यादाओं से, मीडिया अपने साहस और प्रश्नशीलता से दूर जा चुके हैं तो प्रतिरोध साहित्य के ही जिम्मे आ जाता है
अशोक वाजपेयी | 02 January 2022
प्रतिरोध-वर्ष
नये वर्ष के आरम्भ पर प्रतिरोध की बात करना कुछ को थोड़ा अटपटा या ग़ैरमौजूं लग सकता है पर जो परिस्थिति है, उसमें अनिवार्य है. आज प्रतिरोध करना किसी भी सजग-ज़िम्मेदार लेखक का सामाजिक-सांस्कृतिक-नैतिक कर्तव्य है. सर्वसत्तावादी ताक़तों के आक्रामक उभार, सत्ता का लगातार क्रोनी पूंजीवाद को बढ़ावा, धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता से सक्रिय गठबन्धन ने लेखक को विवश कर दिया है कि वह न सिर्फ़ साहित्य में बल्कि व्यापक समाज में इस सबका मुखर विरोध करे. यह विरोध राजनैतिक विरोध की तरह रस्मी या विरोध भर के लिए विरोध नहीं है: यह विरोध उन मूल्यों को बचाने के लिए है जो स्वतंत्रता-समता-न्याय की मूल्यत्रयी में विन्यस्त हैं और जिन पर सत्ता लगातार निस्संकोच प्रहार कर रही है. अगर राजनीति से अलग हम एक सर्वधर्मसमभावी, शोध-रहित, स्वतंत्रता-पोषक, समता-मूलक और न्याय-प्रिय समाज बनाने की परिकल्पना में विश्वास करते हैं तो हमारा प्रतिरोध करना बहुत संगत और अनिवार्य है.
रघुवीर सहाय के जन्मदिन और मंगलेश डबराल की पुण्यतिथि, 9 दिसम्बर को लेखकों की एक सभा ने प्रतिरोध-वर्ष मनाने का सर्वसम्मत आह्वान किया. इस सभा में उचित ही इस ओर ध्यान खींचा गया कि प्रतिरोध की परम्परा हिन्दी में सदियों पुरानी है और उसे भक्ति काव्य से शुरू हुआ देखा जा सकता है. भक्त कवि सिर्फ़ भक्ति-आस्था में डूबे कवि भर नहीं थे- उनके यहां कई तरह के धार्मिक, जातिगत अन्यायों का गहरा प्रतिरोध भी है. उनका काव्य तत्कालीन सत्ता के बरक़स एक लोकतांत्रिक, खुली, निर्भय और प्रश्नवाचक प्रतिसत्ता की तरह है. यह दुखद अचरज की बात है कि कबीर, रैदास आदि ने जो तीखे़ प्रश्न पूछे वे आज भी पूछे जाने चाहिये. बड़ी बात यह है कि उनकी आस्था उनकी प्रश्नवाचकता को बाधित नहीं करती थी. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उसके बाद नये लोकतंत्र में हिन्दी साहित्य कुल मिलाकर सत्ता-विरोधी ही रहा है: साहित्य अपनी लोकतांत्रिक भूमिका निभाता है. इस लोकतांत्रिक वृत्ति को हम इस नये वर्ष में सशक्त-सक्रिय करें यह ज़रूरी है- दोनों के लिए, साहित्य और लोकतंत्र के लिए. अच्छी बात यह है कि अधिकतर महत्वपूर्ण लेखकों ने, इस बीच, सत्ता के प्रलोभन और आतंक के रहते, अपनी प्रश्नवाचक भूमिका से पलायन नहीं किया है.
जब धर्म अपने बुनियादी अध्यात्म से, सत्ता संविधान की मर्यादाओं से, बाज़ार अपनी सार्वजनिक ज़िम्मेदारी से, मीडिया अपने साहस और प्रश्नशीलता से दूर जा चुके हैं तब साहित्य को झूठों-पाख़ण्डों के विरुद्ध सत्याग्रह, सत्ता की चापलूसी और स्वामीभक्ति से अलग सिविल नाफ़रमानी, हिंसा-हत्या-बलात्कार की अमानवीय मानसिकता का सजग प्रतिकार, लालचों और भयों के माहौल में निर्भयता की आवाज़, बढ़ती विषमताओं और अन्याय की सविनय अवज्ञा और अन्ततः समाज का, समय का अन्तःकरण होकर मुखर होना चाहिये. यह समय है जब लिखना, अपनी भाषा में सच और समय को लिखना प्रतिरोध की कार्रवाई है.
कविता की चरितार्थता
बेहद दुखद परिस्थिति में यह सुखद अचरज की बात है कि आज से लगभग साठ वर्ष पहले मुक्तिबोध ने अपनी लम्बी कविता ‘अंधेरे में’ जो चित्र खींचे और जिन प्रसंगों का उपयोग किया वे आज और अभी के लगते हैं. एक अंश देखें:
भव्याकार भवनों के विवरणों में छिप गये
समाचार-पत्रों के पतियों के मुख स्थूल.
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-जन-उर-शूल.
बौद्धिक वर्ग है क्रीत दास,
किराये के विचारों का उद्भास.
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियां पुत गयीं.
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी.
इसी कविता की एक पंक्ति ‘मारो गोली, दागो स्साले को एकदम’ उस राजनेता की लगभग ऐसी ही सार्वजनिक घोषणा की याद दिलाती है जो उन्होंने दिल्ली में दंगे उकसाने के लिए की थी और उनका बाल भी बांका न हुआ: वे केन्द्र सरकार में मंत्री हैं.
एक और अंश है:
बहस गरम है
दिमाग़ में जान है;
दिलों में दम है
सत्य से सत्ता के युद्ध का रंग है
पर, कमज़ोरियां सब मेरे संग हैं.
क्या हम इस समय भयानक रूप से फैलाये जा रहे असत्यों के प्रसंग में ‘सत्य से सत्ता के युद्ध का रंग’ रात-दिन नहीं देख रहे हैं. मुक्तिबोध ने कवि को ‘आत्मा का गुप्तचर’ कहा था. इन दिनों इस क्लैसिक कविता को पढ़कर लगता है कि स्वयं मुक्तिबोध आश्चर्यजनक रूप से हमारी सचाई के, हमारी आत्मा के गुप्तचर थे हालांकि ऐसा होने का कोई दावा उन्होंने नहीं किया. उनका कवि-ईमान ही उनसे यह एहतराम कराता है कि ‘कमजोरियां सब मेरे संग हैं. ‘मुक्तिबोध अपने समय में भारतीय समाज का अन्तःकरण थे और आज तक वही बने हुए हैं. वे हमें चेतावनी भी देते आये हैं कि हम अपने ‘अन्तःकरण का आयतन’ संक्षिप्त न होने दें. यह कविकर्म और कविधर्म दोनों का एक रैडिकल पुनराख्यान है.
उदात्त और उज्ज्वल
क्या उदात्त और उज्ज्वल का समय हमारे भयावह दौर में सदा के लिए बीत गया? क्या दैनिक रूप से हिंसा-हत्या-बलात्कार, घृणा और झूठ से घिरे हमारे समय में उदात्त और उज्ज्वल की प्रासंगिकता शेष नहीं रह गयी? ये प्रश्न उठते हैं जब आनन्द कुमार सिंह की लम्बी कविता ‘अथर्वा: मैं वही वन हूं’ की 512 पृष्ठों की मोटी पुस्तक हाथ में आती है. नयी किताब द्वारा प्रकाशित यह ग्रन्थ अपने वितान और उदात्त- उज्ज्वल को कविता में वापस लाने का एक अनूठा यत्न है. यह दुस्साहसी है क्योंकि वह कविता की तथाकथित मुख्य धारा के बरक़्स कविता का एक महाद्वीप रचता है, आत्मविश्वास, उदग्र कल्पना और नयी जीवन-कला-दृष्टि से.
एक ओर इस कविता में एक तरह का शास्त्रीय अतीत पुनरवतरित होता है:
मैं नीहारिकाओं के चरित्र को लेकर चिन्तित हूं:
आकाशगंगाओं का अपमान तो कठिन ही है मेरे लिए
सह नहीं पाऊंगा सौरमण्डल का अपव्यय
धरती का दुःख मुझे अन्दर से तोड़ेगा-
क्योंकि मैं जो इस सृजन का साक्षी हूं तो
प्रतिवाद न करना ही सालेगा मुझे हर बार.
दूसरी ओर उसमें आज हक़ की लड़ाई की व्याप्ति का भाव भी मुखर है:
हर अनाम पत्ती को हक है लहरने का
फूलों को भी चांदनी बिछाने का हक़ है
हवा को भी कलियों-सा हक़ है बिकसने का
कांटों को भी मरुगीत गाने का हक़ है,
श्याम बदली को असाढ़ घन घिरने पर
रेत के बिछौनों पर आने का हक़ है
घोंसलों में चिड़ियों का चारा चुगने का और
तितली को मत्त इतराने का हक़ है.
कवि को यह आश्वस्ति भी है कि ‘धरती की पीड़ा तुम्हारी विवश जनता की/फिरेगी एक दिन/खुलेंगी बन्दी व्याहृतियां ऋचाएं/नाचेंगी प्रकाशब्रह्माण्डों से आकर/इसी धरती पर जीवन्त प्रेममयी चिद्गंगाएं.’ पर कवि को यह भी पता है: ‘इतिहास को नकार कर ही/यह सुविधा मिल सकती है/तुम फिर सकते हो द्वन्द्वों में नाकुछ के विचार में/और सवार हो सकते हो उस आसमान पर/जो उजरती पूंजी के दम पर टिका है.’
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