हम अपनी सदियों से चली आ रही परम्परा को भूल या तज कर आधुनिक भारतीय नहीं हो सकते हैं
अशोक वाजपेयी | 05 सितंबर 2021
मुकुंद महिमा
जनसुलभ पुस्तकालय द्वारा मुकुंद लाठ पर एकाग्र एक ऑनलाइन वार्ता-सीरीज का समापन करते हुए एक बार फिर मुकुंद जी की महिमा का गहरा और कृतज्ञ बोध हुआ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की तरह वे प्राचीनों से ग़प लगाते आधुनिक थे जो वैसे ही पश्चिम से अनाक्रांत थे. हिंदी में सभ्यता-समीक्षकों की जो एक लगभग हाशिये पर चली गयी परम्परा रही है, उसमें मुकुंद लाठ शायद अंतिम सभ्यता-समीक्षक थे. उन्होंने एक ओर तो हमारी परम्परा में विचार और चिंतन के स्तरों पर जो वाद-विवाद, असहमतियों, तर्क-वितर्क, परिवर्तन आदि होते रहे हैं, उनकी ओर ध्यान खींचा तो दूसरी ओर उन्होंने पश्चिमी आधुनिकता और उससे उत्प्रेरित हमारी आज की आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता आदि की अपरीक्षित पर बहुमान्य सार्वभौमिकता को प्रखरता से प्रश्नांकित किया.
मुकुंद जी ने अपनी सजल विद्वत्ता से, प्रमाण और साक्ष्य सहित, यह बताया कि हमारी परंपरा में ‘आधुनिक’ शब्द का पहले-पहल प्रयोग दरभंगा के नव्य नैयायिक उदयन ने दसवीं शताब्दी में किया था और स्वयं उनके मत को 13वीं शताब्दी के एक उत्तर आधुनिक गंगेश उपाध्याय ने चुनौती दी थी. मुकुंद जी ने लिखा: ‘न्याय की परम्परा में हमने आधुनिक देखा, उसके आगे नव्य देखा, कोई कारण नहीं कि नव्य के आगे की सार्थक यात्रा न बने. और न्याय में ही क्यों, हमारे समूचे विचार में उन्मेष की- आधुनिकता की- संभावना सदा रही है और आज भी बनी हुई है. पश्चिम की आधुनिकता हममें विचार के माध्यम से नहीं साम्राज्य के क्रूर माध्यम से आयी है. उसने हमारी विचार-परम्परा को पूर्वपक्ष नहीं बनाया था, पर हम आधुनिक हैं तो आज ऐसा कर सकते हैं.’ मुकुंद जी ने हमें बताया-सिखाया है कि आज आधुनिक होने का अर्थ सिर्फ़ नवाचार करना भर नहीं है: दो आधुनिकताओं के बीच संवाद करना है. यह आधुनिकता की प्रचलित और लोकप्रिय परिभाषा से बिलकुल अलग और अधिक सृजनधर्मी, अधिक विचारप्रवण परिभाषा है. हम अपनी सदियों से चली आ रही परम्परा को भूल या तज कर आधुनिक भारतीय नहीं हो सकते हैं.
अमूर्तन के बारे में कलाकारों और बुद्धिजीवियों के बीच यह धारणा प्रचलित है कि अमूर्तन हमारे यहां पश्चिम से आया. मुकुंद जी बताते हैं कि जब शिव के निर्देश पर भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटक में नृत्त को शामिल किया तो वह अमूर्तन की ही विधा थी. बाद में अभिनव गुप्त उसे स्वयंप्रतिष्ठ कला कहते हैं: देखा जाये तो ‘अमूर्त’ के बजाय ‘स्वयंप्रतिष्ठ’ शब्द अधिक अर्थ व्यंजक है. नृत्त के बारे में, मुकुंद जी के अनुसार, भरत ने कहा था, कि ‘वह अपने अपने बाहर किसी अर्थ की अपेक्षा नहीं करता, पर अपने आप ही में शोभा की सृष्टि करता है.’ मुकुंद जी ने लिखा है कि ‘आज भी गान्धर्व जैसे विशुद्ध संगीत की और तांडव जैसे विशुद्ध नाच की परम्परा हम में जागृत है, इनसे हमारा गहरा परिचय भी है, हम इनमें रमते हैं- पर हमारी बुद्धि की आंख इन्हें अमूर्त के रूप में नहीं देख पाती- अपने इन रूपों को देखते-परखते हुए भी अमूर्त की धारणा और उससे जुड़ी कला की स्वायत्तता की संवेदना को हम ‘आधुनिकता’ के अब तक अनहोने, अपूर्व स्फोट के रूप में ही देखते हैं, और आधुनिकता तो हमारे लिए परिभाषया पश्चिम-प्रसूत है.’
मुकुंद संगीत
मुकुंद लाठ ने बहुत साफ़-सुथरा प्रसादमय हिंदी गद्य लिखा है और उसका एक बड़ा हिस्सा संगीत पर केंद्रित है. हिंदी में इस कोटि और विस्तार का संगीत-चिंतन हमारे समय में शायद ही किसी और ने ऐसी सजलता और परिष्कार से किया हो. उन्होंने संगीत को लेकर कुछ मौलिक प्रश्न उठाये हैं जिसका संबंध संगीत में चिंतन की खोज, राग-विमर्श और रस-सिद्धांत को लेकर है. संगीत में भी वैचारिकता सक्रिय रहती है, वह चिंतन की भी एक वैध विधा है, यह पहली बार दशकों पहले मुकुंद जी ने वत्सल निधि के अंतर्गत दिये गये भाषणों में प्रतिपादित किया था.
अन्यत्र उन्होंने लिखा: ‘यह हमारी परंपरा का स्वभाव है- और संगीत में नहीं अन्यत्र भी है कि वह नये को नया नहीं कहना चाहती. पुराने की अनुवृत्ति या उसी के स्वतः सिद्ध-सा परिणाम ही ठहराना चाहती है. पर यह एक मुद्रा है. नये की, जीर्ण-प्राचीन के विपरीत आधुनिक की, व्यक्ति-प्रतिभा की, उसके नवोन्मेष की, इन सबकी ललक हर कहीं मिल जायेगी. वही गवैया जो कहता है कि वह घराने का, गुरू का ही गाना गाता है, वही यह दावा भी करता है कि उसमें कुछ नयी बात है. सुननेवाला भी उसका अपना गाना ही सुनना चाहता है, पुराना नहीं. पर साथ ही दोनों यह कहेंगे कि ‘नया कुछ नहीं’.
साम वेद और संगीत की स्थिति पर विचार करते हुए मुकुंद जी बताते हैं कि ‘…हम साम के रूप में संगीत की सत्ता को स्वयंप्रतिष्ठ पाते हैं. मैं नहीं समझता कि संगीत की ऐसी प्रतिष्ठा का इससे प्राचीन कहीं और कोई दृष्टान्त मिलता है जहां संगीत जैसी (आज के शब्दों में) ‘अमूर्त’ कहलाने वाली कला को ऐसी स्वतंत्र महिमा दी गयी हो.’
राग पर मुकुंद जी ने विस्तृत विचार किया है. वे कहते हैं कि ‘राग केवल एक नादरूप, एक स्वर-योजना विशेष नहीं, जिसमें हम इच्छा-कल्पित आलाप के साथ खेलें. उसका एक अंतरंगभाव है, मर्म है जिसे दृष्टि-सम्पन्न गायक अपनी तरह से देखता है, और उभारता है. राग-व्यक्ति और गायक-व्यक्ति का परस्पर-भाव ही रागमार्ग है यही राग-परम्परा है जिसमें दोनों बदलते चलते हैं.’ 16वीं सदी के पुडरीक विट्ठल अैर 17वीं सदी के अहोबल के हवाले से वे कहते हैं कि ‘स्वर से राग नहीं बनता, राग से स्वर बनता है’.
वे बहुत सारा अकाट्य साक्ष्य देने के बाद कहते हैं: ‘तो, भरत की नाट्य-सृष्टि को भी हम क्रांति कह सकते हैं. इस क्रांति का मुंह ‘आधुनिकता’ की क्रांति से बिलकुल उलटी तरफ था. स्वयंप्रतिष्ठ से अनुकरण की ओर: नान-फ़िगरेटिव से फ़िगरेटिव की ओर. जैसे आधुनिक कलाकारों ने फ़िगरेटिव से नानफ़िगरेटिव की ओर बढ़ने के रास्ते निकाले, वैसे ही भरत स्वयंप्रतिष्ठ को अनुकरण-धर्मी बनाने के रास्ते निकालते हैं.’
साहित्य पर बोझ
क्या इन दिनों साहित्य पर डाला जा रहा बोझ, जो अक्सर उसकी ज़िम्मेदारियां कह कर डाला जाता है, कुछ अधिक भारी होता जा रहा है. कुछ नये विमर्श इस समय थोड़ी आक्रामकता के साथ सक्रिय हैं. स्त्री-विमर्श का इसरार है कि साहित्य स्त्री-मुक्ति और समकक्षता की भूमिका निबाहे. दलित-विमर्श का आग्रह है कि साहित्य दलित-मुक्ति का मंच बने. और स्वयं अपनी सवर्णता से मुक्त हो. प्रगतिशील-जनवादी चाहते आये हैं कि साहित्य सामाजिक मुक्ति में सक्रिय रोल निभाये. स्वायत्ततावादी कहते हैं कि साहित्य का काम भाषा को उसकी रचनात्मक और मानवीय ऊष्मा और बहुलता में बचाने का है.
यह सवाल उठता है कि क्या साहित्य इतने सारे बोझ उठाने के लिए समर्थ है या हो सकता है. क्या बोझ को लेकर कुछ भार-विभाजन किया जा सकता है? क्योंकि सारे बोझ उठाना तो सबके बस की बात नहीं हो सकती! हम कुछ बोझों का ज़िक्र नहीं कर रहे हैं जैसे साहित्य को देशभक्ति, भारतीयता आदि को प्रोत्साहित कर सकना चाहिये. यह सवाल भी उठेगा कि इतने सारे बोझों के तले साहित्य स्वयं बहुत बोझिल हो जायेगा. हम लेखक से बहुत अपेक्षाएं करते हैं और उनका बोझ इस पर डालते जाते हैं: वह बेचारा उनके नीचे लिखता कम, पिसता अधिक है.
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