गोपाल दास नीरज

Society | पुण्यतिथि

गीतों के राजकुंवर नीरज जिन्होंने कविता में अपना पता दर्द की बस्ती दर्ज किया था

नीरज को प्रेम और श्रृंगार का कवि माना जाता है लेकिन उनकी कविता में जीवन और उसकी नश्वरता की बहुत गहरी तलाश है

Satyagrah Bureau | 19 July 2020 | फोटो: शशांक प्रभाकर

गोपालदास नीरज ने भरपूर जीवन जिया. उम्र के लिहाज से भी और कविता के लिहाज से भी. वे प्रेम के साथ दर्द को मिलाकर गाने वाले फ्ककड़ गीतकार थे. चार जनवरी 1925 को तब के अवध और आगरा के संयुक्त प्रांत और अब के इटावा जिले में पैदा हुए नीरज को मां-बाप ने नाम दिया था -गोपालदास सक्सेना. गोपालदास छह साल के थे तभी पिता नहीं रहे. घर में आर्थिक तंगी बढ़ने लगी तो उन्होंने किसी तरह हाईस्कूल की परीक्षा पास की और इटावा कचहरी में टाइपिंग करने लगे.

टाइपराइटर की खटर-पटर से कचहरी की भाषा वाले तकनीकी शब्द निकलते थे. लेकिन नीरज के मन में तो शब्दों का अथाह सागर था. संवेदनाओं के तट से टकराता. लेकिन नीरज रोजी-रोटी की तलाश में उन शब्दों को अनसुना करते रहे. कुछ दिन एक सिनेमाहाल मेें नौकरी की. फिर दिल्ली में टाइपिस्ट की सरकारी नौकरी लगी. जो जल्द ही छूट भी गई. फिर आगे पढ़ाई की और मेरठ कालेज में नौकरी की. वहां उन पर न पढ़ाने का आरोप लगा. यह नौकरी छोड़ी और फिर अलीगढ़ में पढ़ाने लगे थे. बाद में अलीगढ़ उनका स्थायी ठिकाना बन गया.

नीरज की जिंदगी बहुत जटिल थी. लेकिन इस जटिलता से उन्होंने न जाने कहां से इतनी सरल भाषा चुरा ली थी जिसे ये फक्कड़ गीतकार झूमकर गाता था और सामने बैठे श्रोता झूम जाते थे.

आंसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा।
जहा प्रेम का चर्चा होगा, मेरा नाम लिया जाएगा।

मान-पत्र मैं नहीं लिख सका, राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक़ रहा जन्म से, सुंदरता के दीवानों का

लेकिन था मालूम नहीं ये, केवल इस ग़लती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा ।।

जीवन के शुरुआती दौर में जीवन से लेन-देन में नीरज के हिस्से पीड़ा ही आई. लेकिन उन्होंने उसे प्रेम दिया. आजादी के बाद के भारत में जीवन की नियति ढूंढ रहे इस गीतकार ने रूमानियत को अपने तरीके से रचा.

देखती ही रहो आज दर्पण न तुम
प्यार का ये महुरत निकल जायेगा।

लेकिन नीरज का युवा मन उस समय के नेहरूवादी भारत की वैचारिकी से भी प्रभावित था और उससे उपजी ऊब को भी बहुत सरल शब्दों में कह रहा था.

मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है ।

नीरज को लोग गीतोंं का राजकुमार कहते हैं और कवि सम्मेलनों में बेहद लोकप्रिय कविताओं के चलते उन्हें प्रेम और श्रृंगार का गीतकार मान लिया जाता है. लेकिन नीरज की कवित विचारधारा के किसी बोझ से दबे बगैर चुपचाप एक राजनीतिक चेतना का भी संदेश देती है. हां उसमें राजनीतिक कार्यकर्ता वाला एजेंडा नहीं था. उसमें हिंदी की वाचिक परंपरा की गंध है. किसी विदेशी कविता के अनुवाद जैसी राजनीतिक अपील नहीं. रेलवे स्टेशनों पर खूब बिकने वाली उनकी किताबों के कवर पर लिखा होता था:

वहीं पर ढूंढना नीरज को तुम जहां वालों
जहां पर दर्द की बस्ती कोई नजर आए।।

नीरज को श्रंदाजलि देते हुए हिंदी के साहित्यकार काशीनाथ सिंह कहते हैं, ‘जिस समय मुशायरों की खासी इज्जत थी उस समय नीरज जी ने कवि सम्मेलनों की प्रतिष्ठा बढ़ाई. उनके मंच पर आते ही कारवां गुजर गया की मांग शुरु हो जाती थी.’

कारवां गुजर गया को ऐसी प्रसिद्धि मिली कि फिल्मी दुनिया ने भी नीरज को खोज निकाला. नीरज को फिल्मों में गीत लिखने का मौका मिला. आर चंद्रा की छात्र राजनीति पर बनी फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ तो उतना नहीं चली, लेकिन नीरज के गीतों ने फिल्मी गीतों में एक नई ताजगी भर दी. मोहम्मद रफी का गाया कारवां गुजर गया…गुबार देखते रहे, एक मुहावरा बन गया. नीरज ने फिल्मों के लिए लिखा और खूब सफल गीत लिखे.

एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘राजकपूर को गीत-संगीत की बहुत बेहतर समझ थी. फिल्म जैसे माध्यम में मेरे जैसे गीतकार का कैसे इस्तेमाल किया जाए, इसे राजकपूर अच्छे से समझते थे. वह सौ आने खरा काम चाहते थे, लेकिन उसके लिए पूरा माहौल भी देते थे.’ मेरा नाम जोकर में लिखा उनका गीत ए भाई जरा देख के चलो शायद इस जुगलबंदी का ही नतीजा था.

शैलेंद्र के बाद गीतों में थोड़ी रूमानियत, थोड़ी उदासी और दर्शन ढूंढ रहे फिल्मकारों को नीरज में संभावना दिख रही थी. एसडी बर्मन के खुद नीरज साहब प्रशंसक थे. देवानंद भी समझ गए थे कि नीरज बंबइया गीतकार नहीं हैं, लेकिन बहुत बड़े गीतकार हैं. शर्मीली और कन्यादान जैैसी फिल्मों में नीरज के लिखे गाने खूब हिट हुए.

फिल्म बनाना व्यवसाय के साथ कला भी है, यह बात राजकपूर और देवानंद तो समझते थे, लेकिन हर कोई नहीं. राइटर को भी बुला लो वाला बरताव नीरज को नहीं भाया. तीन बार फिल्मफेयर जीतने के बाद भी वे अलीगढ़ लौट आए और कवि सम्मेलनोंं की अपनी दुनिया मेंं रम गए.

कविता करके ऐसी लोकप्रियता हरेक को नसीब नहीं होती. नीरज को सुनने के लिए भीड़ रात दो बजे तक इंतजार किया करती थी. उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया . उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने उन्हें हिंदी संस्थान का अध्यक्ष बनाकर मंत्री का दर्जा दिया. लेकिन नीरज अपनी तरह से ही जीते रहे. आज से पांच सात बरस पहले के कवि सम्मेलनों में भी नीरज जी मंच के कोने में बैठ कर बीड़ी जला लेते थे. यही भदेस शायद उनके शब्दों की ताकत था.

दुुनिया नीरज के गीत गुनगुनाती, लेकिन नीरज को अध्यात्म और असमानता पर बात करने में मजा आता . ओशो पर भी वे काफी बात करते थे. नीरज ने जीवन में सबकुछ देेखा था – संघर्ष, सफलता, पीड़ा. जीवन की नश्वरता पर वे बहुत जोरदार बात करते थे और लगता था कि अगर उनका बोला हुआ लिख लिया जाए तो एक सुंदर ललित निबंध तैयार हो जाएगा. वे कहते थे, एक दिन ईश्वर की भी मृत्यु होगी.

नीरज देह भले ही छोड़ चुके हों, लेकिन प्रेम और पीड़ा में लिपटी उनकी कविता का दर्शन उन्हें अमर रखेगा…

धूल कितने रंग बदले डोर और पतंग बदले
जब तलक जिंदा कलम है हम तुम्हें मरने न देंगे

खो दिया हमने तुम्हें तो पास अपने क्या रहेगा
कौन फिर बारूद से सन्देश चन्दन का कहेगा
मृत्यु तो नूतन जनम है हम तुम्हें मरने न देंगे।

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022