Society | जन्मदिन

एक गुलज़ार ही हैं जो सिनेमा, साहित्य और संगीत तीनों के हिस्से में बराबर-बराबर आते हैं

गुलज़ार का किया हर काम एक अलग गुलज़ार क़िरदार रखता है. यहां तक कि उनके लिखे गीतों की धुनों पर भी हम उनका एक परोक्ष प्रभाव महसूस कर सकते हैं

Satyagrah Bureau | 18 August 2021

गुलज़ार गीतकार के पहले सूफियाना किस्म का रंग लिए हुए एक शायर और अफसानानिगार भी हैं. उन्होंने एक ऐसी परंपरा की शुरुआत की जिसने हिंदी और उर्दू के दोआबे को कहीं एक धरातल पर संभव कर दिखाया है. एक तरीके से गुलजार हिंदी और उर्दू को मिलाने वाली हिंदुस्तानी जुबान के उस संगम पर भी खड़े हैं जहां पर गंगा, यमुना और सरस्वती की तरह कविता, कहानी और गीत एक साथ आकर आपस में मिल जाते हैं. इन विधाओं का यह मिलन और कविता कहने की बेलौस अदा गुलज़ार का ऐसा अचूक हथियार है, जिसके नेजे से वे समकालीन यथार्थ और परंपरागत दुनिया का रेशा-रेशा पड़ताल करते हैं.

एक गीत को समझना इस अर्थ में भी जरूरी हो सकता है कि इसकी प्रक्रिया से गुजरकर हम गीतकार के साथ-साथ फिल्म और उसके पात्रों की अंतर्यात्रा को भी समझ सकते हैं. गुलजार के लिखे उनके प्रसिद्ध व पहले ही गीत ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ (फिल्म-बंदिनी) को इसकी बानगी के तौर पर लिया जा सकता है.

इस गीत के बोलों की पारंपरिक शब्दावली, कुछ-कुछ उन वैष्णव पदों के समकक्ष नजर आती है, जो स्वयं बंदिनी की नायिका कल्याणी प्रतिदिन अपने पिता से सुनती-पढ़ती रही है. इस गीत के बोल न सिर्फ उसके मनोभावों को बता सकते हैं बल्कि अन्य पात्रों से उसके रिश्ते के ताने-बाने को भी उजागर कर देते हैं जिनसे पटकथा अपने मायने हासिल करती है. बिमल रॉय और सचिन देव बर्मन जैसे दो दिग्गज कलाकारों की अपनी कलाओं के प्रति आत्मीयता भी यह गीत शब्दशः व्यक्त कर देता है. जैसे –

कुछ खो दिया है पाई के / कुछ पा लिया गंवाई के / कहां ले चला है मनवा / मोहे बावरी बनाई के – बंदिनी

यदि कल्याणी बावरा होने की बात करती है तो यह न केवल मीरा, चैतन्य महाप्रभु, पल्टूदास, स्वामी हरिदास, बैजू बावरा और गोपालनायक जैसे वैष्णव संत कवियों निर्गुणियों की परंपरा वाली उसकी पृष्ठभूमि को दिखाता है बल्कि उस वैष्णवता के समीप भी जा पहुंचता है जिसे पूरी फिल्म में एक अन्तर्लय की तरह बिमल रॉय ने पिरो रखा है.

‘बंदिनी’ के साथ 1963 से शुरू हुआ गुलजार के गीतों का यह सफरनामा, आज करीब पांच दशकों के बाद भी बदस्तूर जारी है. इस यात्रा में वे न जाने कितने अनजाने चेहरों से बावस्ता हुए होंगे और न जाने कितने चेहरों को अपने गीतों की शक्ल में सार्थक पहचान दी होगी. कभी किसी वैष्णव लड़की के लिए कोई प्रेम गीत लिखा होगा, तो कभी किसी मां के लिए उसके आंचल को भिगोने वाली लोरी. एक हताश व्यक्ति की निराशा का स्वर दिया होगा, तो कई बार उत्सव के बहाने त्यौहारों को इन्द्रधनुषी रंग भी बख्शे होंगे. कभी जीवन का फलसफा बताने वाली पंक्तियों के मोह में पड़े होंगे तो कई बार गैरजरूरी से लगते लम्हों को भी पूरी हरारत से याद किया होगा. एक गीतकार की विभिन्न मनोभूमियों में टहलने की अद्भुत यात्रा को कुछ गीतों के मिसरों से बांधकर भी समझा जा सकता है. मसलन-

फिर से अइयो बदरा बिदेसी / तेरे पंखों पे मोती जडूंगी

भर के जाइयो हमारी तलैया / मैं तलैया के किनारे मिलूंगी – नमकीन

आनेवाला पल जानेवाला है / हो सके तो इसमें /जिंदगी बिता दो / पल जो यह जाने वाला है – गोलमाल

रोज अकेली आए / रोज अकेली जाए / चांद कटोरा लिए भिखारन रात –मेरे अपने

इन गीतों से स्पष्ट है कि एक गीतकार का मन अनगिनत सिलवटों में लिपटा हुआ कितनी अनजान खिड़कियों को अंधेरों की ओर खोलता है. कभी बरसात के लिए बादलों को पुकारने में भी उसे कुछ देने का स्वर बनता है. कहीं रात जैसी कायनात के लिए भी भिखारन होने का दावा करता है कि उसके पास सिर्फ एक पूंजी, चन्द्रमा का एक कटोरा ही है, जिसके सहारे वह भीख मांग सकती है. इसके साथ अगले गीत में यह संदेश भी है कि हर आते पल को जी लेना ही श्रेयस्कर है अन्यथा वह टूटकर बिखर जाएगा. गुलजार के गीतों को इत्मीनान से पढ़ते हुए एक बात यह हाथ लगती है कि उनके ज्यादातर गीतों की शब्द रचना उनकी कविताओं के अलग-अलग रूप हैं. आने वाला पल जाने वाला है गीत को पढ़ते-सुनते हुए उनकी एक कविता बुलबुला अनायास याद आ जाती है.

वक्त की हथेली पर बहता / आदमी बुलबुला है पानी का

फिल्मी गीतों की समानार्थी सी लगती गुलजार की ढेरों कविताओं और गजलों को उन गीतों के साथ पढ़ना हममें से कइयों के लिए एक बेहद दिलचस्प अनुभव हो सकता है. ऐसे में इन गीतों में हमें गुलजार के शायर व्यक्तित्व को देख पाना भी आसान हो जाएगा नहीं तो फिल्म कला की ढेरों चीजों के बीच हम अक्सर उसे अनदेखा कर देते हैं.

गुलजार के फ़िल्मी गीतों की संरचना पर आएं तो सबसे ध्यान खींचने वाला पहलू यह नजर आता है कि गीतकार ने लगभग रूढ़ि की तरह प्रयोग हो रहे उपमानों को अपनी शब्दावली से परे हटाकर एक नए किस्म का काव्य मुहावरा विकसित किया है. गीतों को लेकर खासकर साहित्यिक गीतों को लेकर अब तक जो बिंब विधान, रूपक, उपमाएं और उत्प्रेक्षाएं हिंदी नवगीतकार प्रयोग करते रहे थे उन्हें बिलकुल निर्मम ढंग से गुलज़ार ने तज दिया है. उदाहरण के तौर पर कुछ गीतों से चुनकर कुछ ऐसी स्थितियां पढ़ी जा सकती हैं –

सावन के कुछ भीगे-भीगे दिन रखे हैं

और मेरे एक ख़त में लिपटी रात पड़ी है (फिल्म इजाजत के ‘मेरा कुछ सामान’ गीत से)

नीली नदी के परे, गीला सा चांद खिल गया (फिल्म लिबास के ‘सीली हवा छू गई’ गीत से)

टूटी हुई चूड़ियों से जोडूं ये कलाई मैं (फिल्म लेकिन के ‘यारा सीली-सीली’ गीत से)

गुलजार के गीतों की जब बात चली है तब हमें उन सारे बिंदुओं को भी ध्यान में रखना होगा जिनसे उनकी रचनाएं शक्ति अर्जित करती हैं. अपनी मधुरता में संपूर्ण से लगते हुए उनके अधिकांश गीतों के ऊर्जा स्रोत उनके लोकोन्मुख होने से निकले भी हो सकते हैं. लोकपक्ष की प्रभावी मौजूदगी गुलजार के गीतों में ही नहीं बल्कि उनके द्वारा निर्देशित अधिकांश फिल्मों में भी पार्श्व संगीत की तरह उपस्थित नजर आती है. आप चाहें ‘नमकीन,’ ‘मौसम,’ ‘मीरा,’ ‘खुशबू और ‘माचिस’ जैसी फिल्मों के माध्यम से उनके फिल्मकार व्यक्तित्व को परखें अथवा इन्हीं फिल्मों के गीतों से बातचीत करें, आपको एक अद्भुत किस्म की लोकधर्मी ऊष्मा महसूस होती है. सामान्य व्यक्ति से मुखातिब गुलजार का किरदार अपने प्रेमगीतों में इसी कारण एक अचूक किस्म की जनपक्षधरता का हिमायती बनता दिखाई देता है. यह किसी भी गीतकार के लिए उपलब्धि से कम नहीं कि सीमित दायरे में लिखे जाने वाले गीतों की संरचना में वह कुछ ऐसी बात कह आता है जिसकी चेतना अपने लोक और मिट्टी से जुड़ी हो. उदाहरण के लिए-

जनम से बंजारा हूं बंधु जनम-जनम बंजारा / कहीं कोई घर न घात न अंगनारा – राहगीर

उनके लिखे हुए तमाम गीतों में से सैकड़ों ऐसे चुने जा सकते हैं जो अपना एक अलग गुलजार किरदार रखते हैं. यहां तक कि उन गीतों की धुनों पर भी हम एक परोक्ष प्रभाव गुलजार का पढ़ सकते हैं. यह बहुत प्रासंगिक है कि इसी फलसफे के चलते ‘सत्या’ जैसी बौद्धिक फिल्म में वे ‘गोली मार भेजे में / भेजा शोर करता है’ जैसा बौद्धिक मगर खिलंदड़ा गीत लिखते हैं और अतिसाधारण फिल्म ‘बंटी और बबली’ में छोटे शहरों की व्यवस्था कुछ यूं कह पाते हैं- ‘छोटे-छोटे शहरों से / खाली बोर दोपहरों से / हम तो झोला उठा के चले.’ यह नजरिया तब और अधिक उत्कर्ष पाता है जब वे कोरी भावुकता से दूर जीवन संघर्ष और मानवीय गरमी की तपती हुई धरती पर खड़े होकर फिल्मों की तरफ ताकते हैं.

जीने की वजह तो कोई नहीं / मरने का बहाना ढूंढ़ता है / एक अकेला इस शहर में – घरौंदा

अपनी रचनाओं में जनपक्षधर लोकधर्मिता के अलावा भी गुलजार उस धरती से एक अन्य जुड़ाव रखते आए हैं. यह जुड़ाव लोकगीतों का है और उनके द्वारा रचे गए गीतों में अभिनवता लाता है. गुलजार ने अपने रचना कर्म में लोक के स्पंदन की धूप-छांही संस्कृति को इतनी सुंदरता से पकड़ा है कि हम यह जान ही नहीं सकते कि फिल्मों में लिखे गए उनके कुछ गीत निहायत उनकी कलम की उपज हैं, न कि पारंपरिक लोकगीतों की नई प्रस्तुतियां. जैसे उनका लिखा काबुलीवाला का गीत:

गंगा आए कहां से, गंगा जाए कहां रे / लहराए पानी में जैसे, धूप-छांव रे

या फिर माचिस का गीत:

भेज कहार पियाजी बुला लो / कोई रात-रात जागे / डोली पड़ी-पड़ी ड्योढ़ी में / अर्थी जैसी लागे

या फिर लेकिन का

केसरिया बालमा मोहे बावरी बोलें लोग / प्रीत को देखें नगरी वाले पीड़ न देखें लोग / बावरी बोलें लोग

‘प्रेम’ हमेशा से ही हिंदी फिल्मों का प्रमाण तत्व रहा है. सिनेमा के केंद्र में प्रेम की शाश्वत उपस्थिति रही है. गुलजार भी इस बात से अछूत या अपवाद नहीं रहे हैं. जीवन के इस महत्वपूर्ण पहलू ने उनके सिनेमाई कद को बढ़ाने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है. आज जब वैश्वीकरण के युग में तथा निर्मम ढंग से खुले हुए समाज में, प्रेम को नए अर्थों में तलाशा जा रहा है. इस समय मात्र दो ही नाम – गुलजार और जावेद अख्तर -अपना पुराना जादू बचाए हुए प्यार की नैसर्गिक आवाजाही को रच रहे हैं.

अपने आप में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि गुलजार आज भी प्रेम जैसी मानवीय अनुभूति को उजागर करने में ही अपना सर्वश्रेष्ठ रच पाते हैं. प्रेम के प्रति उनकी यह सहज स्वीकारोक्ति, उन्हें एक बार फिर से उसी सूफी और भक्ति परंपरा के नजदीक ले जाती है, जहां अपने सबसे सच्चे अर्थों में प्रेम की सार्थक और आदर्श अभिव्यक्ति होती रही है. कभी-कभी गुलजार की अभिव्यक्ति की कहानियों और गजलों को पढ़ते हुए यह भी लगता है कि यदि गुलजार एक सफल गीतकार या शायर न होते तो जीवन में कोई अन्य कार्य करते हुए भी वे एक असफल प्रेमी जरूर होते. एक सीमित शब्दावली के इस्तेमाल के बाद के बाद भी उनका गीतकार प्रेम की अलग- अलग अभिव्यक्तियों में अद्भुत ढंग से असीमित रंग भर देता है. रिश्तों के बहाने प्रेम के लिए गुलजार का खिंचाव, एक गैर फ़िल्मी एहसास में ‘लिबास’ शीर्षक से लिखी गई इस कविता में छिपा हुआ है :

मेरे कपड़ों में टंगा है तेरा खुशरंग लिबास

घर पे धोता हूं मैं हर बार उसे,

और सुखा के फिर से,

अपने हाथों से उसे इस्त्री करता हूं मगर,

इस्त्री करने से जाती नहीं शिकनें उसकी,

और धोने से गिले– शिकवों के चकत्ते नहीं मिटते!

जिंदगी किस कदर आसां होती

रिश्ते गर होते लिबास…

और बदल लेते कमीजों की तरह!

गुलजार की तरह यह उनके पाठकों को भी बखूबी मालूम है कि प्रेम होगा तो एक तरफ उससे मिलने वाली तमाम चीजें – उत्साह, उम्मीद, अपनापन, निकटता और संवेदना – होंगी. वहीं दूसरी सबसे ज्यादा नाउम्मीदी, दूरी, बैचेनी और दर्द का खतरा भी होगा. यह अपने में दिलचस्प बात है कि गुलजार प्रेम के इन दोनों ध्रुवांतों के बीच आश्वस्त होकर मनोयोग से गमन करते हैं. वे प्रेम रचते वक्त जितनी खूबसूरती से उम्मीद और अपनेपन को शब्द देते हैं, उसी के अनुपात में, उतनी ही गहराई से नाउम्मीदी, बैचेनी और तड़प की भी असाधारण प्रेम अभिव्यक्ति कर डालते हैं.

जब भी थामा है तेरा हाथ तो देखा है / लोग कहते हैं कि बस हाथ की रेखा है

हमने देखा है दो तकरीरों को जुड़ते हुए / आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे – घर

होंठ पर लिए हुए दिल की बात हम / जागते रहेंगे और कितनी रात हम

मुख्तसर सी बात है तुमसे प्यार है / तुम्हारा इंतजार है – ख़ामोशी

तमाम प्रकार के सिनेमाई सरोकारों से अलग गुलजार के रचनात्मक जीवन का एक कोना वह भी है, जो निहायत घरेलू व व्यक्तिगत जवाबदेही से उपजा है. यह कोना सौभाग्य से उनकी संवेदना का सबसे उर्वर प्रदेश भी है. जाहिर है, यहां हम सारी बात बच्चों की दुनिया, उनके बचपन और उस बचपन में अटाटूट भरी जीवंत संवेदनाओं की सहज उपस्थिति के संदर्भ में कर रहे हैं. ये सभी को मालूम है कि ढेरों खंडों में गुलजार ने अपनी बेटी को संबोधित ‘बोसकी का पंचतंत्र’ लिखा है और दूरदर्शन के बच्चों के धारावाहिकों के लिए दो बहुप्रशंसित गीत-‘जंगल-जंगल बात चली है / पता चला है /चढ्डी पहनकर फूल खिला है, फूल खिला है’ तथा ‘अगर-मगर डोले नईया / अगर मगर जाए रे पानी’ लिखा है.

हिंदी फिल्मों में बच्चों के लिए या उनसे जुड़े जितने भी गाने लिखे गए, सभी कर्णप्रिय व सुंदर होने के बावजूद एक खास ढर्रे पर बने हैं, जिनका बच्चों से सीधा जुड़ाव नहीं दिखता. उन गीतों में बच्चे मौजूद हों तो भी लगता है कि बाल सुलभ कौतुकता, किसी वयस्क हाथों की जद में कैद है. मगर गुलजार इसे तोड़ते हुए खुद बच्चे की मानसिकता में जाकर लिखते हैं और उन्हें बच्चों की निराली टीम के साथ ऊबड़-खाबड़, तेज-धीमे स्वरों में जस का तस फिल्माते हैं.

इससे उस बचपन को रेखांकित करने में मदद मिलती है, जिस पर सिनेमा की दुनिया में पहले कभी नहीं सोचा गया. आप ‘मासूम’ के बच्चों की बाल सुलभ मैत्री याद करें या ‘चाची 420’ की चाची के हुलिए का बखान. आप ‘मकड़ी’ का अद्भुत सांग सीक्वेंस अपनी स्मृति में कुरेदें, या ‘किताब’ के गीत के बारे में सोचें, सभी जगह बच्चों की दुनिया उनकी अपनी शर्तों पर संभव होती हुई जान पड़ती है. इन्हें सुनते हुए एकबारगी लगने लगता है कि गुलजार इन गीतों में अपना खोया हुआ बचपन ढूंढ़ रहे हैं या अपनी प्यारी बिटिया के लिए खुले हुए आसमान के नीचे पूरे संसार को खेल का मैदान बना देना चाहते हैं, जहां सभी का बचपन सुरक्षित है. उदाहरण के लिए-

लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा / घोड़े के दुम पे जो मारा हथौड़ा

दौड़ा दौड़ा दौड़ा, घोड़ा दुम उठा के दौड़ा

घोड़ा था घमंडी, पहुंचा सब्जी मंडी / सब्जी मंडी बरफ पड़ी थी

बरफ में लग गई ठंडी / दौड़ा दौड़ा दौड़ा,घोड़ा दुम उठा के दौड़ा – मासूम

ओ पापड़ वाले पंगा ना ले / थप्पड़ बजेगा पंगा ना ले

उंगली दबा के अंगूठा बना दूंगी / टाऊं-टाऊं

दुनिया का पहिया घुमाती हूं / चालाकियों से चलाती हूं

आ-जा अजमइले, मक्खन मलइले – मकड़ी

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