हेमंत कुमार के संगीत में आंचलिकता के बजाय शहरीपन की झलक थी और उनके गानों में ‘हॉन्टिंग इफ़ेक्ट’ कमाल का होता था
अनुराग भारद्वाज | 16 जून 2020 | फोटो: स्क्रीनशॉट
आज जो पीढ़ी सोशल मीडिया पर है, उससे एक पायदान पहले और उसके ऊपर की पीढ़ियों के बहुत से लोगों का यह क़िस्सा हो सकता है. यह दास्तां उनकी हो सकती है जो चालीस पार कर गए हैं. वे अब कभी जब अपने मुहब्बत के दिनों की जुगाली करते होंगे तो उनके ज़हन में कुछ हिंदी गाने ज़रूर गूंजते होंगे. उन्हें याद आता होगा महफ़िलों में जब गाने को कह दिया जाता था, वे अक्सर कई गाने बार-बार गुनगुनाते थे, यह सोचे बिना कि सुर में हैं या नहीं. कॉलेज की कैंटीन में बैठकर, या रात भर किसी की याद में करवटें बदलते हुए उन्होंने कहा होगा, ‘होंठ पे लिए हुए दिल की बात हम, जागते रहेंगे और कितनी रात हम, मुख़्तसर सी बात है तुमसे प्यार है, तुम्हारा इंतज़ार है…तुम पुकार लो.’
इस गाने की शुरुआत में हुई ‘हमिंग’ और ‘पुकार लो’ को ध्यान से सुनिएगा. वह मोहब्बत की बैचनी को जाहिर करता हुआ एक अंतर्नाद है. और आख़िर में जो सीटी बजती है न, वह दिल की कितनी गहराइयों में उतर जाती है, यह उनसे पूछिए जो चालीस पार कर गए हैं.
इस गाने को हेमंत कुमार ने कंपोज़ किया और गाया था. जन्मजात प्रतिभा बनाम मेहनत की बहस जाने कब से है. आपको जानकार हैरत होगी कि हेमंत दा क्लासिकल संगीत नहीं सीख पाए थे. कोशिश की थी उन्होंने इसकी. चूंकि संगीत की समझ लेकर पैदा हुए थे तो इससे बेहतर क्या काम सकते थे? और नियति भी उन पर मेहरबान रही वरना उनके पिता ने उनके लिए कुछ और ही सपने देखे थे. यह प्रतिभा की ही जीत हो सकती है कि कुछ लोग मानते हैं कि बांग्ला फ़िल्म इंडस्ट्री में हेमंत दा से बड़ा कोई गायक नहीं हुआ जबकि वहां किशोर कुमार भी अपना स्थान रखते हैं.
हेमंत दा ने शानदार संगीत दिया और कमाल के गाने गाये. उनकी आवाज़ इतनी ज़बरदस्त थी कि सीधे सुनने वाले सीधे से गीत के भाव से कनेक्ट हो जाया करते. संगीतकार सलिल चौधरी ने तो इतना तक कह दिया था कि भगवान भी अगर गाता तो हेमंत दा की आवाज़ में गाता. लता मंगेशकर ने एक दफा कहा था कि हेमंत दा जब गाते थे तो ऐसा लगता था कोई पुजारी मंदिर में बैठकर गा रहा है.
ऊपर ‘हमिंग’ की बात की गयी थी. यह हेमंत दा का सिंगनेचर स्टाइल था. इसी स्टाइल को उन्होंने ‘आनंदमठ’, ‘जाल’ (दोनों 1952) में इस्तेमाल किया था. पंकज राग अपनी किताब ‘धुनों की यात्रा’ में ज़िक्र करते हैं कि ‘आनंदमठ’ के एक गीत, ‘कैसे रोकोगे इस तूफ़ान को’ में प्रेम के शारीरिक तत्व को उभारने के लिए हेमंत ने तलत (महमूद) से भी हमिंग कराने में सफलता पायी.’
बतौर संगीतकार हेमंत की सफलता शुरू होती है फ़िल्मिस्तान स्टूडियो की ‘नागिन’ (1954) से. लता मंगेशकर का गया हुआ, ‘मन डोले मेरा तन डोले’ ने गली-गली में धूम मचा दी थी. इस फ़िल्म की सफलता के पीछे इसका संगीत ही था. फ़िल्म के प्रोडूसर शशिधर मुख़र्जी ने जब देखा कि फ़िल्म को ठंडा रेस्पॉन्स मिल रहा है तो उन्होंने इसके संगीत के एक हज़ार रिकार्ड्स होटलों और रेस्तरां में मुफ़्त में बंटवा दिए. जब फ़िल्म के गाने लोगों के ज़हन में उतरे तो सिनेमा हॉलों में दर्शक टूट पड़े.
इसके बाद हेमंत दा को पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी. बांग्ला सिनेमा में तो वे हिट हो ही चुके थे, ‘नागिन’ के बाद वे उस दौर के हिंदी सिनेमा के व्यस्ततम संगीतकारों में एक हो गए. इस कदर व्यस्त हो गए कि कई बार उन्हें रोज़ाना हवाई जहाज पकड़कर मुम्बई और कोलकाता के बीच सफ़र करना पड़ता. पंकज राग बताते हैं, ‘एयर इंडिया ने उन्हें डेली पैसेंजर का ख़िताब दे दिया था.’
छठे दशक में जब फ़िल्मिस्तान स्टूडियो बंद होने की कगार पर आ गया तो हेमंत कुमार ने गीतांजलि स्टूडियो खोलकर कुछ यादगार फ़िल्में बनाई. उन्हें रहस्मयी और रोमांचक फ़िल्में बनाने का शौक़ था और कमाल की बात यह है कि उनका संगीत फ़िल्म की पटकथा पर भारी पड़ता था. मिसाल के तौर पर ‘बीस साल बाद’ (1961) का गाना ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’ या ‘कोहरा’ (1964) का ‘झूम झूम ढ़लती रात’ जैसे गानों में ‘हॉन्टिंग इफ़ेक्ट’ मदन मोहन के ‘नैना बरसे रिमझिम रिमझिम’ या ‘नैनों में बदरा छाये’ गानों की बराबरी करता है.
‘ख़ामोशी’ (1969) हेमंत कुमार के लिए एक बड़ी सफलता लेकर आई. हेमंत दा के शानदार संगीत और गुलज़ार के फ़लसफ़ाई गीतों ने तहलका मचा दिया. हेमंत कुमार का ‘तुम पुकार लो’, लता मंगेशकर का ‘हमने देखी है उन आंखों की महकती ख़ूशबू’ और किशोर कुमार का ‘वो शाम कुछ अजीब थी’ खूब मशहूर हुए.
हेमंत दा और मदन मोहन के संगीत में दो बातें ख़ास थीं. पहली यह कि इनमें आंचलिकता के बजाए शहरीपन या आधुनिकता झलकती थी और दूसरा दोनों के गानों में ‘हॉन्टिंग इफ़ेक्ट’ कमाल का होता था. पंकज राग लिखते हैं, ‘छठे दशक के अंतिम वर्षों में हेमंत का झुकाव भारतीय मेलोडी और ऑर्केस्ट्रेशन की अपेक्षा आधुनिक ऑर्केस्ट्रेशन के साथ अपने खास गूंजते, प्रतिध्वनित असर वाले संगीत की तरफ़ बढ़ने लगा था.’
छठे दशक की फ़िल्में समाज की पुरानी सीमाओं को तोड़कर आगे निकलने की कोशिश बयान करती हैं. ऐसे में हेमंत दा का संगीत जिसमें आधुनिकता थी, बिल्कुल फ़िट बैठ जाता है और यही बात उन्हें सिनेमा के इतिहास में अलग स्थान पर ले जाकर खड़ा कर देती है. मिसाल के तौर पर ‘साहिब बीवी और ग़ुलाम’(1962), ‘सन्नाटा’ (1966) और बांग्ला फ़िल्म ‘नील आकाशेर’ इसकी बानगी हो सकते हैं. ‘नील आकाशेर’ का गीत में नायक मोटरसाइकिल को तेज़ी से सड़क पर लहरा रहा है, तो ज़ाहिर है गीत भी ऐसा ही होना चाहिए और हेमंत दा जादू कर जाते हैं. इसी तर्ज़ पर उन्होंने हिंदी में ‘एक बार ज़रा फिर कह दो, मुझे शरमा के तुम दीवाना’ रचा था.
इसी दौर के कई सितारों के सहारे आप इस बात को समझ सकते हैं. समाजवाद दिखाने का ज़िम्मा राज कपूर के सिर था. उसी प्रकार देवानंद, गुरुदत्त या बिश्वजीत के अंदाज़ में आधुनिकता दिखती थी. उधर, दिलीप कुमार हर खांचे में फिट हो जाते थे. हेमंत दा बीच की श्रेणी वालों के संगीतकार थे.
देवानंद की ‘सोलहवां साल’ का ‘है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आएगा’ या बिश्वजीत पर फ़िल्माया ‘बेक़रार करके हमें यूं न जाइए’ जैसे गाने, उनकी आवाज़ और उनका संगीत उस दौर के साथ न्याय करते नज़र आते हैं. बतौर संगीतकार लता मंगेशकर ‘नागिन’ के बाद, उनकी सबसे पसंदीदा गायिका रहीं. आशा भोंसले के साथ भी हेमंत दा ने कई अच्छे गाने दिए. उनकी आवाज़ के साथ उनकी जादूगरी ‘भंवरा बड़ा नादान है’ में दिखती है. गीता दत्त के साथ उन्होंने कुछ कम काम किया, लेकिन वे भी हेमंत कुमार की कम पसंदीदा गायिका नहीं थीं. कम ही लोगों को मालूम है कि ‘कहीं दीप जले दिल’ पहले गीता ही गाने वाली थीं. और यह बात हेमंत दा भी जानते होंगे कि ‘पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे’ तो शायद लता भी ऐसा नहीं गा पातीं.
जहां तक बांग्ला संगीत की बात है तो हेमंत कुमार के आसपास भी कोई नहीं है. वहां वे रविंद्र संगीत और आधुनिक संगीत के अलावा गायक के तौर पर सबसे बड़ा नाम हैं. जो ‘आनंदमठ’ हिंदी सिनेमा में उनकी शुरुआत करती है, वह पहले बांग्ला में बनी थी.
फ़िल्म संगीत में आधुनिकता के परिचायक हेमंत दा, सत्तर और अस्सी के दशकों की आधुनिकता की लिजलिजी चाशनी में कहीं फंसकर रहे गए और इस माहौल से निराश होकर उन्होंने काम करना बंद कर दिया. पर जो भी है, अगर हेमंत दा अपने पिता की बात मानकर इंजीनियर बन जाते तो ‘है अपना है दिल तो आवारा, न जाने किस पे आएगा’ कौन बनाता? इसलिए कहते हैं. सुनिए सबकी, करिए दिल की.
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