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क्या इस्लाम में तस्वीर और मूर्ति पर पाबंदी है?

इस्लामी धर्मग्रंथ और मान्यताएं तस्वीर और मूर्ति के बारे में किस तरह की राय रखते हैं

राकेश भट्ट | 01 नवंबर 2020 | फोटो: विकीमीडिया कॉमंस

कहते हैं कि रेत अपने नक्श 24 घंटे में 25 बार बदलती है. पश्चिम एशिया की एक मुख्य पहचान रेत ही है और बदलाव का स्वभाव इस समाज की रेतीली विरासत का हिस्सा रहा है. इसी भूभाग की कोख ने मानव समाज को तीन बड़े धार्मिक दर्शन दिए – यहूदियत, ईसाई और इस्लाम. इन तीनों धर्मों की अवधारणा का केंद्र एकेश्वरवाद यानी एक ईश्वर का सिद्धांत रहा है. इन तीनों धर्मों में ही ईश्वर के चित्रों और मूर्तियों का कोई स्थान नहीं रहा.

ईश्वर के चित्र और मूर्ति बनाने की मनाही तो इन तीनों धर्मों में अभी भी है लेकिन, समय के साथ यहूदियों और ईसाइयों ने अपने धर्मों के प्रवर्तकों – हजरत मूसा और ईसा – की तस्वीर और मूर्ति को वैध मान लिया है. जबकि मुस्लिम समुदाय ने हज़रत मुहम्मद के चित्र या मूर्ति को कभी जायज़ नहीं माना. इसके साथ ही इस्लाम में तस्वीरों की मनाही अल्लाह और पैगंबर मुहम्मद तक ही सीमित न रहकर हर तरह के चित्रों और मूर्तियों पर लागू हो गई. हालांकि इस्लाम के सबसे पवित्र धार्मिक ग्रंथ कुरान में तस्वीर या मूर्ति बनाने पर प्रतिबंध का ज़िक्र ही नहीं है. अगर प्रतिबंध है तो किसी चित्र या मूर्ति की पूजा करने पर. इसके उलट कुरान में तो मूर्तियों का ज़िक्र ही मिलता है. जैसे हजरत सुलेमान का महल मूर्तियों से सुसज्जित था. लेकिन इन मूर्तियों की इबादत नहीं की जाती थी. इन्हें मात्र महल की शोभा बढ़ाने के लिए लगाया गया था.

इस्लाम में चित्रों की मनाही का ज़िक्र सिर्फ हदीस (सहीह अल-बुखारी) में मिलता है. इसके मुताबिक एक बार हजरत मुहम्मद यात्रा से घर लौटे तो अपनी पत्नी आयशा के कमरे पर एक पर्दा देखा जिस पर चित्र बने थे. इसे देख उन्होंने गुस्से में कहा – अशहदु अल-नासा अज़ाब अल-यौम अल-कियामा अल-मुस्सविरून (क़यामत के दिन तस्वीर बनाने वालों को सबसे सख्त सजा मिलेगी). हदीस की इसी दलील पर इस्लामी विद्वान तस्वीरों को प्रतिबंधित मानते हैं.

सवाल उठता है कि इस्लाम को मानने वाले तस्वीर और मूर्तियों के सवाल पर इतने अधिक संवेदनशील क्यों हैं? इसे समझने के लिए हम अगर इस्लाम से पहले के अरब समाज की धार्मिक मान्यताओं पर एक नजर डालें तो इसके कारण स्पष्ट होने लगते हैं.

अरब लोग एक साल को 360 दिन का मानते हैं और इस्लाम से पहले के यहां के समाज की धार्मिक मान्यताओं में हर दिन के लिए एक देवी या देवता मुक़र्रर था. यानी इस समाज में 360 मूर्तियों की पूजा हुआ करती थी. इनमें अल्लाह नाम के देव का स्थान सबसे ऊपर था. इसके बाद तीन देवियों – अल-लात, मनात और अल-उज़्ज़ा का स्थान आता था. इतने देवी-देवताओं को मानने वाले समाज में जब हजरत मुहम्मद से उनके अनुयाइयों ने पूछा कि हे पैगंबर! वह ईश्वर जिसकी इबादत का हुक्म आप देते हैं, कैसा है? तो उन्होंने चार आयतों में उस ईश्वर का वर्णन किया, उसे अल्लाह के नाम से पुकारा और कहा :

कुल हु वल्लाहु अहद – कहो कि वह एकेश्वर है

अल्लाहु समद – वह अमर है और हर कारण का कर्ता है

लम यलिद व लम यूलद – न वह किसी कोख से जन्मा है और न ही कोई उसकी कोख से जन्मा

व लम यकुन लहू कुफुअन अहद – और उस जैसा कोई और नहीं

ये चार आयतें कुरान के इखलास नाम के 112 वें अध्याय की हैं. इस्लामी मत के अनुसार यह तर्कसंगत लगता है कि जो बहुआयामी हो, जिसका कोई आदि और अंत न हो और जिसके जैसा कोई न हो, ऐसे सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी आराध्य को चित्र या मूर्ति के सीमित दायरे से देखा-समझा नहीं जा सकता. पैगंबर मुहम्मद के जीवनकाल में जब भी इस विषय पर कोई सवाल खड़े हुए तो उसका समाधान खुद उनके द्वारा हुआ. पैगंबर की मृत्यु के बाद इस्लामी मसलों का समाधान इस्लाम के चार खलीफा – हज़रात अबू बकर, उमर, उस्मान और अली के द्वारा किया जाता था.

धर्म के दो मुख्य आयाम हुआ करते हैं – एक उसका बाह्य स्वरुप और दूसरा उसका अंतस. किसी विचार के बाह्य स्वरुप की भौतिकता को तो आकार, रंग या प्रतीक चिह्नों से दर्शाया जा सकता है. जैसे हिंदू धर्म में छाप, तिलक आदि, यहूदी धर्म की विशिष्ट टोपी, ईसाइयत में सलीबी लॉकेट और इस्लाम में दाढ़ी और पहनावा. लेकिन मनुष्य धर्म के अंतस की तस्वीर बनाने में अक्षम है. शायद इसीलिए इस्लाम मानता है कि तस्वीर बनाना जायज नहीं. मुस्लिम विद्वान मानते हैं कि ईश्वर के गुणों की अनुभूति तो हो सकती है लेकिन उनकी अभिव्यक्ति संभव नहीं है और यह दलील मुस्लिम समाज को सर्वमान्य है.

जैसा कि अन्य धर्मों में भी देखने को मिलता है कि अपने शुरूआती दौर को छोड़कर धर्म, संप्रदायों में बंटने लगता है. जैसे ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट, हिंदुओं में वैष्णव और शैव, बौद्ध धर्म में हीनयान और महायान. इस्लाम भी इस संप्रदायवाद से अछूता नहीं रहा. सन 661 के आसपास, जब इस्लाम के चौथे खलीफा हज़रत अली का निधन हुआ तो धर्म के कुछ पहलुओं को लेकर विवाद होने पर शिया संप्रदाय की नींव पड़ी और इस्लाम की दो मुख्य धाराएं – शिया और सुन्नी – अस्तित्व में आईं. बाद में इन दो विचारधाराओं का अस्तित्व नदी के उन दो तटों के जैसा हो गया जिनकी मंज़िल तो एक ही है लेकिन मिलना असंभव.

इस्लामी जगत में सुन्नी संप्रदाय के अनुयायी बहुसंख्या में हैं जबकि शियाओं की जनसंख्या केवल 12 प्रतिशत ही है. शिया संप्रदाय का वैचारिक नेतृत्व ईरान करता है. तस्वीर और मूर्तियों के मसले पर शिया समाज और खास कर ईरानी समाज व राज्य व्यवस्था का रवैय्या काफी उदार लगता है. यहां हर घर में हज़रत अली की तस्वीर का पाया जाना उनकी अस्मिता का हिस्सा बन गया है. शिया विचारधारा के लोग पैगंबर के बाद अली को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं. अली के व्यक्तित्व को वे कुछ इस तरह बयान करते हैं – ला फतहा इल्ला अली, ला सैफ इल्ला ज़ुल्फ़क़ार (नहीं है विजेता कोई अली जैसा और कोई तलवार अली की ज़ुल्फ़क़ार तलवार सरीखी नहीं). शियाओं का अली प्रेम सुन्नी संप्रदाय के विरोध का एक मुख्य कारण माना जाता है. सुन्नियों का मानना है कि शिया संप्रदाय इस्लाम के मूलभूत एकेश्वर के सिद्धांत को नकारता है. शिया इस आक्षेप को स्वीकार नहीं करते.

किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की आस्था को ठेस पहुंचने पर अक्सर प्रतिक्रिया देखने को मिलती है. इस्लाम इस मामले में कुछ अधिक संवेदनशील प्रतीत होता है. अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा सलमान रश्दी के खिलाफ मौत का फ़तवा देना इसी का एक चर्चित उदाहरण है. मान्यताओं पर ठेस लगना स्वाभाविक है लेकिन उस पर प्रतिक्रियाएं किस हद तक जायज़ हैं इस बारे में पैगंबर मुहम्मद के जीवन काल की एक घटना और इसी सिलसिले में कुरान के कौसर नामक 108वें अध्याय की तीन आयतें भी हैं.

मुहम्मद साहब की संतानों में पुत्र नहीं थे और जो हुए वे बचपन में ही चल बसे. इस्लाम पूर्व अरब समाज में पुत्र विहीन पुरुष को पौरुष विहीन माना जाता था. समाज के दूसरे लोग इस्लाम के अनुयायिओं को ताना देते हुए कहते थे कि तुम्हारा पैगंबर तो ‘अबतर’ है यानी पौरुषहीन, वंश विहीन है. इस बात से आहत होकर जब वे पैगंबर के पास पहुंचे और पूछा कि हम गैर मुस्लिमों के कटाक्ष पर क्या रवैया अपनाएं तो इस सवाल के समाधान हेतु तीन आयतें अवतरित हुईं :

इन्ना आतैनाकल कौसर – हमने तुम्हें (बेटी के रूप में) स्वर्ग की नदी कौसर प्रदान की है

फसल्ले ले-रब्बेक वनहर – इसलिए मेरी भक्ति करो

इन्ना शानिअका हुवल अबतर – और जो तुम्हें वंश विहीन कहते हैं वे खुद ही वंश विहीन हो जाएंगे

इस आसमानी फरमान के तहत उस समय के मुस्लिम समाज ने अपनी भावनाओं पर ठेस पहुंचने वाली बातों को या तो नज़रअंदाज़ किया या गैर-मुस्लिमों के साथ संवाद ही किए. लेकिन आज इसका उलटा होते दिखता है जो कि जाहिर तौर पर ऊपर लिखी आयतों और उनके संदेशों के विपरीत है.

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