जमशेदजी टाटा ने अपने विचारों और कर्मों से नए हिंदुस्तान की नींव रखी थी. वे ऐसे उद्योगपति थे जिसने देश से जितना लिया, उससे कहीं ज्यादा लौटाया
अनुराग भारद्वाज | 19 मई 2020
आज टाटा संस का साम्राज्य नमक से लेकर चाय तक, स्टील से लेकर कार-ट्रकों तक और वित्त से लेकर सॉफ्टवेयर तक हर कहीं नज़र आता है. जब कोई नया मैनेजर या कामगार टाटा समूह की किसी कंपनी में काम शुरू करता है तो उसे समूह के बारे में एक वाक्य में बताया है, ‘हम किसी न किसी रूप में हर भारतीय की जिंदगी का हिस्सा हैं.’ टाटा समूह अपनी बाकी विशेषताओं के अलावा एक और बात के लिए जाना है और वह है इसका केंद्रीय मूल्य. यह विचार कहता है कि इस कारोबारी साम्राज्य की बुनियाद मुनाफ़े से इतर समाज की भलाई होगी. इस केंद्रीय मूल्य के संस्थापक थे- जमशेदजी नुसरवानजी टाटा.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एडिटर (1907-1923) सर स्टैनले रीड ने कहा था, ‘सिर्फ एक ही शख्स था जिसने हौसले के साथ भविष्य को देखा और जिसने बाकियों से अलग, पूर्ण अर्थव्यवस्था पर विचार किया. ये थे, जमशेदजी नुसरवानजी टाटा.’ जमशेगजी को उनकी चार उपलब्धियों के लिए हमेशा याद किया जाएगा- स्टील उत्पादन इकाइयों की स्थापना, जल विद्युत (हाइड्रो-इलेक्ट्रिक) ऊर्जा का उत्पादन, भारतीय विज्ञान संस्थान और होटल ताज महल का निर्माण.
उद्योग जगत में पहला कदम
एल्फिंस्टन कॉलेज से ‘ग्रीन स्कॉलर’ (ग्रेजुएट) बनने के बाद जमशेदजी के पिता ने उन्हें हांगकांग भेज दिया. यहीं से उनका उनका व्यापारिक जीवन शुरू हुआ. वह ग़दर का साल था जब दिसंबर में उन्होंने जमशेदजी और अर्देशिर नाम से हांगकांग में फर्म बनाई. इसके जरिए चाइना कपास और अफ़ीम का निर्यात होता था.
यही वह समय था जब दुनियाभर में कपास की मांग तेज़ हो रही थी और व्यापारी रातों-रात अमीर हो रहे थे या कपास के सट्टे में बर्बाद हो रहे थे. हर कोई इस क्षेत्र में भाग्य आजमाना चाह रहा था. लंदन एक बहुत बड़ा बाज़ार था. जमशेदजी को भी उनके पिता ने किस्मत आजमाने इंग्लैंड भेज दिया. शुरुआत में कुछ साल उन्होंने कपास की दलाली में बिताये और फिर जूट मिल मालिक बनने में.
जब जमशेदजी को एक साधु की वजह से मिल की जगह बदलनी पड़ी
कावसजी नाना भाई डावर ने तारदेओ (बॉम्बे) में हिंदुस्तान की पहली कपास की फैक्ट्री लगाई थी. सभी इसी होड़ में थे कि बॉम्बे या अहमदाबाद के आसपास मिलें स्थापित की जाएं. जमशेदजी और उनके पिता नुसरवानजी टाटा ने पहली बार कहीं और मिल स्थापित करने का मानस बनाया. जगह चुनी गयी- जबलपुर. यहां कपास के खेत थे और नर्मदा का पानी भी. सरकार को आवेदन भेज दिया गया पर एक दिक्कत थी. उस जगह एक साधु था जिसके कई भक्त थे. समस्या तब हुई जब भक्तों ने धमकी दे डाली कि अगर साधु को विस्थापित किया गया तो दंगे भड़क जाएंगे. आखिरकार इस झगड़े से बचने के लिए नागपुर का चयन किया गया.
एक जनवरी, 1877 को रानी विक्टोरिया हिंदुस्तान की रानी घोषित हुईं और उनके ही नाम पर जमशेदजी ने नागपुर में ‘एम्प्रेस मिल’ की स्थापना की. शुरुआती दिक्कतों के बाद 1881 में ‘एम्प्रेस’ ने 16 प्रतिशत का लाभांश दिया जो उस समय बड़ी बात थी. कुछ ही समय में यह मध्य प्रान्त की सबसे बड़ी मिलों में से एक बन गई.
जमशेदजी भारत में कामगारों के कल्याण के कार्यक्रम शुरू करने वाले पहले उद्योगपति थे
कामकाज के जिस तौर-तरीके को ‘प्रोफेशनल कल्चर’ कहा जाता है, वह उस वक़्त तो बिलकुल भी नहीं था. फैक्ट्रियों में मजदूरों की गैर-हाज़िरी दस प्रतिशत से लेकर बीस प्रतिशत थी. जमशेदजी ने इस समस्या से निजात पाने के लिए प्रोविडेंट फण्ड, दुर्घटना बीमा स्कीम और पेंशन फण्ड की स्थापना की थी. पहली बार मिल में वातायन (वेंटिलेशन) और उमस से बचने के उपाए करवाए. इनमें से कुछ सुधार तो इंग्लैंड में ‘फैक्ट्रीज एक्ट’ के लागू होने से पहले ही वे हिंदुस्तान में अमल में ले आये थे. पहली बार मजदूरों को बेहतर काम के लिए इनाम दिए जाने लगे जिनमें सोने-चांदी की घड़ियां और मेडल्स थे. उन्हें कपड़े बांटे जाने लगे. मजदूरों के लिए शौच और डिस्पेंसरी की व्यवस्था की गयी. प्रबंधकों को ट्रेनिंग के लिए फण्ड दिए गए. जमशेदजी ही ऐसे पहले उद्योगति थे जिन्होंने अपने कर्मियों के रहने के लिए आवास का इंतज़ाम किया था.
उच्च शिक्षा के लिए प्रयास
एफ़आर हैरिस ने जमशेदजी के जीवन पर लिखी किताब ‘क्रॉनिकल ऑफ़ हिज लाइफ़’ में लिखा है, ‘हालांकि जमशेदजी एक उद्योगपति थे पर पहले वे एक स्कॉलर थे. शिक्षा को लेकर वे उत्साहित रहते थे. जमशेदजी यह जानते थे कि हिंदुस्तान को अगर विश्व शक्ति बनना है तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कारगर कदम उठाने होंगे.’ उस वक़्त इंडियन सिविल सर्विसेज में कम ही भारतीय विद्यार्थी आ पाते थे. एक आंकड़े के अनुसार साल 1914 तक कभी भी सात से ज़्यादा भारतीयों का इस सेवा के लिए चयन नहीं हुआ.
रूसी लाला अपनी क़िताब ‘दी लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़ जमशेदजी टाटा’ में इस बाबत लिखते हैं कि जमशेदजी ने ब्रिटिश सरकार को इस बात के लिए राज़ी करने का प्रयास किया कि सिविल सर्विसेज की परीक्षा इंग्लैंड के साथ-साथ हिंदुस्तान में भी होनी चाहिए. 1892 में उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए प्रयास शुरू कर दिए. उन्होंने मेधावी छात्रों के लिए छात्रवृति कोष की स्थापना की. कहा जाता कि उस दौर में सिविल सर्विस में जाने वाले कई छात्र टाटा की छात्रवृत्ति के जरिए ही अपनी उच्च शिक्षा हासिल कर रहे थे. इन छात्रों में से कई देश में शीर्ष पदों पर भी पहुंचे या उन्होंने बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की थीं. जैसे : डॉ जीवराज मेहता (जो गुजरात के मुख्यमंत्री बने), डॉ रजा रमन्ना (भौतिक विज्ञानी), डॉ जयंत नार्लीकर (मशहूर खगोल वैज्ञानिक) और डॉ जमशेद ईरानी (जो बाद में टाटा स्टील के मैनेजिंग डायरेक्टर बने).
जमशेदजी के अधूरे ख्व़ाब – भारतीय विज्ञान संस्थान (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस) की स्थापना
भारतीय विज्ञान संस्थान की स्थापना जमशेदजी की मृत्यु के बाद 1909 में हुई. एक बार जब वे इसका प्रस्ताव लेकर तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्ज़न के पास गए तो उसने पूछा था, ‘पर ऐसे शिक्षित हिन्दुस्तानी विद्यार्थी कहां हैं जो ऐसे किसी संस्थान में दाख़िला ले पायें और अगर ले भी लिया तो उनके लिए उतने बड़े रोज़गार कहां हैं?’ हालांकि ऐसी बातों से जमशेदजी बिल्कुल भी हतोत्साहित नहीं हुए.
इस ख्व़ाब की शुरुआत 1896 में ही हो गयी थी जब उन्होंने यह महसूस किया कि हिंदुस्तान में उच्च स्तर के न तो विश्वविद्यालय हैं और न ही शोध हो रहे हैं. जमशेदजी ने इसके लिए अपनी तीस लाख की सम्पतियां दान देने की बात भी कही थी. इस विचार को लेकर वे इतने उत्साहित थे कि उन्होंने स्वामी विवेकानंद को पत्र लिखकर इस प्रयास का नेतृत्व करने के लिए निवेदन किया. बदकिस्मती से 1902 में ही विवेकानंद की मृत्यु हो गई. बाद में उनकी शिष्या निवेदिता जमशेदजी के प्रयास की समर्थक बनीं.
मैसूर के राजा ने इस काम के लिए 375 एकड़ ज़मीन और एकमुश्त खर्च के लिए पांच लाख रुपये दिए थे. साथ ही व्यवस्था दी थी कि हर महीने संस्थान को 50 हजार रुपये दिए जाएंगे. 1905 में लार्ड कर्ज़न ने हिन्दुस्तान छोड़ने से पहले इस संस्थान की स्थापना को हरी झंडी दे दी थी और 1909 में इसकी स्थापना हुई.
दूसरा ख्व़ाब – टाटा स्टील
इंग्लैंड में रहते हुए जमशेदजी के लिए थॉमस कार्लाइल का एक भाषण जीवन मन्त्र बन गया था. इसमें कार्लाइल ने कहा था : ‘जिस देश के पास स्टील होगा, उसके पास सोना होगा.’ सुमित के मजूमदार अपनी किताब, ‘इंडियाज़ लेट, लेट इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन’ में लिखते हैं कि 1882 में जमशेदजी ने एक लेख पढ़ा था. इसमें जर्मन भूविज्ञानी रिटर वों श्च्वार्त्ज़ ने जानकारी दी थी कि नागपुर के पास चंदा (अब चंद्रपुर) जिले में एक गांव है- लोहरा, जहां सबसे बढ़िया लौह खनिज के भंडार हैं. इस लेख को पढ़ने के बाद जमशेदजी ने वहां खनिजों की खदान के लाइसेंस ले लिए. इसके बाद जमशेदजी अपना खवाब पूरा करने में जुट गए. हालांकि शुरुआत में उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
कर्जन को हिन्दुस्तानियों की काबिलियत पर भरोसा नहीं था कि वे कोई स्टील प्लांट भी लगा सकते हैं, लिहाज़ा उसने इंग्लैंड से कुछ बड़े उद्यमियों को भारत में निवेश का निमंत्रण दिया. जमशेदजी जल्दी में थे. वे सबसे पहले अपना प्लांट लगाना चाहते थे. उन्होंने अमेरिका के उन शहरों का दौरा किया जहां स्टील के प्लांट्स स्थापित थे. उनकी खस्ता हालत देखकर उन्होंने अपने बेटे दोराबजी टाटा को ख़त लिखा जिसमें हिदायत दी कि फैक्ट्री लगाने के साथ–साथ वे शहर को भी विकसित करें- सड़कें बड़ी हों, खेलने के लिए मैदान हों, हिन्दुओं, मुस्लिमों और ईसाईयों के लिए उनके प्रार्थना-घर बनवाये जाएं… जमशेदजी का यह ख्व़ाब 1907 में यानी उनकी मृत्यु के तीन साल बाद पूरा हुआ.
जमशेदजी की महानता को हम अगर कम से कम शब्दों में दर्ज करना चाहें तो बस इतना कहना पर्याप्त होगा कि वे पहले उद्योगपति थे जिन्होंने अपने विचारों और कर्मों से नए हिंदुस्तान की नींव रखी थी. उन्होंने फैक्ट्रियों में काम करने वाले कामगारों को सहूलियतें दी थीं और वे उन गिने-चुने लोगों में से थे जिन्होंने जितना इस देश से लिया उससे ज़्यादा इस देश को लौटाया.
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