दुनिया ने उन्हें महान शिकारी के तौर पर जाना. लेकिन 20 साल से ज्यादा समय तक जिम कॉर्बेट ने रेलवे के लिए भी काम किया था और उनके उस दौर के किस्से कम ही चर्चित हैं
प्रभात | 25 July 2020
कुमाऊं और केन्या में भला क्या रिश्ता हो सकता है? यों नैनीताल और न्येरी में भी कोई रिश्ता नहीं. मगर कालाढ़ूंगी के जंगलों में गुलेल और तीर-कमान से रियाज़ करते बड़े हुए जिम कॉर्बेट ने अप्रत्यक्ष रूप से इन दोनों को एकसूत्र कर दिया. कालाढ़ूंगी में जन्मे जेम्स एडवर्ड कॉर्बेट सारी उम्र हिन्दुस्तान में गुज़ार देने के बाद आख़िरी दिनों में केन्या चले गए थे.
दुनिया ने उन्हें शिकारी के तौर पर जाना, शिकार के उनके क़िस्सों और दिलचस्प क़िस्सागोई के दीवाने भी तमाम हैं, प्रकृति से उनके प्रेम और पर्यावरण संरक्षण की उनकी कोशिशों के सम्मान की नज़ीर कॉर्बेट नेशनल पार्क है ही. मगर रेलवे में उनकी मुलाज़मत के दिनों के बारे में कम ही लोग जानते हैं. हालांकि 20 साल से ज्यादा समय तक उन्होंने रेलवे के लिए काम किया और रेलवे वाले इस पर नाज़ भी करते हैं.
पढ़ाई छोड़कर 18 साल की उम्र में ही जिम कॉर्बेट ‘बंगाल एण्ड नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे’ में फ़्यूल इन्स्पेक्टर हो गए थे. बाद में मोकामा घाट पर उन्होंने रेलवे के ठेकेदार के तौर पर काम किया. उन दिनों जब मोकामा में गंगा नदी पर पुल नहीं था, और एक तरफ ब्रॉड गेज़ लाइन थी और दूसरी तरफ मीटर गेज़, मोकामा घाट उत्तर और दक्षिण रेलवे को जोड़ने वाले तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा था. रेलवे के मुसाफ़िरों और सामान को स्टीमर के ज़रिये दूसरे घाट तक पहुंचाने का इंतज़ाम था. कोयला, अनाज और बड़े पार्सल समेत घाट से गुज़रने वाले पांच लाख टन माल की आवाजाही यानी ट्रेन से उतारकर गोदाम में रखने और बाद में उन्हें दूसरी ओर पहुंचाने के लिए लदाई के काम का ठेका जिम कॉर्बेट का था.
उत्तर पूर्व रेलवे (एनईआर) के इतिहास पर छपी किताबों में जिम कॉर्बेट की नौकरी का मुख़्तसर ज़िक्र ज़रूर मिलता है मगर कॉर्बेट ने अपनी किताब ‘माय इंडिया’ में उस दौर के तमाम दिलचस्प क़िस्से दर्ज़ किए हैं. ‘हिन्दुस्तान के ग़रीबों’ को समर्पित यह किताब मोकामा घाट के दिनों में उनके साथ काम करने वाले लोगों और महत्वपूर्ण घटनाओं का अद्भुत दस्तावेज़ तो है ही, साथ ही यह कॉर्बेट के क़िरदार और उनकी संवेदना का पता भी देती है.
रेलवे की लदाई-उतराई का ठेका लेने से पहले मुआयने के इरादे से कॉर्बेट जब मोकामा घाट गए थे तो तमाम लोगों के हतोत्साहित करने के बावजूद जिस एक शख़्स ने उनके फ़ैसले पर भरोसा जताया था, वह स्टेशन मास्टर रामसरन थे. यह वही रामसरन थे, जिनके साथ मिलकर जिम कॉर्बेट ने मजदूरों और कम तनख़्वाह वाले रेलवे मुलाज़िमों के लड़कों की पढ़ाई के लिए एक स्कूल शुरू किया और जिनसे उनकी दोस्ती पूरी उम्र बनी रही. भाड़े के कच्चे कमरे में शुरू हुए इस स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने वालों की तादाद धीरे-धीरे इतनी बढ़ी कि इसे सरकारी मिडिल स्कूल का दर्ज़ा मिल गया. शिक्षा के प्रति रामसरन के योगदान पर उन्हें ‘राय साहब’ का ख़िताब भी मिला. बक़ौल जिम कॉर्बेट ‘पढ़ाई को लेकर रामसरन की प्रतिबद्धता से ही स्कूल का उनका ख़्वाब पूरा हो सका.’
कोयला उतारने वाले मजदूरों के गैंग के मुखिया चमारी या फिर दादा के दो रुपये का कर्ज़ चुकाने के फेर में पैसा भरने के साथ ही साहूकार की बेगारी करने वाले बुद्धू की दास्तान, तत्कालीन समाज की सच्चाइयों का ऐसा ब्योरा हैं जिन्हें कहानियों में पढ़ते हुए आप आसानी से कल्पना या अतिरंजना क़रार दे सकते हैं. जीते-जी किवदंति बन गए सुल्ताना डाकू को पकड़ने की सरकारी मुहिम का हिस्सा रहे जिम कॉर्बेट सुपरिंटेंडेंट फ्रेड एंडरसन के हाथों सुल्ताना की गिरफ़्तारी के साथ ही तफ़्सील से इस डाकू के मानवीय पक्ष का ब्योरा भी देते हैं.
उस दौर की जरायमपेशा जातियों के बारे में बात करते हुए जिम कॉर्बेट ने लिखा है कि उनकी ख़्वाहिश थी कि सुल्ताना की सजा मुकर्रर करते वक़्त यह भी ख़्याल रखा जाए कि ज़िन्दगी में उसे कुछ और करने का मौक़ा ही न मिल सका और यह भी कि जन्म के साथ ही उसे जरायमपेशा मान लिया गया था, वरना अपनी समझ में उसने कभी असहाय या ग़रीबों या औरतों की हमेशा मदद ही की थी. जिम कॉर्बेट सुल्ताना डाकू को हिन्दुस्तानी रॉबिनहुड मानते थे.
बेहद मामूली लगने वाली घटनाओं के बीच इंसानी भावनाओं को महसूस करने और उसे दर्ज़ करने की ख़ूबी किसी ख़ालिस शिकारी की नहीं हो सकती. नैनीताल में चीना पहाड़ी के क़रीब एक गांव के लोगों ने आदमख़ोर बाघ मारने के लिए उन्हें टेलीग्राम भेजा था. कॉर्बेट ने दर्ज़ किया है, ‘जैसा कि एक आम हिन्दुस्तानी का भरोसा होता है, गांव के लोगों को टेलीग्राम भेज देने भर से पक्का यक़ीन था कि मैं ज़रूर आऊंगा.’ सुल्ताना डाकू का पीछा करते हुए रात में किसी गांव से गुज़रने का ब्योरा उन्होंने इस तरह बयान किया है, ‘हम लोगों ने यह काम इतनी ख़ूबी से अंजाम दिया कि गांव के कुत्तों की ख़ामोशी भी नहीं टूटी. गांवों के ये देसी कुत्ते दुनिया के नायाब कुत्तों से ज्यादा बेहतर पहरेदार ठहरते हैं.’
जिम कॉर्बेट को इंसान की नेकदिली और ईमानदारी पर बहुत भरोसा था, मगर जानवरों को वे उससे कमतर हरग़िज़ नहीं मानते थे. कितने ही वाक़यों और तजुर्बों के ज़रिये उन्होंने खूंखार समझे जाने वाले जानवरों को भरोसेमंद और रहमदिल साबित किया है. यही वजह है कि इंसानी अराजकता को ‘जंगल का क़ानून’ ठहराने वाली उक्तियों को भी वे मौक़े-बेमौक़े ख़ारिज़ करते रहे.
जिम कॉर्बेट तब 31 वर्ष के थे, जब चम्पावत में उन्होंने पहले आदमख़ोर का शिकार किया. तारीख़ थी- 31 मई 1907 और 1938 में टॉक गांव में आख़िरी आदमख़ोर के शिकार के वक़्त तक वे 63 साल के हो चुके थे. उनकी लिखी छह किताबें इसके बाद ही दुनिया के सामने आईं. सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई उनकी पहली किताब ‘मैन ईटर्स ऑफ़ कुमाऊं’ सन् 1944 में छपी. ‘ट्री टॉप्स’ सन् 1955 में उनके निधन के बाद छप सकी.
ये किताबें शिकार गाथाएं भर नहीं हैं बल्कि प्रकृति और जानवरों के बारे में जिम कॉर्बेट के गहन अध्ययन का पता भी देती हैं. मनुष्य पर हमला करने वाले बाघ और तेंदुए की प्रकृति में तमाम समानताओं के बावजूद उन्होंने बड़े दिलचस्प मगर सटीक भेद भी तलाश किए. वे मानते थे कि इन दोनों जानवरों की हिम्मत में बड़ा फ़र्क़ होता है. कोई बाघ अगर नरभक्षी हुआ तो उसमें मनुष्य का डर जाता रहता है. चूंकि रात के मुक़ाबले में दिन में लोगों की आवाजाही जंगल में ज्यादा रहती है इसलिए बाघ दिन में ही शिकार तलाश कर लेता है. रात के अंधेरे में इंसानी बस्तियों पर हमले की उसे ज़रूरत नहीं पड़ती. तेंदुए की प्रकृति इस लिहाज़ से एकदम उलट है. नरभक्षी तेंदुआ चाहे कितने ही लोगों को मार चुका हो, इंसान का ख़ौफ़ उसमें बराबर बना रहता है. यही वजह है कि तेंदुआ दिन के उजाले में इंसान से मुठभेड़ करने से बचता है, अंधेरे में हमला करता है या फिर रात को घरों में दाख़िल होकर शिकार करता है. यही वजह है कि आदमख़ोर तेंदुए के मुक़ाबले आदमख़ोर बाघ को मारना आसान है.
‘मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊं’ के लेखकीय वक्तव्य में बचपन के अपने तजुर्बों के हवाले से उन्होंने बाघ को ‘जेंटलमैन’ कहा है. बताया है कि किस तरह जंगल में रात हो जाने पर कुछ लकड़ियां जलाकर वे कहीं भी पेड़ के नीचे सो जाते थे. दूसरे जानवरों की आवाज़ या कई बार बाघ की दहाड़ से नींद उचटती तो कुछ और लकड़ियां आग में डालकर वे फिर सो जाते. दूसरों के मुंह से सुने क़िस्सों और ख़ुद अपने अनुभवों से उन्हें यक़ीन था कि अगर आप बाघ को नहीं छेड़ेंगे तो उसे भी आपसे कोई मतलब नहीं होगा.
यह उन्हीं दिनों की बात है कि जंगली मुर्ग़ियों का पीछा करते हुए जिम कॉर्बेट जंगल में कुछ दूर तक निकल गए थे. बेर की झाड़ियों के क़रीब थे कि थोड़ी दूरी पर सांस लेने की तेज़ आवाज़ के साथ हिलती हुई झाड़ियों के पीछे से बाघ निकलकर सामने आ गया. उसने जिम की ओर देखा और फिर मुड़कर धीमे क़दमों से आगे बढ़ गया. बक़ौल जिम ‘मैं उन हज़ारों-हजार लोगों के बारे में सोचता हूं, जो दिन भर जंगल में रहते हैं और घास काटने या लकड़ियां बटोरने के अपने उद्यम में आए दिन उन जगहों के क़रीब भी होते हैं, जहां बाघ रहते हैं. शाम को हिफ़ाज़त से घर पहुंचने वाले इन लोगों को इस बात ज़रा भी भान नहीं होता कि दिन भर वे किसी ‘क्रूर’ या ‘रक्तपिपासु’ जानवर की निगाह में बने हुए थे.’
अपने इन्हीं अनुभवों के हवाले से जिम को ‘बाघ की तरह बेरहम’ या ‘ख़ून का प्यासा बाघ’ जैसी लोक उक्तियों पर हमेशा ऐतराज़ रहा. वे मानते थे कि ऐसा कहने या लिखने से लोगों में जो धारणा बनी, वह बाघ के क़िरदार को कम करके आंकती है. जिम कॉर्बेट का कहना था कि बेरी की झाड़ी के क़रीब बाघ से हुई मुलाक़ात के बाद आधी सदी बीत जाने पर भी ऐसा कोई मामला उनकी जानकारी में नहीं आया, जिसमें बाघ ने ख़ामख़्वाह किसी इंसान पर हमला किया हो. वे मानते थे कि बाघ दिलदार और हिम्मती जीव है और अगर जनमत उसके विनाश के ख़िलाफ़, उसकी हिफ़ाज़त के पक्ष में नहीं खड़ा हुआ तो अपने ऐसे ख़ूबसूरत प्राणी को खोकर हिन्दुस्तान और ग़रीब हो जाएगा.
हिन्दुस्तान में जिम कॉर्बेट की उपलब्धियों की तमाम निशानियां दुनिया भर में फैली हुई हैं. कालाढ़ूंगी के उनके घर में बने संग्रहालय में उनके रोज़मर्रा के इस्तेमाल के सामान, तस्वीरें और पाण्डुलिपियां सहेजी हुई हैं. जिम कॉर्बेट इन्टरनेशनल रिसर्च ग्रुप के मुताबिक उनकी पसंदीदा दो राइफलों में से एक, जो चम्पावत के आदमख़ोर तेंदुए को मारने के लिए सन् 1910 में उन्हें दी गई थी, जॉन रिगबी एण्ड कम्पनी के पास है. कॉर्बेट ने अपनी वसीयत में यह राइफल ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस को दी थी, जहां से यह रिगबी के पास पहुंची. पॉइंट 275 कैलिबर की यह राइफल रिगबी ने ही बनाई थी. दूसरी पॉइंट 450/400 दुनाली राइफल सन् 2015 से एक अमेरिकी बिल जोन्स के निजी संग्रह में है.
उनकी लिखी हुई छह किताबें तो दुनिया भर में मौजूद हैं, मगर ‘जंगल स्टोरीज़’ के नाम से लिखी गई एक और किताब दुर्लभ है. कॉर्बेट ने इस किताब की सौ प्रतियां ख़ुद ही छपाई थीं. वह इसे अपने दोस्तो को तोहफ़े में दिया करते थे. ‘जंगल स्टोरीज़’ की एकमात्र प्रति भी रिगबी एण्ड कम्पनी के पास ही है. इसी तरह उनके हाथों मारे गए बाघ और तेंदुओं में से सिर्फ़ एक टॉक के आदमख़ोर की खाल, उनकी वसीयत के मुताबिक़ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की न्यूयॉर्क शाखा की मिल्कियत है. बाक़ी खालों के बारे में किसी को ठीक से नहीं मालूम है.
कुमाऊं-गढ़वाल के लोगों में ‘कारपेट साहेब’ के नाम से मशहूर इस शख़्स को क्या लोग सिर्फ़ इसलिए प्यार करते थे कि ज़रूरत पड़ने पर वे मदद के लिए हाज़िर रहते थे या फिर आदमख़ोरों के आतंक से मुक्ति दिलाते रहे या इससे कहीं ज्यादा उनके इंसानी जज़्बे को क़द्र के क़ाबिल मानते थे? किसी शिकारी को ‘जेंटिलमैन हण्टर’ मानने की भी तो कोई वजह रही ही होगी न! ये वजहें ही शायद उन्हें शिकारी या लेखक भर से अलग ख़ास मुक़ाम का हक़दार बनाती हैं.
(जिम कॉर्बेट 25 जुलाई 1875 को जन्मे. 79 वर्ष की आयु में 19 अप्रैल 1955 को उनका निधन हुआ.)
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