इस बात का जेआरडी टाटा को अफ़सोस भी रहा. लेकिन इस अफ़सोस की वजह किसी निजी फायदे से नहीं जुड़ती थी
अनुराग भारद्वाज | 29 जुलाई 2020 | फोटो; tata.com
जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा यानी जेआरडी या ‘जेह’, का नाम सुनते ही आपके ज़हन में ऐसे शख्स की तस्वीर उभरती होगी जो देश का सबसे पहला कमर्शियल पायलट रहा, जिसके साथ एयर इंडिया के बनने की दास्तां जुड़ी है, जिसने टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी (टेल्को) की स्थापना की और जिसने अपनी सारी संपत्ति टाटा संस के नाम कर दी. टाटा संस के इस चेयरमैन को अपने उसूलों के चलते कई बार नुकसान उठाना पड़ा.
पर एक इस शख्स की एक तस्वीर ऐसी भी है जिसकी जानकारी कम ही लोगों को है. आज राजनेताओं और कारोबारियों की आपसी नजदीकी के चर्चे आम हो चले हैं. लेकिन जेआरडी राजनीति और व्यापार के बीच दूरी के पक्षधर थे. जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि देश के सबसे बड़े समूह का मुखिया होने के बाद भी शीर्ष राजनेताओं ने उन्हें और उनकी राय को दरकिनार किया. इस बात का जेआरडी को अफसोस भी रहा. लेकिन यह अफ़सोस निजी फ़ायदे के लिए नहीं, बल्कि देश के कारोबारी और सामाजिक अभियान में उचित भागीदारी न कर पाने को लेकर रहा.
महात्मा गांधी और जेआरडी
महात्मा गांधी प्रधानमंत्री नहीं थे पर जेआरडी के साथ उनके रिश्तों का ज़िक्र ज़रूरी है. गांधी घनश्याम दास बिड़ला और जमनालाल बजाज जैसे कुछ अन्य व्यवसायियों को बेहद तवज्जो देते थे. बजाज के पुत्र कमलनयन को तो गांधी का चौथा बेटा कहा जाता था. गांधी के जीवन के अंतिम 144 दिन दिल्ली स्थित बिड़ला निवास में गुज़रे. पर जेआरडी को उन्होंने हाशिये पर रखा. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वे सिर्फ़ तीन बार बापू से मिले थे.
महात्मा गांधी ने 1945 में जेआरडी की अगुवाई में इंग्लैंड और अमेरिका जाने वाले चंद उद्योगपतियों के शिष्टमंडल का ज़बरदस्त विरोध किया था. इस कवायद का उद्देश्य आज़ादी के बाद देश में उद्योग के माहौल की रूपरेखा तैयार करने के साथ-साथ विदेश से कुछ ऑर्डर और मशीनें लाने का था. सात मई, 1945 को बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार में गांधी ने लिखा, ‘उन्हें (उद्योगपतियों को) कहिए कि पहले देश के नेता आज़ाद हो जायें, फिर जाएं. हमें आज़ादी तभी मिलेगी जब ये बड़े उद्योगपति इंडो-ब्रिटिश लूट के टुकड़ों का मोह छोड़ दें… तथाकथित डेप्युटेशन जो ‘इंडस्ट्रियल मिशन’ के नाम से इंग्लैंड और अमेरिका जाने की सोच रहा है, ऐसा करने की हिम्मत भी न करे.’ इस लेख की भाषा और तक़रीर पढ़कर जेआरडी हतप्रभ रह गए. उन्होंने ख़त लिखकर जवाब भी दिया पर शायद बापू संतुष्ट नहीं हुए.
एक वर्ग मानता है कि गांधी की जेआरडी से दूरी का कारण पूंजीवाद और समाजवाद की विचारधारा का टकराव नहीं हो सकता. क्योंकि अगर ऐसा होता तो अन्य उद्योगपति उनके नज़दीक न होते. फिर जो सामाजिक कार्य टाटा समूह ने बीसवीं सदी में शुरू कर दिए थे उनसे गांधी बखूबी वाकिफ़ रहे होंगे. इंडियन नेशनल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा फंड देने वाले जीडी बाबू का एक कारोबारी के तौर पर आज़ादी में अहम योगदान है. वहीं, जमशेतजी टाटा के दूसरे बेटे रतन टाटा ने गांधी के दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन के लिए 1,25,000 रुपये दिए थे जिसका ज़िक्र खुद गांधी ने भी किया था.
एसए सबावाला और रुसी एम लाला की क़िताब, ‘कीनोट’ में दर्ज जेआरडी के एक भाषण के अंश में इस दूरी के कारण का संभावित संकेत है. वे कहते हैं, ‘जब मैं जवान था तब कांग्रेस पार्टी ज्वाइन करने का विचार आया था. पर जब देखा कि नेता बनकर जेल जाना होगा, वहां रखकर कुछ ख़ास नहीं कर पाऊंगा और न ही जेल के जीवन से अभ्यस्त हो पाऊंगा, इसलिए मैंने उद्योग के ज़रिये देश की सेवा करने का निश्चय किया.’ वहीं, दूसरी तरफ़, जीडी बाबू और बजाज आज़ादी के राजनैतिक आंदोलन में डूबे हुए थे. यह भी हो सकता है कि जेआरडी के इंग्लिश तौर-तरीके बापू को पसंद न आये हों.
जवाहर लाल नेहरू के साथ रिश्ते
इसके बावजूद कि वे देश के पहले प्रधानमंत्री के समाजवाद से प्रभावित नहीं थे, जेआरडी उनके प्रशंसक और दोस्त थे. हालांकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी उनसे आर्थिक मामलों पर राय नहीं ली. एक इंटरव्यू में जेआरडी ने बताया था कि वे जब भी आर्थिक मसलों पर बात करते, नेहरू उन्हें अनसुना करके खिड़की से बाहर ताकने लगते.
जेआरडी की अध्यक्षता में देश का पहला आर्थिक ब्लूप्रिंट ‘बॉम्बे प्लान’ नेहरू ने खारिज कर दिया था. इसमें सभी उद्योगपतियों ने सरकार द्वारा देश में बड़े उद्योग स्थापित करने की बात कही थी. एयर इंडिया के राष्ट्रीयकरण को लेकर दोनों में मतभेद था. जेआरडी नहीं चाहते थे कि एयर इंडिया को सरकार चलाये. आखिरकार जीत नेहरू की हुई.
टाटा समूह कांग्रेस पार्टी को फंड करता था. 1961 में राजा गोपालाचारी ने जेआरडी को ख़त लिखकर ‘स्वतंत्र पार्टी’ के लिए चंदा मांगा. नेहरू के ख़िलाफ़ जाना और राजाजी के आग्रह को टाल पाना, दोनों ही बातें उनके लिए मुश्किल थीं. जेआरडी ने असमंजस से बाहर निकलते हुए नेहरू को ख़त लिखा जिसका आशय था कि देश को कांग्रेस पार्टी का एक मज़बूत विकल्प चाहिए. जेआरडी की दलील थी कि वे नहीं चाहते कि कम्युनिस्ट पार्टी देश में दूसरे नंबर की पार्टी बनी रहे क्योंकि उसकी आत्मा में लोकतंत्र नहीं है, लिहाज़ा उन्होंने ‘स्वतंत्रता पार्टी’ को चंदा देकर मज़बूत बनाने का निर्णय लिया है. नेहरू का भी कमाल देखिये कि उन्होंने अपने दोस्त को इसके लिए प्रोत्साहित किया. पर साथ में यह भी लिखा कि ‘स्वतंत्र पार्टी’ देश में कभी मज़बूत स्थिति में नहीं आ पायेगी. वे सही साबित हुए.
मोरारजी देसाई और जेआरडी
जेआरडी के जीवन में सबसे ख़राब क्षण, खुद उनके हिसाब से, तब आया जब उनके एक समय के दोस्त और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें एयर इंडिया से बाहर करके उनके ही जूनियर अधिकारी को चेयरमैन नियुक्त कर दिया और इतनी ज़हमत भी न उठाई कि उन्हें इसकी ख़बर दी जाए. जब अखबारों ने इस बात को उछाल कर देसाई की किरकिरी की तो मोरारजी ने कुछ दिनों बाद रस्मी तौर पर जेआरडी को चिट्ठी लिखकर सरकार से निर्णय से अवगत कराया. इस बात से जेआरडी इतने आहत हुए कि उन्होंने मोरारजी देसाई को कभी माफ़ नहीं किया.
इंदिरा गांधी के साथ ताल्लुकात
जेआरडी उन चंद लोगों में से एक थे जिन्होंने इंदिरा गांधी के आपातकाल को ठीक माना था. उनके विचार थे कि इस दौरान हड़तालें और प्रदर्शन कम हुए जिसकी वजह से उद्योग जगत को फ़ायदा हुआ. इसका मतलब यह नहीं है कि वे मज़दूर विरोधी बात कर रहे थे. उनका नज़रिया था कि तमाम मज़दूर संगठन राजनेताओं के संरक्षण में पलते हैं जिनके अपने निहित स्वार्थ होते हैं.
दूसरी बात थोडा अचंभित करे पर यह सत्य है कि जेआरडी संजय गांधी के परिवार नियोजन के कार्यक्रम के पक्ष में थे. पर उस तरह से नहीं, जिस तरह से संजय गांधी इसे अमल में लाए थे. उनका मानना था कि जब तक जनसंख्या पर काबू नहीं पाया जाएगा, देश में तरक्की मुश्किल है. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भी कई बार इस बात की ओर ध्यान देने के लिए कहा था. पर नेहरू का मानना था कि इस मुद्दे को ज़्यादा सरकारी अहमियत नहीं दी जा सकती और ये व्यक्तिगत फैसले का मामला है. इंदिरा के राष्ट्रीयकरण की पहल ने दोनों के बीच खाई पैदा की. जाहिर है जेआरडी इसके विरोधी थे. उनके मुताबिक़ इंदिरा गांधी की जब उनसे बातचीत में दिलचस्पी ख़त्म हो जाती तो वे उनके सामने ख़तों को खोलकर पढ़ने लग जातीं.
राजीव गांधी और जेआरडी
राजीव गांधी जब अर्थव्यवस्था के बंद दरवाज़े खोल रहे थे तो उन्होंने आर्थिक मसलों पर उद्योगपतियों की राय जानने की कोशिश की. उन्होंने देश के सात अहम मसलों पर भी विभिन्न वर्गों की राय मांगी. इनमें से जनसंख्या वृद्धि एक था. जेआरडी के लिए वो ‘मोमेंट ऑफ़ ट्रूथ’ वाला दिन था. 1991 में जब अर्थव्यवस्था पूरी तरह से खुली तो तब 87 वर्ष के जेआरडी ने कहा था कि उन्हें इस बात से ख़ुशी और मलाल दोनों ही हैं. ख़ुशी इसलिए कि आख़िर जो सही रास्ता है देश ने अपना लिया और मलाल इसलिए कि जीवन की इस सांझ में वे इसका हिस्सा नहीं बन पाएंगे.
अंततः
जेआरडी ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट’ यानी सत्ता की जी-हुजूरी करके अपना काम निकालने वाले कारोबारी नहीं थे. यह बात टाटा समूह को देखकर समझी जा सकती है. उनका मानना था कि समाजवाद से सिर्फ़ अर्थव्यवस्था का ही नुकसान नहीं हुआ, कभी-कभी कुछ दूसरे उद्देश्य भी शहीद हो गए. उनकी नज़र में भारतीय राजनेताओं की सोच उन्नीसवीं शताब्दी के उस पूंजीवाद से आगे नहीं बढ पाई जिसमें मुनाफ़ा व्यापार का केंद्रीय आधार था. इस दिग्गज का मानना था कि पूंजीवाद ने अपना स्वरूप बदला है और भारत जैसे गरीब देश में लोगों के जीवन स्तर को उठाने में सिर्फ यही कारगर है. जेआरडी संसदीय लोकतंत्र के बजाय अमेरिका की तरह राष्ट्रपति वाली व्यवस्था के पक्षधर थे. उनका कहा था कि नेहरू के बाद स्थिर सरकारें नहीं रहेंगी. यह भी कि भारत की मुश्किलों को हल करने के लिए विशेषज्ञों की ज़रूरत है न कि राजनेताओं और नौकरशाही की. और इसके लिए अमेरिका वाली शासन प्रणाली बेहतर विकल्प है.
जेआरडी की विचारधारा को उनके समकालीन राजनेता समझ नहीं पाए. 1992 में सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा था. अपने सम्मान में हुए कार्यक्रम के दौरान दिए गए भाषण के एक अंश से उनके विचारों को समझा जा सकता है. उन्होंने कहा था, ‘एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा है कि आने वाली सदी में भारत आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा. मैं ये नहीं चाहता. मैं चाहता हूं कि भारत एक ख़ुशहाल देश बने.’ अमेरिकी अर्थशास्त्री की बात तो अब सही होती लग रही है. जेआरडी की ख्वाहिश कब पूरी होगी, देखना होगा.
>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें
>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें