दुर्भाग्य से अब यह फांक उत्तर भारतीय हिन्दू और दक्षिण भारतीय हिन्दू के बीच पड़ रही है.
अशोक वाजपेयी | 06 June 2021 | फोटो: यूट्यूब
कुछ अटकलें
शिकागो स्थित एक लेखक-पत्रकार बन्धु ने घण्टे भर का लम्बा इण्टरव्यू लिया जिसमें से एक प्रश्न यह था कि महामारी के प्रकोप और प्रभाव से भारतीय समाज में क्या बदलेगा. इस प्रश्न का उत्तर देना आसान नहीं. अगर समाज का एक बड़ा निर्णायक अंग सत्ता इस दौरान अधिक संवेदनशील, अधिक संवादप्रिय, अधिक सहायक होने के बजाय संवेदनहीन रहा; सारी दिखावटी भावुकता के बावजूद, निर्मम और षड्यन्त्रकारी बना रहा; अविचारित निर्णयों द्वारा उसने लाखों का जीवन संकट में डाल दिया; लगातार झूठ बोलने की अपनी आदत को पल भर के लिए विश्राम नहीं दिया; खोखले वायदे करने से विरत नहीं था; असहमतों और प्रश्नवाचक लोगों के प्रति असहिष्णु बना रहा; जिसके लिए रोगग्रस्त और मृतक व्यक्ति नागरिक नहीं सिर्फ़ आंकड़े हैं जिनसे खिलवाड़ किया जा सकता है तो अपने से उसका स्वभाव-चरित्र-व्यवहार बदलेगा ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती. सत्ताधारी शक्तियां धर्म-जाति-सम्प्रदाय आदि के ऊपर भारतीय जन को जन के रूप में देखेंगी इसका भी कोई आभास नहीं है. सत्ता तनाव-दबाव में भले आयी, बदलेगी नहीं.
अब रहा समाज. उसमें राहत-मदद-चिन्ता-सहयोग की जो धर्म-जाति-सम्प्रदाय मुक्त सामुदायिकता उभरी और सक्रिय है उसका बना रहना ज़रूरी तो है पर यह आसान नहीं होगा. देर-सवेर सत्ता उसे खंडित-बाधित-दण्डित करने से बाज़ नहीं आयेगी. उत्तर प्रदेश में अस्पताल या दवाई या आक्सीजन आदि के अभाव की शिकायत करने वालों के खिलाफ़ पुलिस ने कार्रवाई की है. असहमति, प्रश्नवाचकता, सेवा को सत्ता अपराध बनाने पर उतारू है और इसलिए इस नयी सामुदायिकता को ऐसे प्रहारों को झेल सकने की वीरता और साहस दिखाने होंगे. युवा वर्ग, दुर्भाग्य से, अभी भी भक्तों और प्रश्नवाचकों में बंटा हुआ है. उनके बीच झड़पें होती रही हैं और शायद वे भविष्य में और तीख़ी हों इसका प्रयत्न किया जायेगा. दूसरी तरफ़, जब भयानक और अभूतपूर्व बेरोज़गारी और पूरी तरह से चरमरायी अर्थव्यवस्था सामने होगी तो भक्तों का आंख मूंदकर सब ठीक है का भाव पोसना कठिन होगा. लाखों की संख्या में जिन लोगों ने, कुप्रबन्ध के कारण, अपने परिजन खोये हैं उनका क्रोध भी किसी न किसी तरह अभिव्यक्त होगा. वह सकारात्मक और लोकतांत्रिक दिशा ले यह ज़रूरी होगा अन्यथा वह दिग्भ्रष्ट होकर अकारथ जा सकता है.
हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिए संभावित ख़तरा है और हमें एक-दूसरे से भौतिक दूरी हर हालत में बनाये रखना है यह मानसिकता हमारे सामाजिक आचरण को प्रभावित-परिवर्तित करेगी. ख़ास कर प्रदर्शनकारी कलाओं पर इसका गहरा दुष्प्रभाव पड़ेगा क्योंकि उनका सौन्दर्यशास्त्र तो दर्शकों-श्रोताओं की सक्रिय और जीवन्त उपस्थिति पर निर्भर रहा है. हमें संवाद के नये तरीके खोजने होंगे. हम आदतन भूलते रहते हैं और ऐसी शक्तियां सक्रिय हैं जो चाहती हैं कि हम भुला दें. तो एक कुशंका यह जागती है कि हम इस प्रकोप और उसने हमें जिस सांसत में डाला उसे भूल जायें. यह भारतीय समाज और लोकतंत्र दोनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण और घातक होगा. प्रार्थना करनी चाहिये कि ऐसा न हो.
आगे कौन हवाल
हो सकता है यह कहना थोड़ा अपरिपक्व जान पड़े पर हमें कोरोना महामारी के बाद क्या करना चाहिये इस पर सोचना शुरू कर देना चाहिये. इतना तो अब जगज़ाहिर है कि हम महामारी से कारगर ढंग से, तैयारी-संवेदनशीलता-ज़िम्मेदारी से निपटने में बुरी तरह से विफल हुए हैं. लाखों लोग उतना बीमारी से नहीं जितना कुप्रबन्ध के कारण मरे हैं. जो कुछ बच पाये हैं वह हमारी लोक स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण ही जिसमें वर्तमान सत्ता ने प्रायः कुछ भी अपने सात वर्षों के कार्यकाल में नहीं जोड़ा है. यह भी स्पष्ट है कि हमें मंदिर और अन्य क़िस्म के पूजा-स्थल नहीं, अस्पताल और स्वास्थ्य केन्द्र चाहिये. यह भी अब दुखद रूप से प्रमाणित है कि हमारी सत्ता ने विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की सलाह अनसुनी कर इस महामारी को अधिक मर्णान्तक बनाया है. यह भी कि इस दौरान राजनीति द्वारा नीमहकीमी करने की कोशिश, जिसके अन्तर्गत गोबर और गोमूत्र आदि के लेपन-सेवन आदि की सलाह दी गयी, बुरी तरह से घातक साबित हुई है.
दुनिया भर में एक तरह वैज्ञानिक मतैक्य उभरा है कि कोरोना वायरल अभी कुछ बरस रहेगा. इसलिए उससे निपटने के लिए व्यापक प्रबन्ध और सावधानी ज़रूरी होंगे. एक संगठित और सेवा-भावी समुदाय के रूप में सिखों ने रास्ता दिखाया है. इस दौरान सभी गुरुद्वारों ने सीधे या परोक्ष रूप से पीड़ित लोगों की लगातार अथक मदद की है. दिल्ली में एक गुरुद्वारे ने अपना परिसर सुसज्जित अस्पताल में बदल दिया है जहां बिस्तरों, आक्सीजन, दवाइयों आदि की सुविधाएं हैं और मुफ़्त हैं. स्वर्ण मंदिर अकाल तख़्त ने निर्णय लिया है कि पंजाब में हर कोरोना पीड़ित की चिकित्सा पर आने वाला पूरा ख़र्च वे उठायेंगे और पूरा इलाज नि:शुल्क होगा. नान्देड़ के गुरुद्वारे ने घोषणा की है कि पिछले पचास वर्षों में जो धनराशि और सोना वहां चढ़ावे में आया है वह अस्पताल बनाने और लोकस्वास्थ्य पर ख़र्च किया जायेगा. लखनऊ के इमाम ने इमामबाड़े को अस्थायी अस्पताल में बदलने का फ़ैसला लिया. मसजिदें और मंदिर भी मदद के लिए आगे आये हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि यह सभी सहायता मुक्त भाव से, बिना धर्म-जाति-सम्प्रदाय को विचार में लिये, की गयी है.
हमारे धार्मिक संस्थानों के पास, विशेषतः हिन्दू मंदिरों के पास, अपार धन राशि है. अगर क़ानूनन ऐसा करना संभव न हो तो कम से कम सामाजिक-नैतिक रूप से यह अनिवार्य होना चाहिये कि इस सम्पदा का अधिकांश आगे से लोकस्वास्थ्य की सुविधाएं बढ़ाने में ख़र्च किया जायेगा. कई मंदिर जैसे तिरूपति, कई गिरजाघर अपने अस्पताल चलाते ही हैं. अगर इसे व्यापक कर दिया जाये तो लोकस्वास्थ्य को सिर्फ़ सरकारी साधनों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा और उसके लिए अतिरिक्त साधन जुट जायेंगे. पीड़ित लोगों की सेवा से बड़ा कोई धार्मिक आदर्श किसी धर्म में नहीं हो सकता. विजड़ित पड़ी सम्पदा सामाजिक हित में काम आ जायेगी. सिख तो रातोंरात अस्पताल बनाने में माहिर हैं क्योंकि उनमें गहरा सेवा-भाव हमेशा सजग-सक्रिय रहता है. अन्य धर्मावलंबियों को भी ऐसा कर सकना चाहिये.
नया विभाजन
शिकागो स्थित लेखक-पत्रकार मयंक छाया से एक वीडियो बातचीत में मुझे लगा कि भारत में हिन्दू समाज अब दो विपरीत दिशाओं में जाता दीख पड़ रहा है. दुर्भाग्य से यह फांक, मोटे तौर पर, उत्तर भारतीय हिन्दू और दक्षिण भारतीय हिन्दू के बीच पड़ रही है. उत्तर भारतीय हिन्दू समाज लगातार हिंसक-घृणाचालित-बलात्कारी-हत्यारी मानसिकता की गिरफ़्त में आता जा रहा है जबकि दक्षिण भारतीय हिन्दू समाज अन्य धर्मों के सम्प्रदायों के साथ संवाद-सहकार और आपसी समझदारी में विश्वास करता है. यह फांक, एक और दुर्भाग्य है, कि राजनीति में भी प्रगट हो रही है. हिन्दुत्व नामक राजनैतिक विचारधारा के प्रभाव में उत्तर भारत तेज़ी से भगवा रंग में रंग गया है जबकि इस विचारधारा का दक्षिण भारत पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है. दोनों ही ओर कुछ महत्वपूर्ण अपवाद भी हैं. उत्तर प्रदेश का रौरव उत्तर भारत में अन्यत्र इतना प्रबल-व्यापक नहीं है. कर्नाटक में हिन्दुत्व की कुछ पैठ बनी है. कालान्तर में यह तक हो सकता है कि दक्षिणी हिन्दू अधिक प्रामाणिक हिन्दू माना जाने लगे और उत्तरी हिन्दू अधिक अप्रामाणिक. इसका एक भयानक दुष्परिणाम यह होगा कि दक्षिण के सामने हिन्दी हिन्दुत्व की, इसलिए अप्रामाणिक हिन्दुओं की भाषा मानी जाकर असह्य और त्याज्य हो जाये.
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