कोविड-19

समाज | कभी-कभार

यह संघर्ष जीने का ही नहीं, अधिक मनुष्य होने का भी है

इस अंधेरे समय की जब संघर्ष-गाथा लिखी जायेगी तो इसे अनदेखा नहीं किया जा सकेगा कि हमने जो संग्राम किया उसी ने हमें बेहतर मनुष्य, समाज और लोकतंत्र बनाया

अशोक वाजपेयी | 30 मई 2021 | फोटो: स्क्रीनशॉट

सचाई और अन्तःकरण

मैं अब लगभग आठ बरसों से टेलीविजन नहीं देखता. घर में कोई नहीं देखता. अख़बार भी इन दिनों कुल एक पढ़ता हूं और वह भी मुझ तक देर से ही पहुंचता है. सो बहुत कुछ से पिछड़ गया और लगातार पिछड़ता आदमी हूं. फ़ेसबुक पर कल किसी सूत्र से पता चला कि अकेले उत्तर प्रदेश में गंगा में तैर रहे शवों की संख्या अब निश्चयात्मक रूप से दो हज़ार से कुछ अधिक है. एक लेखक-पत्रकार की पोस्ट से यह पता चला कि यह गिनती हिन्दी दैनिक ‘भास्कर’ ने अपने कई ज़िलों में तैनात प्रतिनिधियों द्वारा किये गये सर्वे के आधार पर की है. इस गिनती में बिहार में गंगा में बह रहे शवों की संख्या शामिल नहीं है. वह भी हजारों में ही होगी.

इससे अधिक दारुण, निर्मम और भीषण मानवीय सचाई की कल्पना नहीं की जा सकती. यह हिंदी अंचल के कुल दो प्रदेशों में बन रहे नये भारत की तस्वीर है. इन दोनों राज्यों की सत्ताओं ने इस भयावह मानवीय ट्रैजडी के लिए शोक या खेद जताया हो या क्षमा मांगी हो इसका मुझे पता नहीं. कोई योगी ही मृत्यु के बाद ऐसी गरिमाहीन स्थिति को स्थितप्रज्ञ होकर, बिना विचलित हुए, देख सकता है. सरसंघ संचालक ने ‘जो मर गये वे मुक्ति पा गये’ कहा है. यह लोकतंत्र है जिसमें मुक्ति अब शवों के रूप में गंगा में बह रही है! मानवीयता के इस भयानक और सर्वथा अक्षम्य अपमान पर सत्ताधारी दल के नेताओं या प्रवक्ताओं ने खेद तक शायद व्यक्त नहीं किया है. सत्ता की हवस में मानवीयता का ऐसा अपमान उनके नज़दीक कोई ख़ास मायने नहीं रखता है.

अगर लेखक-पत्रकार ने न बताया होता तो मुझे ख़बर न लगती कि इस तरह की ज़मीनी स्तर से की जा रही रिपोर्टें मुख्यतः हिन्दी मीडिया में आ रही हैं. लगता है कि अन्ततः भयानक सचाई के दबाव ने अब तक सत्ताओं की गोदियों में बैठे पालतू मीडिया को विवश कर दिया है कि वह सचाई का बखान और बयान करे. इसी सचाई के दबाव ने शायद उसका अब तक सोया या विजड़ित अन्तःकरण जगा दिया है. यह बहुत पहले स्वाभाविक ढंग से होना चाहिये था कि मीडिया हमारे समय की सचाई का विश्वसनीय गवाह बने जो कि उसका सहज धर्म है. अगर वह उस धर्म पर वापस आ रहा है और अब सत्ता या धन-दौलत के दबावों का प्रतिरोध करने और अपनी रीढ़ सीधी करने की ओर बढ़ रहा है तो इसे इस आपदा का कम से कम एक सुपरिणाम कहा जाना चाहिये. आपदा के इतने भयानक अमानवीय दुष्परिणाम हुए और हो रहे हैं कि इसे सुपरिणाम कहना आपत्तिजनक लग सकता है.

इस आपदा के दौरान मदद-राहत-सहयोग-समर्थन देने के लिए एक नयी नागरिक सामुदायिकता भी उभरी और बहुत जगहों पर सक्रिय हुई है जिसने धर्म-जाति-लिंग-सम्प्रदाय आदि के आधार पर भेदभाव किये बिना सच्ची, जोखिम भरी पर बेहद ज़रूरी सहायता की है. यह साहस-सहायता-सक्रियता की नयी बिरादरी है जिसे नागरिक पहल के रूप में आगे जाना है, बने रहना है और नागरिक-बन्धुओं में जिजीविषा उद्दीप्त रखने की लगातार कोशिश करते रहना है. मीडिया तो हो सकता फिर पलटी खाकर गोदी में बैठ जाये पर नागरिक ऐसा नहीं करेंगे यह लोकतांत्रिक अपेक्षा करना आज निराधार नहीं लगता.

दुखद सिलसिला

व्यापक समाज के लिए जैसे सृजन-समुदाय के लिए भी यह बहुत त्रासद समय है. हर थोड़ी देर में, हर रोज़ पता चलता है कि कोई नहीं रहा. सिलसिला पूरी निमर्मता से अबाध चल रहा है. उनकी सूची बनाते में एक तरह की क्रूरता सी नज़र आती है. पर सचाई तो यह है कि हाल ही में हमने उर्दू आलोचक-विद्वान् शमीम हनफ़ी, कथाकार मंजूर एहतेशाम, कथाकार-संपादक रमेश उपाध्याय, आलोचक रेवती रमण, इतिहासकार लालबहादुर वर्मा, संगीत निर्देशक वनराज भाटिया, दार्शनिक सोमराज गुप्त, शास्त्रीय संगीतकार राजन मिश्र, देव चौधरी, कवि-पत्रकार ललित सुरजन, पर्यावरण रक्षक सुंदरलाल बहुगुणा आदि को खोया है. यह सूची अधूरी है और इसे बढ़ाने में, कुछ और दिवंगतों को याद करने में डरावनी सी हिचक होती है. ऐसा तीख़ा अहसास होता है कि जैसे जो हम अभी, संयोग से, जीवित बचे हैं, दिवंगतों की सूची बनाकर ही मानों मृत्यु का आंचल छू सा रहे हैं. डाइलेन टामस ने तो कहा था कि ‘डेथ शेल हेव नो डोमीनियन’ याने ‘मृत्यु का कोई राज्य नहीं होगा’ लेकिन इस समय तो लगता है कि मृत्यु रोज़ अपने उपनिवेश बना रही है.

प्रकोप-बीमारी-संक्रमण-मृत्यु की गति बहुत तेज़ है और जीवन घरबन्द तालाबन्द है, डर से दुबक सा गया है. जीवन की लय धीमी हो गयी है. शायद यह सिर्फ़ नज़री मुआयने से किया गया सही आकलन है. जीवन, जिजीविषा और मानवीयता कहीं-न-कहीं पूरे क्षोभ और गति में सक्रिय हैं, नये रूपाकार गढ़ रहे हैं. जीवन न हारा है, न थमा है. वह चल रहा है और उसके वृत्त में आलोक और अदम्यता, साहस और कल्पना, अन्तःकरण और करुणा, आस्था और प्रश्नवाचकता सभी एक मिली-जुली सामुदायिकता में समरस, लयबद्ध और अग्रसर हैं. हमारे सामने जीवन एक महाकाव्यात्मक संग्राम लड़ रहा है और हम अपनी अनाहत जिजीविषा से उसमें शामिल हैं. हम पर घाव-खरोंचें, लहू के दाग़ लग रहे हैं पर साथ ही हम पर मंगल उज्ज्वलता भी उतर रही है जो निर्मल है, पवित्र है और दैवी नहीं मानवीय है.

ऐन इस समय लग सकता है कि हम किसी तरह जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं पर दरअसल, हमेशा की तरह, यह संघर्ष अधिक स्वतंत्र, अधिक समतामूलक, अधिक न्यायसम्मत होने का, अन्ततः अधिक मनुष्य होने का ही संघर्ष है. सत्ताएं, बाज़ार, धर्म आदि हमारा साथ छोड़ चुके हैं और उन्हें लग रहा है कि उन्होंने हमें निहत्था छोड़ दिया है. लेकिन हम हथियारों-औजारों से नहीं, अपनी निपट मानवीयता से नयी सामुदायिकता रचते हुए, लड़ रहे हैं. जब इन अंधेरे-हत्यारे समयों की संघर्ष-गाथा लिखी जायेगी तो इसे दुर्लक्ष्य नहीं किया जा सकेगा कि हमने जीवन और मनुष्य को बचाने के लिए जो संग्राम किया वह अकारथ नहीं गया. हम अधिक और बेहतर मनुष्य, अधिक संवेदनशील समाज, अधिक लोकतांत्रिक होकर उजले निकले. यह मुक़ाम हमेशा दूर और धुंधला होता है सो आज भी है पर वह है इसमें सन्देह नहीं.

स्मृति व्याख्यान

किसी शोधकर्ता ने मुझसे यह जानना चाहा है कि मैंने कितने स्मृति व्याख्यान दिये और कितने अपनी संस्थाओं के अन्तर्गत स्थापित किये. इस पृच्छा का उत्तर देते हुए जो याद आये उन्हें एकत्र किया है. हो सकता है कि कुछ छूट गये हों. कुछ के पूरे नाम ठीक से याद नहीं रह गये हैं. बहरहाल, दिल्ली (भटकल, आनन्द कुमार स्वामी, जैनेन्द्र कुमार, ग़ालिब), गुवाहटी (न्याय मूर्ति शर्मा, मिश्र), त्रिवेन्द्रम (अयप्पा पणिक्कर), इलाहाबाद (निराला, रामस्वरूप चतुर्वेदी, एस सी देव, सत्यप्रकाश मिश्र), मुम्बई (तैयब मेहता), कानपुर (अज्ञेय), पुणे (गोविन्द पानसरे), नासिक (नरसिंह कुन्दीकर), अहमदाबाद (रामलाल पारीख, निरंजन भगत), भुवनेश्वर (गोपीनाथ महान्ति), शान्ति निकेतन (हजारी प्रसाद द्विवेदी), बीकानेर (छगनलाल मोहता), सागर (बाबूराय पिम्पलापुरे), रायपुर (मुक्तिबोध), अजमेर में  राष्‍ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्‍धान परिषद् और मंगलोर में पोएट्री ट्रस्‍ट के लिए स्मृति व्याख्यान मैंने पिछले तीसेक वर्ष के दौरान दिये हैं.

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति रहते, जयशंकर प्रसाद, फणीश्वर नाथ रेणु, नन्ददुलारे वाजपेयी, रामचन्‍द्र शुक्‍ल, अज्ञेय आदि की स्मृति में वार्षिक व्याख्यान स्थापित किये थे. पता नहीं उनमें से कितने अभी चल रहे हैं. रज़ा फ़ाउण्डेशन ने कुमार गन्धर्व, हबीब तनवीर, वासुदेव गायतोण्डे, अज्ञेय, दयाकृष्ण, केलुचरण महापात्र, मणि कौल, चार्ल्स कोरिय, जनगढ़ श्याम की स्मृति में वार्षिक व्याख्यान स्थापित किये हैं और वे इधर एक बरस से कोरोना महामारी के कारण स्थगित हैं अन्यथा पहले अबाध चल रहे थे.

हमारा समय विनियोजित विस्मरण का है. ऐसे में और भी ज़रूरी हो जाता है कि हम अपने पुरखों का, उनके अवदान और साहस का, उनके संघर्ष और जोखिम का, उनकी सार्थक विफलताओं का नियमित और विधिवत् स्मरण करते रहें. याद करना बचाना है और भूलने-भुलाने का प्रतिरोध भी.

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