Society | कभी-कभार

अब क्रिकेट की तरह हिंसा भी लगभग राष्ट्रीय खेल बन गई है

इस समय हिंसा करने वालों की संख्या भर नहीं बढ़ रही है, उसे रुचि से देखने वालों और शाबाशी देने वालों की संख्या भी बेहद तेज़ी से कई गुना बढ़ गयी है

अशोक वाजपेयी | 17 October 2021

लोकाकर्षक हिंसा

हिंसा के प्रति आकर्षित होना मनुष्य के लगभग स्थायी दुर्गुणों में से एक है. सदियों से ऐसा है. पर हमारे समय में नया निज़ाम, जो अब उतना नया भी नहीं, सात बरस पुराना है, यह श्रेय ले सकता है कि उसके समय में भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा हिंसा-प्रेमी बन गया है. यह आकस्मिक नहीं है कि हिंसामूलक अपराधों में, जिनमें हत्या-बलात्कार आदि शामिल हैं, हाल के वर्ष में 28 प्रतिशत बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है. ये सरकारी आंकड़े हैं और यह निज़ाम आंकड़ों में हेरा-फेरी करने के लिए अब विश्व-कुख्यात है.

असहमति का दमन, हिन्दू धर्म के अलावा बाक़ी धर्मों के प्रति असहिष्णुता, वाद-विवाद और खुली चर्चा से परहेज आदि इसी हिंसा के दुखद और अलोकतांत्रिक संस्करण हैं. इस समय जो सार्वजनिक संवाद हो रहा है वह बुरी तरह से आक्रामक, द्वेषपूर्ण और अपने सत्व में हिंसक है. दूसरों की सुनने के बजाय, दूसरों को नष्ट करने की मुहीम सी चली हुई है. टेलीविजन चैनलों पर जो हिंसा नज़र आती, सुनायी देती है वह भाषा में शाब्दिक हिंसा तो है ही, उसमें वैचारिक हिंसा भी मुखर है. इस हिंसा को हर रोज़, कई चैनलों पर, करोड़ों दर्शक-श्रोता देखते-सराहते है. यह नयी बात है. हिंसा करने वालों की संख्या भर नहीं बढ़ रही है, उसे रुचि से देखने वालों और उसे शाबाशी देने वालों की संख्या भी बेहद तेज़ी से कई गुना बढ़ गयी है. इस समय क्रिकेट के अलावा हिंसा लगभग राष्ट्रीय खेल बन गयी है. यह हम उस अक्टूबर महीने में नोट कर रहे हें जो महात्मा गांधी के जन्म का महीना है.

यह भी हर दिन स्पष्ट होता जा रहा है कि, विशेषतः हिंदी राज्यों में, पुलिस हिंसा को जितना रोकती-थामती है उससे कहीं अधिक वह सीधे निडर होकर, पूरी क्रूरता और नृशंसता से, हिंसा करती है. निरपराध या असहमत नागरिकों को कड़े क़ानूनों के अन्तर्गत गिरफ़्तार करना और उन्हें महीनों तक जेल की यातना भुगतने के लिए विवश करना इसी हिंसा का उदाहरण है. हर दिन कोई न कोई अदालत पुलिस द्वारा की गयी ऐसी कार्रवाई की निन्दा करती है. पर उससे पुलिस के हिंसक उत्साह में कोई कमी नहीं होती.

अधिकांश मीडिया इस हिंसक परिदृश्य में हिंसा को तरह-तरह से बढ़ावा दे रहा है. यह अभूतपूर्व दुर्भाग्य है कि मीडिया हिंसा का देशव्यापी और प्रभावशाली मंच बन गया है. उसका मन-वचन-कर्म हिंसा के विस्तार में लगा हुआ है. एक ओर उसने हिंसा को लोकप्रिय बनाने की अथक कोशिश की है और दूसरी ओर इस बढ़ती लोकप्रियता का इस्तेमाल हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए कर रहा है.

हिंसा के इस सुनियोजित और लोकार्षक हमले से भारतीय नागरिकता कितनी घायल होगी या हो रही है, इसका क़यास भर लगाया जा सकता है. इतना तो तय है कि वह लगातार चोट सह रही है. इस स्थिति से उबरने का उसका अगर कोई संकल्प है, तो उसे लोक-व्यक्त होना अभी शेष है.

परस्पर अनुवाद

कुछ बरस पहले, जयपुर साहित्य समारोह के अंतर्गत, महाराष्ट्र के दो कवियों को सुनने का अवसर मिला था: मराठी के संकेत म्हात्रे और अंग्रेज़ी की रोशेल पोतकर. दोनों ने एक-दूसरे की कविताओं के अनुवाद किये हैं और उनके मूल और अनुवादों का एक संयुक्त संग्रह (द्विभाषिक) ‘सर्व अंशांतून आपण’ और ‘दि कोआर्डिनेटस आव् अस’ मराठी और अंग्रेज़ी में एक साथ वर्णमुद्रा पब्लिशर्स शेगांव द्वारा प्रकाशित किया गया है, रज़ा फ़ाउण्डेशन की वित्तीय सहायता से. ऐसा कोई और उदाहरण याद नहीं आता जहां दो भाषाओं के दो कवियों ने एक-दूसरे की इतनी कविताओं के अनुवाद किये हों और उनकी संयुक्त पुस्तक दो भाषाओं में निकली हो. संकेत म्हात्रे की एक कविता का अंश है:

क्योंकि जेरूशलम में उस छोटे से लड़के ने
पछियाये जाने पर
उसकी आंखों के बीच बंदूक की नली
और ट्रिगर पर एक उंगली से, सिर्फ़ इतना ही कहा:
‘मैं ईश्वर से सब कुछ कह दूंगा’.

रोशेल पोतकर की अंग्रेज़ी कविता का एक अंश:

दुनिया में कुछ जमा सात कहानियां हैं
मनुष्य के विरुद्ध मनुष्य, स्त्री, प्रकृति, अपने विरुद्ध
ईश्वर के विरुद्ध, समाज या अधबीच में फंसे
इसे उनमें से एक होना है.

उन्हीं की एक और कविता का अंश:

मैं मिलना चाहती हूं
तुम्हारे शरीर के शहर से,
उसकी सड़कों, उसके दीवानखानों से,
उम्मीद के अंडरग्राउंड नेटवर्क से
खेल की जगहों, डुएल ज़ोनों से,
निराशा की संग्रामभूमियों से,
खाटों पर छोड़ गये बच्चों या
तैरती हुई नदी-लाशों से…

मनुष्यता का अपमान

हम शायद इस पर कभी ध्यान नहीं देते कि कैसे धीरे-धीरे सत्ता और राजनीति भारत में खुलकर, निधड़क और कई बार गर्व से ऐसी कार्रवाइयां करती रहती हैं जिन्हें मनुष्यता का अपमान ही कहा जा सकता है. दोनों के निकट लोग संख्या या आंकड़ा भर हैं जिन्हें हेरा-फेरा जा सकता है. ऐसा लोकतंत्र में हो रहा है जिसमें मनुष्य की गरिमा को सुरक्षित करना शुरू से एक संवैधानिक लक्ष्य रहा है. मनुष्यता के इस चतुर्दिक् अपमान में राज्य और राजनीति के अलावा मीडिया, पुलिस, धर्म आदि सब शामिल हैं.

हाल ही में हमने भयानक अचम्भे से देखा कि कैसे एक फ़ोटोग्राफ़र एक ग़ैरक़ानूनी क्रूर ढंग से मारे गये व्यक्ति की लाश पर कूद रहा है. उसके विरुद्ध कुछ कार्रवाई हो रही है. पर ऐसा करने का उत्साह जिस गहरी अनैतिकता और अमानवीयता से उजपा है, उसकी व्यापकता पर हमारा ध्यान जाना चाहिये. यह हादसा हममें से किसी के साथ भी कभी हो सकता है. हम लगातार अपनी बची-खुची मानवीयता को अपार और अदम्य अमानवीयता से घिरा पाते हैं. ऐसी घटनाओं पर सत्ताएं, जिस अनिच्छा से मन्द और दोषयुक्त क़दम उठाती है, उनसे यह अपमान और गहरा हो जाता है. दुर्भाग्य से अधिकांश अदालतों में भी मानवीय गरिमा के प्रति अवहेलना का भाव नज़र आता है. यह गरिमा भले निसर्ग-दत्त है, उसका एहतराम करना और उसे सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी तो सामाजिक संस्थाओं की होती है. दलितों स्त्रियों और अल्पसंख्यकों, आदिवासियों के साथ हमारा लगातार दैनिक दुर्व्यवहार इस गरिमा के प्रति हमारी निष्ठा के अभाव का दुखद प्रमाण हैं.

व्यक्ति की गरिमा की अवधारणा सिर्फ़ सार्वजनिक जीवन में ही क्षयग्रस्त नहीं हुई है. यह क्षति साहित्य और कलात्मक अभिव्यक्ति के कई रूपों में धीरे-धीरे व्याप रही है. वहां भी विवेक के बजाय दोषारोपण, छीछालेदर, चरित्र-हनन आदि बढ़ते जा रहे हैं. लेखक जब स्वयं अपने से असहमत या भिन्न लेखकों की गरिमा का ख़याल और रक्षा नहीं करेंगे तो भला और कौन करेगा? हमें राजनेताओं ने टुकड़ा-टुकड़ा गैंग कहा है. ऐसे युवा लेखक-मित्र हैं जिन्हें वरिष्ठ लेखक बताते रहते हैं कि फलाने लेखक का गैंग है, उससे सावधान रहना. ऐसे युवाओं को यह तो समझ में आता होगा कि दूसरों के गैंग बतानेवाले खुद किसी गैंग के हिस्से हैं. कुछ इस तरह का माहौल बनता गया है कि बिना किसी गैंग में शामिल हुए कोई स्वतंत्रचेता लेखक हो ही नहीं सकता. सौभाग्य से, ऐसे स्वाभिमानी मुक्तमन लेखक हैं तो उनकी सुनियोजित उपेक्षा गैंगग्रस्त लेखक और पत्रिकाएं करती हैं. पर वे अपनी राह पर अकेले चलना उपेक्षा या लांछन से घबराकर छोड़ नहीं देते. उनका ऐसा रहना साहित्य को अधिक लोकतांत्रिक, उदात्त और निर्भय बनाता है.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022