कठपुतली का खेल

Society | कभी-कभार

हम ऐसा समाज होते जा रहे हैं जिसे न तो आधुनिक ज्ञान से ज्यादा मतलब है न अपने पारंपरिक ज्ञान से

जो विचारधारा इन दिनों हावी है वह हिन्दुओं को एक हिंसक, पौरुषप्रधान इकाई बना रही है जिसका मुख्य लक्ष्य घृणा करना और बदला लेना है

अशोक वाजपेयी | 16 May 2021 | इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

लाचारी का समय

कितना लम्बा चलेगा और कब खत्म होगा यह कहना मुश्किल है पर यह सही है कि यह समय बेहद लाचारी का है, निरूपाय और असहाय हो जाने का समय. हम जैसे लोग तो अपनी बढ़ी आयु के कारण वेध्य समूह में हैं, घरबन्द हैं और चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं. जब हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति के लिए ख़तरा बन चुका है, सिवाय अपने को पूरी तरह से अलग-थलग रखने के आप कर भी क्या सकते हैं?

रोज़-रोज़ बुरी ख़बरें आती रहती हैं – मित्रों, परिचितों, लेखक-कलाकारों की कोरोना वायरस द्वारा बलि लिये जाने की. रोज़-ब-रोज़ हम देखते-पढ़ते रहते हैं कि सत्ताएं, राजनीति, मीडिया का बड़ा हिस्सा पूरी नीचता और क्रूरता से महामारी की दूसरी लहर से निपटने के लिए भारत की तैयारी के अभाव और उसके आने के बाद व्यापक कुप्रबन्ध के लिए दोषी व्यक्तियों और संस्थानों का नाम लेने तक से हिचकिचा रहे हैं. उनमें से कई तो अब भी पूरी स्वामिभक्ति दिखाते हुए ऐसे तत्वों का महिमामण्डन कर रहे हैं. यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें हज़ारों की संख्या में नागरिक अस्पताल, दवाई, आक्सीजन आदि के अभाव में मर रहे हैं और कोई ज़िम्मेदार नहीं है? अब तक किसी भी व्यक्ति या संस्था के विरुद्ध उसकी ग़ैर ज़िम्मेदारी के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गयी है.

हमारे डाक्टर, नर्सें, अन्य स्वास्थ्य कर्मचारी आदि अपनी जान का जोखिम उठाते हुए बहुतों को बचा पाने में सफल हो रहे हैं. उनके साहस, निष्ठा और सभ्य व्यवहार को प्रणाम. बहुत से व्यक्तियों और संगठनों ने राहत-मदद-सुविधाएं पहुंचाने में पहल की है. कई धार्मिक संस्थाओं विशेषकर गुरुद्वारों और मसजिदों आदि ने अपनी जगहें और साधन कोरोनाग्रस्त लोगों की सेवा-सुश्रुषा में लगाये हैं. हिन्दू धार्मिक संगठन इस मामले में धीरे क्यों हैं यह समझ में आना मुश्किल है. उनके पास साधन हैं और उन्हें पीड़ितों के लिए सुलभ कराने से बड़ा धार्मिक कर्तव्य और क्या हो सकता है? अगर उन्हें आत्महित में ही सोचना पसन्द हो तो बड़ी संख्या में कोरोना ग्रस्त और कालकवलित हो रहे लोगों में अधिकांश हिन्दू ही हैं. इस प्रसंग में हिन्दू धर्म को सिख धर्म से सीखना चाहिये कि बिना भेदभाव निर्मल मन से सेवा कैसे और कब की जाती है.

फिर अपनी लाचारी पर लौटता हूं. इस लाचारी ने ऐसी उदासी से घेर लिया है कि अब बहुत पढ़ने का भी मन नहीं हो रहा. लगता है कि पढ़ना अपने को सचाई की भयावहता और उसमें अपनी शिरकत और ज़िम्मेदारी से मुंह फेरना होगा. इस समय हम साहित्य से उम्मीद क्या लगा सकते हैं? शायद यही कि वह हमें आश्वस्त करे कि ये दुर्दिन देर-सबेर बीत जायेंगे, कि जिनकी वजह से याकि जिनकी चूक, ग़ैर-ज़िम्मेदारी और संवेदनाहीनता से यह प्रकोप इतना मरणान्तक हो गया है उन्हें इसका कुफल भोगना होगा. जैसे साधारण जन की राहत-मदद को भूलना अनैतिक होगा वैसे ही इन अपराधियों को भूलना भी अनैतिक होगा.

अज्ञान का बढ़ता आयतन

याद करें थोड़े दिन पहले यह दावा किया गया था कि हम ज्ञान पर आधारित समाज होने जा रहे हैं. स्थिति यह है कि हम एक ऐसा समाज हो गये हैं जो ज्ञान से कम अज्ञान से अधिक परिचालित है. यहां ज्ञान से तात्पर्य आधुनिक ज्ञान भर नहीं है बल्कि उसमें पारंपरिक ज्ञान भी शामिल है. हिन्दुत्व नामक जो विचारधारा इन दिनों बढ़ी और सत्तारूढ़ तक हो गयी है, हिन्दू धर्म और अध्यात्म के भीषण अज्ञान पर आधारित है. उसमें अनुष्ठान के स्तर पर नहीं, चिन्तन के स्तर पर उपनिषदों, षट् दर्शन, महाकाव्यों आदि की लम्बी परम्परा में जो विशद ज्ञान संचित है उसकी कोई अन्तर्ध्वनि तक नहीं है, नयी परिस्थिति के अनुरूप नयी व्याख्या तो बहुत दूर की बात है. यह आकस्मिक नहीं है कि इस दौरान हम हिन्दू परंपरा के कुछ बीजग्रन्थों की कोई नयी व्याख्या, नयी मीमांसा उभरती नहीं देख रहे हैं. सत्तारूढ़ विचारधारा हिन्दू को एक हिंसक, पौरुषप्रधान इकाई बना रही है जिसका मुख्य लक्ष्य घृणा करना और बदला लेना है. इसकी व्याप्ति तभी सम्भव है जब हिन्दुओं में काफी अज्ञान, अपनी परम्परा और अपने ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अनुभव का अज्ञान फैला दिया जाये. हिन्दुत्व की संस्थाएं मुख्य रूप से और राजनैतिक सत्ता द्वारा दिये गये साधनों से यही कर रही हैं. पिछले सात-आठ वर्षों में हिन्दू समाज जिस तेज़ी से घृणा और प्रतिशोध की भावनाओं से उद्वेलित हो रहा है वह अभूतपूर्व है.

अज्ञान को प्रतिष्ठित करने के लिए ज़रूरी है कि ज्ञान की संस्थाओं को अवनत किया जाये. यह पिछले सात वर्षों में सुनियोजित ढंग से किया गया है. तथाकथित रूढ़ आधुनिक ज्ञान या वाम ज्ञान के बरक़्स कोई भारतीय ज्ञान प्रस्तावित या प्रतिष्ठित नहीं किया गया है. किया गया है अज्ञान को वैधता देना. सत्ताधारी राजनेता प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक भयानक आत्मविश्वास और वाग्स्फूर्ति से ऐसी स्थापनाएं करते रहे हैं जो अज्ञान से ही उपजती हैं और जिनको दयनीय या हास्यास्पद या दोनों ही एक साथ कहा जा सकता है. यह भी अलक्षित नहीं जाना चाहिये कि इस राजनीति के दो मुख्य व्यावहारिक उपकरण साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता अज्ञान से ही उपजे हैं और उन्हें अज्ञान ही पोस सकता है.

इस समय कम से कम उत्तर भारत में इस धारणा की पुष्टि होती है कि पढ़े-लिखों को भी शिक्षा व्यवस्था ज्ञान की बिरादरी में शामिल करने में सफल नहीं हो पायी है. हिन्दी अंचल में साम्प्रदायिकता-धर्मान्धता-जातिवाद की मानसिकता में सक्रिय लोग अधिकांशतः पढ़े-लिखे लोग ही हैं. अगर उनमें अन्धभक्ति, आज्ञाकारिता, प्रश्नहीनता आदि बद्धमूल हैं तो ज़ाहिर है कि शिक्षा उनका अज्ञान दूर नहीं कर पायी है. हद तो यह है कि अधिकांश हिन्दी मीडिया गोदी मीडिया होने के कारण अज्ञान का दैनंदिन प्रचारक बन गया है. अज्ञान को ऐसे विस्तारक और प्रचारक हमारे इतिहास में पहली बार ही मिले हैं. हम इस समय अज्ञान-आधारित समाज हो गये हैं. राजनीति, सत्ताओं, मीडिया, धर्मगुरुओं आदि को इसकी चिन्ता नहीं है. कई बार यह सोच कर दहशत होती है कि अज्ञान के इस बढ़ते आयतन को लेकर हिन्दी अंचल की शिक्षा-व्यवस्था और बौद्धिक समाज को भी कोई प्रगट चिंता नहीं है.

चलने से बनते रास्ते

इन दिनों मैं अपने ईरानी दार्शनिक मित्र रामीन जेहांबेगलू की एक पाण्डुलिपि पढ़ रहा हूं जो सूत्रों में लिखी गयी है और जिसका केन्द्रीय विषय है, दूसरों के दूसरेपन पर चिन्तन. मुझे इस पुस्तक की भूमिका लिखना है. रामीन के साथ एक कवि के रूप में मेरी लम्बी बातचीत इस वर्ष की समाप्ति के पहले पुस्तकाकार प्रकाशित हो जायेगी ऐसी उम्मीद है. उनकी एक नयी पुस्तक ‘इन प्रेज़ आव् हेरसी: फ्रॉम सोक्रेटीस टू अम्बेडकर’ आक्सफ़र्ड यूनीवर्सिटी प्रेस से हाल ही में प्रकाशित हुई है. संयोग से उन्होंने यह पुस्तक मुझे समर्पित की है यह कहकर कि मैं हेरसी की खोज में रत कवि हूं. हाल ही में दिवंगत अरविन्द कुमार के अंग्रेज़ी-हिन्दी कोश में हेरसी का हिन्दी पर्याय धर्मद्रोह दिया गया है. फादर कामिल बुल्के ने चार पर्याय दिये हैं: अपधर्म, विधर्म, अपसिद्धांत, अनधिकृत मत.

रामीन की पाण्डुलिपि का शीर्षक है ‘मैक्ज़ीमा मोरालिया’ और वह सूत्रों के रूप में लिखी गयी है. कुल 206 सूत्र-अनुच्छेद हैं. ‘प्रेम प्रश्न है और उत्तर भी’, ‘प्रेम हमारी सच्ची नियति है’, ‘असहमति के बिना कोई सार्थक जीवन नहीं होता’, ‘मानवीय गरिमा और मानवीय आत्मा की उदात्तता को मीडियोक्रिटी की बुराई से ख़तरा है’, ‘टैगोर का मत था कि मानव सभ्यता किसी संस्कृति की, दूसरी संस्कृतियों से नैतिक और तर्कप्रधान श्रेष्ठता पर स्थापित नहीं हुई थी’ ‘सच तो यह है कि अस्तित्व की विपुलता सर्जनात्मक जीवन में है’, ‘कोई भी तानाशाही अन्य की अन्यता को सहन नहीं कर सकती है’, ‘भीड़ें इतिहास के ख़ाली पन्ने हैं’, ‘सभ्यताएं असभ्य चरित्रों से भरी पड़ी हैं’ आदि कुछ सूत्रांश हैं. रामीन अनेक चिन्तकों जिनमें बुद्ध, गांधी, रवीन्द्रनाथ, नीत्शे आदि शामिल हैं अपनी सूत्र-यात्रा में शामिल करते चलते हैं. वे एकान्त चिन्तक नहीं हैं. उनका प्रयास सहयोगी प्रयास है. वे चाहते हैं कि सभी लोग, सभ्यताएं या संगठन अन्य की अन्यता को सहज भाव से स्वीकार करते हुए एक नया विश्व रचने की ओर अग्रसर हों. उनका यह दृढ़ मत है कि ‘अन्य को उसकी अन्यता में स्वीकार’ किये बिना हम एक बेहतर विश्व की और नहीं बढ़ सकते.

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