समाज | कभी-कभार

‘कोई भी भावना न अपने आप में प्रतिक्रियावादी होती है, न प्रगतिशील’

भावना वास्तविक जीवन-संबंधों से युक्त होकर ही उचित या अनुचित, संगत या असंगत सिद्ध हो सकती है

अशोक वाजपेयी | 12 सितंबर 2021 | फोटो: ओफ्रा

अंतिम दिन

यों तो किसी बड़े लेखक के भौतिक अवसान के बाद उसका नया मरणोत्तर जीवन शुरू होता है जो उसकी कृतियां सम्भव करती हैं जो जीवित और जीवन्त रहती हैं. फिर भी, उसके अवसान के बारे में उत्सुकता रहती है: उसमें शायद एक क़िस्म की दारुण पर क्षम्य क्रूरता भी मिली होती है. लातीनी अमरीका के बड़े कथाकार गाब्रियल गार्सिया मार्क्वेज़ का निधन 2014 में हुआ और उनकी पत्नी मर्सिडीज बारचा का उसके छह वर्ष बाद. उनके एक फ़िल्मकार बेटे राद्रीगो गार्सिया ने ‘ए फ़ेयरबेल टु गाबो एंड मर्सिडीज़’ नाम से संस्मरण लिखा है जो हार्पर कालिन्स ने कुछ दिनों पहले प्रकाशित किया है. पुस्तक भारत में सहज उपलब्ध है.

यह पुस्तक इतनी पठनीय मर्मगद्य है कि उसका कोई संक्षेप करना उसके साथ घोर अन्याय करना होगा. मार्क्वेज का उनके अंतिम दिनों स्मृति-भ्रंश हो गया था और उन्होंने यह स्पष्ट कहा था कि अगर उनकी स्मृति जाती रही तो वे कुछ भी लिख नहीं पायेंगे. उनका यह भी मत था कि ‘अगर तुम बिना लिखे रह सकते हो, मत लिखो.’ वे यह भी मानते थे कि ‘किसी सुलिखित चीज़ से बेहतर कुछ नहीं होता’. उन्हें इसका तीख़ा अहसास था कि ऐसा अवसर आयेगा जब ‘विस्मृति के सत्य’ की छायाएं घेर लेंगी. पर उनका एक चरित्र, उनके उपन्यास ‘लव इन दि टाइम आव कोलेरा’ में, इस विलम्बित सन्देह से अभिभूत होता है कि मृत्यु से कहीं अधिक जीवन है जिसकी कोई सीमाएं नहीं होतीं.’

लातीनी अमरीका में अंत्येष्टि की जो परम्परा इन दिनों है उसमें दाहगृह में शव के जलाये जाने के बाद व्यक्ति की भस्म परिवार को दी जाती है जिसे एक पात्र में सुरक्षित रखने का चलन है.

मार्क्वेज़ की पत्नी एक बेहद दबंग स्त्री थीं जो अपने को विधवा कहलाना सख़्त नापसंद करती थीं. उनका इसरार था कि ‘मैं मैं हूं’. उनके बेटे कहते हैं कि वे क़यास लगाते हैं कि वे अपनी मृत्यु के बाद उन्हें फ़ोन कर पूछेंगी कि ‘वह कैसी रही, मेरी मृत्यु? नहीं, धीरे से बताओ. बैठ जाओ. ठीक से बताओ.’

राद्रीगो गार्सिया लिखते हैं कि उनकी अनुपस्थिति उन्हें अपने माता-पिता को अधिक पसन्द करने और अधिक क्षमा करने की ओर ले जाती है. यह अहसास भी गहरा होता है कि माता-पिता, और सब लोगों की तरह ही, मिट्टी के माधो थे. उन्हें कभी पता ही नहीं कि उनके पिता की बायीं आंख के केन्द्र में कोई दृष्टि नहीं थी.

पुस्तक के अंत में कुछ फोटोग्राफ़ भी हैं जो रोचक हैं और पुस्तक में जो लिखा गया है उसे सुंदर ढंग से जीवंत और जीवित होने का अवसर देते हैं. इस बड़े लेखक की मृत्यु मैक्सिको सिटी में हुई और उसके लिए वहां आयोजित शोकसभा में मैक्सिको और कोलंबिया के राष्ट्रपति शामिल हुए थे. दोनों देश अपने मूर्धन्यों का आदर करते हैं जिसका यह प्रमाण है.

नेमि रचनावली

लगभग डेढ़ वर्ष बाद साहित्य और रंगकर्म संबंधी किसी आयोजन में भाग लेने का सुयोग हुआ, पचास से अधिक लोगों की भौतिक रूप से उपस्थिति में. आभासी दुनिया की सक्रियता से होने वाली ऊब से, कुछ देर के लिए सही, कुछ छुटकारा मिला. अवसर था नटरंग प्रतिष्ठान द्वारा नेमिचंद्र जैन रचनावली के लोकार्पण और उस बहाने ‘आत्मा की गुप्तचरी और आलोचना’ पर परिचर्चा का.

रचनावली वाणी प्रकाशन ने, नंदकिशोर आचार्य और ज्योतिष जोशी के सम्पादन में, प्रकाशित की है. 3600 पृष्ठों की सामग्री उसमें शामिल है जिसमें से लगभग आधी सामग्री ऐसी है जो पहले किसी पुस्तक में शामिल नहीं हुई थी. आठ खण्ड हैं. कोरोना महामारी और फलस्वरूप हुए लॉकडाउन के कारण इस प्रकाशन में विलम्ब हुआ है. याद किया जा सकता है कि स्वयं नेमिजी ने अपने अंतरंग सखा गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनावली संपादित की थी जो बाद में आनेवाली रचनावलियों की जांच-परख के लिए लगभग एक अनिवार्य प्रतिमान बन गयी और लोकप्रिय भी साबित हुई.

इस रचनावली में नेमिजी द्वारा अंग्रेज़ी में लिखे गये लेख और नाटकों की समीक्षाएं शामिल नहीं की गयी हैं. उनके अलग से दो खण्ड बनेंगे. उन्होंने बरसों टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन आदि में नाट्य-समीक्षाएं लिखीं और उनका निर्णायक प्रभाव पड़ता था. बहरहाल, कविता, उपन्यास, कहानियों, रंगमंच, संस्कृति, संचार माध्यमों आदि पर नेमिजी ने जो लिखा उसका अधिकांश संकलित है. हिंदी में उपन्यास और रंगमंच की आलोचना का उन्हें लगभग स्थपति ही माना जाता है और उसकी पुष्टि में रचनावली में पर्याप्त साक्ष्य अब उपलब्ध हो गया है.

नन्दकिशोर आचार्य ने अपनी एक भूमिका में, उचित ही, नेमि जी के इस कथन को उद्धृत किया है: ‘कोई भी भावना न अपने आप में प्रतिक्रियावादी होती है, न प्रगतिशील. वह वास्तविक जीवन-संबंधों से युक्त होकर ही उचित या अनुचित, संगत या असंगत सिद्ध हो सकती है. किसी भी भावना के जीवन-संबंधों को देखना आवश्यक है… वैफल्य और निराशा किन जीवन-संबंधों के आधार पर है? उस निराशा की जन्मभूमि जो मानव जीवन है, उसको ध्यान में रखकर ही, उसका विश्लेषण और मूल्यांकन किया जा सकता है.’ 1997 में लिखी नेमिजी की यह कविता देखें:

कितनी सुरक्षित है यह दुनिया
कि लोग
मारक हथियारों से लैस होकर निकलते हैं
और सबको भरोसा दिलाते हुए
कहते हैं
डरो मत तुम्हारे लिए निहत्थापन ही सबसे बड़ा हथियार है
ज़रूरत अगर हुई हथियारों की
तो हम तो हैं
आख़िर हमारे हथियार किस काम आयेंगे

गिलविक की ज्यामितियां

ऊंच कवि गिलविक से मेरी मुलाक़ात 1974 के दिसंबर में पेरिस की पहली यात्रा के दौरान हुई थी. उनकी कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद का एक संचयन मैंने पहले से देख रखा था. तब मुझे पता नहीं था कि इन्होंने 1960 में यूक्लिड की ज्‍यामिति के कई तत्वों पर कविताएं लिखी हैं. डकलिंग प्रैस द्वारा 2010 में प्रकाशित और रिचर्ड सीवर्थ द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित इन कविताओं का संग्रह ‘ज्योमेट्रीज़’ 2012 में मेरे हाथ शेक्सपीयर एंड कंपनी में लगा. पहली ही कविता है: ‘देखा’

जहां तक तुम जाती हो
कोई समस्या नहीं.
तुम इस विश्वास
में अडिग हो
कि भविष्य
जन्म लेता है
हर उस बिन्दु से
जो तुम अतिक्रमित करती हो
तुम संसार को याद करती हो
बिना संदेह के
तुम उसे आधे में काट देती हो
बिना कुछ सीखे
बिना कुछ दिये
तुम आगे बढ़ती हो.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022