अगर साहित्य नागरिक स्वतंत्रता के विस्तार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सक्रिय और प्रासंगिक न हो तो उसकी अपनी स्वतंत्रता संकरी क्रूर बनकर रह जा सकती है
अशोक वाजपेयी | 24 अप्रैल 2022
लेखक और स्वतंत्रता
एक ऐसे समय में जब लेखक तो लेखक, साधारण नागरिक की स्वतंत्रता लगभग हर दिन कुछ और सिकुड़ रही है, मैंने वड़ोदरा में गुजरात साहित्य परिषद् के आमंत्रण पर सुरेश जोशी स्मृति व्याख्यान देने के लिए विषय चुना ‘लेखक और स्वतंत्रता’. लेखक की स्वतंत्रता आवयविक रूप से नागरिक स्वतंत्रता का ही एक अधिक संघनित रूप है. जैसे नागरिक वैसे ही लेखक के लिए स्वतंत्रता जन्मसिद्ध अधिकार है. यह भी कह सकते हैं कि साहित्य एक साथ स्वतंत्रता, उम्मीद और न्याय की विधा है. यह समाज की सांस्कृतिक-नैतिक-आध्यात्मिक स्वतंत्रता व्यक्त-विन्यस्त-विस्तृत करता और उसे जब-तब प्रश्नांकित भी करता है. कोई भी ऐसा समाज स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता जिसमें लेखक स्वतंत्र न हो. यह भी स्पष्ट है कि कोई भी स्वतंत्रता परम नहीं हो सकती: वह सामाजिक-राजनैतिक-नैतिक-सांस्कृतिक मर्यादाओं के भीतर ही संभव और सक्रिय होती है. अगर लेखक को भाषा, अभिव्यक्ति, शिल्प, कथ्य, प्रयोग, संवाद, बहस, व्यंग, असहमति, प्रकाशन, आलोचना की स्वतंत्रता नहीं है तो वह व्यापक नागरिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष नहीं कर सकता.
नयी तकनालजी ने नागरिकों के बड़े हिस्से को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है जो कि लोकतांत्रिक वृत्ति को पुष्ट और व्यापक करती है. पर यही स्वतंत्रता इन दिनों समाज में घृणा, साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, झूठ, लांछन, अज्ञान फैलाने के लिए भी भरपूर इस्तेमाल हो रही है. यह तक कहा जा सकता है कि लिंचिंग, हत्या-बलात्कार, हिंसा करने की छूट, अल्पसंख्यकों-गरीबों-स्त्रियों-आदिवासियो पर अत्याचार करने की छूट स्वतंत्रता के मुखौटे बन रही है. आलोचना और प्रश्नांकन की छूट नहीं है पर गाली-गलौज, शारीरिक सुलूक, सार्वजनिक अभ्रदता, झगड़ने की छूट है. मीडिया का एक बड़ा और प्रभावशाली हिस्सा इस समय सत्ता का पालतू गुलाम बन गया है और स्वयं अपनी स्वतंत्रता का रक्षक होने के बजाय उसका मुदित भक्षक हो गया है. स्वतंत्रता और निजता में कटौती करने के अनेक क़ानूनी उपक्रम भी किये जा रहे हैं. ऐसे में लगता है कि लेखक की स्वतंत्रता अनेक क़िस्म के बन्धनों और बन्दिशों से घिरी हुई है.
विस्तार में जाये बिना इतना तो कहा जा सकता है कि लेखक को अपनी, जाति, लिंग, विचारदृष्टि, धर्म, स्थिति, साधनों से परे जाकर कुछ कह और कर सकने का साहस चाहिये. प्रश्न पूछने, इतिहास, परम्परा, संस्कृति, सभ्यता, व्यवस्था, क़ानून पर सन्देह करने और प्रश्न उठाने की स्वतंत्रता चाहिये. उसे स्थापित व्यवस्था, प्रतिष्ठान, प्रक्रियाओं का प्रतिरोध करने की आज़ादी चाहिये. उसे इस पर इसरार करने की भी स्वतंत्रता चाहिये कि ‘जो स्वतंत्रता मुझे मिली है वह दूसरे सबको मिले’. अगर साहित्य नागरिक स्वतंत्रता के विस्तार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सक्रिय और प्रासंगिक न हो तो उसकी अपनी स्वतंत्रता संकरी क्रूर बनकर रह जा सकती है.
‘आवाज़ बटोरता कवि’
साठ से भी अधिक पहले हममें से कइयों ने पहली बार ग्रीक कवि यानिस रित्सोज़ को उनकी कुछ कविताओं के श्रीकान्त वर्मा द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद से जाना था. अपने साम्यवादी विचारों के कारण रित्सोज़ का जीवन बहुत यंत्रणामय रहा और उन्होंने कई वर्ष जेल में बिताये. वे यों तो अपनी उग्र क्रान्तिकारी दृष्टि के कारण विख्यात हैं पर उन्होंने कुछ कविताएं कुल तीन पंक्तियों की एक तरह की ‘तिहाइयां’ भी लिखी हैं. उनमें से कुछ का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है:
1
एक कीड़ा खिड़की के कांच पर,
एक जली हुई तीली बिस्तरवाले कमरे के दरवाज़े के पास
कुछ तो या कुछ भी नहीं.
2
पाषाण देवदूत भग्न स्तम्भों के बीच
चुम्बन साझा करते हैं
बहुत पहले के मृतकों की कब्रों पर.
3
वह अपना गुलदस्ता बिस्तर पर छोड़ देती है
वह अपने बालों में कंघी फेरती है
वह कपड़े उतारती और खिड़की पर जाती है.
4
हर रात, तुम जब आंखें मूंदते हो, अनाम्य
खड़ा होता है निरावृत्त तुम्हारे बिस्तर के पास. वह
तुम्हें नीचे तक निहारता और तुम्हें सब कुछ बताता है.
5
एक ट्रेन एक गांव को पार करती हुई
शनिवार देर गये, नीला धुआं
एक अकेला मुसाफ़िर.
6
रात की हवा पर पत्तियां हलके से क़दम रखती हैं
मैं अपनी नींद में उन्हें सुनता हूं
और सीधी जड़ तक उन्हें पछियाता हूं.
7
रात में स्टेशन: शान्त, अंधेरा, निर्जन.
स्टेशन मास्टर एक सिगरेट जलाता है
अपने पैंट के बटन खोलता और रेलट्रैक पर मूतता है.
8
तुम्हारी नींद-एक शान्त झील.
एक हिरण पीने झुकता है. मैं झुकता हूं
पीने.
9
मैंने अपनी सिगरेट का बचा हिस्सा चुटकी बजाकर खिड़की के बाहर फेंक दिया टंकी में.
क्या वह अभी तक चमक रहा है
या कि वह एक उल्का है?
10
वे तारों भरी रातें…. तुम सुन सकते थे सेबों को
नम घास पर गिरते हुए.
हम सेबों को पड़े रहने देते थे, पर आवाज़ को बटोर लेते थे.
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