साहित्य

Society | कभी-कभार

लेखक होकर चलने में निहित है कि अपना रास्ता बनाते हुए ही चलना है

साहित्य के पुरखों ने ऐसे ही कठिन समय के लिए कहा था कि जब लेखक रहते हुए कोई रास्ता नहीं दिखेगा तब लेखक रहने की भी कोई अनिवार्यता नहीं रह जायेगी

अशोक वाजपेयी | 13 March 2022

पाया है प्रकाश’

इधर वसन्त पंचमी को बनारस की संस्था ‘रूपवाणी’ के आग्रह पर निराला पर कुछ कहने-सुनने का अवसर मिला. निराला ने कविता में ही कहा था: ‘मैं कवि हूं, पाया है प्रकाश’. यह प्रकाश कहां से पाया, इस प्रकाश की उनकी कविता में क्या जगह है और स्वयं निराला का काव्य-प्रकाश आज हमें क्या देता है, इन कुछ बातों पर विचार किया.

कभी छायावाद परम्परा से विचलन माना जाता था. लेकिन सच तो यह है कि निराला ने प्रकाश परम्परा से पाया: वैदिक काव्य से लेकर कालिदास और जयदेव से और बाद के तुलसीदास से. उनकी कविता, एक स्तर पर संस्कृत का, खड़ी बोली में, पुनराविष्कार करती है. वे संस्कृत के अनेक विरले शब्दों या शब्द-समुच्चयों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं. उस समय जितनी संस्कृत निराला ने अपनी काव्यभाषा में खपायी उतनी उनके समकालीनों में से शायद किसी ने नहीं. प्रतिभा प्रकाशग्राही होती है और प्रकाशजनक भी. निराला आत्मप्रकाशित कवि भी हैं: उनसे कई कवियों-आलोचकों-रसिकों-विद्वानों आदि ने प्रकाश पाया है. निराला ने अपने आत्मविश्वास, कविता और भाषा से भी प्रकाश पाया. हिन्दी के लिए तो उन्होंने महात्मा गांधी और नेहरू तक से निर्भीक विवाद किया.

भले उस कारण निराला ने कभी अपनी कविता के लिए कोई रियासत न मांगी न चाही, उन्हें उपेक्षा, अवहेलना और अभाव झेलने पड़े और उनसे भी उन्होंने प्रकाश पाया. अगर उनकी गद्य-कृतियों ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘चतुरी चमार’ आदि को ध्यान में रखें तो निराला ने साधारण मनुष्यता से भी प्रकाश पाया, यह तब जब हिन्दी में साधारण की महिमा और केन्द्रीयता का बहुमुखी प्रयत्न शुरू हो गया था. निराला ने ‘तुलसीदास’ कविता में महाकवि का बखान करते हुए लिखा: ‘आयत-दृग पुष्टदेह गत-भय/अपने प्रकाश में निःसंशय’ जो स्वयं निराला का व्यक्ति-चित्र हो सकता है. उनके यहां पाया और रचा प्रकाश निःसंशय है, भले वह ‘नैशांधकार’ को पार कर पाया गया है. वह अन्धकार से निरन्तर जूझता प्रकाश है.

प्रकाश के साथ-साथ निराला शक्ति और निर्भयता के कवि भी हैं: एक स्तर पर उनकी कविता में, उन्हीं की एक पंक्ति उधार लेकर कहें तो ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ है तो दूसरे स्तर पर निर्भीक कल्पना और उदग्र कल्पसृष्टि है. उचित ही निराला और प्रसाद स्वतंत्रता-संग्राम और सत्याग्रह के युग में शक्ति काव्य के प्रणेता कवि हैं जैसा कि रामस्वरूप चतुर्वेदी ने छायावाद को शक्तिकाव्य कहते हुए बताया है. वैदिक काव्य के बारे में निराला ने कहा कि उसमें ‘अद्भुत शक्ति का प्रकाश’ है: निराला इसी शक्ति और प्रकाश के उत्तराधिकार को नियोजित करनेवाले कवि हैं.

निराला अपनी अक्षमताओं और अभावों का पूरी निर्ममता के साथ बखान करते हैं: ‘तेरे हित न कर सका’, ‘हारता रहा मैं स्वार्थ-समर’, ‘मैं लख न सका वे दृग विपन्न’, ‘कर नहीं सकता पोषण उत्तम’, ‘तब भी मैं इसी तरह समस्त/कवि जीवन में व्यर्थ ही व्यस्त’, ‘हो गया व्यर्थ जीवन/मैं रण में गया हार’, ‘केवल आपा खोया खेला/इस जीवन में’ आदि पंक्तियां कविता में आत्मालोचन का साक्ष्य हैं. पर निराला की केन्द्रीय मुद्रा शक्ति की ही है, किसी तरह के दैन्‍य की नहीं, आत्मालोचना की है, विलाप की नहीं. वे सहज भाव से कह सकते हैं: ‘दिये हैं मैंने जगत् को फूल-फल/किया है अपनी प्रभा से चकित-चल’. यही प्रखरता निराला दिखाते हैं जब से महात्मा गांधी से ‘हिन्दी में रवीन्द्रनाथ नहीं है’ जैसी स्थापना से और नेहरू से जयशंकर प्रसाद की मृत्यु पर कांग्रेस द्वारा शोक-प्रस्ताव पारित न करने पर विवाद करते हैं.

इस पर ध्यान शायद कम गया है कि निराला ने अपनी कविता और गद्य में जो खड़ी बोली लिखी, उसकी प्रकृति पर उनके व्यक्तित्व की गहरी छाया है: उसका ढब अलग है. उसमें तत्सम को गौरव और गरिमा से अलग संघर्ष का मुहावरा बनाने की चेष्टा है और कहीं-कहीं उसमें बांग्ला की अन्तर्ध्वनियां सुनी जा सकती हैं. ‘अभी न होगा मेरा अन्त’, ‘सुमन भर न लिये’, ‘मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा’, ‘नहीं फूल, जीवन अविकच है/यह सच है’, ‘प्रात तव द्वार पर’, ‘कुछ न हुआ, न हो’, ‘सहज सहज पग धर आओ उतर’, ‘बापू तुम मुर्गी खाते यदि’, ‘मैं अकेला’, ‘स्नेह-निर्झर वह गया है’, ‘काले काले बादल आये, न आये वीर जवाहरलाल’, ‘जाल भी ऐसा चला/कि थोड़ों के पेट में बहुतों को आना पड़ा’, ‘राजे ने अपनी रखवाली की’, ‘गीत गाने दो मुझे/वेदना को रोकने दो’, ‘मरा हूं हज़ार मरण’, ‘सुख का दिन डूबे डूब जाय’, ‘सीधी राह मुझे चलने दो’, ‘राम के हुए तो बने काम’, ‘बांधो न नाव इस ठांव बन्धु’, ‘पत्रोत्कण्ठित जीवन का विष बुझा हुआ है’ आदि उनके गीतों से कुछ पंक्तियां ही यह बताती हैं कि भाषा के, मुहावरे के कितने रूपों का निराला प्रयोग कर रहे हैं. उनकी अंतिम कविता की अंतिम पंक्ति भी एक अलग रूप  है: ‘पुनः सवेरा एक और फेरा है जी का’.

प्रकाश, आलोक, ज्योति, दीप्ति, आभा, प्रभा, दुति, उज्ज्वलता आदि शब्द निराला के प्रकाश-केन्द्रित रूझान को व्यक्त करने के लिए ही आये हैं. उनका एक काव्यांश है:

आगे-पीछे दाये-बायें
जो आये थे वे हट जायें
उसे सृष्टि से दृष्टि, सहज में
करूं लोक-आलोक-संतरण.

उन्हें ‘लोक-आलोक-संतरण’ का कवि भी कहा जा सकता है. अन्ततः निराला शक्ति-सौन्दर्य-संघर्ष-दुख-प्रकाश इन पंच तत्वों के कवि हैं. अपने शब्दों से वे हमारे साथ हैं और इस बेहद निराश करनेवाले कुसमय में भी ‘आशा का प्रदीप जलता है.’

‘रास्ते ज़रूर हैं’

रज़ा पुस्तकमाला के अन्तर्गत प्रकाशित ‘अज्ञेय के उद्धरण’ पुस्तक देख रहा था: इस 7 मार्च को वे 111 बरस के हो गये होते. मेरा ध्यान इस उद्धरण ने खींचा:

‘जब मैं आरम्भ में यह मानकर चला हूं कि लेखक और लेखक के नाते ही परिवेश की समस्या को देख रहा हूं तो उसमें भी निहित है कि मानता हूं कि रास्ता है. जब लेखक रहते हुए कोई रास्ता नहीं दीखेगा तब लेखक रहने की भी कोई अनिवार्यता नहीं रह जायेगी. रास्ते ज़रूर हैं. पर अगर हैं तो वे राजमार्ग हैं, यह कहना कठिन है. शायद झूठ भी होगा. रास्ते हैं, होंगे पर सभी बीहड़ होंगे और सबके अपने-अपने अलग-अलग रास्ते होंगे. शायद लेखक होकर चलने में यह निहित भी है कि राजमार्ग का दावा छोड़ दिया गया होगा, अपना रास्ता बनाते हुए ही चलना होगा.’

एक और उद्धरण का यह अंश ध्यान खींचता है:

‘…. किसी भी काल में ऐसा हो सकता है कि साहित्यकार को अपने समय और अपने समाज के व्यापक संवेदन के विरोध में अकेले खड़ा होना पड़े. ऐसे अवसर भी जीवन में हमेशा नहीं आते लेकिन जब ऐसे अवसर आयें तब यह बिलकुल सम्भव है कि कवि हमारे सामने जो कुछ प्रस्तुत कर रहा है, वह केवल उसके लिए मूल्यवान न हो- बल्कि कदाचित् हमारे सारे जीवन को ही अर्थ, लक्ष्य ओर दिशा देने के लिए आवश्यक हो…. असम्भव नहीं कि वह उस समय उसी चुनौती का उत्तर दे रहा हो जिसे उपनिषदों ने मनुष्य-मात्र के सामने रखा था: ‘कृत स्मर क्रतो स्मर’.

अज्ञेय जिन स्थितियों का ज़िक्र कर रहे हैं, वे आज भी हमारे सामने हैं. कई बार यह बेचैनी होती है कि कोई रास्ता नहीं बचा. या यह कि जो रास्ता हमने चुना है उस पर कोई और साथ नहीं है. यह भी कि आज जैसा समाज हिंसा-घृणा-असत्य-अन्याय की चपेट में है उन्हें मान्यता देता लगता है वैसे समाज के हम लेखक विरोध में ही हैं. समय बहुत कठिन है पर उसे समझने और उससे निपटने में पुरखे हमारी मदद कर सकते हैं- वही पुरखे जिनकी स्मृति सामाजिक मानस से मिटा देने का एक दुष्ट अभियान लगातार चल रहा है.

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