Society | कभी-कभार

साहित्य कभी-कभार राजनैतिक भी हो सकता है पर वह हमेशा नैतिक रहता है

वहीं इतिहास के लिए साहित्य तटस्थ नहीं बल्कि पक्षधर गवाह है क्योंकि उसका पक्ष लोकतंत्र के संवैधानिक आदर्शों यानी स्वतंत्रता-समता-न्याय के मूल्यों का पक्ष है

अशोक वाजपेयी | 12 June 2022

निराशा का नया रूप

लोकतंत्र से साहित्य की निराशा नयी नहीं है: दशकों से, लगभग लोकतंत्र के आरम्भ से ही, साहित्य उसकी अपर्याप्तता और विकृतियों से असंतुष्ट रहा है. मुक्तिबोध, नागार्जुन, अज्ञेय और धूमिल, विजयदेव नारायण साही, रघुवीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा में यह असंतोष तरह-तरह से दर्ज़ हुआ है. साहित्य अपने जो आदर्श निश्चित करता है, उसमें समवर्ती राजनीति और उसे परिचालित समाज को भी हिसाब में लेता है और उनके आदर्श भी तय करता है. वह अपने आदर्श न पा सकने से भी व्यथित होता है, इसलिए उसकी लोकतांत्रिक आदर्श से दूर हटने की व्यथा विश्वसनीय लगती है.

इस समय लोकतंत्र के बहुसंख्यकतावाद में परिवर्तित होना और राज्य के लगातार हिंसक होना लोकतंत्र का नया और अप्रत्याशित संस्करण है. इस संस्करण का साहित्य विरोध ही कर सकता है जो कि वह कर रहा है. इस संस्करण को बाज़ार, धर्म और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा समर्थन दे रहे और पोस रहे हैं. इसलिए साहित्य इनका विरोध भी लगातार कर रहा है.

जो सर्वथा अप्रत्याशित है वह यह है कि जो घृणा-उपजाऊ, असत्य में लिप्त, हिंसा और हत्या की मानसिकता को बढ़ाने वाली शक्तियां सत्तारूढ़ हो गयी हैं उन्हें व्यापक जनसमर्थन भी मिल रहा है. इस भयावह बुलडोज़ी समय में डर के मारे लोग भक्त बन रहे हैं और साहित्य इसे खुली आंखों देख और दर्ज़ कर रहा है. बाद में जब इन काले दिनों का इतिहास लिखा जायेगा तो अधिकांश विश्वसनीय साक्ष्य साहित्य से आयेगा, मीडिया से नहीं. साहित्य गवाह है पर तटस्थ गवाह नहीं: वह पक्षधर गवाह है क्योंकि उसका पक्ष लोकतंत्र के संवैधानिक आदर्शों, अर्थात् स्वतंत्रता-समता-न्याय के मूल्यों का पक्ष है.

चूंकि हिन्दी अंचल में साहित्य लोक-व्याप्त नहीं है और एक तरह की अल्पसंख्यक कार्रवाई ही है, उसकी गवाही का फिलवक़्त नैतिक महत्व तो है, राजनैतिक महत्व नहीं. नीति और राजनीति के बीच यह बढ़ती दूरी और दुराव लोकतंत्र की अपर्याप्तता पर एक तीख़ी टिप्पणी है. साहित्य कभी-कभार राजनैतिक भी हो सकता है पर वह हमेशा नैतिक रहता है. उसकी साामाजिक हैसियत, जैसी भी वह हो, मुख्यतः उसकी नैतिक हैसियत ही होती है. यह लोकतंत्र की एक विडम्बना है कि उसमें राजनैतिक होने को नैतिक होना ज़रूरी नहीं रह गया है. राजनीति में बढ़ते अतिचार और अत्याचार उसमें से नीति के ग़ायब होने का ही रोज़ाना मिलनेवाले सबूत है. हर तरह से सफल होना और राजनीति में किसी भी तरह से सत्ता में आ जाना नीतिशून्य कार्रवाई है और बहुत निराशा इस बात से होती है कि व्यापक समाज इस सबको हिसाब में नहीं लेता और कई बार अपनी सक्रियता और चुप्पी दोनों से इन्हें वैधता देता रहता है. अधिक से अधिक हम निराशा के ये नये रूप पहचान सकते हैं.

सामाजिक अध्ययन

समाजविज्ञान की दो पत्रिकाओं ‘सामाजिक विमर्श’ और ‘सामाजिकी’ के नये अंकों के लोकार्पण और उनके द्वारा आयोजित समाज विज्ञान के युवा अध्येताओं की कार्यशाला के समापन के अवसर पर कुछ बोलने का सुयोग हुआ. समाज विज्ञान, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, शुद्ध विज्ञान नहीं है वह समाज जैसी बेहद जटिल, बहुल और सूक्ष्म सचाई का अन्वेषण है. भारतीय समाज में आज कई समुदाय, जातियां, पेशेवर संगठन, धर्म, भाषाएं और बोलियां हैं और उनके आपस में कई गठबन्धन, तनाव और अन्तर्विरोध आदि हैं. उनका बारीकी से अध्ययन आसान काम नहीं है. हालांकि हिन्दी में विचार सम्पदा के उत्पादन और प्रसार की गति बहुत धीमी है, समाजविज्ञान के क्षेत्र में इधर दो दशकों से जो सजगता-सक्रियता आयी है वह उल्लेखनीय है और इस अपेक्षाकृत मन्द सम्पदा में महत्वपूर्ण इज़ाफ़ा करती है.

आज हमारा समाज कई तरह की वृत्तियों जैसे आधुनिकता, परम्परा, इतिहास, स्मृति-विस्मृति, धार्मिकता, बाज़ार, मीडिया, राजनीति आदि की खुली रंगभूमि और रणभूमि दोनों बना हुआ है. ख़ासकर हिन्दी अंचल में लगता है कि समाज और राज के बीच जो अनिवार्य तनाव होता है, उसके बरक़्स राज बढ़ रहा और समाज घट रहा है. यह समाज या तो राज-भरोसे है या राम-भरोसे.

समाजविज्ञान का पड़ोस बहुत सम्पन्न है, गतिशील भी: उसमें दर्शन, आर्थिकी, राजनीतिशास्त्र, इतिहास आदि अनेक अनुशासन अपनी गतिशीलता के साथ उपस्थित हैं. यह विज्ञान उनसे प्रतिकृत होने को लगभग बाध्य है. उसका एक पड़ोसी साहित्य भी है. साहित्य को ज्ञान और विचार की एक वैध और ज़रूरी विधा मानने में समाजविज्ञान और अन्य ज्ञान के अनुशासनों को बड़ा संकोच है. चूंकि समाजविज्ञान भाषा में लिखा जाता और सिर्फ़ विशेषज्ञों भर को नहीं समाज को भी संबोधित है, वह गद्य की एक विधा भी है जो साहित्य से सम्प्रेषणीयता, शैली, जीवन्तता, मुहावरेदानी आदि कई चीज़ें सीख सकती है.

जैसे साहित्य वैसे ही समाजविज्ञान पूर्वग्रहहीन नहीं हो सकता. इस अर्थ में वह तटस्थ निरपेक्ष अध्ययन नहीं होता, न होना चाहिये. समाज को हम पढ़ते ही इसलिए हैं कि हम बेहतर समाज चाहते हैं. उस समाज में जो आज है, स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों की क्या उपस्थिति और सक्रियता है, यह जानना हम सबके लिए ज़रूरी है. लगता है कि हिन्दी समाज के वैज्ञानिक अध्ययन में कुछ विषयों पर हमारा ध्यान जाना चाहिये जैसे हिन्दी समाज में बढ़ती हिंसा-हत्या की मानसिकता और उसके स्रोत, तरह-तरह के झूठों को सच मानने की विवेकहीनता का लगातार विस्तार, पारंपरिक समरसता, भाईचारे और आपसदारी की वर्तमान स्थिति, हिन्दी समाज में साहित्य और कलाओं की बेहद शिथिल पैठ, भाषिक प्रदूषण और विकार और हिन्दी समाज, मंदिरों-मस्जिदों के राजनैतिकीकरण की व्याप्ति और कारण, हिन्दुओं में सिखों की तरह के तत्पर सेवा-भाव के अभाव के सामाजिक कारण, हिन्दी में ज्ञानोत्पादन की अवनति, हिन्दी अंचल में देवमालाओं की बढ़त-घटत; हिन्दी समाज का अंग्रेज़ी प्रेम, हिन्दी अंचल में बढ़ती अज्ञान की प्रतिष्ठा.

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