समाज | कभी-कभार

‘शेखर: एक जीवनी’ का लिखा जाना हिन्दी उपन्यास में एक नया और सर्वथा अप्रत्याशित मोड़ था

अपनी उपस्थिति के बमुश्किल सौ बरसों में ही हिंदी उपन्यास ने शिल्प, रूपाकार, कथ्य आदि के क्षेत्र में बहुत विविधता अर्जित की है

अशोक वाजपेयी | 05 दिसंबर 2021

अस्सी वर्ष

‘साहित्य का निर्माण, मानो जीवित मृत्यु का आह्वान है. साहित्यकार को निर्माण करके और लाभ भी तो क्या, रचयिता होने का सुख भी नहीं मिलता, क्योंकि काम पूरा होते ही वह देखता है, ‘अरे यह तो वह नहीं है जो मैं बनाना चाहता था, वह मानो क्रियाशीलता का नारद है, उसे कहीं रूकना नहीं है, उसे सर्वत्र भड़काना है, उभारना है, जलाना है और कभी शान्त नहीं होना है, कहीं रूकना नहीं है. शायद इसीलिए उसके पथ के आरम्भ में ही विधि उसे रोककर कहती है, ‘देख इस पथ पर मत जा, यह तेरे पैरों के लिए नहीं है.’ और यदि वह ढीठ होकर बढ़ा ही जाता है, तो वह कहती है, ‘अच्छा, तो तू समझ-अपना ज़िम्मा संभाल.’ और निर्मम अपने खाते से, अपने पोष्य और रक्षणीय बच्चों की सूची से उसका नाम काट देती है.’

यह उद्धरण अज्ञेय के पहले उपन्यास ‘शेखर: एक जीवनी’ में से है, उसके पहले भाग से जो आज से अस्सी बरस पहले प्रकाशित हुआ था, प्रेमचन्द के उपन्यास ‘गोदान’ के प्रकाशन के कुल पांच बरस बाद. अज्ञेय की उम्र तीस वर्ष थी. यह हिन्दी उपन्यास में एक नया और सर्वथा अप्रत्याशित मोड़ था. अगर आप हिन्दी के पांच कालजयी उपन्यासों की एक सूची बनायें तो उसमें ‘गोदान’ के साथ ‘शेखर: एक जीवनी’ भी अनिवार्यतः शामिल होगा.

इस उपन्यास की शुरूआत भी अनोखी है. वह इस प्रकार है: ‘फांसी! जिस जीवन को उत्पन्न करने में हमारे संसार की सारी शक्तियां, हमारे विकास, हमारे विज्ञान, हमारी सभ्यता द्वारा निर्मित सारी क्षमताएं या औजार असमर्थ हैं, उस जीवन को छीन लेने में, उसी का विनाश करने में, ऐसी भोली हृदयहीनता-फांसी!’ इस कृति से हिन्दी उपन्यास को नयी वैचारिक सत्ता मिली और जैसा कि कवि कुंवर नारायण ने कहा है ‘पिछले उपन्यासों से ‘शेखर’ इस अर्थ में भिन्न है कि उसमें व्यक्ति को भी उतनी ही बड़ी विचारणीय समस्या माना गया है, जितना प्रेमचन्द-युग में समाज को’. शायद आज के उपन्यास में समाज-व्यक्ति का वैसा द्वैत नहीं रहा जैसा कि अस्सी बरस पहले था. उसने कई मुक़ाम पार किये हैं और हमारे समय और सचाई की जटिलता और सूक्ष्मता को रूपायित करने के लिए अनेक नयी आख्यान-विधियां खोजी हैं. जिस अज्ञेय को विधि ने अपने खाते से उस समय अलग कर दिया था उस अज्ञेय का नाम साहित्य, इतिहास और संस्कृति के खातों से काटा नहीं जा सका है. बल्कि उनमें से कोई भी उनके अवदान को, उनके साहस और कर्मठता को दर्ज़ किये बिना प्रामाणिक नहीं हो सकता.

हमारी भाषा में उपन्यास की उपस्थिति के बमुश्किल सौ बरस हुए होंगे. इतनी कम अवधि में हिन्दी उपन्यास ने शिल्प, रूपाकार, कथ्य आदि के क्षेत्र में बहुत विविधता, दृष्टियों का तुमुल और द्वन्द्व आदि अर्जित किये हैं. हम शेखर के समय से बहुत दूर आ गये हैं पर अब भी उसकी रोशनी में हम अपने समय के जोखिम और अंधेरे-उजाले पहचान सकते हैं और हिन्दी की आख्यान और विचार की शक्ति को भी.

युवा लेखक और कलाएं

हिन्दी साहित्य और कलाओं के बीच जो दूरियां, अपरिचय, संवाद और सहकार का अभाव है उन्हें लेकर पिछले लगभग चार दशकों से कुछ प्रयत्न और कुछ अरण्यरोदन करता रहा हूं. किसी मित्र ने हाल में मज़ाक में कहा कि तुम तो बिना थके सांस्कृतिक साक्षरता बढ़ाने के अभियाने में लगे रहे हो पर उसका हासिल क्या है. हासिल के बारे में कुछ नहीं कह सकता पर अभियान तो, अगर उसे अभियान कहना उचित या आवश्यक लगे, चलता रहा है और उसे समाप्त करने का कोई इरादा नहीं है. एक तरह से उसी के अन्तर्गत हमने रज़ा फ़ाउण्डेशन के वार्षिक समागम ‘युवा 2021’ को इस बार साहित्येतर कलाओं के एक मूर्धन्य-सप्तक पर एकाग्र किया: सैयद हैदर रज़ा, जगदीश स्वामीनाथन (ललित कला), हबीब तनवीर (रंगमंच), मणि कौल (सिनेमा), कुमार गंधर्व (शास्त्रीय संगीत), बिरजू महाराज (शास्त्रीय नृत्य), और मुकुन्द लाठ (कला-विचार) पर पहली बार हिन्दी के लेखकों ने, 28 शहरों से आये लगभग 40 युवा लेखकों ने 14-15 नवम्बर 2021 को 7 समूहों में इन मूर्धन्यों पर विचार किया. इससे पहले कभी लेखकों के किसी सम्मेलन या संगोष्ठी में साहित्य के बजाय कलाओं पर ऐसा व्यवस्थित और अध्यवसाय से सम्पन्न सुदीर्घ विचार किया हो, कम से कम मुझे, याद नहीं आता . हमने जो सप्तक चुना उसमें शामिल सभी मूर्धन्यों का हिन्दी से गहरा सम्बन्ध रहा है. प्रायः सभी पर लिखित और प्रकाशित सामग्री हिन्दी में कम ही है. यह एक और उदाहरण कि कैसे हिन्दी आलोचना साहित्य पर केन्द्रित रही है और उसने समवर्ती कलाओं की उपेक्षा की है. सभी प्रतिभागी जल्दी ही अपने, उम्मीद है, सुलिखित निबन्ध दे देंगे ताकि उनका एक संचयन प्रकाशित किया जा सके: ऐसा प्रकाशन भी, इस आयोजन की ही तरह अभूत पूर्व होगा.

यह सामान्यीकरण किया जा सकता है कि अगर कोई लेखक या हिन्दी अध्यापक या मीडियाकर्मी कलाओं के बारे में ईमानदारी से और संवेदनशील ढंग से अध्यवसाय करे और लिखे तो उसके पास साहित्य की आलोचना के जो औजार और अवधारणाएं हैं, उनके विस्तार और सूक्ष्मता-जटिलता के लिए संभावना है. बहुत सारे प्रतिभागियों ने विनयपूर्वक अपनी रुचि-दृष्टि-चेष्टा-समय की सीमाएं स्वीकार कीं पर उनके रहते हुए भी किसी कलाकार में कुछ न कुछ महत्वपूर्ण खोज पाने का विस्मयकारी आभास या प्रभाव दिया. यह स्पष्ट था कि कई मूर्धन्यों के बारे में नयी तकनीकी, यू ट्यूब आदि पर महत्वपूर्ण सामग्री सुलभ है जिसका उपयोग बहुतों ने किया. यह भी स्पष्ट था कि अधिकांश युवाओं पर, इस आयोजन के कारण, यह प्रभाव पड़ा कि साहित्य के पड़ोस में कलाओं की एक बड़ी दुनिया जीवन्त और सक्रिय है और उससे परिचय और संवाद समृद्धिकर हो सकता है. हिन्दी इस समय जिस अमानवीय कूरता-घृणा-हिंसा-झगड़ों की भाषा, सार्वजनिक मंचों पर बनायी जा रही है, उसकी अब भी बची मानवीयता को कलाओं का संस्पर्श उद्दीप्त और सघन कर सकता हैं, उसका विस्तार कर सकता है. साहित्य पर महदूद हो गयी आलोचना को अपनी उबाऊ एकरसता से भी कुछ मुक्ति मिल सकती है.

जगदीश स्वामीनाथन, मणि कौल, मुकुन्द लाठ, बिरजू महाराज, कुमार गन्धर्व पर जो विचार विमर्श हुआ उसमें कई नये पहलू सामने आ पाये. बिरजू महाराज पर जो सबसे लम्बा सत्र हुआ वह इसलिए रोमांचक हो गया कि अस्वस्थ होने के बावजूद बिरजू महाराज उसे सुनने स्वयं आये.

बारिश के दौरान

41 कवयित्रियों के संचयन का नाम संपादिका पूनम अरोड़ा ने ‘बारिश आने के पहले’ रखा है जिसे रज़ा पुस्तकमाला के अन्तर्गत संभावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है और जिसका लोकार्पण ‘युवा-2021’ में 14 नवम्बर को हुआ. उसमें जिस तरह की विविधवर्णी कविताएं संकलित हैं उनसे यह नहीं लगता कि वे बारिश के पहले की कविताएं हैं: वे तो स्वयं कविता की बारिश जैसी हैं. कवयित्रियों का यह एक अभूतपर्व संचयन है जिसे संपादिका ने चार ख़ण्डों में विभाजित किया है: ‘पृथ्वी पर प्रथम स्वप्न’, ‘वायु में सूक्ष्म समाधियां’, ‘जल से निर्मित भाषा’ और ‘अग्नि के पुष्प’. अपने संपादकीय के समापन में वे कहती हैं: ‘मुझे ऐसा लगा कि एक मोमबत्ती को थामे हम सब किसी यात्रा पर हैं. रोशनी सीमित है और मार्ग कूर और बर्बर इतिहास का साक्षी तभी अहसास हुआ कि हमें इतिहास की इन्हीं स्त्री-विरोधी प्रवृत्तियों के विरुद्ध ही तो एक ठोस ज़मीन तैयार करनी है.’

इधर स्त्री-कविता का वितान बहुत फैला हुआ है और उसमें निजीपन-सामाजिकता, अन्याय-विषमता, प्रेम और उत्साह, ललक और आकांक्षा, निराशा और संकल्प, प्रश्नाकुलता और चुनौतियां, सहानुभूति ओर करुणा, दिलासा और असन्तोष, वर्जनाएं और अतिक्रमण, स्पन्दन और विस्तार आदि अनेक मानवीय पक्ष शामिल हैं. उसमें लालित्य-कोमलता और सुन्दरता के पड़ोस में अत्याचार और हिंसा देखने की ताब भी है. यह कविता सामना करती कविता है: वह अपने को वेध्य बनाती स्त्रियों की रचनात्मक अभिव्यक्ति है. भाव, शिल्प, कथ्य आदि अनेक में उसमें नवाचार प्रगट हुआ है. इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्त्री-स्वर की यह मुखरता हिन्दी के साहित्यिक लोकतंत्र में महत्वपूर्ण विस्तार है और उसमें कई अप्रत्याशित अनुभवों और भावनाओं की नयी सम्पदा जोड़ती है. अभी तक ज़्यादातर हिन्दी कथा और गद्य में यह विस्तार हुआ था पर अब कविता में भी वह हो रहा है यह रोमांचकारी है. इस संचयन से इसकी भावात्मक और रचनात्मक ऊष्मा और वैचारिक सघनता का कुछ अनुभव किया जा सकता है.

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