Society | इतिहास

क्या कारगिल की जंग पाकिस्तान ने सियाचिन में हुई हार का बदला लेने के लिए लड़ी थी?

कारगिल जंग के दौरान नवाज शरीफ ने बिल क्लिंटन से कहा था कि अगर अमेरिका ने उनका सहयोग नहीं किया तो पाकिस्तान में उनकी जान को खतरा हो जाएगा

Anurag Bhardwaj | 26 July 2020


कारगिल की जंग देश की सेना के अफ़सरों और जवानों के अदम्य साहस की दास्तां है. एक तरफ यह स्क्वैड्रन लीडर अजय आहूजा, लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया, कैप्टेन विक्रम बत्रा, लेफ्टिनेंट हनीफउद्दीन, हवलदार अब्दुल करीम, और राइफलमैन संजय कुमार जैसे जाबाज़ सैनिकों के बलिदान की गाथा है तो दूसरी ओर यह राजनैतिक भूल, विश्वासघात और खुफिया व्यवस्था के विफल होने की कीमत भी है.

कुल मिलाकर देखा जाए तो यह भी कहा जा सकता है कि कारगिल की लड़ाई पूरे सिस्टम की चूक का नतीजा थी. आइए, अलग-अलग स्रोतों के हवाले से इस जंग से जुड़े पूरे घटनाक्रम पर नजर डालते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि स्थितियां यहां तक कैसे पहुंचीं.

शुरुआत

तीन मई, 1999 की बात है. कश्मीर के बटालिक में ताशी नमगयाल और त्सेरिंग मोरूप नाम के दो गड़रियों ने काली सलवार कमीज़ पहने कई लोगों को बर्फीले इलाकों में इस्तेमाल की जाने वाली सफ़ेद जैकेट पहने पहाड़ों पर चढ़ते देखा. लंबी दाढ़ी वाले इन लोगों के हाव-भाव कुछ अलग थे. सेना के मुखबिर दोनों गड़रियों ने जाकर हिंदुस्तानी फौजी अफसरों को खबर पहुंचा दी. अफसरों ने सुना और बात आगे बढ़ा दी.

बात छुपाई गई

इसके दो दिन बाद लेफ्टिनेंट जनरल निर्मल चंद्र विज, जो डायरेक्टर जनरल (मिलिट्री ऑपरेशंस) के महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे थे, कारगिल गए. वे वहां तैनात जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल वीएस बधवार और कारगिल ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह से मिले. काले-सलवार कमीज़ पहने लोगों की बात उन्हें नहीं बताई गयी.

सेना प्रमुख वीपी मलिक का विदेशी दौरा

10 मई को तत्कालीन सेनाध्यक्ष वीपी मलिक पोलैंड और चेक गणराज्य के दौरे पर निकल गए. कारण था वहां की कंपनियों के साथ सेना को गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए करार. इधर, बटालिक, मुश्कोह और द्रास में हलचल बढ़ गई थी. लेकिन बताते हैं कि जब हर शाम वे खोज-खबर लेने के लिए फ़ोन करते तो उन्हें सब-कुछ ठीक-ठाक होने या छुटपुट वारदात की बात ही बताई जाती.

जब लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और जवान वापस नहीं लौटे

लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनकी यूनिट के छह जवान काकसार पहाड़ों पर गश्त करने निकले थे. वे वापस नहीं आये तो खोज-खबर हुई. काफ़ी दिनों तक तो देश को यही बताया गया कि पाकिस्तान की तरफ से छुटपुट गोलाबारी हो रही है और उसका माकूल जवाब दिया जा रहा है. बाद में सौरभ कालिया और जवानों के क्षत-विक्षत शव लौटाए गए.

रक्षा मंत्री का दौरा

तब तक रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस को कुछ-कुछ आभास होने लगा था. वे कारगिल दौरे पर चले गए. इसके बाद उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान किया, ‘हां, कुछ 100-150 आतंकवादी घुस आये हैं. उन्हें 48 घंटों में बाहर निकाल दिया जाएगा.’

इस पूरी जंग को देखने वाले इंडियन एक्सप्रेस के गौरव सावंत ने इस पर ‘डेटलाइन कारगिल’ नाम से किताब भी लिखी है. सावंत के मुताबिक उन्होंने कमांड के अफ़सरों से पूछा कि 48 घंटों में आतंकवादियों को निकाल बाहर करने की घोषणा फर्नांडिस साहब ने की थी, उसका क्या हुआ? उन्हें जवाब मिला, ‘हमने फर्नांडिस से ये कहा था कि कारगिल में सही हालात का जायज़ा 48 घंटे बाद ही मिल पायेगा.’

तो सही स्थिति का पता कब चला?

नीचे से बैठकर और ख़राब मौसम की वजह से ऊपर की चोटियों का सही आकलन नहीं हो पा रहा था. 17 मई को चोटियों का पहला हवाई सर्वेक्षण किया गया. 21 मई को जब दूसरा हवाई जहाज द्रास, कारगिल और बटालिक की चोटियों की सही स्थिति जानने के लिए गया तो वहां उस पर स्टिंगर मिसाइल से हमला हुआ. पायलट ए पेरूमल दुर्घटनाग्रस्त जहाज को सकुशल वापस ले आये और आकर उन्होंने वहां के हालात बताए. तब जाकर मालूम हुआ कि वो ‘काली सलवार वाले’ पूरे लाव-लश्कर से साथ एक-एक चोटी पर मजबूती से बैठे हैं और उनकी संख्या 100-150 की नहीं बल्कि पूरी-पूरी आर्मी यूनिट जैसी है!

ऑपरेशन विजय की शुरुआत और जीत के साथ खात्मा

जनरल मलिक 21 मई को भारत वापस आये. वे लाहौर समझौते को अपनी जीत मानने वाले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले. सेना के मुखिया ने प्रधानमंत्री को बताया कि उनकी पीठ पर छुरा घोंप दिया गया है. 26 मई, 1999 को सेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ और एयर फ़ोर्स ने ‘ऑपरेशन सफ़ेद सागर’ शुरू किया. ठीक दो महीने बाद यानी 26 जुलाई को यह भारतीय सेना की जीत के साथ खत्म हुआ.

पहाड़ की लड़ाई में फ़ायदा उसे मिलता है जो ऊपर बैठा होता है, पर कई मौकों पर जीत उसकी होती है जो नीचे है क्योंकि नीचे वाली सेना अपने साज़ो-सामान को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जा सकती है. अंततः जीत भारत की हुई थी, लेकिन नुकसान भी हमारा ज़्यादा हुआ था. कारगिल में सेना के कुल 34 अफसर और 493 जवान शहीद हुए और 1363 घायल. आर्थिक तौर देश को लगभग दो हज़ार करोड़ की चपत लगी थी.

खुफिया तंत्र की विफलता

कारगिल की जंग खुफिया तंत्र की विफलता भी थी. मिलिट्री इंटेलिजेंस यूनिट और रॉ जैसी पेशेवर संस्थाएं पाकिस्तानी हलचल को भांप नहीं पाई थीं.अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने कारगिल पर भारतीय सेना के रिटायर्ड अफ़सर सुरेंद्र राणा और अमेरिका के नौसेना पोस्टग्रेजुएट स्कूल के जेम्स जे विर्त्ज़ द्वारा तैयार एक रिपोर्ट पेश की थी. यह इस बात का इशारा करती है कि कारगिल भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र की विफलता का नतीजा था. रिपोर्ट में लिखा है कि रॉ जैसी संस्था का भारतीय सेना के प्रति उदासीन रवैया है. यह भी कि जो रिपोर्ट रॉ के अफसर भेजते हैं वह अक्सर स्तरीय नहीं होती और उसके अफसर सेना के अफसरों के साथ तालमेल नहीं रखते. रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि देश का ख़ुफ़िया तंत्र अपारदर्शिता और आपसी तालमेल की कमी जैसी कई समस्याओं से जूझ रहा है.

रॉ ने कारगिल की जिम्मेदरी से साफ पल्ला झाड़ लिया था. उसके अफ़सरों ने दलील दी थी कि संस्था का काम रणनीतिक जानकारियां देना था और सामरिक जानकारी तो मिलिट्री इंटेलिजेंस को जुटानी थी. जो भी हो, दोनों संस्थाओं की मिली-जुली चूक देश पर भारी पड़ी.

राजनैतिक पहलू

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अप्रैल 1999 की गई लाहौर यात्रा और इस दौरान हुए समझौते की झोंक में राजनेता समझ ही नहीं पाए कि पाकिस्तान उलटी चाल भी चल सकता है. वे इस घुसपैठ को कश्मीरी जेहादियों की समस्या मानकर ही देख रहे थे.

सेना के अफ़सरों की चूक

गड़रियों की खबर को संजीदगी से नहीं लिया गया था. ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह, मेजर जनरल वीएस बधवार और लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल, तीनों के बीच में आपसी तालमेल और विश्वास की कमी भी रही. जिस ब्रिगेडियर की एसीआर में बधवार साहब ने तारीफों के पुल बांधे थे उसी ब्रिगेडियर पर उन्होंने इस हादसे का ठीकरा यह कहकर फोड़ दिया कि उन्होंने सीमा पर गश्त में ढिलाई बरती. उनका यह भी कहना था कि ब्रिगेडियर ने उन्हें गड़रियों वाली कोई जानकारी नहीं दी.

उधर, ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह का कहना था कि उन्होंने कारगिल में पाकिस्तान की बढती गतिविधि की जानकारी मेजर जनरल बधवार को बार-बार दी. और यह भी कि उन्होंने ज़्यादा फ़ोर्स और सीमा पर बेहतर निगरानी के साज़ो-सामान मांगे थे जो कमांड ने नहीं दिए.

पाकिस्तान ने यह दुस्साहस क्यों किया

भारत-पाकिस्तान में एक अलिखित समझौता था कि सर्दियों में पहाड़ों से अपने-अपने सैनिक वापस बुला लिए जाएंगे और जब गर्मियां शुरु होंगी तो फिर अपनी-अपनी चौकी स्थापित कर ली जायेगी. पाकिस्तान ने इसमें वादा खिलाफी की. सर्दियों में जब भारतीय सेना वहां पर नहीं थी, उसने अपने सैनिक भेजकर हर एक चोटी पर कब्ज़ा कर लिया था. चूंकि उन चोटियों से लेह और लद्दाख जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर सीधा हमला बोला जा सकता था, पाकिस्तानी सेना ने प्लान बनाया कि इससे वह देश का लद्दाख से संपर्क तोड़ देगी और फिर इसके ज़रिए कश्मीर मुद्दे पर फ़ायदा उठा लिया जायेगा.

शुरुआत में तो पाकिस्तान कहता रहा कि वे उसके सैनिक नहीं बल्कि कश्मीर की आज़ादी की जंग लड़ने वाले सिपाही हैं. भारतीय सेना के सबूत दिए जाने के बाद भी पाकिस्तान अपने सैनिक होने की बात नकारता रहा.

इस युद्ध के दौरान नवाज़ शरीफ जब अमेरिका गए तो उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस दुस्साहस पर झाड़ लगायी. अपनी किताब ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ जनरल मलिक लिखते हैं कि लगभग गिड़गिड़ाते हुए शरीफ ने क्लिंटन से यह कहते हुए सहयोग मांगा कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो पाकिस्तान में उनकी जान को खतरा हो जाएगा. लेकिन बिल क्लिंटन ने मना कर दिया और उनके दबाव के बाद शरीफ अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर मजबूर हुए.

एक पुराना घाव

कारगिल जंग के बीज 1984 में ही पनपने लग गए थे जब सियाचिन को लेकर हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच तनातनी शुरु हो गयी थी. सियाचन ग्लेशियर काराकोरम पर्वतमाला का हिस्सा है. यह दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध का मैदान है. 1949 में हुए कराची समझौते के तहत सियाचिन हिंदुस्तान का हिस्सा है. यह बात पाकिस्तान को नागवार थी.

1984 में खुफिया विभाग की कुछ रिपोर्टों में इस बात का खुलासा हुआ कि पाकिस्तान सियाचिन ग्लेशियर पर अपने सैनिक भेज कर इसे हथियाना चाहता है. भारतीय सुरक्षा तंत्र तुरंत हरकत में आ गया. अप्रैल 1984 में सेना ने ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया और सियाचिन पर अपने सैनिक भेजकर एक तरह से इसकी घेराबंदी कर ली. इस तरह तकरीबन पूरा ग्लेशियर भारत के पास आ गया.

1987 में पाकिस्तानी सेना ने एक ब्रिगेडियर की अगुवाई में धावा बोलते हुए इसके कुछ हिस्से हथिया लिए. भारतीय सेना ने पलटवार किया और नायब सूबेदार बानासिंह के नेतृत्व में पाकिस्तान की सबसे ऊंची पोस्ट ‘क़ायदे आज़म’ पर फ़तेह पा ली. तब इस हार से बौखलाई बेनजीर भुट्टो ने अपनी ही सेना पर तंज़ कसते हुए कहा था, ‘पाकिस्तानी सेना अपने ही लोगों के खिलाफ़ लड़ सकती है.’ शायद सबसे ज़्यादा बौखलाहट उस पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को हुई थी जो उस जंग को हार गया था. तभी शायद जब वह पाकिस्तान का सेनाध्यक्ष बना तो उसने कारगिल को अंजाम दिया. उस ब्रिगेडियर का नाम था परवेज़ मुशर्रफ.

जनरल मलिक लिखते हैं, ‘पाकिस्तान को सियाचिन की हार आज भी चुभती है. इसका उसकी सेना पर भारी मानसिक दवाब है.’ वे आगे लिखते हैं, ‘ऐसा अक्सर कहा जाता रहा था कि पाकिस्तान के पूर्व जनरल मिर्ज़ा असलम बेग ने अपनी सरकार को 1987 में सियाचिन की हार का बदला लेने के लिए कारगिल में सैन्य ऑपरेशन का सुझाव दिया था.

चलते-चलते

जंग दो जनरलों के रणनीतिक कौशल और अहम का भी टकराव होती है. जब प्रधानमंत्री वाजपेयी लाहौर गए थे तो जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने उन्हें सैल्यूट करने से इनकार कर दिया था. जब मुशर्रफ़ बतौर पाकिस्तानी राष्ट्रपति भारत आये तो तत्कालीन एयर चीफ मार्शल यशवंत टिपणिस ने उन्हें सैलूट नहीं किया.

जनरल वेद प्रकाश मलिक का जन्म पाकिस्तान के डेरा इस्माइल खां में हुआ था. परवेज़ मुशर्रफ़ का जन्म दिल्ली में!

कारगिल युद्ध 26 जुलाई 1999 को खतम हुआ. ठीक उसी दिन पाकिस्तान की जेल में रॉ के एजेंट रवींद्र कौशिक की मृत्यु हुई. ‘एक था टाइगर’ रवींद्र कौशिक की ही कहानी बताई जाती है.

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