आधुनिकता की भाषा का भाषा की सर्जनात्मक प्रतिभा से स्वतंत्र कोई मूल्य नहीं हो सकता
अशोक वाजपेयी | 01 August 2021 | फोटो: पिक्साबे
अरबी काव्य-सिद्धान्त
आधुनिक अरबी कविता और उसके काव्य-शास्त्र के बारे में हमारी जानकारी काफ़ी कम और सतही रही है. उसके एक बड़े कवि आदोनिस ने पेरिस के अत्यन्त प्रतिष्ठित संस्थान कालेज दि फ्रांस में 1984 में अरबी काव्य-शास्त्र पर व्याख्यान दिये थे. उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद पुस्तकाकार यूनीवर्सिटी आव् टैक्सस आस्टिन से 1990 में ‘एन इण्ट्रोडक्शन टु अरब पोएटिक्स’ नाम से प्रकाशित हुआ था. इसे मैंने पेरिस में 1992 में खरीदा था. इन दिनों उसे फिर पढ़ना शुरू किया.
आदोनिस ने कविता में विचार की स्थिति पर विचार करते हुए चार स्तर बताये हैं. रचना में काव्य-बिम्ब किसी मनुष्य में जो अस्पष्ट और अनेकार्थी है उसे उजागर करता है. पाठक जो महसूस करता या सोचता है वह उसे अनावृत करता है और उसे ऐसे साधन सुलभ कराता है कि वह अपनी आन्तरिक दुनिया को बेहतर जान और समझ पाये. यह काव्यबिम्ब बाहरी दुनिया के बुनियादी नकूश ज़ाहिर करता है और इस तरह जो दबाया गया, अनजाना या उपेक्षित किया गया हो उसे व्यक्त करता है. इन मौजूद सचाइयों को दिखाने के अपने तरीके से रचना उन सवालों को जन्म देती है जो दूसरी सचाइयों की तरफ़ इशारा करते हैं और इस तरह ज्ञान और अनुभव में विस्तार होता है.
ये उद्घाटन और सवाल, जब रचना पढ़ी जाती है, निजी भावों के दायरे से बढ़कर अधिक समावेशी हो जाते हैं, कविता के उन पहलुओं का, जिनका सिर्फ़ कलात्मक औचित्य था, कायाकल्प हो जाता है और वे ज़िन्दगी और विचार के व्यापक सन्दर्भ में शामिल हो जाते हैं. जो निजी और विशिष्ट था वह सामान्य और सार्वभौम हो जाता है. इन उद्घाटनों में कुछ इतने उदात्त होते हैं कि वे अज्ञात की कुंजी बन जाते हैं या कि नई अप्रत्याशित दृष्टि का आधार. वे सिर्फ़ मौजूदा सचाइयों को समझने में मददगार नहीं होते बल्कि भविष्य देख सकने के लिए प्रस्थान बिन्दु भी बन जाते हैं. चूंकि वे अस्तित्व और मानवीय आत्मा पर रोशनी डालते हैं, वे विचार और कर्म के लिए सम्भावनाएं भी प्रस्तुत करते हैं.
भाषा में कविता और विचार ऐसे संगुम्फित हो जाते हैं कि चेतना की एकता उभरती है और कविता से विचार ऐसे फूटता है जैसे कि गुलाब से सुगन्ध. यह सम्भव हो पाता है कविता के रूपकात्मक ढांचे से. अरबी भाषाविद् इब्न जिन्नी ने कहा था कि कविता का अधिकांश रूपकात्मक होता है, यथातथ्य नहीं. रूपक भाषा के मूल मन्तव्य से विचलन होता है. यथातथ्यता से रूपक की ओर जाना अर्थ के विस्तार, बलाघात और तुलना के कारण होता है. आदोनिस कहते हैं कि रूपक अरबी भाषा में निरा अभिव्यक्ति का एक प्रकार नहीं है, वह भाषा की संरचना में ही है. सचाई को अतिक्रमित करने की आध्यात्मिक ज़रूरत होती है और वह उस संवेदना से उपजता है जो ठोस से ऊब जाती है और उसके पार देखना चाहती है – एक आधिभौतिक संवेदना. रूपक अतिक्रमण करता है. रूपक का स्वभाव ही है कि वह मौजूदा सचाई को ख़ारिज कर विकल्प खोजता है. रूपक कोई अन्तिम या निर्णायक उत्तर नहीं होता क्योंकि वह स्वयं भाषिक अन्तर्विरोधों की रणभूमि होता है. वह उस तरह की निश्चयात्मकता से दूर होता है जिसकी अकसर तलाश की जाती है.
आदोनिस कवि के रूप में कविता को एक ऐसा माध्यम मानते हैं जो मानवता को उपलम्य है, अपने ऊपर आधुनिक तकनालजी और उपकरणात्मक तर्कबुद्धि के शिकंजे को ढीला करने के लिए. उनका ख़याल है कि आधुनिक को प्राचीन के विरोध के रूप में देखना अब बन्द हो गया है: आधुनिक समय में भी होता है और समय के बाहर भी. समय का, क्योंकि उसकी जड़ें इतिहास की गतिशीलता, मानवता की सर्जनात्मक प्रतिभा में होती हैं और मनुष्य के अपने को घेरी सीमाओं के पार जाने की कोशिश में. समय से बाहर, क्योंकि वह ऐसी दृष्टि है जो सभी समयों को समाये होती है. इसका आशय यह भी है कि आधुनिकता सिर्फ़ वह प्रक्रिया नहीं है जो भाषा को प्रभावित करती है, वह भाषा के अस्तित्व का पर्याय हो जाती है. किसी भाषा की कविता में आधुनिकता पहले उसकी भाषा की आधुनिकता होती है. आधुनिकता की भाषा का भाषा की सर्जनात्मक प्रतिभा से स्वतंत्र कोई मूल्य नहीं हो सकता. वे कहते हैं कि ‘एक अरब कवि को सचमुच आधुनिक होने के लिए ज़रूरी है कि उसकी रचना ऐसी दीपशिखा की तरह प्रज्वलित हो जो प्राचीनों की आग से उठी हो पर साथ ही साथ पूरी तरह से नयी हो.’
साही–विमर्श
विजय देव नारायण साही का एक निबन्ध संग्रह है ‘साहित्य क्यों’ जो 1988 में उनकी पत्नी कंचन लता साही ने संपादित और प्रकाशित किया था. इस बीच उसे एक बार फिर पढ़ गया. साही मेरे निमंत्रण पर दो बार भोपाल आये थे: एक बार ‘हमारा समय’ श्रृंखला में बोलने और दूसरी बार ‘साहित्य और आस्था’ विषय पर अरविन्द सेमिनार में शिरक्त करने. उनके ‘हमारा समय’ व्याख्यान को ग़लती से अरविन्द सेमिनार से कंचनलता जी ने जोड़ दिया.
‘साहित्य क्यों’ निबन्ध में साही कहते हैं: ‘स्वप्नदर्शी मन जब सपने देखते-देखते रूक जाता है और उन सपनों को कहीं साकार होते नहीं पाता तो एक ख़तरनाक पाखण्ड में पड़ता है – वह पाखण्ड यथार्थ के किसी उदाहरण को जल्दी से स्वप्न का साकार रूप मान लेने का, ताकि अपने को स्वप्न की सार्थकता का आश्वासन दे सके, या फिर बहुत कड़वाहट और तेज़ी के साथ उन स्वप्नों पर आक्रमण शुरू करता है. इस आक्रमण की शक़्ल चीख़ती हुई मूल्यहीनता, अर्थहीनता और बड़बड़ाहट की होती है. दोनों ही शक़्लें उस घबराये हुए ज़िद्दी मन की हैं जो स्वप्न और यथार्थ की दुर्लघ्य खाई तो देखता है लेकिन उन आधारभूत मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न लगाना नहीं चाहता जिनके कारण इस खाई का निर्माण हुआ है.’
धर्मनिरपेक्षता पर अपने एक निबन्ध का समापन करते हुए साही कहते हैं: ‘… धर्मनिरपेक्षता एक गतिशील प्रक्रिया है. कोई बनी-बनायी या बाहर से उधार ली गयी अवधारणा नहीं है जिसको हम आंख मूंदकर हर जगह लागू कर दें. यह प्रक्रिया अभी भी उन्हीं दो ध्रुवों के बीच चक्कर काटती है. धार्मिक तत्ववाद के सहारे समन्वय नहीं हो सकता और प्रत्यक्षवाद सतह पर तैरता है. हम फिर उन्हीं आरंभिक प्रश्नों को पूछकर बात को फिलहाल ख़त्म करें. क्या सारे धर्म समान रूप से सार्थक हैं? क्या सारे धर्म समान रूप से निरर्थक हैं?’ ‘भारतीयता क्या है’ निबन्ध में साही स्पष्ट करते हैं: ‘विविधता को बीच से सबको जोड़ने वाले नये संस्कारों की खोज और निर्माण, दरिद्रता और कंगाली से संपन्नता की ओर जाना, और साथ-साथ, ग़ैरबराबरी को मिटाकर अधिक से अधिक समता को स्थापित करना. इन बदलावों के लिए सतत संघर्ष ही वास्तविक भारतीयता है क्योंकि वह समाज को घने रिश्तों के साथ जोड़ती है.’
‘हमारा समय’ में साही ने कहा: ‘अगर कहीं चन्द्रयान है तो उसके होने की भी शर्त है कि कहीं बैलगाड़ी रहे…. न्यूयार्क और भूखों मरता बस्तर, छत्तीसगढ़ एक ही बीसवीं शताब्दी के अंग हैं. जो यह कहता है कि वह बीसवीं शताब्दी है और यह बारहवीं शताब्दी, वह मार्क्सवादियों की तरह या साम्राज्यवादियों की तरह झूठ बोलता है. न्यूयार्क और मास्को के होने की शर्त ही यही है कि एक छत्तीसगढ़ हो, एक बस्तर भी हो और बना रहे. जिस दिन बस्तर उठने लगेगा, न्यूयार्क गिरने लगेगा. या तो न्यूयार्क और मास्को अपनी रक्षा के लिए बस्तर पर एटम बम गिरा देगा कि उसे उठने न दिया जाये और फिर इसको बस्तरपन की ओर वापस कर दिया जाये और या अगर बस्तर ऐसा हो गया कि उठ गया सचमुच तो, न्यूयार्क गिर जायेगा. गिरेगा ज़रूर. यह मेरे दिमाग़ में बिलकुल साफ़ दिखता है और केवल भारतीय होने के नाते नहीं. भारतीय होने के नाते तो इसलिए कि भुक्तभोगी हूं इसलिए दिख रहा है. मगर यह समस्या मनुष्य के भविष्य की स्थिति मुझको दिखायी देती है.’
साही इतिहास और परम्परा पर विचार करते हुए कहते हैं: ‘हमें यह मानकर चलना होगा कि विशुद्ध वस्तुपरकता उतनी ही असम्भव है जितनी कि विशुद्ध आत्मपरकता. हम बराबर, उस हाशिये पर बेचैन चक्कर काटते हैं, जहां वस्तु और आत्मा की सीमा-रेखाएं मिटती दीखती हैं. इस स्थिति को वह कितनी ही पीड़ादायिनी क्यों न हो, हमें स्वीकार करना पड़ेगा.’
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