एक ऐसे बुलडोज़री समय में, जिसमें समाज, आत्म, समृति, कल्पना सभी ज़मीनदोज़ होने की कगार पर हैं, कविता का संकोच दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है
अशोक वाजपेयी | 01 May 2022
बड़ौदा में दो दिन
गया तो था गुजरात साहित्य परिषद् द्वारा आयोजित सुरेश जोशी स्मृति व्याख्यान देने पर उसके अलावा कई औपचारिक और अनौपचारिक आयोजनों में शामिल होने का सुअवसर मिला. शुरूआत इससे हुई कि व्याख्यान के लिए विश्वविद्यालय में जो सभागार आरक्षित किया गया था किसी तकनीकी ख़राबी का बहाना देकर कुल दो दिनों पहले दिये जाने से मना हो गया. इसलिए व्याख्यान एक कलाप्रेमी उद्योगपति के कार्यालय में, एक बड़े गैरेज में हुआ जो अस्थायी तौर पर सभागार में तब्दील कर दिया गया था और सौ से अधिक श्रोताओं की उपस्थिति से उनकी कोई कमी नहीं लगी. उनमें वयोवृद्ध चित्रकार ज्योति भट, मूर्तिकार रतन परिमू, चित्रकार कवि गुलाम मोहम्मद शेख, कवि विद्वान सितांशु यशस्चन्द्र, परिषद के अध्यक्ष प्रखर पत्रकार प्रकाश शाह आदि शामिल थे.
रात्रि भोजन, दो शाम चित्रकार और बुद्धिजीवियों की संगत में हुआ और ग़प और बहस ख़ासी लम्बी चलीं. देश की दुर्दशा, बढ़ते अत्याचार, घटती स्वतंत्रता, फैलता भय, सच को दबोचते झूठों के अम्बार पर चर्चा होती रही. यह देखकर बहुत आश्वस्ति हुई कि कलाकार और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा और प्रभावशाली वर्ग इन सबसे त्रस्त और असहमति के बढ़ते खेमे में है. गुजरात में जो स्थिति है उसमें यह विरोध या प्रतिरोध सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं होता. पर वह है, सोचनेवालों-रचनेवालों में व्यापक है.
कवि-मित्र सितांशु जी ने अगली शाम बलवन्त पारेख फ़ाउण्डेशन के एक छोटे से सभागार में काव्यपाठ रखा जिसमें मैंने कई अब तक असंग्रहीत कविताएं, कुछ पुरानी कविताओं के साथ, सुनायी और गुजराती के कई कवियों, जिनमें कई युवा भी शामिल थे, कविताएं सुनीं. संक्षिप्त सा प्रश्नोत्तर भी हुआ. कविता की शाम लगभग ढाई घण्टे चली.
डालमिया खनिज व्यापारी हैं पर उनका कार्यालय, जिसमें लगभग 400 लोग काम करते हैं, एक कला-संग्रहालय जैसा है: उसमें हर कमरे, हर गलियारे में चित्र लगे हैं या शिल्प रखे हैं. इस कार्यालय के वास्तुकार अनिकेत भार्गव हैं. ऐसी सुशिल्पित कार्यालय की दूसरी इमारत मैंने भारत में नहीं देखी. वे जल्दी ही बड़ौदा की कला पर एकाग्र एक संग्रहालय भी बनाने जा रहे हैं. उनके कार्यालय में केजी सुब्रह्मण्यम, ज्योति भट, नारायण श्रीधर बेन्द्रे, गुलाम शेख़, जेराम पटेल, अकबर पदमसी, हकु शाह, हिम्मत शाह आदि अनेक कलाकारों की कलाकृतियां हैं. वे वर्ष भर में सौ से अधिक आयोजन संवाद, संगीत, नृत्य, नाटक आदि करते हैं. यह इमारत ऐसे बनी है कि उसकी कई जगहों को इन सबके लिए मंच में बदला जा सकता है. रज़ा फ़ाउण्डेशन उनके सहयोग से वहां कुछ आयोजन करे इस पर सहर्ष सहमति हुई.
दोपहर के भोजन पर गुजराती के कुछ वरिष्ठ लेखकों शिरीष पांचाल, जयदेव शुक्ल, पीयूष ठकाट आदि से चर्चा कर यह तय हुआ कि समकालीन गुजराती आलोचना और कविता के दो संचयन, हिन्दी अनुवाद में, रज़ा फ़ाउण्डेशन प्रकाशित कराये.
कविता में विश्वदृष्टि
यों तो हर भाषा में उसकी अपनी विश्व-दृष्टि होती है जो, ज़ाहिर है, कि उसकी कविता में भी व्यक्त होती है. उसके अलावा एक अधिक समग्र और समावेशी विश्वदृष्टि होती है जो संसार भर की भाषाओं में लिखी जा रही कविता में समवेत रूप से व्यक्त और विन्यस्त होती है. कुछ ब्रिटिश कवियों के इण्टरव्यू पढ़ रहा था. उसमें एक कवि ने कहा कि एज़रा पाउण्ड ने उन्हें बताया-सिखाया कि आज कविता विश्व में अन्यत्र लिखी जा रही कविता से अनजान या अपरिचित रहकर नहीं लिखी जा सकती. क्या यह बात हमारी कविता पर भी लागू होती है?
यह तो सही है कि पिछले लगभग 60 वर्षों में हिन्दी कविता के परिसर में अनुवाद के माध्यम से विश्व कविता आयी है और उसने अपनी जगह बनायी है. कविता में जितना नवाचार और जितने प्रयोग अपने समय के दबाव में हुए तो उनसे कुछ कम विदेशी कविता से मिलनेवाली प्रेरणा से भी सम्भव हुए. हमने पूर्वी योरोप की कविता, लातीनी अमरीका की कविता, चीनी-जापानी कविता, यूरोप की अंग्रेज़ी से अलग कविता से कुछ न कुछ ज़रूर सीखा है. यह सीखना इधर कम हो गया, शिथिल पड़ गया है. यह एक विडम्बना ही है कि जब नज़दीकी के तकनीकी साधन अधिक सक्षम और सुलभ हो गये हैं, हमारी दूसरों के नजदीक जाने की इच्छा कुछ कम हो गयी है. आज जो युवा पीढ़ियां कविता में सक्रिय हैं वे इस सन्दर्भ में थोड़ा अधिक ही आत्म-केन्द्रित जान पड़ती हैं. शायद यह रूचि-दृष्टि में परिवर्तन नयी सदी में हुआ है. अपने में सिमटना सार्थक होता अगर वह हमें गहरी आत्मालोचना और अपने समय को उदग्र उत्खनन करने की ओर ले जाता. एक ऐसे बुलडोज़री समय में, जिसमें समाज-आत्म-समृति-कल्पना सभी ज़मीनदोज़ होने की कगार पर हैं, कविता का संकोच दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है.
‘भूखों मारो कवियों को’
वे अभी साठ बरस के भी नहीं हुए हैं लेकिन उन्हें चीनी भाषा में इस समय सबसे विवादास्पद, अनधिकृत, अवांगार्द (प्रयोगशील) कवि माना जाता है. वे किसी संगठन के सदस्य नहीं हैं. हालांकि वे साहित्य के अध्यापक हैं लेकिन उनकी कविता ज़रा भी अकादेमिक नहीं है. वे आम ज़िन्दगी के चित्रों-प्रसंगों को उठाते हैं और उनकी साधारणता में, उनकी निपट और सहज मानवीयता में कविता में उकेर देते हैं. उनकी चुनी हुई कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद में एक संग्रह ‘स्टार्व दि पोएट्स’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है.
उसकी एक कविता का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है:
मेरी दादी की उपस्थिति
मैं अपनी दादी का लाड़ला था
जैसा कि मेरी मां बताती है
मैं, मुझे उसके बारे में एक चीज़ भी याद नहीं
लेकिन देखते हुए कि मेरी मां
अपने पोते को जैसे दुलारती है
मैं आश्वस्त हूं
एक समय इस संसार में उस जैसी स्त्री थी
जो मुझे बहुत प्यार करती थी
ऐसा विशेष प्यार जो सिर्फ़ बूढ़ी स्त्रियां
कर सकती हैं
मेरे लिए
मेरी दादी की उपस्थिति का
यही मतलब है कि जब मेरी मां को आशंका होती है
इस या उस चीज़ के बारे में
तो वह मुझे खींच ले जाती है मेरी दादी के फ़ोटोग्राफ़ के पास
और मुझे विवश करती है कि मैं उससे बात करूं
एक भर्राती कांपती ऊंची आवाज़ में
मैं उससे कहता हूं: नन्ना,
मेरे परिवार की देखभाल करो
हर बार यह कारगर होता है
मेरी मां उसे इस तरह समझाती है:
तुम्हारी नन्ना वही करती थी जो तुम कहते थे
और वह हमेशा परिवार की देखभाल करती है
वहां ऊपर स्वर्ग से.
‘भविष्य के लिए आश्वस्ति’ शीर्षक एक छोटी सी कविता:
जिस दिन बास्तील पर हमला हुआ
एक बच्चे का जूता पाया गया
एक बूलेवार में
अगली सुबह
मेरा बेटा घर आया, चुपके से
अपने कमरे में
उसका एक पैर नंगा था.
>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com