केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति को लेकर विश्वविद्यालय और केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय का रवैया कई सवाल खड़े करता है
अंजलि मिश्रा | 24 अक्टूबर 2020 | फोटो: पीआईबी
सितंबर के आखिरी हफ्ते में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संस्कृत में भी प्रेस विज्ञप्तियां जारी किए जाने के निर्देश दिए थे. हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं था जब किसी भाजपा नेता ने संस्कृत भाषा के प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन किया हो. इससे कुछ महीने पहले भी योगी आदित्यनाथ संस्कृत को हमें ‘सबसे ऊंचा सम्मान’ दिला सकने वाली भाषा बता चुके हैं. इसी तरह साल 2017 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने संस्कृत को ‘भविष्य की भाषा’ घोषित किया था. केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक भी इसे दुनिया की ‘सबसे वैज्ञानिक भाषा’ करार दे चुके है. पिछले साल केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय विधेयक पर चर्चा के दौरान मध्य प्रदेश के सतना से भाजपा सांसद गणेश सिंह ने तो यहां तक दावा किया कि संस्कृत बोलने से डायबिटीज और कॉलेस्ट्रॉल कम होता है. इन नेताओं के बयानों के अलावा भी, बीजेपी नेता और उसका आईटी सेल संस्कृत के बारे में यह प्रचारित करता रहा है कि वह कम्प्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है.
संस्कृत को दिए जाने वाले भाजपा नेताओं के इन तमाम मौखिक प्रोत्साहनों, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में इसे अपनी दूसरी कामकाजी भाषा बनाए जाने और यूपी सरकार द्वारा उठाए गए हालिया कदम पर गौर करें तो लगता है जैसे भाजपा संस्कृत को उसका खोया हुआ सम्मान और स्थान दिलाकर ही दम लेगी. राज्यों के अलावा केंद्र सरकार भी इसी राह पर जाती हुई दिखाई देती है. और कुछ न सही तो कम से कम संस्कृत पर होने वाले भारी-भरकम खर्चों को देखकर ही लगता है कि इस दिशा में कोई भारी बदलाव होने जा रहा है. इसी साल फरवरी में प्रकाशित एक मीडिया रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार बीते तीन सालों में संस्कृत के प्रचार-प्रसार पर 643.84 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है. यह आंकड़ा इतने ही समय में तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ और ओड़िया जैसी अन्य शास्त्रीय भाषाओं (क्लासिकल लैंग्वेज) पर हुए कुल खर्च – 29 करोड़ – का लगभग 22 गुना है.
यहां पर शास्त्रीय भाषाओं को परिभाषित करें तो प्राचीन भारतीय भाषाओं की परंपरा को बचाए रखने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए सरकार कुछ भाषाओं को शास्त्रीय भाषाओं का दर्जा देती हैं. शास्त्रीय भाषाएं, वे भाषाएं कहलाती हैं जिनका इतिहास डेढ़ से दो हजार साल पुराना हो, जिनकी साहित्यिक विरासत किसी और भाषा से न मिलती हो और ये भाषाएं आधुनिक समय के मुताबिक न बदली हों यानी वे अब भी अपने मूल स्वरूप में ही इस्तेमाल की जाती हों. इस श्रेणी में ऊपर जिक्र की गई पांच भारतीय भाषाओं के साथ संस्कृत भी शामिल है.
संस्कृत से जुड़े केंद्र सरकार के प्रयासों पर लौटें तो बीती मार्च में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने तीन मानद संस्कृत विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया है. ये तीन विश्वविद्यालय हैं – राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान दिल्ली, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली और राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ तिरुपति. यहां पर इस बात का जिक्र करते चलते हैं कि इन तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों समेत देश में कुल 18 संस्कृत विश्वविद्यालय हैं. इनसे जुड़ा एक ध्यान खींचने वाला तथ्य यह भी है कि एनडीए सरकार के बीते छह सालों में जहां सिर्फ एक संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई है, वहीं इसकी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के दौरान 2005 से 2011 के बीच छह संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित किये गये थे.
मार्च में जब शिक्षा मंत्रालय ने तीन केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय बनाए जाने की बात कही थी तो इसे संस्कृत प्रचार के साथ-साथ शिक्षण के क्षेत्र में भी एक बहुत बड़ा कदम माना जा रहा था. ऐसा इसलिए कि देश के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से महज तीन ही भाषा विश्वविद्यालय हैं और संस्कृत विश्वविद्यालयों के इनमें शामिल होते ही यह आंकड़ा दोगुना हो जाने वाला था. भारतीय भाषाओं के उज्जवल भविष्य की राह माने जा रहे इस कदम की शुरूआत इन विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति से होनी थी. लेकिन सरकार इस पहले ही कदम पर लड़खड़ाती हुई नज़र आ रही है. कुलपतियों की ये नियुक्तियां दिल्ली में मौजूद दोनों संस्थानों – राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान और श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ (लाबशा विद्यापीठ) – में होनी थीं.
बीते कुछ महीनों से अकादमिक तबके में व्हाट्सएप पर एक संदेश खूब शेयर किया जा रहा है. यह संदेश कथित तौर पर लाबशा विद्यापीठ में कार्यरत प्रोफेसर शुकदेव भोई का प्रधानमंत्री के नाम लिखा एक पत्र है. इस पत्र में शुकदेव भोई कुलपतियों की नियुक्ति के लिए की जा रही अप्रत्याशित जल्दबाज़ी पर सवाल उठाते हुए यह आरोप लगाते हैं कि इन पदों पर लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के ही दो प्रोफसरों की नियुक्त होना निश्चित है. वे इसकी वजह इन दोनों की केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और इनमें से एक की चयन समिति के एक सदस्य से नजदीकी को बताते हैं. वे इस मामले में आरक्षित वर्ग का होने की बात करते हुए अपने साथ जातिगत भेदभाव की भी बात करते हैं. प्रोफेसर भोई अपने पत्र में इस संबंध में पहले भी शिकायत करने की बात करते हुए कहते हैं, ‘महोदय, आपको शिकायत लिखते हैं तो आपका कार्यालय शिकायत को इसी शिक्षा मंत्रालय को भेज देता है जहां इस पर किसी कार्यवाही का प्रश्न ही नहीं उठता. माननीय राष्ट्रपति महोदय को शिकायत लिखी जाती है तो उसे दिल्ली सरकार के ग्रीवांस सेल को भेज दिया जाता है.’
इस मामले में सबसे पहले सत्याग्रह ने प्रोफेसर सुखदेव भोई से ही संपर्क किया था लेकिन उन्होंने इस पर कोई भी बात करने से इनकार कर दिया. हालांकि उन्होंने इस बात से सीधे-सीधे इनकार नहीं किया कि व्हाट्सएप पर प्रसारित पत्र उन्होंने ही लिखा था. लाबशा विद्यापीठ से ही जुड़े एक पदाधिकारी अपना नाम न छापने की शर्त पर इस पत्र के शुकदेव भोई का ही होने की पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं कि ‘प्रोफेसर भोई के इस पत्र के व्हाट्सएप पर आ जाने के बाद ही (कुलपति की) नियुक्ति की प्रक्रिया की तेज़ी कम हुई है.’ इसके साथ ही विश्वविद्यालय की अंदरूनी राजनीति का जिक्र करते हुए वे यह भी बताते हैं कि ‘शुकदेव भोई आरक्षित तबके से आने वाले इकलौते उम्मीदवार हैं और उन्हें साक्षात्कार के लिए ही नहीं बुलाया गया. वे पत्र में जो कह रहे हैं, वह बहुत हद तक सही है. संस्कृत विश्वविद्यालयों में अक्सर ही जातिगत समीकरण हावी रहते हैं. छात्रों और शिक्षकों में सवर्ण ही बहुसंख्यक भी हैं लेकिन यह सिर्फ इस विश्वविद्यालय की कहानी नहीं है. जहां तक नियुक्ति का सवाल है, एक बार को आप आरक्षण वाले मसले को अलग रख दें तो भी यह सही नहीं लगती है. सामान्य तबके से आने वाले कई प्रोफेसर हैं जिन्हें इस पद के लिए उन दो नामों से कहीं अधिक वरीयता दी जानी चाहिए थी जो पिछले दिनों राष्ट्रपति के पास पहुंचते-पहुंचते रह गए.’
यहां पर जिन दो नामों के राष्ट्रपति के पास तक पहुंचने की बात कही जा रही है, उनमें से एक लाबशा विद्यापीठ के वर्तमान कुलपति, प्रोफेसर रमेश कुमार पांडेय का है और दूसरा उत्तराखंड विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रोफेसर देवीप्रसाद त्रिपाठी का. इन दोनों का जिक्र ही शुकदेव भोई ने कथित तौर पर प्रधानमंत्री के नाम लिखे अपने पत्र में किया है. अलग-अलग संस्कृत विश्वविद्यालयों में रहे दो पूर्व कुलपति भी सत्याग्रह से बातचीत में भोई के आरोपों को दोहराते हैं और कहते हैं कि ‘ये दोनों उम्मीदवार केंद्रीय शिक्षामंत्री से करीबी का अनुचित इस्तेमाल करने की कोशिश में लगे हुए हैं और इन्ही की सुविधा के लिए नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी नहीं रखा जा रहा है.’
विश्वविद्यालय के पदाधिकारी की टिप्पणी पर लौटें तो राष्ट्रपति तक कुलपतियों के नाम पहुंचने का मतलब है कि कुलपति की नियुक्ति प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में पहुंचने ही वाली थी. केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाध्यक्ष (विजिटर) राष्ट्रपति ही होते हैं और ये केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के अंतर्गत आते हैं. इनके कुलपति की नियुक्ति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियमों और सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय दिशा-निर्देशों के मुताबिक होती है. इसके तहत सबसे पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय अपनी वेबसाइट पर नोटिफिकेशन जारी कर नियुक्ति के लिए आवेदन आमंत्रित करता है. कम से कम 10 साल के अध्यापन या इसी के समकक्ष अन्य अकादमिक अनुभव रखने वाले प्राध्यापक इसके लिए आवेदन कर सकते हैं. आवेदन प्राप्त होने के बाद मंत्रालय पांच सदस्यों की एक सर्च कमेटी बनाता है. कमेटी में राष्ट्रपति की तरफ से दो सदस्य, मंत्रालय की तरफ से एक सदस्य और विश्वविद्यालय बोर्ड से दो सदस्य रखे जाते हैं. यह कमेटी प्राध्यापकों को साक्षात्कार के लिए आमंत्रित करती है और शैक्षणिक योग्यता, वरिष्ठता, अकादमिक अनुभव जैसे पैमानों के आधार पर चुने गये नामों को राष्ट्रपति के पास भेजती है. इस चयन पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद मानव संसाधन विकास मंत्रालय कुलपति की नियुक्ति की सूचना अपनी वेबसाइट पर देता है.
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालयों की नियुक्ति प्रक्रिया के साथ पहली गड़बड़ी यह हुई है कि इसके लिए नोटिफिकेशन मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट के बजाय सीधे विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर जारी किया गया. साथ ही, आम तौर पर जिस सर्च कमेटी को बनने में तीन से चार महीने का समय लगता है, वह भी आनन-फानन में बनकर तैयार हो गई. हालांकि नियुक्ति प्रक्रिया का फटाफट निपटना अपने आप में कोई गलत बात नहीं है लेकिन बाकी चीजें इस मामले में सवाल उठाने की कई वजहें दे देती हैं.
संस्कृत विद्वानों और पूर्व-कुलपतियों की नाराज़गी की एक वजह यह है कि बीती अगस्त में सर्च कमेटी ने कुलपति के पद के लिए आए 46 आवेदनों में से केवल 12 को ही साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था. ऐसा तब हुआ जब यूजीसी की गाइडलाइन के मुताबिक न्यूनतम योग्यता पूरी करने वाले सभी उम्मीदवारों को साक्षात्कार के लिए बुलाना ज़रूरी है. यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि इस पद के लिए आवेदन करने वालों में संस्कृत विश्वविद्यालयों के कई पूर्व-कुलपति भी शामिल थे जिन्हें साक्षात्कार के लिए नहीं बुलाया गया. इन विद्वानों में मुख्य रूप से डॉ हरेकृष्ण शतपथी (पूर्व कुलपति कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज दिल्ली) प्रोफेसर अर्कनाथ चौधरी (पूर्व कुलपति सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय – वेरावल गुजरात) और डॉ पीयूषकांत दीक्षित (पूर्व कुलपति उत्तराखंड संस्कृत विद्यालय) के नाम लिए जा सकते हैं. इसके अलावा, कुछ वर्तमान कुलपतियों और संस्कृत के अन्य विद्वानों जैसे कि डॉ गोपबंधु मिश्र (कुलपति सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय), श्रीनिवास वरखेड़ी (कविकुलगुरू कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय – नागपुर), केबी सुब्बा रायडु (निदेशक, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान – देवप्रयाग कैंपस), विरूपाक्ष जड्डीपाल (सचिव, वेदविद्याप्रतिष्ठान – उज्जैन), प्रो नागेंद्र झा (वरिष्ठ प्राध्यापक, लाबशा विद्यापीठ – दिल्ली) के नाम भी साक्षात्कार से दूर रखे जाने वालों में शामिल है.
साक्षात्कार के लिए इन तमाम विद्वानों को न बुलाए जाने के बाद इस मामले में लगाई गई आरटीआई याचिका से इस नियुक्ति प्रक्रिया पर उठ रहे सवाल और गहरा जाते हैं. इस याचिका में श्री लाल बहादुर शास्त्री केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ से दो सवाल पूछे गए थे, पहला यह कि कुलपति पद के साक्षात्कार के लिए विश्वविद्यालय ने क्या मापदंड रखे हैं और दूसरा सवाल यह कि साक्षात्कार के लिए चुने गए उम्मीदवारों के नाम और योग्यता क्या हैं? इनमें से पहले सवाल के जवाब में लाबशा विद्यापीठ का कहना था कि ‘मांगी गई जानकारी विश्वविद्यालय के रिकॉर्ड में मौजूद नहीं है.’
लाबशा विद्यापीठ में यह आरटीआई याचिका लगाने वाले नवीन चौधरी कहते हैं कि ‘विश्वविद्यालय से मिला जवाब हास्यास्पद है. यह कैसे हो सकता है कि विश्वविद्यालय को यह मालूम ही न हो कि कुलपति जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए क्या पैमाने रखे गए हैं. इसी से पता चल जाता है कि यहां पर कुछ ना कुछ छुपाया जा रहा है.’
वहीं, चौधरी द्वारा पूछे गए दूसरे सवाल के जवाब में विश्वविद्यालय ने आरटीआई के सेक्शन-8(1)(j) का हवाला देते हुए कोई भी जानकारी देने से इनकार कर दिया. आरटीआई एक्ट की धारा-8(1)(j) लोगों की निजी जानकारी की सूचना देने पर रोक लगाता है. इसके मुताबिक कोई भी ऐसी जानकारी जो जनहित में उपयोगी न हो और जिससे किसी व्यक्ति की निजता का हनन होता हो, वह सूचना के अधिकार के अंतर्गत नहीं दी जा सकती है. इस तरह की जानकारियों में आम तौर पर व्यक्ति का नाम, पता, पेशा और शारीरिक, मानसिक या आर्थिक स्थिति जैसी जानकारियां आती हैं. संस्कृत विश्वविद्यालय के एक पूर्व कुलपति इस बारे में कहते हैं कि ‘किसी भी ऐसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक पद पर बैठने जा रहे व्यक्ति, जिसे सैकड़ों-हजारों छात्रों के भविष्य बारे में निर्णय लेने की जिम्मेदारी दी जा रही है और यह जिम्मा अगर उसे उसकी शैक्षणिक योग्यता और अनुभव के आधार पर ही दिया जा रहा हो तो उस व्यक्ति का नाम और उसकी योग्यता की जानकारी क्यों सार्वजनिक नहीं की जा सकती है.’ नवीन चौधरी भी कुछ इसी तरह का सवाल दोहराते हुए कहते हैं कि ‘यह जानना कि किसी शैक्षणिक संस्था का भावी प्रमुख सभी योग्यताएं रखता है या नहीं, उसकी निजता का हनन कैसे हो सकता है?’
नवीन चौधरी बताते हैं कि आरटीआई के इन जवाबों पर दूसरी अपील करने पर विश्वविद्यालय की तरफ से केवल इतना ही कहा गया है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर वीसी की नियुक्ति से जुड़ी सभी जानकारियां उपलब्ध हैं. यानी, ऐसा करके विश्वविद्यालय ने गेंद को सरकार के पाले में डाल दिया. लेकिन यहां अज़ब सी लगने वाली बात यह है कि जब आप मंत्रालय की वेबसाइट पर जाते हैं तो यहां पर जानकारी के जो विकल्प मिलते हैं, वह आपको फिर संबंधित विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर पहुंचा देते हैं. यानी, ठीक वहीं जहां पर कोई जानकारी उपलब्ध न होने के चलते आरटीआई अपील का सहारा लेने के बारे में सोचा गया होगा.
सत्याग्रह ने लाबशा विद्यापीठ के वर्तमान कुलपति रमेश कुमार पांडेय का पक्ष जानने के लिए उनसे ई-मेल के जरिए संपर्क करने की कोशिश की थी. लेकिन रिपोर्ट लिखे जाने तक इस पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी है.
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