जो कठपुतली कला मनोरंजन से लेकर जन जागृति तक का सशक्त माध्यम रही वह महज होटलों, विदेशी सैलानियों और मेलों तक ही सिमट कर कैसे रह गई है?
अश्वनी कबीर | 02 July 2022 | फोटो: औचित्य
समय-समय पर कला जगत में लोक कलाओं के संरक्षण और उनके संवर्धन पर विमर्श जोर-शोर से चलता रहता है. ऐसा होने पर लोक कला के विकास के नारे चारों तरफ गूंजने लगते हैं और सरकार से लेकर सामाजिक संस्थाएं और कॉरपोरेट जगत भी लोक कला के बचाव की लड़ाई में उतर जाते हैं.
इतना ही नहीं, डाइंग आर्ट्स को बचाने के लिए सरकारी विभाग टेंडर पर टेंडर जारी करने लगते हैं. लेकिन इन कलाओं से जुड़े लोक कलाकारों के जीवन को देखकर एक ही बात समझ में आती है – इस तरह के प्रयास कितने असफल साबित हो रहे हैं!
कठपुतली कलाकार अजमेरी लाल भाट मध्य-प्रदेश के इंदौर शहर में एक सड़क के किनारे तम्बू डालकर रह रहे हैं. करीब 40 वर्षीय अजमेरी लाल से बातें करने पर पता चलता है कि वे किस कदर हताशा से भरे हुए हैं. वे वर्षों से कठपुतली का खेल दिखाते आए हैं. उनका पूरा परिवार इसी काम में लगा हुआ है. लेकिन आज उन्हें अपना पेट पालने के लिए मजदूरी करने जाना पड़ता है. कभी काम मिल जाता है तो कभी खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ता है.
अजमेरी लाल के पास जमा-पूंजी के नाम पर एक फटा हुआ तम्बू और उसमें रखी हुई कुछ चीज़ें ही हैं. उनके तम्बू में एक झोला है जिसमें कुछ कठपुतलियां रखी हुई हैं. एक पोटली है जिसमें सर्दी के फ़टे-पुराने चार-पांच कपड़े हैं. एक ढोलक है और लकड़ी का एक दरबार. तम्बू में एक ओर जमीन पर सोने की जगह है और दूसरी ओर तीन-चार बर्तन रखे हुए है. तम्बू के बाहर एक मिट्टी का चूल्हा है जिस पर वे जब बना सकते हैं अपना खाना बनाते हैं.
अजमेरी लाल मूलत राजस्थान के रहने वाले हैं और जैसा कि उनके नाम से स्पष्ट है वे घुमन्तू समुदाय ‘भाट’ से आते हैं. “हमारी कला सम्पूर्ण कला है. हम अनपढ़ जरूर हैं फिर भी हम खुद ही नाटक बनाते हैं, उनके संवाद याद करते हैं, कठपुतली बनाते हैं, उनको सजाते हैं फिर उनको नचाते हैं” अजमेरी लाल जो हमें बताते हैं उसका एक मतलब यह भी है कि इस कला में कई कलाओं का मिश्रण है – लेखन, नाट्य कला, चित्रकला, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र-निर्माण कला, रूप-सज्जा, संगीत, नृत्य इत्यादि.
“एक समय था जब हम गधों पर बैठकर गांव-गांव में जाते थे और अपनी कला के जरिए मौखिक इतिहास को सुनाते, सामाजिक प्रसंगों को अपने गीतों के जरिए लोगों के सामने रखते थे. गांव के बड़े-बूढ़े, महिलाएं और बच्चे बहुत चाव से हमें देखते थे. लेकिन आज समय बदल गया है. आज कोई भी हमें देखना पसंद नही करता. अब हम होटल और विदेशी सैलानियों पर ही निर्भर हो गए हैं” अजमेरी लाल बताते हैं.
ऐसा नहीं है कि ये हालात सिर्फ मध्य प्रदेश के लोक कलाकारों के ही हैं. कमोबेश यही हालत राजस्थान के कलाकारों की भी है. जयपुर की कठपुतली कॉलोनी में उम्र करीब 35 वर्ष की गुड्डी तम्बू के एक कोने में बैठकर किसी चीज़ को सिल रही हैं. उनके बुजर्ग सदियों से कठपुतली बनाते रहे हैं. गुड्डी भी यही काम करती हैं. उनके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं. पति को गुजरे तीन साल हो चुके हैं. हम उनसे पूछते हैं तो वे बताती हैं कि न तो उन्हें विधवा पेंशन मिलती है और न ही उनके पास बीपीएल राशन कार्ड है. वे जिस तम्बू में रहती हैं उसका 250 रुपये महीने का किराया है.
गुड्डी कहती हैं, “हमें तो लॉकडाउन में कोई सहायता नहीं मिली और न ही लॉकडाउन खुलने के बाद कुछ हो हुआ. हम दिन का खाना नजदीक के मंदिर में लगने वाले लंगर में खाते है और शाम को कभी कुछ बना लेते हैं और कभी ऐसे ही रहना पड़ता है.”
गुड्डी कहती हैं कि “मैं 52 अलग-अलग, रूप रंग और कद काठी की कठपुतली बनाती हूं. मेरी कठपुतली में राजस्थान के 24 राज परिवारों का वर्णन है. हम लोग राजस्थान के 24 राज परिवारों के इतिहास को कठपुतली नाच के जरिए बताते हैं. इसके अलावा हम मीरा, लैला-मजनूं की भी कठपुतली बनाते हैं.”
हिंदुस्तान मे पुतली निर्माण की चार शैलियां प्रचलित हैं – धागा पुतली, छाया पुतली, छड़ पुतली और दस्ताना पुतली. इन सभी के नाम उनके निर्माण में लगी सामग्री, बनावट और प्रदर्शन के तरीके आदि के आधार पर दिये गये हैं.
छाया पुतली
छाया पुतलियां अक्सर चमड़े से बनाई जाती हैं और वे चपटी या बहुत पतली होती हैं. इनके प्रदर्शन के लिए पर्दे पर पीछे से प्रकाश डाला जाता है और पुतलियों का संचालन प्रकाश स्रोत तथा पर्दे के बीच में किया जाता है. इनकी छायाकृतियां रंगीन भी हो सकती हैं. छाया पुतली की परंपरा ओडिशा, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित है. इनको क्षेत्रीय भाषाओं में अन्य नामों से जाना जाता है जैसे तोगलु गोम्बयेट्टा (कर्नाटक), तोलु बोम्मालट्टा (आंध्र प्रदेश), रावण छाया (ओडिशा) आदि छाया पुतलियों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं.
दस्ताना पुतली
इसे भुजा, कर या हथेली पुतली भी कहा जाता है. इसमें एक दस्तानानुमा कठपुतली होती है जिसमें हाथ डालकर तर्जनी (अंगूठे से सटी उंगली) को कठपुतली के माथे पर रखा जाता है तथा मध्यमा और अंगूठे को उसकी दोनों भुजाओं में. इस प्रकार अंगूठे और दो उंगलियों की सहायता से दस्ताना पुतली सजीव हो उठती है. भारत में दस्ताना पुतली की परंपरा उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल में लोकप्रिय है. केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू कहा जाता है. इनकी शुरुआत 18वीं शताब्दी में प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य कत्थकली के प्रभाव के कारण हुई. केरल के ये पुतली नाटक रामायण और महाभारत की कथाओं पर आधारित हैं.
छड़ पुतली
छड़ पुतली वैसे तो दस्ताना पुतली का ही अगला चरण है, लेकिन यह उससे काफी बड़ी होती है तथा नीचे स्थित छड़ों (डंडे) पर आधारित रहती है और उन्हीं से संचालित होती है. पुतली कला का यह रूप वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा में प्रचलित है. बंगाल का पुत्तल नाच, बिहार का यमपुरी आदि छड़ पुतली के उदाहरण हैं. ओडिशा की छड़ पुतलियां बहुत छोटी होती हैं. जापान की ‘बनराकू’ की तरह पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िले में आदमकद छड़ पुतलियां होती थीं, किंतु कठपुतलियों का यह रूप अब विलुप्त हो गया है.
धागा पुतली
इसमें लकड़ी के कई जोड़ों वाले अंग होते हैं जिनका संचालन धागों द्वारा किया जाता है. अंगों में कई जोड़ होने की वजह से ये पुतलियां काफी लचीली होती हैं. राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु में धागा पुतलियों की कला विकसित हुई. राजस्थान की कठपुतली, ओडिशा की कुनदेई, कर्नाटक की गोम्बयेट्टा तथा तमिलनाडु की बोम्मालट्टा धागा पुतली कला के प्रमुख उदाहरण हैं. लकड़ी की होने की वजह से सही मायनों में ये ही कठपुतली होती हैं – कठ यानी लकड़ी से बनी पुतलियां.
पुतली निर्माण शैली में राजस्थानी की धागा शैली बेहद ख़ास है. यहां की कठपुतलियों की आंखें, भोहें और होंठों का आकार उन्हें खास बनाता है. उनके पहनावे और गीतों में यहां के राजघरानों और आम जनजीवन की स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है.
भारत मे कठपुतली कला ज्ञात लोक कलाओं में सबसे पुरानी है. कुछ जानकारों के मुताबिक नाटकों के मंचन की शुरुआत इसके बाद ही हुई थी. यह कब से शुरु हुई इसकी कोई निश्चित तिथि तो नहीं हैं किंतु ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में लिखे गये पाणिनी के अष्टाध्यायी में इसका उल्लेख मिलता है. महाभारत और गीता जैसे धर्म ग्रंथों में भी इसका जिक्र है. पुतली कला की प्राचीनता के संबंध में प्रसिद्ध तमिल ग्रंथ ‘शिल्पादिकारम्’ में भी जानकारी मिलती है. और चर्चित कथा ‘सिंहासन बत्तीसी’ में विक्रमादित्य के सिंहासन की 32 पुतलियों का उल्लेख मिलता है.
राजस्थान के भाट समुदाय के अध्यक्ष धन्ना राम भाट (उम्र 80 वर्ष) बताते हैं कि “कठपुतली के खेल में जो 52 कठपुतलियां होती हैं वे अलग- अलग किरदारों को समर्पित होती हैं. हम पूरा मुगल दरबार सजाते हैं जिसे दिल्ली दरबार भी कहा जाता है. इनकी संख्या बत्तीस से बावन होने के पीछे कोई ठोस कारण नहीं पता… शायद जैसे जैसे राज परिवारों की संख्या बढ़ती गई, समाज मे नये नये समुदाय बने वैसे-वैसे कठपुतलियों की संख्या भी बढ़ती गई.”
“मौसम के मुताबिक कठपुतली के गीत भी बदल जाते हैं. पहले गांव की चौपाल में, शाम के समय, लकड़ी का दरबार लगाकर ये खेल दिखाया जाता था. इस खेल में 3-4 घंटे का समय लगता था” धन्ना राम आगे बताते हैं कि “बाजरे की कटाई के समय हमारा एक चर्चित लोक गीत है – “चोमाशयो लाग्यो रे, शियडो लाग्यो रे, म्हारी दोराणी-जेठानी रूस गई, जब चोमाशयो लाग्यो रे… बणी का मोरया बोल्या, शियडो लाग्यो रे… ”
धन्नाराम बताते हैं कि भाट लोग गांव-गांव में जाकर शाम को चौपाल में इस गीत को सुनाते, इस गीत में यह बताया है कि बारिश का समय हो गया है. अब मोर बोलने लगे गए हैं और बाजरे की फसल काटने का वक्त आ गया है. आप फसल काटना शुरु कर दीजिए. सामूहिक परिवार होता है तो देवरानी ओर जेठानी में रूठने-मनाने का सिलसिला चलता है जो इस गीत में मनोरंजन का हिस्सा बनाता है. हालांकि इसका मुख्य कार्य मौसम की सूचना देना था. ऐसे ही सोनी महिवाल, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, अकबर, भोपा-भोपी, लुहार-लुहारी, सरसों की कटाई के गीत, शादी-विवाह के समय बन्ना इत्यादि गीत भी पुतली कला की विशेषता रहे हैं.
हमारे जेहन में यह सवाल उभर सकता है कि जो कठपुतली कला मनोरंजन से लेकर जन जागृति तक का सशक्त माध्यम रही. जिसने हमारी सामूहिक स्मृतियों को गढ़ा. जो आज भी बच्चों में सर्जनात्मकता, सीखने की क्षमता का विकास करती है. ऐसा क्या हुआ कि यह कला महज होटलों, विदेशी सैलानियों और मेलों तक सिमट कर रह गई?
भारतीय लोक कला सिर्फ आजीविका कमाने का जरिया कभी नही रही बल्कि अपने विश्वासों, परंपराओं और मान्यताओं के अनुरूप अपने सामाजिक जीवन को ढालने के प्रयास करना इसका प्रमुख लक्ष्य रहा है. भारतीय समाज के सुख-दुःख, रीति-रिवाज़, परम्परा, इतिहास और धार्मिक विश्वास अर्थात जीवन के हरेक पक्ष की अभिव्यक्ति लोक कलाओं के माध्यम से होती रही है.
लोक कला की कच्ची सामग्री यानी उसके किरदार और कथानक उसी परिवेश से लिए जाते हैं जिसे यह समृद्ध बनाती है. लोक कलाकार की समाज के साथ जुगलबन्दी से उसकी कला विकसित होती है. यदि लोक कलाकार बचेगा, यह जुगलबंदी बचेगी तो ही लोक कलाएं बचेंगी.
आधुनिक दौर में दिल बहलाने के साधनों में अपार वृद्धि हुई है. आज महानगरों में रहने वाले अधिकांश बच्चों व युवाओं को कठपुतली के खेल के बारे में जानकारी तक नहीं है. वे हर वक्त मोबाइल और कंप्यूटर से चिपके रहते हैं. ऊपर से हम लोक कलाओं को संरक्षण देने की बात तो करते हैं लेकिन हम न तो लोक कलाकारों को संरक्षण दे रहे हैं और न ही उन्हें इसकी किसी प्रक्रिया में शामिल कर रहे हैं.
जानकारों के मुताबिक हालात ये हैं कि मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की कला से जुड़ी संस्थाओं को यह तक नही पता कि इनके पास कितने लोक कलाकार हैं, कितने तरह के फोक इंस्ट्रूमेंट्स हैं, कितने तरह की फोक संगीत की शैलियां हैं और इन राज्यों में कितनी तरह के फोक इंस्ट्रूमेंट समाप्त हो गए हैं. पिछले 15 वर्षों में उत्तर भारत के इन राज्यों में डाईंग आर्ट्स और उनके वाद्यों को बचाने के नाम पर करोड़ों के टेंडर जारी हुए हैं. उनका परिणाम क्या निकला यह किसी को नहीं पता.
उदयपुर के प्रख्यात संस्कृतिकर्मी विलास जानवे कहते हैं कि “ये लोक से कलाओं के बिछुड़ने का दौर है. लॉकडाउन ओर उससे उपजे हालातों का जो सबसे बड़ा भुक्तभोगी रहा है वो लोक कलाकार ही है. किन्तु किसी भी सरकार या विभाग का उनके लिए कुछ करना तो दूर, उनको किसी विमर्श तक में शामिल नहीं किया जाता.”
जानवे आगे कहते हैं कि ‘”हिंदुस्तान की विश्व गुरु की पहचान का बड़ा आधार हमारी ये रंग-बिरंगी सस्कृति ही है जिसे ये छुटभैये अधिकारी समाप्त करने में लगे हुए हैं. जब ये पहचान ही चली जायेगी तो विश्व गुरु कैसे बनेंगे.”
हमने अपनी पिछली रिपोर्ट में देखा था कि राजस्थान सरकार ने लॉकडाउन में लोक कलाकारों को सहायता देने के नाम पर किस तरह का खेल खेला है. अब राजस्थान सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग ने एक नया कारनामा किया है. लोक कलाकारों का डेटा बेस तैयार किया जा रहा है. यह डेटा बेस गूगल फॉर्म के जरिये तैयार हो रहा है. गूगल फॉर्म इतना लंबा-चौड़ा है जिसे भरने के लिए एक सप्ताह भी कम पड़ जाये. और यह गूगल फॉर्म भरेगा कौन? वे लोक कलाकार जिनमें से ज्यादातर को अपना नाम तक लिखना नहीं आता.
यह स्थापित तथ्य है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान ओर तमाम वे राज्य जो अपने लोक संगीत के लिए जाने जाते हैं, वहां अधिकांश लोक कलाकार अनपढ़ है. वे कहां से ये ताम-झाम करेंगे. सवाल यह है कि जब इन विभागों के पास लोक कलाकारों की कोई सूची नहीं है तो फिर आज तक इन्होंने किया क्या है? ये तो वे स्थान हैं जो कठिन समय में लोक कलाकार को थामते हैं उसके जीवन को उम्मीद देते हैं.
कठपुतली में छुपी संभावनाएं
शिक्षा का सशक्त और दिलचस्प माध्यम
जब बड़े शहरों के कुछ निजी विद्यालय बच्चों को शिक्षा देने के लिए कठपुतली कला को माध्यम बना सकते हैं तो सरकारी स्कूलों में ऐसा क्यों नही हो सकता? इससे लोक कला भी बचेगी, लोक कलाकार भी बचेगा और बच्चों की सीखने की क्षमता का विस्तार भी होगा.
आज दिल्ली, देहरादून, केरल इत्यादि स्थानों पर शिक्षा में कठपुतली का प्रयोग हो रहा है. आखिर यह कार्य मध्य प्रदेश, राजस्थान ओर छत्तीसगढ़ की सरकारें क्यों नहीं करतीं? यह हमें पता है कि कठपुतली के जरिये बच्चों में सर्जनात्मकता का विकास होता है. उनमें जानने की रुचि पैदा होती है तो हम इसका प्रयोग बड़े पैमाने पर क्यों नहीं करते?
सरकारी योजनाओं की जानकारी
जैसलमेर के क़िले के पास कठपुतली नचाने वाले ज्ञानी भाट बहुत उपयोगी और सुंदर सुझाव देते हुए कहते हैं कि अखबार में एक विज्ञापन देने के लिए विभिन्न सरकारें लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर देती हैं. पिछले दिनों मीडिया में छपी रिपोर्ट्स की माने तो केंद्र सरकार ने पिछले एक वर्ष में औसतन हर दिन एक करोड़ से ज्यादा रुपया मीडिया में योजनाओं की जानकारी देने में खर्च किया है.
‘हम ये अच्छे से जानते हैं कि अखबार पढ़ते कितने लोग हैं? डिजिटल न्यूज पोर्टल को देखते कितने लोग हैं. और यहां विज्ञापन केवल एक दिन के लिए छपता है जबकि उस पैसे में हमारे जैसे सेंकडों लोगों की जीविका चल सकती है. हम लोग गांव-गांव जाकर लोगों को अपनी कला के जरिये सरकारी योजनाओं की जानकारी दे सकते हैं. इससे इन योजनाओं की प्रभावशीलता बढ़ेगी. लोक कलाकारों को रोजगार मिलेगा और ये कला भी बचेगी.
बीमारियों के रोकथाम में उपयोग
किसी भी देश का स्वास्थ्य क्षेत्र तीन अप्रोच पर कार्य करता है – प्रिवेंटिव, क्यूरेटिव ओर प्रोमोटिव अप्रोच. भारत में 40 फीसदी बीमारियां रोकथाम से जुड़ी हैं. यदि ऐसी बीमारियों से मरने वालों की संख्या देखें तो इसमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ओर झारखंड सबसे आगे हैं. यदि इन बीमारियों से रोकथाम के उपाय कर लिये जाएं तो कुल स्वास्थ्य बजट का 40 फीसदी हिस्सा बचाया जा सकता है. कठपुतली कला इससे जुड़ी जानकारी को आम जन तक पहुचाने का सशक्त और प्रभावशाली माध्यम बन सकती है.
ज्यादातर राज्य सरकारों ने आज तक डाइंग आर्ट्स पर जो काम किया है उसे पब्लिक डोमेन में नहीं रखा गया है. सरकारी पैसे से लोककलाओं और कलाकारों पर जो डॉक्यूमेंट्री बनीं, जो किताबें छपीं, जितना शिल्प और फोक संगीत पर कार्य और शोध हुआ उसके बारे में कोई भी जानकारी हासिल करना संभव नहीं है.
सत्याग्रह ने राजस्थान सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग की नवनियुक्त सचिव मुग्धा सिन्हा को इस बारे में लिखा किन्तु उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मध्य प्रदेश के कला एवं संस्कृति विभाग का रवैया भी इस मामले में अलग नहीं था. हमने इस मामले में विभाग के पूर्व अधिकारियों से भी बात करने की कोशिश की तो ज्यादातर ने ऑन-रिकॉर्ड कुछ भी कहने से इनकार कर दिया.
पिछले 60 वर्षों से लोक कला व लोक वाद्य के संरक्षण में जुटे जैसलमेर मरु सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक नंद किशोर शर्मा कहते हैं कि “हमारे इन अधिकारियों ने कला केंद्रों को महज परफार्मिंग सेन्टर बनाकर छोड़ दिया है. कहीं कोई शोध, संरक्षण ओर संवर्धन का कार्य नहीं चल रहा.”
वे आगे कहते है कि “पूरे हिंदुस्तान भर में कोई भी राज्य यह नहीं कह सकता कि उसने लोक कलाकारों व लोक कला के संरक्षण हेतु कोई एक ठोस काम किया हो. वो समय दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढ़ियां हमारे इन कार्यों से शर्मिंदा होंगी कि कैसे उनके पुरखों ने सदियों पुरानी इस लोक संस्कृति को यूं ही समाप्त होने दिया.”
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