महात्मा गांधी

समाज | होली

जब महात्मा गांधी ने होली को ‘अन-होली’ (अपावन) त्योहार कहा…

अपने लंदन प्रवास के समय महात्मा गांधी ने ‘वेजिटेरियन’ नाम की पत्रिका में भारतीय त्योहारों पर लिखे अपने एक आलेख में होली को अन-होली कहा था

अव्यक्त | 17 मार्च 2022 | फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स

1888 में लगभग 18 साल के मोहनदास गांधी कानून की पढ़ाई करने लंदन को गए. वहां वे ‘वेजिटेरियन सोसायटी’ नाम की संस्था के सदस्य बने जो शाकाहार के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करती थी. यह संस्था ‘वेजिटेरियन’ नाम की पत्रिका भी निकालती थी. महात्मा गांधी ने इस पत्रिका के लिए कई आलेख लिखे थे. 22 साल के गांधी जब 1891 में पढ़ाई पूरी करके भारत वापस आ रहे थे, तो इस पत्रिका ने उनका एक लंबा साक्षात्कार भी प्रकाशित किया था. यह आलेख उन्होंने विशेष तौर पर ब्रिटिश पाठकों को ध्यान में रखकर लिखा था और इसमें हमें उस दौर में गुजरात में मनाई जानेवाली होली की झलक मिलती है.

‘वेजिटेरियन’ पत्रिका के लिए गांधी ने भारत के त्योहारों पर एक श्रृंखला लिखी थी. इसी श्रृंखला में 25 अप्रैल, 1891 को एक आलेख उन्होंने ‘होली’ पर भी लिखा था. इसमें उन्होंने होली और दिवाली का एक सुंदर तुलनात्मक विश्लेषण किया था. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि होली के अवसर पर विशेषकर महिलाओं के प्रति अशोभनीय व्यवहार और अश्लील भाषा के इस्तेमाल की वजह से उन्होंने इसे विनोदपूर्ण भाषा में अंग्रेजी का ‘अनहोली’ (Unholy) या अपावन त्योहार कहा था. हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई थी कि जैसे-जैसे भारतीयों में शिक्षा बढ़ेगी, वैसे-वैसे ये अश्लील प्रथाएं समाप्त होती जाएंगी. लेकिन आज सवा सौ साल बाद भी कथित शिक्षित तबकों में होली में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में बहुत अंतर नहीं आया है. इसलिए गांधी के उस आलेख को आज भी पढ़ना-पढ़ाना दिलचस्प और महत्वपूर्ण हो सकता है.

इस आलेख में गांधी लिखते हैं – ‘होली का त्योहार समय की दृष्टि से ईस्टर का जोड़ीदार है. होली हिन्दू वर्ष के पांचवें महीने फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाई जाती है. यह ठीक वसंत का मौसम होता है. पेड़-पौधे फूलते हैं. गरम कपड़े छोड़ दिए जाते हैं. महीन कपड़ों का चलन शुरू हो जाता है. जब हम मंदिरों में दर्शन करने जाते हैं, तो और भी प्रत्यक्ष हो जाता है कि वसंत ऋतु का आगमन हो गया है. किसी मंदिर में प्रविष्ट होते ही (और उसमें प्रविष्ट होने के लिए आपका हिंदू होना जरूरी है) आपको मधुर पुष्पों की सुवास ही सुवास मिलेगी.’

‘सीढ़ियों पर बैठे हुए भक्तजन ठाकुरजी के लिए मालाएं बनाते दिखलाई पड़ेंगे. फूलों में आपको चमेली, मोगरा आदि के सुंदर फूल देखने को मिलेंगे. जैसे ही दर्शन के लिए पट खोले गए कि आपको पूरे वेग से फुहार छोड़ते हुए फुहारे दिखाई देंगे, मंद-सुंगध पवन का आनंद मिलेगा. ठाकुर जी मृदुल रंगों के हलके वस्त्र धारण किए होंगे. सामने फूलों की राशियां और गले में मालाओं के पुंज उन्हें आपकी दृष्टि से लगभग छिपाए होंगे. वे इधर से उधर झुलाए जाते होंगे और उनका झूला भी सुगंधित जल छिड़की हुई हरी पत्तियों से सजा होगा.’

‘मंदिर के बाहर का दृश्य बहुत आह्लादकारी नहीं होता. वहां आपको होली के एक पखवाड़े पहले से अश्लील भाषा के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. छोटे-छोटे गांवों में तो स्त्रियों का बाहर निकलना ही कठिन होता है – उनपर कीचड़ फेंक दिया जाता है और अश्लील फब्तियां कसी जाती हैं. यही व्यवहार पुरुषों के साथ होता है और इसमें छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं माना जाता. लोग छोटी-छोटी टोलियां बना लेते हैं और फिर एक टोली दूसरी टोली के साथ अश्लील भाषा के प्रयोग और अश्लील गीत गाने में स्पर्धा करती है. सभी पुरुष और बच्चे इन घृणास्पद प्रतिस्पर्धाओं में शामिल होते हैं. केवल स्त्रियां शामिल नहीं होतीं.’

‘सच बात यह है कि इस पर्व में अश्लील शब्दों का प्रयोग बुरी रुचि का परिचायक नहीं माना जाता. जहां के लोग अज्ञान में डूबे हुए हैं, उन स्थानों में एक-दूसरे पर कीचड़ आदि भी फेंका जाता है. लोग दूसरों के कपड़ों पर भद्दे शब्द छाप देते हैं. और कहीं आप सफेद कपड़े पहनकर बाहर निकल गए, तो अवश्य ही आपको कीचड़ से सनकर वापस आना होगा. होली के दिन यह सब अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है. आप अपने घर में हों या बाहर हों, अश्लील शब्द तो आपके कानों को पीड़ा पहुंचाएंगे ही. अगर आप कहीं किसी मित्र के घर चले गए, तो मित्र जैसा होगा उसके अनुसार आप गंदे या खुशबूदार पानी से जरूर ही नहला दिए जाएंगे.

‘संध्या के समय लकड़ियों या उपलों का भारी ढेर लगाकर जलाया जाता है. वे ढेर अक्सर बीस-बीस फुट के या इससे भी ऊंचे होते हैं. लकड़ियों के ठूंठ इतने मोटे होते हैं कि उनकी आग सात-सात आठ-आठ रोज तक नहीं बुझती. दूसरे दिन लोग इस आग पर पानी गर्म करके उससे स्नान करते हैं. अब तक तो मैंने यही बताया है कि इस उत्सव का दुरुपयोग किस प्रकार किया जाता है. परंतु संतोष की बात है कि अब शिक्षा की उन्नति के साथ-साथ ये प्रथाएं धीरे-धीरे किंतु निश्चित रूप से मिट रही हैं.’

‘जो जरा धनी और सुसंस्कृत होते हैं, वे लोग इस त्योहार को बहुत सुंदर ढंग से मनाते हैं. उनमें कीचड़ की जगह रंग के पानी और सुवासित जल का उपयोग किया जाता है. लोटे भर-भरकर पानी फेंकने के बदले पानी छिड़कना भर काफी होता है. वसंती रंग का इन दिनों में सबसे ज्यादा उपयोग होता है. वह नारंगी रंग के टेसू के फूलों को उबालकर बनाया जाता है. समर्थ लोग गुलाब का जल भी काम में लाते हैं. मित्र और संबंधी एक-दूसरे से मिलते हैं, उनकी दावतें करते हैं और इस प्रकार उल्लास के साथ वसंत का आनंद लेते हैं.’

‘होली के ज्यादातर ‘अन-होली’ (अपावन) त्योहार से दिवाली के त्योहार में अनेक दृष्टियों से सुंदर भेद हैं. दिवाली का पर्व वर्षा के बाद ही शुरू हो जाता है. वर्षाकाल उपवासों का काल भी होता है, इसलिए उसके बाद दिवाली के दिनों के अच्छे-अच्छे भोजन तथा दावतें और भी अधिक आनंदकारी बन जाती हैं; इसके विपरीत, होली का त्योहार शीतकाल के बाद आता है. शीतकाल सब प्रकार के पौष्टिक आहार करने का मौसम होता है. होली के दिनों में ऐसे भोजन छोड़ दिए जाते हैं. दिवाली के अत्यंत पवित्र गीतों के बाद होली की अश्लील भाषा सुनाई देती है. फिर दिवाली में लोग सर्दी के कपड़े पहनना शुरू करते हैं, जबकि होली में उन्हें छोड़ देते हैं. दिवाली आश्विन की अमावस को होती है, फलतः उस दिन खूब रोशनी की जाती है; परंतु होली पूर्णिमा को होने के कारण उस दिन रोशनी अशोभन ही होगी.’

यह लिखा था गांधी ने 19वीं सदी के भारत में. आज हम 21वीं सदी का मनुष्य होने का दंभ भरते हैं. लेकिन होली जैसा त्योहार हमारी उस मनुष्योचित सभ्यता में छिपे कुछ स्याह रंगों को भी उजागर कर देता है. हर बार की होली में जिस प्रकार की खबरें आया करती हैं, उसमें यदि रत्तीभर भी सच्चाई है, तो ऐसी होली के लिए ‘अनहोली’ से भी ज्यादा विचारोत्तेजक शब्द तलाशने की जरूरत होगी.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022