Society | तीज-त्यौहार

जब त्यौहार एक-दूसरे को चिढ़ाने का माध्यम बन रहे हों तब गांधी को याद करना और भी जरूरी है

आज से 110 साल पहले महात्मा गांधी ने राम को हर धर्म के भारतीय के लिए माननीय बताया था. इसके 37 साल बाद उन्होंने दशहरा को मनाने का सही तरीका भी बताया था

अव्यक्त | 15 October 2021

गांधी जी जब उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए तो उन्हें भारत की बहुत याद आती थी. खासकर भारत के त्यौहारों की. 22 साल के गांधी ने उसी दौरान लंदन की ‘वेजिटेरियन’ पत्रिका में भारत के त्यौहारों पर एक लंबी शृंखला लिखी थी. इन लेखों में उन्होंने त्यौहारों के पौराणिक और कर्मकांडीय पक्ष से अलग लोकजीवन में उनके सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित किया था. आज जबकि भारत में त्यौहारों का राजनीतिकरण अपने चरम पर है और विभिन्न दृष्टिकोणों से उनका पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है, ऐसे में दशहरा मनाने के तरीके को लेकर महात्मा गांधी के विचारों को जानना दिलचस्प और विचारणीय हो सकता है.

अक्टूबर 1909 में लंदन में विजयादशमी के उपलक्ष्य में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. इसमें लंदन में रहने वाले सभी भारतीय धर्मावलंबियों को अतिथि के रूप में बुलाया गया था. एक भोज भी रखा गया था. कार्यक्रम में शामिल होने के लिए टिकट रखी गई थी और टिकट की कीमत थी चार शिलिंग. मोहनदास करमचंद गांधी ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी. स्वयं महात्मा गांधी के शब्दों में ‘इस कार्यक्रम में नारायणराव सावरकर (गणेश और विनायक सावरकर के सबसे बड़े भाई) ने रामायण की महत्ता पर बहुत ही जोशीला भाषण दिया था.’ इस कार्यक्रम में हुसैन दाउद और हाजी हबीब नाम के दो मुस्लिम भाई भी अतिथि के रूप में शामिल हुए थे. हुसैन दाउद ने इस कार्यक्रम में जेल की कई कविताएं गाकर सुनाई थीं. हाजी हबीब ने भारत के लिए मंगलकामना की. इस कार्यक्रम के अध्यक्ष के रूप में जब गांधी बोलने आए, तो उन्होंने कहा –

‘ऐतिहासिक पुरुष के रूप में रामचन्द्रजी को प्रत्येक भारतीय सम्मान दे सकता है. जिस देश में श्री रामचन्द्र सरीखे पुरुष हो गए हैं उस देश पर हिंदुओं, मुसलमानों, पारसियों – सभी को गर्व करना चाहिए. श्री रामचन्द्र जी महान भारतीय हो गए हैं, इस दृष्टि से वे प्रत्येक भारतीय के लिए माननीय हैं. हिंदुओं के लिए तो वे देवता-रूप हैं. अगर रामचन्द्रजी, सीताजी, लक्ष्मणजी और भरतजी जैसे लोग भारत में फिर पैदा हों तो भारत शीघ्र ही एक सुखी देश बन जाए. पहले तो यह याद रखना चाहिए कि रामचन्द्र जी ने देश-सेवा के योग्य बनने से पूर्व 14 बरस का वनवास भोगा. सीताजी ने बहुत दुःख सहन किया. और लक्ष्मणजी ने इतने साल तक नींद त्यागी और ब्रह्मचर्य का पालन किया. जब भारतीय ऐसा जीवन बिताएंगे तब वे स्वतंत्र ही माने जाएंगे. इससे भिन्न मार्ग अपनाने से भारत सुखी न होगा.’

लेकिन तबसे 37 साल बाद यानी 1946-47 के भारत में स्थिति एकदम बदल चुकी थी. सांप्रदायिक द्वेष और मूढ़ता के शिकार लोग आपस में बुरी तरह दंगा-फसाद कर रहे थे. त्यौहारों का स्वरूप भी आक्रामक हो चुका था. यह सद्भावना का अवसर न होकर एक-दूसरे को चिढ़ाने का माध्यम बन चुका था. इन सबके बीच महात्मा गांधी जैसे शख्स ही सभी पक्षों को निष्पक्ष और निर्भीक होकर अपनी बात समझाने की कोशिश कर रहे थे. इसी बीच किसी ने महात्मा गांधी को चिट्ठी लिखकर पूछा कि ऐसे वातावरण में हम लोग दशहरा कैसे मनाएं? क्या हम जुलूस निकालें, खाएं-पीएं और मौज मनाएं?

इसके जवाब में 3 अक्तूबर, 1946 की प्रार्थना-सभा में महात्मा गांधी ने कहा – ‘दशहरे का अर्थ रावण पर राम की विजय मनाना है जरूर, लेकिन राम ने हिंसा से विजय प्राप्त नहीं की थी. जब विभीषण ने रामचन्द्रजी से पूछा कि आप तो निःशस्त्र हैं, नंगे पैर और कवच-विहीन हैं, फिर शस्त्रों से सुसज्जित और रथ पर सवार शक्तिशाली रावण को कैसे हरा सकेंगे, तो राम ने उत्तर दिया कि श्रद्धा और पवित्रता से युद्ध में विजय प्राप्त होगी. आत्मसंयम ही राम का धनुष था. उनकी विजय बुराई पर अच्छाई की विजय थी. इसलिए अगर आप लोगों ने धर्म का अर्थ समझा है तो मेरी सलाह है कि आपको अपने घर पर ही चुपचाप प्रार्थना करते हुए दशहरा मनाना चाहिए.’

इसके 20 दिन बाद जब दशहरा आया, तो 22 अक्तूबर, 1946 की प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने कहा – ‘दशहरा क्या है? रामजी की जीत मनाने के लिए ही दशहरा है. पीछे कहते हैं कि एकादशी है, उस दिन तो राम का भरत के साथ मिलाप होगा. उसमें तो हमें संयम सीखना है, भलमनसाहत सीखनी है, धर्म क्या चीज है उसको सीखना है. अगर वह सीख लें तो हम दशहरा सच्चे अर्थ में मनाते हैं. दशहरे के दिन दुर्गा-पूजा भी होती है. वह क्या चीज है? हम सब खून के प्यासे रहें, वह दुर्गा का अर्थ नहीं है. दुर्गा का अर्थ यह है कि वह एक बड़ी शक्ति की प्रतीक है. उसकी उपासना करके हम ऊंचे चढ़ सकते हैं. इस तरह से दशहरा का यह मतलब नहीं है कि हम सभी दिनभर रूप, रंग, राग उड़ाएं.’

ठीक साल भर बाद 1947 के दशहरे में फिर से किसी ने गांधीजी से पूछा – ‘आप कहते हैं कि बदले की भावना अच्छी नहीं होती, परंतु आपके राम-भक्त तो हर साल रावण का पुतला जलाकर बदले की भावना को उकसाते हैं.’

जवाब ने गांधीजी ने कहा— ‘इसमें दो गलतियां हैं. एक तो यह कि ‘मेरे राम-भक्त’ कौन हैं, यह मैं जानता ही नहीं. ‘मेरा राम-भक्त’ अगर मैं हूं तो अच्छा है, उसका भी मुझको तो पता नहीं. राम-भक्त बनना कोई मामूली काम थोड़े ही है. …लेकिन आजकल ऐसा होता है कि लोग रावण का पुतला बना लेते हैं और राम उसको परास्त करते हैं. लेकिन हममें से रावण कौन होगा और राम कौन बनेगा? अगर कोई भी राम बन सकता है, तो फिर रावण कौन होगा? यह तो कथा है, लेकिन कथा में भी ऐसा मानते हैं कि राम तो ईश्वर है और रावण उसका दुश्मन. …मैं तो उसमें से यही सीखता हूं कि मनुष्य आपस में एक-दूसरे से बदला न लें. यदि मैं यह मान लूं कि यहां जो भाई बैठे हैं, वे रावण हैं और मैं राम हूं, तो मेरे जैसा उद्धत और मूर्ख आदमी और कौन होगा? मुझको क्या पता कि मैं राम हूं. कौन जानता है कि मुझमें कितनी दुष्टता भरी है. ईश्वर के दरबार में मैं महात्मा हूं या दुष्ट हूं यह कोई नहीं जानता. मुझको भी पूरा पता नहीं चलेगा कि मुझमें कितनी दुष्टता भरी है या कितनी साधुता है. यह जानने वाले तो रामजी ही हैं. वह ऊपर पड़ा है और सबको देखता है. कोई चीज उससे छिपी हुई नहीं है.’

गांधीजी ने आगे कहा – ‘इन्सान किसी से बदला लेने का अधिकारी नहीं है. अगर किसी से कुछ बुरा हुआ भी है, तो भी उससे बदला क्या लेना? अगर एक इंसान संपूर्ण है (हालांकि इंसान कभी संपूर्ण हो ही नहीं सकता, क्योंकि संपूर्ण तो केवल ईश्वर ही हो सकता है) फिर भी माना कि कोई इंसान संपूर्ण है और अन्य अपूर्ण हैं, तो भी क्या वह दूसरों को सजा देने या संहार करने का अधिकारी है. यह जो पुतला बनाते हैं विजयादशमी के दिन, उसका मेरी निगाह में तो यही मतलब है कि इसे यदि बदला न भी कहा जाए तो भी जो संहार और हिंसा इत्यादि करनी है, वह ईश्वर ही कर सकता है. तो क्या ईश्वर में ही यह गुण है कि हिंसा भी वही करे और अहिंसा भी वही? कुछ लोग तो ऐसा भी मान लेते हैं कि वे तो पूर्ण हैं लेकिन दूसरे लोग अपूर्ण हैं. इसलिए वे कानून को अपने हाथ में लेकर अपने-आप बादशाह बन जाते हैं और किसी पर आघात करना और किसी को कत्ल करना, यह सब करने लगते हैं. वह हिन्दुस्तान में हो भी रहा है; क्योंकि हम पागल हो गए हैं. राम-रावण का दृष्टांत लेकर हम खुद तो पापाचारी न बनें. हमें तो पुण्यवान बनना चाहिए. एक ओर राम का नाम लेना और दूसरी ओर पापाचारी बनना, यह ईश्वर की निंदा करना ही हुआ.’

यह कहा था गांधी ने. कभी-कभी लगता है तबसे अब तक भारत की नई पीढ़ियों को ज्ञान की दिशा में और एक अहिंसक और सुंदर समाज निर्माण की दिशा में कितना आगे बढ़ जाना चाहिए था. लेकिन स्थिति आज भी ज्यों-की-त्यों या उससे कहीं बदतर ही होती जा रही है. ऐसे अवसरों पर गांधीजी के अनुभूत विचारों को पढ़ना, समझना, आत्मसात करना और व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में अपनाना और भी जरूरी हो जाता है.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022