जो परम्परा का आग्रह करे वह परम्परावादी और जो आधुनिकता पर बल दे वह आधुनिकतावादी, महात्मा गांधी इस द्वैत का निर्णायक अपवाद हैं
अशोक वाजपेयी | 30 January 2022 | चित्रांकन: मनीषा यादव
प्रार्थना-सभा में
महात्मा गांधी ने प्रार्थना-सभा के रूप में एक अद्भुत आध्यात्मिक और सामाजिक-सांस्कृतिक मंच आविष्कृत किया था जिसमें सर्वधर्मप्रार्थना के अलावा वे हर दिन कुछ कहते थे. रज़ा पुस्तकमाला के अन्तर्गत हमने ‘प्रार्थना प्रवचन’ दो खण्डों में पुनप्रकाशित किये हैं. वे उसकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तकों में से हैं. अपनी हत्या के एक दिन पहले 29 जनवरी 1948 को गांधी जी ने अपनी अन्तिम प्रार्थना-सभा में जो कहा उसका एक उद्धरण दे रहा हूं: अन्तिम इसलिए कि 30 जनवरी को प्रार्थना-सभा में जाते हुए उनकी एक हिन्दू आतंकवादी ने हत्या कर दी.
‘… एक भाई थे, वे शरणार्थी थे या कौन थे, मैंने पूछा नहीं. उसने कहा कि तुमने बहुत ख़राबी तो कर ली है, क्या और करते जाओगे? इससे बेहतर है कि जाओ. बड़े हैं, महात्मा हैं तो क्या, हमारे काम तो बिगाड़ते ही हो. तुम हमको छोड़ दो, भूल जाओ, भागो. मैंने पूछा, कहां जाऊं? उन्होंने कहा, तुम हिमालय जाओ. तो मैंने डांटा. वे मेरे- जितने बुजुर्ग नहीं है- वैसे बुजुर्ग हैं, तगड़े हैं, मेरे- जैसे पांच-सात आदमी को चट कर सकते हैं. मैं तो महात्मा रहा, घबराहट में पड़ जाऊं तो मेरा क्या हाल होगा. तो मैंने हंसकर कहा कि क्या मैं आपके कहने से जाऊं, किसकी बात सुनूं? क्योंकि कोई कहता है कि यहीं रहो, कोई तारीफ़ करता है, कोई डांटता है, कोई गाली देता है. तो मैं क्या करूं? ईश्वर जो हुक्म करता है वही मैं करता हूं. आप कह सकते हैं कि आप ईश्वर को नहीं मानते हैं तो इतना तो करें कि मुझे अपने दिल के अनुसार करने दें. आप कह सकते हैं कि ईश्वर तो हम हैं. मैंने कहा तो परमेश्वर कहां जायेगा? ईश्वर तो एक है. हां यह ठीक है कि पंच परमेश्वर है, लेकिन यह पंच का सवाल नहीं है. दुखी का बेली (सहायता करनेवाला) परमेश्वर है, लेकिन दुखी खुद परमात्मा नहीं. जब मैं दावा करता हूं कि जो हर एक स्त्री है, मेरी सगी बहन है, लड़की है तो उसका दुख मेरा दुख है. आप ऐसा क्यों मानते हैं कि मैं दुख को नहीं जानता हूं, आपके दुखों में हिस्सा नहीं लेता, मैं हिन्दुओं और सिखों का दुश्मन हूं और मुसलमानों का दोस्त हूं. उसने साफ़-साफ़ कह दिया. कोई गाली देकर लिखता है, कोई अपने विवेक से लिखता है कि हमको छोड़ दो, चाहे हम दोज़ख में जायें तो क्या? तुमको क्या पड़ी है, तुम भागो? मैं किसी के कहने से कैसे भाग सकता हूं? किसी के कहने से मैं खि़दमतगार नहीं बना हूं, किसी के कहने से मैं मिट नहीं सकता हूं, ईश्वर के चाहने से मैं जो हूं बना हूं. ईश्वर को जो करना है वह करेगा. ईश्वर चाहता तो मुझको मार सकता है. मैं समझता हूं कि मैं ईश्वर की बात मानता हूं. एक डांटता है, दूसरे लोग मेरी तारीफ़ करते हैं तो मैं क्या करूं. मैं हिमालय क्यों नहीं जाता? वहां रहना तो मुझको पसन्द पड़ेगा. ऐसा नहीं है कि वहां मुझको खाने-पीने-ओढ़ने को नहीं मिलेगा. वहां जाकर शांति मिलेगी, लेकिन मैं अशान्ति में से शांति चाहता हूं, नहीं तो उस अशान्ति में मर जाना चाहता हूं. मेरा हिमालय यहीं है. आप सब हिमालय चलें तो मुझको भी आ लेते चलें.
‘मेरी चले तो…’
अपनी अन्तिम प्रार्थना-सभा में गांधी जी ने यह भी कहा:
‘… मेरी चले तो तो हमारा गवर्नर जनरल किसान होगा, हमारा बड़ा वज़ीर किसान होगा, सब कुछ किसान होगा, क्योंकि यहां का राजा किसान हैं. मुझे बचपन से सिखाया था- एक कविता है, ‘हे किसान, तू बादशाह है.’ किसान ज़मीन से न पैदा करे तो हम क्या खायेंगे? हिन्दुस्तान का सचमुच राजा तो वही है. लेकिन आज हम उसे गुलाम बनाकर बैठे हैं. आज किसान क्या करें? एम.ए. बनें? बी.ए. बनें?– ऐसा किया तो किसान मिट जायेगा. पीछे वह कुदाली नहीं चलायेगा. जो आदमी अपनी ज़मीन से पैदा करता है और खाता है सो जनरल बने, प्रधान बने तो हिन्दुस्तान की शक्ल बदल जायेगी. आज जो सड़ा पड़ा है वह, नहीं रहेगा.’
परंपरा और आधुनिकता
अकसर परम्परा और आधुनिकता को हम दो ध्रुवान्तों की तरह देखते हैं. जो परम्परा का आग्रह करे वह परम्परावादी और जो आधुनिकता पर बल दे वह आधुनिकतावादी. आमतौर पर यह विभाजन या द्वैत सटीक बैठता है सिवाय इसके कि उसके कई अपवाद होते हैं और ये अपवाद निर्णायक होते हैं. साहित्य और कलाओं से ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें कोई कृति या कृतिकार परम्परा को आधुनिकता से जोड़ देता है या जिसमें आधुनिकता परम्परा से उपजती नज़र आती है. भारत में अगर आधुनिकता अपनी बहुलता का दावा करे तो उसे भारतीय परम्परा की बहुलता से सामना कराया जा सकता है. सच तो यह है कि भारत में परम्परा और आधुनिकता, जैसे भारतीय चित्त और मनीषा, हमेशा बहुल हैं. अगर आधुनिकता अपने प्रश्नवाचक होने पर बहुत इसरार और घमण्ड करे तो उसे भारतीय परम्परा के वैदिक उद्गम से लेकर हज़ारों वर्षों की प्रश्नशीलता, विवाद और असहमतियों की याद दिलायी जा सकती है. आधार सहित यह प्रमाणित किया गया है कि हमारे भक्ति काल में एक तरह की देशज आधुनिकता ने आकार लिया था. यह भी कि दसवीं शताब्दी में दरभंगा के नव्यनैयायिक उदयनाचार्य ने हमारी परम्परा में शायद पहली बार ‘आधुनिक’ होने का दावा किया था, कश्मीर नैयायिकों को ‘प्राचीन’ कहकर.
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारतीय साहित्य और चिन्तन में परम्परा से संवाद करती आधुनिकता प्रस्तावित और रूपायित की थी. यह समय आधुनिकता की पितृभूमि माने जानेवाले यूरोप में तोड़े-फोड़-बिखराव-तनाव-विसंगति में जो आधुनिकता उभर रही थी उसका था और रवीन्द्र-प्रयत्न उसका विकल्प था. वे औपनिषदिक विवेक, कबीर की अक्खड़ प्रश्नशीलता और नये दबावों को लेकर एक अधिक लयात्मक, संगतिपूर्ण, स्मृतिसमृद्ध और विनयशील आधुनिकता सामने ला रहे थे. उनके प्रति पश्चिम का आरंभिक आकर्षण इसी वैकल्पिक आधुनिकता को लेकर था.
हिन्दी में प्रसाद का उदाहरण प्रासंगिक है. अपने महाकाव्य ‘कामायनी’ और नाटकों में प्रसाद हमारी परम्परा में से ऐसा आधुनिक उत्खनन कर रहे थे जो हमसे तब तक प्रायः अपरिचित रहा आया था. अगर उनके यहां निरी बुद्धि के वैभव पर प्रश्नचिह्न लगा है तो निरी संवेदना भी प्रश्नों के घेरे में आती है. जो भी हो, फिर यह ऐसी आधुनिकता है जिसके लिए परम्परा का सशक्त आधार सुलभ है.
साहित्य से बाहर लेकिन भारतीय संस्कृति में रसे-पगे गांधी जी के यहां परम्परा और आधुनिकता का द्वैत एक निराले रसायन में पिघल जाता है. यह अकारण नहीं है कि गांधी जी अपनी पारंपरिक आस्था को व्यक्त और सघन करने के लिए भक्ति काव्य का सहारा लेते हैं. वे तो आदर्श आधुनिक राज्य की कल्पना तक रामराज्य के रूप में करते हैं जिसका मुख्य तत्व सत्ता का विकेन्द्रीकरण है. इस सन्दर्भ में गांधी जी अपने समय में सबसे बड़े परम्परावादी हैं और सबसे बड़े आधुनिक भी और दोनों होने में उनके यहां कोई तनाव या द्वन्द्व या असमंजस नहीं है. वे सहजता से पारंपरिक हैं और उतनी ही सहजता से आधुनिक.
इस पर ध्यान दें कि गांधी जी ने कैसे, स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान, संघर्ष और मुक्ति की एक नयी भाषा और शब्दावली गढ़ी. उनके बीज शब्द थे, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, प्रार्थना, उपवास, सविनय अवज्ञा. यह सिर्फ़ नयी भाषा नहीं थी: उसको प्रेरित करनेवाला चिन्तन और उसमें व्यक्त राजनीति भी बिलकुल नयी थी. यह नहीं है कि अपनी आधुनिक राजनीति को ग्राह्य या लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने पारंपरिक शब्दावली का सहारा लिया. उन्होंने नयी राजनीति प्रस्तावित की और उसके लिए परंपरा से शब्द लिये. यह अलक्षित नहीं गया है कि उनके यहां राजनीति में आग्रह नीति पर अधिक और लगातार है.
हमारा स्वतंत्रता-संग्राम सही अर्थ में आधुनिकता के लिए संग्राम भी था. गांधी जी ने उसे, एक तरह से, परम्परा के विरोध में जाने के बजाय उसके साथ चलने की ओर ढकेला. इस संग्राम ने अन्ततः संसार भर से औपनिवेशिक साम्राज्य के समापन करने में सफलता पायी. पश्चिमी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, उसकी आधुनिकता का भी एक हिस्सा औपनिवेशिकता पर आधारित था. हमारे स्वतंत्रता-संग्राम की आधुनिकता ने इस शोषण-दमन पर आधारित आधुनिकता को परास्त कर दिया.
यह स्पष्ट है कि संसार में कोई भी स्वतंत्रता-संग्राम अहिंसक तौर पर न लड़ा गया, न ही सफल हुआ जैसा कि हमारा संग्राम. स्वयं परम्परा से जो शब्द गांधी जी ने चुने उनका ऐसा प्रयोग कभी नहीं हुआ था. उनकी आध्यात्मिक अनुगूंजों को बरक़रार रखते हुए गांधी जी ने उनमें नये सामाजिक और राजनैतिक आशय भरे. गांधी जी की हत्या परम्परा और आधुनिकता और उनकी भारतीयता पर एक कायर प्रहार थी.
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